दाढ़ी हर कोई रख और बढ़ा सकता है, इस का मैंटेनैंस भी कोई खास ज्यादा नहीं. विद्वान और परिपक्व दिखाने में दाढ़ी मददगार साबित होती है लेकिन कभीकभार यह दिक्कतें भी देती है. मु?ो बगावत की भनक पहले ही लग चुकी थी, मैं चाहता तो उस ‘दाढ़ी’ की दाढ़ी पकड़ उसे खींच सकता था,’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उन की मनमोहक दाढ़ी पर इतने अधिकारपूर्वक कौन बोल सकता है. जाहिर है, सिर्फ उद्धव ठाकरे जिन की वजह से एकनाथ शिंदे आज वहां विराजे हैं जहां तक पहुंचने के लिए अच्छेअच्छों को पापड़ बेलने पड़ते हैं. फिर शिंदे तो दाढ़ी उगने के दिनों में ठाणे में औटोरिकशा चलाते थे.

एक दिन यों ही शिवसेना की रैली में हायहाय उन्होंने की तो उन का समय ऐसा चमका कि आज वे महाराष्ट्र चला रहे हैं, जिस में 2 पहिए भाजपा के और 2 शिवसेना के हैं. कुछ कलपुर्जे एनसीपी और कांग्रेस के भी इस से जुड़े हैं. अब कब तक यह जुगाड़ वाली गाड़ी, बकौल उद्धव ठाकरे, इस दाढ़ी से चल पाएगी, यह राम जाने. कम ही लोग जानते हैं कि एकनाथ शिंदे के बचपन का नाम राहुल पांचाल था और वे सतारा के एक बेहद गरीब कुनबी समुदाय के परिवार से हैं. अपने औटोरिकशा में सवारियां ठूंस कर उन्हें एडजस्ट करने का तजरबा अब सरकार चलाने के काम आ रहा है.

उद्धव क्यों शिंदे से इतना चिढ़ते हैं कि उन का असली नाम जबां पर लाने में भी अपनी तौहीन सम?ाते हैं. यह खी?ा, तकलीफ या जलन कुछ भी कह लें किसी से छिपी नहीं रह गई है. महाराष्ट्र में अब हर कोई शिंदे को दाढ़ी नाम से ही बुलाता है. उन की घनी काली दाढ़ी है ही इतनी आईकैचर कि नजर उस पर ठहर कर रह जाती है. आजकल इतनी ‘हाई क्वालिटी’ की दाढि़यां कम ही देखने में आती हैं.

उद्धव के हमले पर शिंदे चुप नहीं रहे. जवाब में उन्होंने कहा कि इस दाढ़ी के हाथ में आप की नब्ज दबी है. कव्वाली स्टाइल के ये सवालजवाब आम लोगों को सम?ा नहीं आए कि कौन सी नब्ज यानी राज की बात हो रही है जिस के उजागर होने से महफिल में न जाने क्या हो जाएगा. सम?ादार लोगों ने दाढ़ी से ज्यादा कुछ नहीं सोचा और उस में भी यही सोचा कि जो भी हो, शिंदे की काली चमकती दाढ़ी का कोई जवाब नहीं. दाढ़ी हो तो शिंदे जैसी, नहीं तो हो ही न.

राजनीति में दाढ़ी की अपनी अलग अहमियत है. यह उस वक्त और बढ़ गई थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोनाकाल में दाढ़ी रखी थी. इस दाढ़ी में बड़े सस्पैंस थे. वजह, यह कोई ऐरीगैरी दाढ़ी नहीं थी. कांग्रेसियों और वामपंथियों को इस में भी कोई चालाकी और साजिश नजर आ रही थी लेकिन दक्षिणापंथी भक्तगण मोदी की दाढ़ी को वात्सल्य भाव से निहारे जा रहे थे. उन की नजर में मोदीजी गुरु वशिष्ठ और गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दिख रहे थे जबकि विरोधियों को उन की दाढ़ी का यह स्टाइल हिंदी फिल्मों के एक विलेन अनवर जैसा लग रहा था. इस दाढ़ी पर कई दिनों तक टीकाटिप्पणियां होती रहीं लेकिन वह सब भी बढ़ी दाढ़ी की तरह निरर्थक साबित हुआ, कोई निष्कर्ष नहीं निकला.

दाढ़ी और जीडीपी

कांग्रेसी नेता शशि थरूर भी मोदी की दाढ़ी को ले कर आंदोलित थे, जिस के लिए उन्होंने इंग्लिश के एक शब्द श्चशद्दशठ्ठशह्लह्म्शश्चद्ध4 का इस्तेमाल किया जिस का मतलब दाढ़ी बढ़ाना होता है. नएनए शब्द लौंच करने के लिए पहचाने जाने वाले थरूर ने एक ट्वीट के जरिए यह तक साबित कर दिया था कि जैसेजैसे जीडीपी गिर रही है वैसेवैसे मोदी की दाढ़ी बढ़ रही है. इस बाबत उन्होंने मोदी के दाढ़ीयुक्त चेहरे के 5 फोटोज भी शेयर किए थे जिन में दाढ़ी क्रमश: बढ़ती हुई नजर आ रही है.

इसी के साथ उन्होंने गिरती हुई जीडीपी के आंकड़े भी शेयर किए थे. इसे ग्राफिक्स इलस्ट्रेशन बताते हुए थरूर ने बढ़ती का नाम दाढ़ी और गिरती का नाम जीडीपी जैसी बात कर दी थी तो मोदीभक्त उन पर भड़क गए थे. उन्हें मोदी तो मोदी, उन की दाढ़ी तक की बुराई सुनना गवारा नहीं था और न आज है. क्योंकि, मोदी उन के आदर्श, आराध्य और प्रभु हैं.

पर ये लोग दाढ़ी के जरिए देश की तरक्की का ग्राफ दे कर थरूर के नहले पर दहला नहीं जड़ पाए थे. अंधभक्ति का एक बड़ा दुर्गुण यही है कि उस के पास सम्यक दृष्टि नहीं होती, फिर तर्कवर्क करना तो दूर की बात है.

मोदी की बढ़ी दाढ़ी के बवाल का जवाब कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दिया था. उन की बढ़ी दाढ़ी पर भी खूब कमैंटबाजी हुई थी. भगवा गैंग में से किसी ने ताना मारा था कि दाढ़ी बढ़ा लेने से आप प्रधानमंत्री नहीं बन जाएंगे. मोदी समर्थक और भक्तों को राहुल की दाढ़ी इतनी चुभी थी कि उन्होंने इस की तुलना सद्दाम हुसैन की दाढ़ी से कर दी थी. असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने गुजरात में चुनावप्रचार के दौरान जैसे ही यह कहा कि दाढ़ी के चलते राहुल का चेहरा सद्दाम हुसैन जैसा होता जा रहा है, राहुलभक्त भी हावहाव करते उन पर टूट पड़े थे.

कांग्रेसी दिग्गज दिग्विजय सिंह ने कहा था यह वह व्यक्ति है जो कांग्रेस के नेताओं के पैर पकड़ता था. उन को शर्म आनी चाहिए आज वे जो भी हैं कांग्रेस की वजह से हैं. लेकिन हेमंत शर्मा नहीं शरमाए. शर्म तो उन्होंने तभी बेच खाई थी जिस दिन कांग्रेस छोड़ भाजपा जौइन की थी.

इस से ज्यादा चुभने वाली बात अलका लाम्बा ने यह कही कि अच्छा हुआ जब हेमंत बिस्वा राहुल से मिलने गए थे तब राहुल ने उन के बजाय अपने वफादार कुत्ते को तरजीह दी. तब हेमंत बिस्वा को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि राहुल की दाढ़ी भी उन्हें बेइज्जत करा देगी.

दाढ़ी से परे दिलचस्प किस्सा राहुल के कुत्ते का है जिसे हेमंत जबतब सुनाया करते हैं कि एक बार जब वे राहुल से मिलने उन के घर पहुंचे तो उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी और अपने कुत्ते को बिस्कुट खिलाते पुचकारते रहे. अब राहुल ने उन्हें क्यों नहीं पुचकारा, यह भी कोई सस्पैंस की बात नहीं रह गई थी जो वे अपने मुंह से भाजपा की भाषा बोलने लगे थे.

खैर, वफादारी का इनाम हेमंत को भी मिला और भाजपा ने उन्हें सुग्रीव व विभीषण की तरह गले लगाते उन का राजतिलक कर दिया यानी असम का मुख्यमंत्री बना दिया, जिस के एवज में वे आज तक मोदी के सामने नतमस्तक रहते हैं और राम नामी इतने हो गए हैं कि असम से सभी दाढ़ी वालों को खदेड़ने की योजनाएं बनाते रहते हैं.

नरेंद्र मोदी की दाढ़ी ज्यादा चर्चित रही थी या राहुल गांधी की, यह तो कोई नहीं बता पाया लेकिन एक फर्क लोगों ने साफ देखा कि राहुल की दाढ़ी खिचड़ी दाढ़ी है, उस में आधे बाल काले हैं जबकि मोदी की दाढ़ी पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखी ?ाकास सफेद है. इस का ताल्लुक उम्र से है कि अभी राहुल गांधी जवान हैं जबकि मोदीजी वानप्रस्थ आश्रम की उम्र को भी पार कर चुके हैं. लेकिन वे कुछ भी हो जाए अब कुरसी नहीं छोड़ने वाले. उम्र उन की राह में बाधा नहीं हो सकती.

अब मुमकिन है कि वे 400 पार की मंशा के लिए फिर से दाढ़ी न बढ़ाने लगें, हालांकि इस की उम्मीद कम है, फिर भी याद यह रखा जाना चाहिए कि वे मोदी हैं और मोदीजी कुछ भी कर सकते हैं, उन की मरजी.

दाढ़ी का रिवाज

दाढ़ी रखने का रिवाज मानव सभ्यता से मेल खाता हुआ है जिस का उद्भव धर्म से हुआ. हालांकि दाढ़ी खुद धर्मनिरपेक्ष है लेकिन इस दौर में दाढ़ी का भी धर्म होने लगा है. नरेंद्र मोदी ने कभी लोगों को वेशभूषा से पहचानने का मशवरा सार्वजनिक मंच से दिया था तो कई दिग्गज मुसलिम नेता तिलमिला उठे थे कि देखो, उन का इशारा मुसलमानों के कपड़ों और दाढ़ी की तरफ है. इस सच से हर कोई रोज रूबरू होता है कि हिंदुओं की दाढ़ी मुसलमानों की दाढ़ी से भिन्न होती है. इस विवाद से परे देखें तो दाढ़ी धर्मगुरुओं के चेहरे पर हमेशा से चिपकी रही है. उन की देखादेखी साधु और मौलाना वगैरह भी दाढ़ी रखते हैं.

लेकिन ?ां?ाट उस वक्त खड़ा होने लगा जब साधुओं के अलावा शैतानों ने भी दाढ़ी रखनी शुरू कर दी. वे अपनी पहचान छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं जबकि धार्मिक लोग पहचान उजागर करने के लिए दाढ़ी को फलनेफूलने देते हैं. चंबल के डाकू भी दाढ़ी रखते हैं और अंडरवर्ल्ड के डौन भी व गलियों के गुंडे भी. इसीलिए रोते छोटे बच्चों को चुप कराने के लिए यह कहते डराया जाता है कि चुप हो जा, नहीं तो ?ाले और दाढ़ी वाला बाबा आ जाएगा. दाढ़ी न होती तो ये बच्चे भी बाबा से न डरते. अब थोड़ा बदलाव आया है कि अधिकतर गुंडे, डौन वगैरह क्लीन शेव रहने लगे हैं.

साहित्यिक दाढि़यां

राजनीतिक और धार्मिक दाढि़यों के बाद साहित्यिक दाढि़यां खूब प्रसिद्ध हुईं. इतनी हुईं कि रवींद्रनाथ टैगोर की दाढ़ी अपनेआप में ब्रैंड बन गई. 70-80 के दशक में दाढ़ी रखने के शौकीन युवा सैलून जा कर टैगोर कट दाढ़ी की मांग करते थे और जो समाज का लिहाज नहीं करते थे वे हिटलर कट दाढ़ी रखते थे. कवियों और शायरों की तो पहचान ही उन की दाढि़यों से होती है. तुकबंदी और पैरोडी के लिए मशहूर हास्य कवि काका हाथरसी की दाढ़ी भी अल्पकाल के लिए ब्रैंड बनी थी.

पंत और निराला की दाढि़यों की नकल कम ही हुई लेकिन अगर किसी युवा की दाढ़ी बढ़ी हुई दिखती है तो उसे मजनू, शायर, कवि और फिलौसफर जैसे संबोधनों से नवाज दिया जाता है. इधर, कुछ सालों से लोगों की राय दाढ़ी के बारे में बदली है क्योंकि उन का स्टाइल फैशन के तहत आने लगा है जो फिल्मों से प्रेरित होती हैं.

फिल्मी दाढि़यां

अमिताभ बच्चन ने जब फ्रैंच कट दाढ़ी रखी थी, समूचे युवा आंदोलित हो उठे थे. फ्रैंच कट दाढ़ी रखने की होड़ ऐसी मची थी कि नाइयों की शामत आ गई थी. अमिताभ बच्चन की दाढ़ी के आगे मोदी या राहुल की दाढ़ी कहीं नहीं ठहरती. एक नामी अखबार ने तो अमिताभ की दाढ़ी पर संपादकीय ही लिख डाला था जबकि संपादकीय आमतौर पर गंभीर सामयिक विषयों पर लिखा जाता है. फिल्मों में खलनायकों की दाढ़ी नायकों की दाढ़ी से ज्यादा लोकप्रिय होती है. ‘अमर अकबर एंथोनी’ फिल्म में प्राण ने 3 तरह की दाढि़यां रखी थीं.

बढ़ी दाढ़ी अगर विलेन के लिए अनिवार्यता थी तो क्लीन शेव रहना हीरो की अनिवार्यता थी. इस से ही दर्शक दोनों में भेद कर पाता था. यह और बात है कई फिल्मों में नायक को दाढ़ी रखनी पड़ी और विलेन क्लीन शेव रहा.

शक्ति कपूर, रंजीत और गुलशन ग्रोवर अधिकतर फिल्मों में दाढ़ीविहीन दिखे. हीरो ने कहानी की मांग के मुताबिक दाढ़ी रखी. ‘गाइड’ फिल्म में देवानंद की दाढ़ी और ‘क्रोधी’ फिल्म में धर्मेंद्र की दाढ़ी कहानी की मांग थी.

नए दौर के नायकों में नवीन कुमार गौड़ा भी हैं जिन्हें यश नाम से जाना जाता है और जो कन्नड़ सिनेमा के अभिनेता हैं. फिल्म ‘केजीएफ’ में दाढ़ी वाले लुक से वे छा गए. कार्तिक आर्यन, आयुष्मान खुराना और रणबीर कपूर भी किरदार के हिसाब से दाढ़ी रख लेते हैं लेकिन वे लहलहाती हुई नहीं होतीं, 3-4 दिन की बढ़ी हुई होती हैं.

यही चलन आज के दौर के युवाओं में ज्यादा देखने में आता है. वे डेली शेव करते हैं. बात युवाओं की हो तो दाढ़ी के माने उन के लिए अलग होते हैं. आमतौर पर युवा फोड़े, फुंसी और मुंहासे छिपाने के लिए दाढ़ी बढ़ाते हैं. कालेज के शुरुआती दिनों में अधिकतर युवा दाढ़ी बढ़ाते हैं पर उस के 2 इंच क्रौस होते ही घबरा भी उठते हैं और फिर सफाचट हो जाते हैं. आजकल की प्रेमिकाओं और पत्नियों को दाढ़ी कम ही भाती है.

दाढ़ी की महिमा अनंत है. इतिहास में अगर दक्षिण और दक्षिणापंथियों की दाढि़यां दर्ज हैं तो मार्क्स और एंगल्स की दाढि़यां भी किसी से उन्नीस नहीं थीं. उन की दाढ़ी में तिनके न के बराबर थे, इसलिए बेचारे अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं. ज्यादा तिनके वाली दाढ़ी दुनियाभर में चल रही है.

गुरुनानक, वशिष्ठ, भीष्म पितामह, दशरथ, रावण, वेदव्यास और कबीर तक की दाढि़यां कम मशहूर नहीं हुईं. कई विदेशी दाढि़यों ने भी लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था लेकिन उन में अधिकतर वैज्ञानिक ज्यादा थे, मसलन गैलेलियो, ग्राहम बैल, अल्फ्रेड नोबेल, चार्ल्स डार्विन वगैरह. लेकिन ये सब भी गुजरे कल की बात हो चले हैं. वैज्ञानिक अब दाढ़ी से बहुत ज्यादा मोह नहीं रखते.

इधर, कौर्पोरेट कल्चर के चलते भी दाढि़यां कम रखी जा रही हैं क्योंकि दाढ़ी न रखना या न बढ़ाना साहबी की निशानी मानी जाती है जो अलिखित वसीयत में अंगरेज दे गए हैं. कलैक्टर, डाक्टर और इंजीनियर से ले कर पटवारी व ड्राइवर, कंडक्टर तक दाढ़ी नहीं बढ़ाते. मुमकिन है यह उन के प्रोफैशन की मांग हो लेकिन यह नपातुला सच है कि कोई 85 फीसदी मर्द जिंदगी में एक न एक बार दाढ़ी जरूर बढ़ाता है.

कोरोना के कहर के दौरान तो थोक में दाढि़यां बढ़ीं थीं क्योंकि किसी को बाहर नहीं निकलना था. उस अप्रिय और बुरे दौर के हंसीमजाक में पत्नियां पतियों को भिक्षुक तक कहने लगी थीं. दाढ़ी पुराण के संक्षिप्त वर्णन के बाद समापन इन शब्दों के साथ कि उद्धव ठाकरे जैसे एकनाथ शिंदे को दाढ़ी कह कर संबोधित करते हैं वैसे ही उन की तरह हर दाढ़ी वाले का नामकरण रिश्ते के साथ होता है. जैसे दाढ़ी वाले फूफा, दाढ़ी वाले मौसा और दाढ़ी वाले मामा वगैरह जो हर किसी की रिश्तेदारी में निकल ही आते हैं. लेकिन, अपने पिता को कभी कोई दाढ़ी वाले पापा नहीं कहता.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...