खबर कुछ इस अंदाज में आई थी मानो लुप्त होती किसी दुर्लभ प्रजाति का कोई पक्षी दिख गया हो. ‘चंबल इलाके में डकैत फिर सक्रिय’ के मुकाबले अधिकांश खबरचियों ने हैडिंग यह दी कि ‘चंबल में रामसहाय गुर्जर का मूवमैंट देखा गया’. अरसे बाद सुना यह भी गया कि इस दस्यु पर सरकार 1975 की ‘शोले’ फिल्म के गब्बर सिंह की तरह 50 हजार रुपए का इनाम रखा है. यह खबर चिंताजनक थी या नहीं, यह तय कर पाना मुश्किल काम है. खुशी की बात यह रही कि चंबल के लोगों ने इस पर मिठाई नहीं बांटी कि हमारी पहचान अभी भी कायम है.

एक वक्त था जब चंबल के डाकुओं के नाम से देश कांपता था. मोहर सिंह, माधो सिंह, पान सिंह, मान सिंह, पुतलीबाई, फूलन देवी, सीमा परिहार और सरला जाटव जैसे दर्जनों नाम दहशत के पर्याय होते थे. डाकुओं पर कहानिया लिखी गईं, उपन्यास लिखे गए और इफरात से फिल्में भी बनीं. जिन में से कईयों ने तो रिकौर्ड बना दिए, ‘गंगा जमुना’, ‘मुझे जीने दो’, ‘मेरा गांव मेरा देश’, ‘शोले’ से ले कर ‘बैंडिट क्वीन’ होते हुए ‘पान सिंह तोमर’ और ‘चाइना गेट’ तक फिल्में खूब चलीं क्योंकि ये सभी हकीकत के बहुत नजदीक थीं.

अब डकैत और डकैती गुजरे कल की बातें हो चुकी हैं. न वे बीहड़ और अड्डे हैं, न घोड़ों की टापों की आवाज है, न अपहरण हैं, न फिरौतियां हैं और न जय मां भवानी के नारे हैं. ये क्यों नहीं हैं, इस सवाल का जवाब बहुत छोटे में यह कहते दिया जा सकता है कि बढ़ता शहरीकरण और सड़कीकरण डाकुओं के खात्मे की बड़ी वजह है. जंगलों की कटाई का फर्क भी पड़ा है.

ऐसे में रामसहाय गुर्जर का प्रगटीकरण, जिसे बाघ की तरह के मूवमैंट की संज्ञा दी गई, एक खौफजदा अतीत की याद दिलाता है. यह और बात है कि यह इनामी डकैत ज्यादा दिन बच नहीं पाएगा. वजह, वह टैक्नोलौजी है जिस के चलते अब कोई बहुत ज्यादा दिनों तक खुद को छिपा कर नहीं रख सकता.

रामसहाय गुर्जर के बारे में काफीकुछ जानकारियां पुलिस ने शेयर की हैं जिन में उस का या उस के गिरोह के किसी सदस्य का मोबाइल नंबर नहीं हैं जो कि नए दौर का मुखबिर है. जिस दिन पुलिस को किसी डाकू का मोबाइल नंबर मिल गया उसी दिन उस की लोकेशन ट्रेस कर थोड़ी सी धायंधायं के बाद यह खबर आएगी कि चंबल का आखिरी डाकू भी मारा या पकड़ा गया.

मुमकिन है, कुछ दिनों बाद फिर कोई टुटपुंजिया डाकू पैदा हो जाए लेकिन यह बात किसी सबूत की मुहताज नहीं कि अब इस पेशे की कोई इज्जत या पूछपरख नहीं रह गई है. मोबाइल फोन के चलते लोग डाकुओं से डरते नहीं हैं. अब डाकू भी पहले से दिलेर नहीं रहे जो मरना पसंद करते थे पर अपने उसूल नहीं छोड़ते थे.

नए दौर के डाकू

यह बात जरूर हैरत और रिसर्च की है कि जिन वजहों के चलते लोग डकैत बनते थे वे खत्म नहीं हुई हैं, मसलन शोषण, जातिगत अत्याचार और बदला वगैरह. बेरोजगारी किसी के डाकू बनने की कभी अहम वजह नहीं रही. इन में से भी अधिकतर के डाकू बनने की वजह प्रतिशोध रहा. ठीक वैसे ही जैसे दक्षिणी राज्यों सहित पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बिहार के कुछ इलाकों में नक्सलवाद पनपा था. डाकुओं की कोई घोषित विचारधारा नहीं होती, इसलिए उन्हें किसी वाद से नहीं जोड़ा गया.

डाकुओं का इतिहास बताता है कि लगभग सभी बदले की आग में जलते और शोषण व अत्याचार से मुक्ति के लिए बीहड़ों में कूदे. दलित अत्याचार देशभर की आम समस्या रही है. ठाकुर टाइप के जमींदार जो कहर दलितों पर ढाते थे उसे देख अच्छेअच्छों का दिल कांप जाता था.

फूलन देवी के डाकू बन जाने की वजह ऊंची जाति वाले दबंगों के जुल्मोसितम थे. अब दलित डाकू नहीं बनते, तो उस की भी कई वजहें हैं जिन में से अहम है उन्हें, अलग से ही सही, मंदिरों का मिल जाना. जिन में वे भी सवर्णों की तरह पूजापाठ, यज्ञ, हवन और भंडारे आदि करते रहते हैं. इस से उन्हें यह गलतफहमी हो आती है कि वे भी ऊंची जाति वाले हो गए हैं.

डकैती अब अहिंसक भी हो चली है जिस में डकैत कहीं नहीं जाते. वे अपनी जगह पर बैठेबैठे डाका डालते हैं. इस में टैक्निकल नौलेज एक अनिवार्य शर्त है. गलीगली में कंप्यूटर के जानकार पैदा हो गए हैं. कुछ इलाके तो चंबल की तरह मशहूर हो गए हैं जिन में प्रमुख हैं झारखंड का जामताड़ा और हरियाणा का नूंह जो सांप्रदायिकता के लिए भी कुख्यात है. नूंह के दंगे और गौकशी वगैरह तो होलीदीवाली जैसे त्योहरों की तरह एक नियमित अंतराल से होते रहते हैं.

परंपरागत डकैती बनाम साइबर डकैती

अब जो नए इलाके विकसित हो रहे हैं उन में राजस्थान के भरतपुर और उत्तर प्रदेश के मथुरा के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. ये साइबर डकैत हैं जिन के हाथ में रायफल नहीं, बल्कि लैपटौप होता है. समानता इतनी है कि ये भी योजनाबद्ध तरीके से अपनी डकैती को अंजाम देते हैं और भी कुछ समानताएं हैं जो इन्हें परंपरागत डाकुओं के समकक्ष ठहराती हैं. मसलन, ये भी बहुत ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं होते.

पहले चंबल के युवा बंदूक उठा कर बीहड़ में कूदते थे. ये लोग हाथ में मोबाइल और लैपटौप ले कर किसी छोटे से मकान या झोंपड़े में इत्मीनान से बैठे लोगों को फोन कर मीठी सी आवाज में कह रहे होते हैं कि ‘फलां बैंक से बोल रहा हूं सर, आप को जानकर खुशी होगी कि हमारे बैंक ने आप के क्रैडिट कार्ड को अपग्रेड करने का फैसला लिया है. अब आप की क्रैडिट लिमिट बढ़ाई जा रही है और इस के लिए आप से अलग से कोई चार्ज नहीं लिया जाएगा.’ बंदा अगर झांसे में आता दिखता है तो अंजाम वही होता है जो कहीं और के नहीं बल्कि चंबल इलाके के ही रायला के निवासी हरजीराम धाकड़ का हुआ था.

हरजीराम संयुक्त चंबल परियोजना के डिप्टी प्रोजैक्ट मैनेजर हैं. एक दिन उन के पास बैंक के नाम से एक लड़की का कौल आया कि आप के क्रैडिट कार्ड के रिवार्ड पौइंट रिडीम करने के लिए एक मैसेज लिंक सहित भेजा गया है. आप उस लिंक पर जा कर अपना बेनिफिट ले लें. वे तो लिंक पर गए पर सकते में उस वक्त आ गए जब उन के खाते से एक लाख 83 हजार 64 रुपए उड़ गए.

साइबर डकैतों का यह गिरोह भीलवाड़ा का था, भरतपुर का था या मथुरा का, कहा नहीं जा सकता लेकिन इन का जलवा वही है जो अब से कोई 40-50 साल पहले चंबल के डकैतों का आगरा से ले कर दतिया तक और सतना से ले कर शिवपुरी तक हुआ करता था.

तब के बंदूकधारी डकैत आम लोगों के डर का फायदा उठाते कई बार तो पहले ही गांव के साहूकार, जमींदार या बनिए को चिट्ठी भेज देते थे कि ‘फलां अमावस की रात तुम्हारे यहां डाका डाला जाएगा. अगर बचना चाहते हो तो 25 हजार रुपए (70-80 के दशक में यह रकम बहुत होती थी) अमुक काली मंदिर के टीले पर रख जाओ, नहीं तो…’

यह चिट्ठी, दरअसल, बैंक के विदड्राल फौर्म की तरह होती थी जिस में राशि डाकू ही भर कर भेजते थे. पीड़ित बेचारा पुलिस वगैरह के लफड़ेपचड़े में नहीं पड़ता था क्योंकि उसे अनुभवों के आधार पर मालूम रहता था कि अव्वल तो पुलिस मौका ए वारदात पर पहुंचेगी ही नहीं, और पहुंच भी गई तो दूर से थोड़ीबहुत ठायंठायं कर वापस चली जाएगी जिस का लिहाज करते डाकू भाग तो जाएंगे लेकिन कुछ दिनों बाद उस के बेटे या बेटी के अपहरण के वक्त पुलिस मौजूद नहीं रहेगी. लिहाजा, डील बिना किस हीलहुज्जत के संपन्न हो जाती थी.

साइबर डकैत लोगों के लालच का फायदा उठाते हैं. वे पीड़ित को मोबाइल फोन के जरिए दाना डालते हैं कि अमेजन पर 16 हजार रुपए की कीमत वाला स्मार्टफोन महज 6 हजार रुपए में मिल रहा है लेकिन यह औफर आप जैसों के लिए कुछ ही घंटों के लिए है और सिर्फ औनलाइन पेमैंट पर ही उपलब्ध है. दस में से एकाध की अक्ल पर तो पत्थर पड़ना तय होता है जो 6 हजार रुपए का भुगतान कर देता है और फिर इंतजार करता रहता है कि अब डिलीवरी आया कि तब आया. लेकिन उसे नहीं आना होता तो वह नहीं आता और लुटनेपिटने वाला अपने समय को कोस कर चुप हो जाता है. कुछ हिम्मत वाले ही होते हैं जो साइबर या सादा पुलिस में रिपोर्ट लिखाने पहुंच जाते हैं. इस से आमतौर पर होताजाता कुछ नहीं, बल्कि साइबर फ्रौड या डकैती के आंकड़े में एक नंबर और जुड़ जाता है.

और ये डिजिटल दस्यु हसीनाएं

ऐसा ही एक आंकड़ा ग्वालियर के एक बुजुर्ग का है जो लाखों मर्दों की तरह एक खूबसूरत लड़की से न्यूड वीडियोकौल के चक्कर में लाखों रुपए से हाथ धो बैठे और लंबे वक्त तक मानसिक तनाव झेला सो अलग.

80 वर्षीय रिटायर्ड मिलिट्री अधिकारी श्यामसुंदर (बदला हुआ नाम) शहर के अनुपम नगर में रहते हैं. हुआ बस इतना ही एक दिन उन के पास एक युवती का व्हाट्सऐप कौल आई. कौल उठाते ही लड़की नग्न हो गई और सैक्सी बातें करने लगी. थोड़ी देर में ही श्यामसुंदर ने कौल काट दी.

कुछ देर बाद पता चला कि उन की न्यूड कौल यानी फिल्म बन चुकी है. लड़की ने फोन कर उन्हें धमकी दी कि तुरंत 20 हजार रुपए दो, वरना वीडियो वायरल कर दूंगी. श्यामसुंदर बुढ़ापे में यह कलंक झेलने को तैयार नहीं थे, सो, उन्होंने लड़की के बताए अकाउंट में 20 हजार रुपए यह सोचते ट्रांसफर कर दिए कि चलो बला टली. लेकिन दूसरे दिन पता चला कि असल मुसीबत तो अब शुरू हुई है. इस दिन उन के पास क्राइम ब्रांच के एक अधिकारी का फोन आया कि फलां युवती ने आप के खिलाफ न्यूड वीडियो बनाने का मामला दर्ज कराया है.

अब तो श्यामसुंदर के हाथों के तोते उड़ गए क्योंकि जैसा भी था लड़की का और उन का वीडियो तो वजूद में था. उन्होंने उस अफसर से मामला रफादफा करने की गुजारिश की तो वह 90 हजार रुपए में अपना इमान बेचने को राजी हो गया. उन्होंने उस के बताए अकाउंट में भी पैसे ट्रांसफर कर दिए. इस बार भी यही सोचा कि चलो, अब मुसीबत टली. पर यह खुशफहमी जल्द ही दूर हो गई जब उस क्राइम ब्रांच अफसर ने उन्हें फोन कर खबर दी कि वह लड़की गिरफ्तार कर ली गई है लेकिन अब हमें उस की भी रिपोर्ट दर्ज करनी पड़ेगी. इस बार भी झंझट से बचने के लिए उन्होंने डेढ़ लाख रुपए ट्रांसफर कर दिए.

फिर कुछ दिनों बाद उसी अफसर का पैसों कि बाबत फोन आया तो श्यामसुंदर का माथा ठनका और उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया कि क्राइम ब्रांच का अफसर भी फर्जी है और उसी लड़की का साथी है तो उन्होंने अपने साथ हुई इस डकैती की पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई. इस बार जाने क्यों उन्हें बदनामी का डर नहीं लगा. अब जो भी हो, वह खूबसुरत सैक्सी लड़की और उस का गिरोह शायद कभी पकड़ा जाए लेकिन जरा सी मौज के चक्कर में श्यामसुंदर को लंबा चूना लग चुका था.

ब्लैकमेलिंग के इस तरीके को सैक्सटोर्शन कहा जाता है, जिस के शिकारों की तादाद लाखों में होगी. लेकिन बदनामी के डर से लोग पुलिस में नहीं जाते. इस अनूठी डकैती में यूजर के पास किसी भी नाम से डिजिटल सुंदरी का कौल आती है और वह बड़े सैक्सी अंदाज में वीडियो कौल पर न्यूड हो कर सैक्सी क्रियाएं करने की बात करती है. जिस ने यह गलती यानी बाथरूम में जा कर कपड़े उतार कर बात करना शुरू की तो उस का अंजाम श्यामसुंदर या फिर गुरुग्राम के विवेक (बदला नाम) जैसा ही होता है.

साउथ सिटी-2 में रहने वाले विवेक के पास भी पिछले साल वैलेंटाइन डे के दिन एक लड़की रिया शर्मा का फोन आया था कि आओ, नग्न हो कर सैक्सी बातें करते हैं. उस दिन विवेक ने रिया से न्यूडकौल पर बात की तो उस ने पूरी बातचीत का वीडियो कौल रिकौर्डिंग ऐप के जरिए रिकौर्ड कर लिया. इस के बाद विवेक को रिया सहित कई लोगों ने ब्लैकमेल किया. 4 दिनों में ही विवेक को कोई सवा 4 लाख रुपए की कुरबानी देनी पड़ी.

इस के बाद उस का अकाउंट और सब्र दोनों जवाब देने लगे तो वह साइबर क्राइम थाना ईस्ट में जा पहुंचा और आपबीती की रिपोर्ट दर्ज कराई. साइबर डकैती की रेंज और तौरतरीकों का कहीं अंत नहीं है, जिन के सरदार का असली नाम भी पकड़े जाने के बाद ही पता चलता है लेकिन तब तक इन्हें रामसहाय कहना ही बेहतर होगा.

किस्मकिस्म की डकैतियां

जाहिर है ऐसे सैकड़ोंहजारों रामसहाय किसी जामताड़ा, भरतपुर, मथुरा या नूंह में बैठे नई साजिश रचते किसी का पासवर्ड मांग रहे होंगे, लिंक शेयर करने को कह रहे होंगे, ओटीपी भेज रहे होंगे या कोई सुंदर सी कन्या किसी से कह रही होगी कि बाथरूम में जा कर अपना प्राइवेट पार्ट दिखाओ, हमतुम फोन सैक्स करेंगे. और लोग ऐसा कर भी रहे होंगे. इन को कितने का चूना लगेगा, कहा नहीं जा सकता क्योंकि साइबर डकैतों के विदल फौर्म पर अमाउंट डील के दौरान अकसर खुद लुटने वाले भरते हैं.

अब तो इन साइबर डकैतों पर भी फिल्में और वैब सीरिज बनने लगी हैं, जैसे कुछ वर्षों पहले परंपरागत डकैतों पर बनती थीं. इन में कुछ खास हैं ‘प्लेयर्स’, ‘मिक्की वायरस’, ‘प्रिंस’, ‘जीनियस’ और ‘हेक्ड’. हालांकि, ये फिल्में ज्यादा असरदार नहीं थीं और चली भी नहीं, फिर भी आगाह करती हुई तो थीं.

एक हद तक नीरज पांडेय निर्देशित साल 2013 में प्रदर्शित ‘स्पैशल 26’ भी इसी जौनर की फिल्म थी, जिस में ठगों का एक गिरोह एक नकली सीबीआई अधिकारी की अगुआई में कारोबारियों और राजनेताओं के कालेधन को लूटने के लिए छापे मारता है. यही चंबल के डाकू करते थे पर वे खालिस डाकू थे जिन की तुलना राजनेताओं से यह कहते की जाती है कि वे सफेदपोश हैं. इन दिनों लीगल डकैती का जोर है, ईडी जैसी अधिकार संपन्न एजेंसियां कर रही हैं जो आएदिन छापे मार रही हैं. इसे एक किस्म की डकैती भी कहा जा सकता है.
तो डकैती चालू आहे. बच सकें, तो बच लीजिए.

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