समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती के बीच गहमागहमी थमने का नाम नहीं ले रही है. 1993 और 2019 में एकसाथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बाद भी दलितपिछड़ों के 2 बड़े नेताओं के बीच कोई सामंजस्य नहीं बन सका है. एकदूसरे के खिलाफ तल्खी कायम है. मायावती के ‘इंडिया’ गठबंधन में हिस्सा बनने के सवाल पर अखिलेश यादव ने कहा, ‘उन को गठबंधन में शामिल तो कर लें लेकिन चुनाव बाद इस बात की गांरटी कौन लेगा कि वे गठबंधन से बाहर नहीं जाएंगी.’

अखिलेश यादव का जवाब ऐसा था जैसे मायावती भरोसेमंद राजनीतिज्ञ नहीं हैं. इस बात का जवाब मायावती ने सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर अपनी पोस्ट से दिया. मायावती ने लिखा- ‘अपनी दलितविरोधी आदतों, नीतियों और शैली से मजबूर सपा प्रमुख को बीएसपी पर अनर्गल तंज कसने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि उन का दामन भाजपा को बढ़ाने व उन से मेलजोल करने में कितना दागदार है.’

मायावती ने आगे लिखा- ‘तत्कालीन सपा प्रमुख द्वारा भाजपा को संसदीय चुनाव जीतने से पहले व उपरांत आशीर्वाद दिए जाने को कौन भुला सकता है. फिर भाजपा सरकार बनने पर उन के नेतृत्व से सपा प्रमुख का मिलनाजुलना जनता कैसे भूल सकती है. ऐसे में सपा सांप्रदायिक ताकतों से लड़े, तो क्या उचित होगा.’ जिस अंदाज में अखिलेश यादव ने मायावती पर हमला किया, मायावती ने पूरे ब्याज के साथ इस को वापस भी कर दिया.

अखिलेश के तंज की वजह क्या है ?

1993 में समाजवादी पार्टी और बसपा का गठबंधन हुआ था. उस समय सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और बसपा की कमान कांशीराम के पास थी. वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर दी थीं. उस का मुकाबला करने के लिए भाजपा मंदिर की राजनीति को अपना सहारा बना रही थी. राजनीति में ‘मंडल बनाम कमंडल’ का दौर था. मुलायम और कांशीराम को लगा कि अगर दलितपिछड़े एक नहीं हुए तो राजनीति से बाहर हो जाएंगे. दोनों ने एकसाथ चलने का इरादा कर नारा दिया था- ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्री राम’.
सपा-बसपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव जीता और सरकार बना ली. यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई. दोनों के बीच विवाद हुआ. 2 जून, 1995 का गेस्ट हाउस कांड हो गया. जिस में सपा के समर्थकों ने मायावती के खिलाफ आपित्तजनक व्यवहार किया. इस के बाद सपा-बसपा की दोस्ती टूट गई. 24 साल के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ. इस बार सपा की कमान अखिलेश और बसपा की कमान मायावती के पास थी.

इस लोकसभा चुनाव में सपा को 5 और बसपा को 10 लोकसभा की सीटें हासिल हुईं. इस से पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को 5 सीटें ही मिली थीं और बसपा को जीरो. 2019 में सपा-बसपा गठबंधन का पूरा लाभ बसपा को मिला. उस की सीटें जीरो से बढ़ कर 10 हो गई. सपा जस की तस रह गई. अखिलेश यादव ने चुनाव के बाद यह कहा कि बसपा ने उन के वोट ले लिए पर अपने वोट नहीं दिलाए. यहीं से मायावती और अखिलेश के बीच खटास बढ़ने लगी. दोनों वापस अलग हो गए.

इंडिया गठबंधन में उठा मसला :

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले अब ‘इंडिया गठबंधन’ बना है. अखिलेश इस का हिस्सा बन गए. इस के बाद भी कांग्रेस मायावती की बसपा को भी गठबंधन में रखना चाहती थी. मायावती ने कोई सीधा जवाब नहीं दिया. मायावती के करीबी लोगों ने मीडिया को बताया कि अगर मायावती को गठबंधन का पीएम फेस बनाया जाए तब गठबंधन में शामिल होने का विचार किया जा सकता है. यह बात आगे बढ़ी नहीं. कांग्रेस लगातार बसपा को गठबंधन में लाने का प्रयास करती रही. कांग्रेस के यूपी प्रभारी अविनाश पांडेय ने कहा कि, ‘बसपा से तालमेल के प्रयास जारी हैं.’

इस के पहले इंडिया गठबंधन की दिल्ली की मीटिंग में अखिलेश यादव ने जब बसपा को गठबंधन में लाने के बारे में पूछा था तो कांग्रेस ने बताया कि बसपा से बात चल रही थी पर उन का सहयोग नहीं मिल सका. अब कोई बात नहीं होगी. इस के बाद अविनाश पाडेंय का बयान बताता है कि अंदरखाने बसपा को ले कर प्रयास जारी हैं. असल में अखिलेश यादव ने यह तय किया है कि अगर बसपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा होगी तो सपा बाहर हो जाएगी. कांग्रेस सपा व बसपा दोनों को साधने का प्रयास कर रही है.

असल में 2004 से ले कर 2014 तक कांग्रेस की यूपीए सरकार ने सपा-बसपा को एकसाथ साध लिया था. कांग्रेस भूल गई है कि उस समय वह सत्ता में थी और सीबीआई उस के पास थी. ऐसे में सपा-बसपा को एक घाट में पानी पिलाना सरल हो गया था. आज कांग्रेस 3 राज्यों में चुनाव हार कर कमजोर दिख रही है. कांग्रेस में 2 गुट हैं- एक राहुल गांधी का गुट जो अखिलेश के साथ गठबंधन करना चहता है, दूसरा प्रियंका गांधी का गुट जो यह चाहता है कि मायावती से मेलजोल ठीक रहेगा.

कांग्रेस में एक और सोच है कि अगर अखिलेश के साथ बात नहीं बनती तो कांग्रेस बसपा और लोकदल को अपने साथ ले कर यूपी चुनाव में उतरेगी. अखिलेश को लगता है कि मायावती को इतना महत्त्व क्यों दिया जा रहा है? इस कारण वे गुस्से में रहते हैं. मायावती खुद को सपा से बड़ा समझती हैं. 2019 के चुनाव में खुद को बड़ा बताने के लिए उन्होंने सपा के मुकाबले एक सीट अधिक ली थी.

सामाजिक स्तर पर दूरियां :

सपा व बसपा में दूरी के राजनीतिक कारणों के अलावा सामाजिक कारण भी हैं. सामाजिक रूप से दलित और पिछड़ी जातियों में आपसी झगड़े ज्यादा होते हैं. गांवकसबों में इन के खेत, मकान आसपास होते हैं. दलित के खिलाफ पिछड़े ज्यादा मुखर विरोध करते हैं. ऐसे में सपाबसपा के गठबंधन के बाद भी इन के वोट एकदूसरे को ट्रांसफर नहीं होते. 1993 और 2019 के चुनावों में इन के गठबंधन सफल नहीं हो सके.

इन के बीच बिगाड़ की एक वजह मुसलिम वोटबैंक भी है. बसपा और सपा को अपने दलित और पिछड़े वोटबैंक के अलावा मुसलिम वोटों का बहुत सहारा रहता है. ये दोनों ही दल चाहते हैं कि मुसलिम उन के साथ रहे. इस को ले कर दोनों ही दल एकदूसरे को भाजपा का समर्थक बताते हैं. आपस में लड़ रहे सपा और बसपा भाजपा को मजबूत कर रहे हैं. दोनों के लक्ष्य भले ही भाजपा को सत्ता से बाहर करने का दिखे मगर दोनों ही भाजपा को सत्ता में रहने में मदद कर रहे हैं.

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