2024 की शुरुआत ही देशभर के कोई 90 लाख ड्राइवरों की हड़ताल से हुई थी. यह हड़ताल एक नए बनाए गए कानून के विरोध में थी जिस पर सरकार ने तुरंत  झुकने में ही अपनी बेहतरी सम झी. पूरे रंग पर हड़ताल आ पाती, इस से पहले ही सरकार और ड्राइवरों के बीच सम झौता हो गया.

सम झौता केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला और औल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के पदाधिकारियों के बीच हुआ. हां ताकि ड्राइवरों को यह खुशखबरी ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के अध्यक्ष अमृतलाल मदान ने देते हुए कहा, ‘गृहमंत्री अमित शाह मान गए हैं जबकि वे बैठक में नहीं थे.

हर कोई इस पिक्चर में परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के ही होने की उम्मीद कर रहा था क्योंकि मामला उन के मंत्रालय से संबंधित था. उन के न होने से एक बार फिर साबित हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें भी हाशिए पर ही रख छोड़ा है. उन के हिस्से में अपने राजनीतिक जीवन के संस्मरण सुनाना भर रह गया है. हिट एंड रन कानून पर हड़ताल खत्म होने के बाद भी नितिन गडकरी ड्राइवरों की आंखों में मोतियाबिंद होने का किस्सा सुना रहे थे.

ठीक इसी दिन सोशल मीडिया पर भाजपा का लोकसभा चुनाव 2024 को ले कर एक गाना तेजी से वायरल हो रहा था. इस गाने में एक सुंदर युवा गायिका अनामिका जैन अम्बर गेरुए वस्त्र पहन गा रही है, ‘तय कर लो अब सत्य सनातन की छाया हो शासन पर, रामभक्त ही राज करेगा दिल्ली के सिंहासन पर…’ 3 मिनट एक सैकंड के इस वीडियो में नदी किनारे गायिका और उस की साथियों के अलावा बैकग्राउंड में मंदिर और नरेंद्र मोदी के पूजापाठ करते दृश्य दिखाई दे रहे हैं. भगवान राम नरेंद्र मोदी को आशीर्वाद देते हुए भी एक दृश्य में दिखाई दे रहे हैं.

नितिन गडकरी सहित भाजपा की दूसरी पीढ़ी के तमाम नेताओं ने लोकसभा चुनाव प्रचार का यह आगाज देख लिया होगा कि पार्टी ने तीसरी बार मोदी का चेहरा बतौर प्रधानमंत्री पेश कर दिया है. उन्हें सपने में भी यह नहीं सोचना कि वे कभी प्रधानमंत्री बन पाएंगे.

सोचना तो उन्हें यह भी नहीं है कि यह कैसी दोहरी नीति है जिस के तहत राज्यों के विधानसभा चुनाव तो बगैर मुख्यमंत्री का नाम और चेहरा पेश किए लड़े जाते हैं लेकिन प्रधानमंत्री की बारी आई तो  झट से बिना किसी से पूछे नरेंद्र मोदी को आगे कर यह मैसेज दे दिया गया कि कोई, और फिर चाहे वह युवा हो या पिछली किसी पीढ़ी का नेता हो, इस पद के बारे में न सोचे क्योंकि इस पर फैसला हो चुका है. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्वजनिक मंचों से 3 बार खुद को प्रधानमंत्री घोषित कर चुके हैं.

पूरी पीढ़ी ही गायब

ऐसा नहीं है कि नितिन गडकरी या उन की पीढ़ी के दूसरे भाजपाई नेता सनातनी या रामभक्त या कट्टर न हों. हां, इतना जरूर है कि वे, आस्थावान या कट्टर कुछ भी कह लें, नरेंद्र मोदी जितने नहीं हैं. अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी युग भाजपा से कब का खत्म हो चला है. इसे 2014 के बाद खत्म करने का श्रेय भी नरेंद्र मोदी को ही जाता है जो बड़े डिप्लोमैटिक तरीके से 2014 में आडवाणी को धकिया कर प्रधानमंत्री बन बैठे थे.

तब एक नाम मध्य प्रदेश के तत्कालीन और चंद दिनों पहले ही पूर्व बना दिए गए शिवराज सिंह चौहान का भी प्रधानमंत्री पद के लिए उठा था जिसे लालकृष्ण आडवाणी ने ही आगे किया था पर नरेंद्र मोदी की जिद और जुनून के आगे किसी की एक न चली थी क्योंकि उन्हें धर्मसंसद और आरएसएस ने चुना था.

शिवराज सिंह चौहान अब फुरसत में हैं और नितिन गडकरी की तरह ही टाइमपास राजनीति करते भावुक हो कर आंसू बहाते नजर आते हैं. मोदी-शाह जोड़ी ने उन्हें 5वीं बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के काबिल नहीं सम झा तो इस की इकलौती वजह यही है कि कहीं वे भी दोबारा प्रधानमंत्री बनने का सपना न देखने लगें. शिवराज सिंह भी नितिन गडकरी की तरह काबिल और तजरबेकार हैं और सब से बड़े पद के लिए डिजर्व करते हैं. लिहाजा, खतरा तो है.

ऐसे एकदो नहीं, बल्कि दसियों भाजपाई नेता हैं जिन का कैरियर या वजूद, कुछ भी कह लें, पिछले 10 सालों में खत्म कर दिया गया है. इन में एक नाम कद्दावर क्षत्रिय नेता रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का भी है जिन के हिस्से में फ्रांस जा कर राफेल के पहियों के नीचे नीबू रखने और स्वास्तिक का चिह्न बनाने जैसे फुजूल काम ज्यादा हैं. एक नाम तेजतर्रार साध्वी उमा भारती का भी है जो हर कभी हिमालय जाने की धौंस देती रहती हैं लेकिन कुछ दूरी तय कर वापस आ कर नश्वर संसार की मोहमाया में रम जाती हैं.

रमन सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया सहित रविशंकर प्रसाद भी इसी लिस्ट में शुमार होते हैं. निर्मला सीतारमण, एस जयशंकर, रमेश पोखरियाल, अर्जुन मुंडा और पीयूष गोयल जैसे यस मैनों से कोई खतरा नहीं है क्योंकि ये लोग जयजयकार करने में माहिर हैं और जमीनी राजनीति उन्होंने कभी नहीं की.

कांग्रेस सहित दूसरे क्षेत्रीय दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाते रहने वाली भाजपा तो उस से भी खराब व्यक्तिवाद का शिकार हो कर रह गई है. जो हालत कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी युग में थी वही अब भाजपा की हो गई है. फर्क यह है कि कांग्रेस में तब भी दूसरी पीढ़ी के नेताओं की इतनी बेरहमी से अनदेखी नहीं की जाती थी जितनी कि भाजपा में इन दिनों की जा रही है.

इस की एक बेहतर मिसाल देवेंद्र फडणवीस हैं जो कभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे लेकिन इन दिनों उपमुख्यमंत्री पद पर रहते शिवसेना के एकनाथ शिंदे की मातहती में काम कर रहे हैं. शिवसेना को मिटाने के चक्कर में मोदी, शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र में खुद की पार्टी के नफेनुकसान का भी ध्यान नहीं रखा. संभव है कि उन का असल मकसद देवेंद्र फडणवीस का हश्र भी शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और रमन सिंह जैसा कर देना था.

कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसों ने भी बड़े सपने देखना छोड़ कर संघ के कार्यालयों में माथा टेकना शुरू कर दिया है. अब वे भी मोदी-शाह के आगेपीछे परिक्रमा करते नजर आते हैं. वे मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएंगे कभी.

मुख्यमंत्री भी हैं चंगुल में

देश इन दिनों किस कदर अयोध्या और राममय हो रहा है, यह नजारा किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. इस से किसे क्या हासिल होगा, यह भी अभी कोई नहीं सोच पा रहा. मोदी, शाह की जोड़ी ने अपनी इस मुहिम के लिए भाजपाशासित तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चंगुल में ले रखा है जिस से वे कभी प्रधानमंत्री बनने का खयाल दिल में न लाएं. जब भी नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात या चर्चा छिड़ती है तो 2 ही नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं, पहला गृहमंत्री अमित शाह का और दूसरा सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का.

यह सोचना बेमानी है कि आदित्यनाथ को फ्री हैंड मिला हुआ है. उन्हें हाशिए पर होने का एहसास जबतब मोदीशाह की जोड़ी कराती रहती है. निकाय चुनावों में भाजपा ने 17 नगरनिगमों पर जीत हासिल की थी लेकिन भाजपा के ट्विटर पर दिए बधाई संदेश में योगी आदित्यनाथ का न तो नाम था न ही फोटो.

एक और चर्चित मामला राज्य के कार्यवाहक डीजीपी देवेंद्र सिंह चौहान का है जिन की गिनती आदित्यनाथ के चहेतों में होती है. वे चाहते थे कि देवेंद्र सिंह चौहान का रिटायरमैंट बढ़ा दिया जाए लेकिन दिल्ली से ऐसा नहीं किया गया तो योगीजी मन मसोस कर रह गए. इसी तरह मनीष अवस्थी को भी आदित्यनाथ के चाहने के बाद भी सेवा विस्तार नहीं दिया गया जबकि राज्य के मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्रा को केंद्र ने सेवाविस्तार दिया.

ऐसे कई मामले हैं जिन में आदित्यनाथ की अनदेखी की गई जबकि उन का कुसूर इतना भर था कि उन का नाम बतौर प्रधानमंत्री लिया जाने लगा था. पिछले विधानसभा चुनाव में रिकौर्ड बहुमत से भाजपा की सत्ता में वापसी कराने वाले आदित्यनाथ ने लोकसभा चुनाव 2019 में भी पार्टी को 80 में से 64 सीटें दिलाने में अहम रोल निभाया था. उन की बुल्डोजरी इमेज तो चर्चित हुई लेकिन महंत होने के चलते पूजापाठी इमेज भी नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ने लगी तो उन के पर कुतरना शुरू कर दिए गए.

अब हालत यह है कि काशी, मथुरा और अयोध्या में वे नरेंद्र मोदी के पीछेपीछे घूमते, उन की तारीफों में कसीदे गढ़ते नजर आते हैं. उन्हें भी यह ज्ञान प्राप्त करा दिया गया है कि दिल्ली उन से बहुत दूर है, आप तो लखनऊ में बने रहने की जुगत भिड़ाते रहो वरना हश्र शिवराज सिंह चौहान सरीखा भी हो सकता है.

भाजपाशासित राज्यों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी हों या गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्रभाई पटेल, ये दोनों तो बेचारे प्रधानमंत्री बनने का सपने में भी नहीं सोच सकते. इन्हें भी राज्य की सब से बड़ी कुरसी मोहन यादव, भजनलाल शर्मा और विष्णुदेव साय की तरह खैरात में इसी शर्त पर मिली थी कि राज्य नरेंद्र मोदी के अपने कार्यक्रम जिसे पीएमओ कहा जाता है के अफसरों के आदेशों से चलेंगे. छोटेमोटे भूमिपूजन और उद्घाटन जैसे फैसले वे लोग ले सकते हैं.

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भी 3 राज्यों का ड्रामा देख निराश ही होंगे हालांकि वे आरएसएस से गहरे तक जुड़े हैं लेकिन अब पहली दफा ऐसा भी लगने लगा है कि आरएसएस भी मोदीशाह की शर्तों पर चलने लगा है. हालांकि, ऐसा सोचने वालों की यह दलील हालफिलहाल दूर की कौड़ी ही लगती है कि संघ तभी तक इन दोनों को भाव और तवज्जुह देगा जब तक ये उस के एजेंडे पर काम कर रहे हैं और अयोध्या का रामलला के मंदिर का भव्य आयोजन उन में से एक है.

प्रधानमंत्री पद के काबिल एक नाम असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा का लिया जाता रहा है जो इन दिनों कट्टरता की तमाम हदें पार करते रहे हैं और इसे ही योग्यता मान बैठे हैं. हेमंत बिस्वा 8 साल पहले तक कट्टर कांग्रेसी हुआ करते थे लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह उन्हें भी लगा कि राज्याभिषेक करवाना है तो विभीषण तो बनना ही पड़ेगा. लिहाजा, राहुल गांधी को कोसते वे भगवा  झंडे तले आ गए और नई जगह में सिंधिया की तरह ही घुलमिल गए लेकिन भाजपा ने कभी उन्हें राष्ट्रीय पहचान नहीं दी. उन का काम भी विकसित भारत यात्राओं में नरेंद्र मोदी की जयजयकार करना रह गया है जिसे वे पूरी निष्ठा व ईमानदारी से कर भी रहे हैं.

पीढ़ी परिवर्तन के नाम पर पपेट

भाजपा ने 3 राज्यों में जो मुख्यमंत्री बनाए वे किसी भी एंगल से इस अहम पद के काबिल नहीं कहे और माने जा सकते. धर्म, हिंदुत्व और राममंदिर के नाम पर मिले वोट और समर्थन का मनचाहा और बेजा फायदा मोदीशाह की जोड़ी उठा रही है. अब उसे मुख्यमंत्री नहीं बल्कि पपेट चाहिए जो कि ये तीनों हैं भी. भाजपा प्रचार यह कर रही है कि उस में पीढ़ी परिवर्तन होता है और युवाओं को वह राजनीति में आने का मौका दे रही है.

मध्य प्रदेश में मोहन यादव, राजस्थान में भजनलाल शर्मा और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय जितने युवा हैं उतने ही युवा मुख्यमंत्री दिल्ली में अरविंद केजरीवाल,  झारखंड में हेमंत सोरेन, तेलंगाना में रेवंत रेड्डी और पंजाब में भगवंत मान भी हैं. पहली बार मुख्यमंत्री बनते समय अरविंद केजरीवाल की उम्र 45 साल और हेमंत सोरेन की उम्र

44 साल थी. लेकिन एक बड़ा और दिखने वाला फर्क यह है कि गैरभाजपाई राज्यों के इन मुख्यमंत्रियों को उन के नाम से वोट मिले थे जबकि भाजपा के युवा थोपे गए मुख्यमंत्री हैं. अगर पार्टी इन के नाम और चेहरे पर चुनाव लड़ती तो नतीजे क्या होते, कोई भी इस का सहज अंदाजा लगा सकता है.

आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्रियों अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान को कोई भी फैसला लेने से पहले न किसी दिल्ली की तरफ देखना पड़ता है और न ही किसी अफसरों बौसों के मुंह की तरफ ताकना पड़ता है.  झारखंड में हेमंत सोरेन चुटकियों में छोटेबड़े फैसले लेते हैं. तेलंगाना में रेवंत रेड्डी एक हद तक ही नीतिगत फैसलों के लिए सोनिया और राहुल गांधी के मुहताज हैं, बाकी तो उन्हें आजादी मिली हुई है.

थोपे गए मुख्यमंत्री कैसे और कितने नुकसानदेह साबित होते हैं, इस की मिसाल कांग्रेस है जिस के नक्शेकदम पर अब मोदीशाह चल रहे हैं. रही बात युवाओं की तो तीनों राज्यों के मुख्यमंत्री आरएसएस के अखाड़े के पट्ठे हैं जिन्हें हिंदुत्व और रामचरितमानस तो दोनों रटे पड़े हैं. ये लोग जनता का भला करने नहीं लाए गए बल्कि भगवा गैंग के एजेंडे को रफ्तार देने के लिए थोपे गए हैं. पर ये हिंदी या अंगरेजी में एक छोटामोटा भी नहीं लिख सकते. तीनों विकट के पूजापाठी हैं. कैसे ये हिंदुत्व के एजेंडे और भाजपा की मंदिर नीति को आगे बढ़ा रहे हैं, ये इन के शुरुआती फैसलों से पता चलता है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने सब से पहले अहम फैसला धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर्स हटाने और खुले में मांस बिक्री न होने देने का लिया. किसी को कहनेसुनने की जरूरत नहीं पड़ी कि यह हिंदुत्व के एजेंडे का पहला चैप्टर है. इस से हिंदुओं का भी फायदा नहीं होगा क्योंकि नुकसान हिंदू व्यापारियों को भी होगा और मीटमांस खाने वाले हिंदुओं को भी. दूसरे चैप्टर के तहत वे सीधे उज्जैन के महाकाल मंदिर पूजनदर्शन करने गए. उन के तीसरेचौथे फैसले भी इसी सिलेबस का हिस्सा हैं कि राज्य में उन जगहों को तीर्थस्थल बनाया जाएगा जहांजहां हो कर वनवास के दौरान राम गुजरे थे. सड़कों, अस्पतालों, उद्योगों, एयरपोर्टों के फैसले-दिल्ली में पीएमओ लेगा और वे पढ़ कर सुना भर देंगे.

छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने भी अप्रत्यक्ष रूप से ईसाईयों को हड़काते कहा कि गौवध और धर्मांतरण बरदाश्त नहीं किया जाएगा. वे भी अपने नाम की घोषणा होते ही सीधे रायपुर स्थित राम जानकी मंदिर गए थे. राजस्थान के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने भी सब से पहले जयपुर में सरल बिहारी मंदिर जा कर भगवान के दर्शन किए और वहीं एक संत मृदुल कृष्ण शास्त्री से आशीर्वाद भी लिया.

मंदिर हर कोई जाता है लेकिन जब कोई बड़ी और अप्रत्याशित उपलब्धि मिल जाती है तब मंदिर जा कर उक्त चमत्कार की बाबत भगवान को नमस्कार करने का मतलब होता है कि हे प्रभु, तेरा लाखलाख धन्यवाद जो तू ने इस नाचीज भक्त की सुनी, वरना तो हम कहां इस काबिल थे.

अब असल सियासी मंदिर दिल्ली में है. नरेंद्र मोदी इन के आदर्श और आराध्य दोनों हैं. उन से और उन के पीएमओ से मिले आदेशोंनिर्देशों का पालन ये तीनों व बाकी मुख्यमंत्री पूरी निष्ठा से करते हैं. यही मोदीशाह चाहते भी थे क्योंकि शिवराज सिंह, वसुंधरा राजे और रमन सिंह उन के बराबर ही सीनियर हैं. लिहाजा, उन पर हुक्म चलाना और मनमाने काम करा लेना आसान नहीं रह जाता. दूसरे लफ्जों में कहें तो ये तीनों वरिष्ठ नेता मुख्यमंत्री बनते तो इस बात पर राजी नहीं होते कि राज्य पूरा का पूरा पीएमओ से चले.

युवा मुख्यमंत्रियों को भाजपा अभी हाथोंहाथ ले रही है लेकिन ठीक वैसे ही जैसे नई बहू को लिया जाता है. नई बहुओं के बारे में गलत नहीं कहा जाता कि वे चूडि़यां ज्यादा खनकाती हैं जिस से लगे कि वे काम ज्यादा कर रही हैं. यह भी सच है कि वे काम दिखाने के लिए क्षमता से ज्यादा मेहनत करती हैं लेकिन यह नहीं सम झ पातीं कि इस से उन्हें कोई अधिकार नहीं मिल गए और न ही घर की तिजोरी की चाबियां मिल गईं. कभी तो मिलेंगी, इस आस में बेचारी ड्राइंग और डायनिंग रूम के जूठे बरतन उठाते नौकरानियों की तरह उम्र गुजार देती हैं लेकिन सास से घर की सत्ता नहीं छीन पातीं.

कहीं प्राउड बौयज जैसा इरादा तो नहीं

बहैसियत भाजपा परिवार के मुखिया, इन नईपुरानी बहुओं के जरिए नरेंद्र मोदी अपने इर्दगिर्द जो घेरा बना रहे हैं वह काफीकुछ अमेरिका के दक्षिणपंथी संगठन प्राउड बौयज जैसे स्ट्रक्चर सा बनता जा रहा है. इस संगठन की बुनियाद साल 2016 में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों ने रखी थी. प्रगतिशीलता और वामपंथ के विरोधी प्राउड बौयज की खासीयत यह है कि इस में सिर्फ पुरुष सदस्य ही होते हैं जो साम्यवाद और नारीवाद के विरोधी होते हैं.

यह संगठन पूरी तरह रिपब्लिकन पार्टी के एजेंडे पर आक्रामक रूप से चलता है, मसलन धर्म और रंग के आधार पर भेदभाव करना. नस्ल की बिना पर प्राउड बौयज खुद को श्रेष्ठ मानता है. इस की नफरत का शिकार आएदिन महिलाएं, मुसलिम और ट्रांसजैंडर होते रहते हैं.

कम शब्दों में कहें तो प्राउड बौयज अपने से अलग दिखने वाले हर आदमी को खारिज करता है. हालांकि यह किसी भी तरह की हिंसा और भेदभाव से इनकार करता है लेकिन कई बार इस का सच उजागर हो चुका है. प्राउड बौयज के सदस्य हर उस रैली में दिखते हैं जो व्हाइट सुप्रीमेसी के समर्थन में निकाली जाती है.

ये लोग लाल रंग की टोपी पहनते हैं जिस पर इंग्लिश में लिखा होता है, ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’. गौरतलब है कि यह नारा 2016 में डोनाल्ड ट्रंप की चुनावी मुहिम में लगाया जाता था. इस के मौजूदा मुखिया अफ्रीकन-क्यूबन मूल के एंट्रिक टेरियो हैं. कई हिंसक और उग्र गतिविधियों में प्राउड बौयज की भागीदारी उजागर हो चुकी है जिन में 6 जनवरी, 2021 को हुई कैपिटल हिल की चर्चित हिंसा भी शामिल है. कुल जमा ये लोग डोनाल्ड ट्रंप को भगवान की तरह मानते हैं. ऐसे ही लोगों का जमावड़ा, अलग तरीके से ही सही, भारत में नरेंद्र मोदी के इर्दगिर्द होने लगा है.

देश और दुनिया को ऐसे युवाओं की कतई जरूरत नहीं है फिर चाहे वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी. ये शांति, सद्भाव और लोकतंत्र के लिए खतरा ही साबित होते हैं और तरक्की में बड़ा अडं़गा भी होते हैं क्योंकि ये एक विचार या धर्म के गुलाम हो कर रह जाते हैं, फिर इन्हें खुद से और देश से जुड़ी समस्याओं व मुद्दों से कोई सरोकार नहीं रह जाता. अर्धराजनेता बन जाने वाले ये युवा पूरी जवानी और ताकत अपने आकाओं के मकसद को पूरा करने में  झोंक देते हैं.

कांग्रेस भी खा रही मात

देश में युवा नेतृत्व का अभाव सभी पार्टियों में बराबर से है और सभी पार्टियां बूढ़ों के भरोसे ही चल रही हैं. कांग्रेस एक हद तक इस का अपवाद इन मानो में कही जा सकती है कि राहुल गांधी युवा हैं लेकिन हालफिलहाल उन के भी प्रधानमंत्री बन जाने के आसार कम ही दिख रहे हैं. हालांकि लोकतांत्रिक राजनीति में गारंटी से कुछ भी कहना बुद्धिमानी की निशानी नहीं मानी जाती लेकिन वर्तमान हालात की अनदेखी करना भी बुद्धिमानी नहीं कही जा सकती. राहुल गांधी खुद प्रधानमंत्री बनने के बहुत ज्यादा उत्सुक और नरेंद्र मोदी की तरह उतावले नहीं दिख रहे हैं. इस की एक वजह ‘इंडिया’ गठबंधन की आपसी कलह और मतभेद भी है.

हिंदी पट्टी के 3 राज्यों के नतीजों ने कांग्रेस को भी आगाह किया है कि वह बूढ़ों से छुटकारा पाते युवाओं को आगे लाए लेकिन उस के साथ भी दिक्कत यही है कि पार्टी के बूढ़ों ने युवाओं को कभी पनपने का मौका ही नहीं दिया. मध्य प्रदेश से कमलनाथ-दिग्विजय सिंह के युग की विदाई अगर चुनाव के पहले ही वह कर देती और राजस्थान में अशोक गहलोत की जगह सचिन पायलट को आगे कर चुनाव लड़ती तो परिणाम कुछ और भी हो सकते थे.

अब उस ने उन जीतू पटवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है जो खुद अपनी सीट राऊ से लंबे मार्जिन से हारे हैं. जीतू पटवारी हालांकि पूरे जोशखरोश से नई जिम्मेदारी संभालने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वे  झांकी और शोबाजी के कांग्रेसी संस्कारों से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे, न ही हार से कोई सबक ले रहे हैं. पद संभालने के बाद उन्होंने इंदौर से भोपाल तक वाहनों का काफिला निकाला और उज्जैन के महाकाल मंदिर में पूजाअर्चना भी की जबकि महाकाल तो आशीर्वाद भाजपा को पहले ही दे चुके हैं.

राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को वजनदार और जमीनी युवा चेहरे ही नहीं मिल रहे. ऐसे में कांग्रेसी युवाओं को दिल्ली के सपने देखने चाहिए या नहीं, यह खुद उन्हें ही तय करना है कि अब उन के लिए राजनीति पहले सी आसान नहीं रह गई और बिना वोटर से सीधे जुड़े प्रदेश जीतना ही मुश्किल और बड़ी चुनौती बन गया है. उन की यह मुश्किल मंदिरों से तो हल नहीं होने वाली. तीनों राज्यों में सुकून देने वाली इकलौती बात यह है कि कांग्रेस के वोट शेयर में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं आई है. अब इसे बढ़ाने के लिए क्या कोशिश और मेहनत युवा कांग्रेसी करते हैं, यह देखना दिलचस्पी की बात होगी.

इंडिया गठबंधन क्या करेगा, यह एक अलग बात है लेकिन युवा कांग्रेसियों का काम बिना राहुल गांधी को ताकतवर बनाए नहीं चलने वाला ठीक वैसे ही जैसे भाजपाइयों का नरेंद्र मोदी के बिना नहीं चलता. कर्नाटक की 28 और तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटें बेहद अहम कांग्रेस के लिहाज से हो चली हैं. कर्नाटक में कितना जोर सिद्धारमैया, डी के शिवकुमार की जोड़ी और तेलंगाना में रेवंत रेड्डी लगा पाएंगे, खुद उन का भविष्य भी इसी नंबर पर निर्भर करेगा. इस के लिए कांग्रेस को युवाओं को फिर से जोड़ना ही पड़ेगा और खुद भी उन से जुड़ना पड़ेगा.

क्षेत्रीय दलों की भी है परेशानी

क्षेत्रीय दलों की यह खूबी रही है कि उन की शुरुआत युवा नेतृत्व से ही होती रही है लेकिन उन्होंने भी गलती वही की कि वक्त पर युवा नेतृत्व नहीं उभरने दिया और जब उभरने दिया तब तक भाजपा अपनी पैठ बना चुकी थी. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को सत्ता और संगठन दोनों का अनुभव है लेकिन सवर्ण और दलित युवाओं को सपा से जोड़ने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की.

अखिलेश अभी भी उत्तर प्रदेश में खासे लोकप्रिय हैं लेकिन प्रधानमंत्री पद उन से अभी भी बहुत दूर है. अयोध्या के होहल्ले में वे बहुत ज्यादा सीटें हासिल कर पाएंगे, ऐसा लग नहीं रहा. दूसरे, कांग्रेस से उन की सीटों पर क्या डील होती है, इस का भी असर नतीजों पर पड़ेगा.

बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी की कमान ऐसे वक्त में भतीजे आकाश आनंद को सौंपी है जब हाट लुट चुकी है. वैसे भी, आकाश जमीनी नेता नहीं हैं और न ही बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं.  विधानसभा चुनाव के वक्त जब वे पिछली 9 अगस्त को भोपाल रैली करने आए थे तब बमुश्किल हजारपंद्रह सौ की भीड़ ही जुट पाई थी जबकि इतने लोग तो कभी मायावती और कांशीराम की रैलियों के इंतजाम का काम देखते और करते थे. दलितों की बदहाली का अंदाजा भी उन्हें नहीं है.

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी ?अपने भतीजे 36 वर्षीय अभिषेक बनर्जी को राजनीति में काढ़ना शुरू कर दिया है और वहां के वोटर भी अभिषेक को सहज स्वीकारने लगे हैं लेकिन भाजपा को यह युवा रास नहीं आ रहा है, लिहाजा उन्हें भी अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन की तर्ज पर सरकारी एजेंसियों के जरिए हर कभी परेशान किया जाता है जिस से उन की हिम्मत टूटे.

अभिषेक की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे 2 बार डायमंड हार्बर सीट से लोकसभा पहुंच चुके हैं.  2019 में तो उन्होंने भाजपा उम्मीदवार नीलांजन राय को 3 लाख 20 हजार से भी ज्यादा वोटों से शिकस्त दी थी. देशभर के युवा नेताओं में से कोई देश की सब से बड़ी कुरसी का सपना देख सकता है तो अभिषेक का नाम उन में सब से ऊपर है.

यह सपना अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन भी देख सकते हैं लेकिन उन की नींद ईडी ने उड़ा रखी है. ये दोनों कभी भी गिरफ्तार किए जा सकते हैं लेकिन हथियार डालने या हिम्मत छोड़ने की उम्मीद इन से नहीं की जाती क्योंकि ये जमीनी और जु झारू हैं और वैकल्पिक व्यवस्थाएं इन्होंने अपनेअपने राज्यों में कर रखी हैं.

-साथ में शैलेंद्र और चंद्रकला द्य

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