अफ़सोस तो इस बात का भी होना चाहिए कि देश में खबरों के माने और दायरा बहुत समेट कर रख दिए गए हैं. उस से भी बड़ा अफ़सोस यह कि खुद को बुद्धिजीवी समझने का दावा करने वाले अधिकतर लोगों ने मान लिया है कि खबर का मतलब होता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण, इंडिया गठबंधन की उठापटक, देश में कितनी जाति के मुख्यमंत्री और नेता हैं, इस के बाद अपराध, क्रिकेट और फ़िल्में. और ज्यादा हुआ तो यह कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने यह या वह फैसला दिया.

ऐसी खबरों से न तो तर्कक्षमता निखरती है और न ही ज्ञान में कोई बढ़ोतरी होती है. सरकार का प्रचार ही जब मीडिया का मकसद रह जाए तो कहा जा सकता है कि हम दिमागी तौर पर गुलाम बना कर रख दिए गए हैं और इस पर कोई एतराज भी किसी को नहीं है. ज्यादा नहीं कोई 2 महीने पहले एक खबर आ कर दम तोड़ गई थी कि केंद्र सरकार 9 वर्षों की अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए आईएएस अधिकारियों को रथ प्रभारी के तौर पर तैनात करने की तयारी में हैं. वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किए गए इस पत्र का मसौदा काफी लंबाचौड़ा है जिस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी.

कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया एक्स पर यह कहते अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली थी कि सिविल सर्वैन्ट्स को चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए राजनीतिक प्रचार करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है. भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने इस पर सरकार का बचाव किया था. लेकिन वह तर्क आधारित और संवैधानिक न हो कर कांग्रेस की आलोचना तक सिमट कर रह गया था.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे ने जरूर तुक की बात कही थी कि सरकार की रथ प्रभारी बनाने की योजना केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम 1964 का स्पष्ट उल्लंघन है जो निर्देश देता है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेगा. खड़गे ने आगाह करते हुए यह भी कहा था कि अगर विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों को वर्तमान सरकार की मार्केटिंग गतिविधियों के लिए नियुक्त किया जा रहा है तो हमारे देश का शासन अगले 6 महीनों के लिए ठप हो जाएगा. लोकतंत्र की धज्जियां कैसे खुलेआम उड़ाई जा रही हैं, इसे समझने के लिए भाजपा आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय का सोशल मीडिया पर यह कहना पर्याप्त था कि नौकरशाहों का कर्तव्य है कि वे लोगों की सेवा करें, जैसा निर्वाचित सरकार उचित समझे.

 

कलियुगी श्रवण कुमार

मामला गंभीर था जिस से यह साबित हुआ था कि सरकार की मंशा ब्यूरोक्रेट्स को खुद से सहमत करने की और अपनी विचारधारा के लिहाज से हांकने की भी है और इस में वह अब तक कामयाब भी रही है. क्योंकि कोई चैनल इस पर डिबेट नहीं करता, दैनिक स्तंभ लिखने वाले नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान का रायता लुढ़का रहे हैं. वे अब खुशवंत सिंह होने के बजाय शिव खेड़ा होने लगे हैं. वे इस बात का जिक्र करने से भी परहेज करते हैं कि केंद्र तो केंद्र, भाजपाशासित राज्य सरकारों पर तक पीएमओ के आईएएस अधिकारियों का शिकंजा कसता जा रहा है.

ऐसे में क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी को 22 जनवरी को अयोध्या आने से रोका जाना महज एक राजनीतिक फैसला है. राम मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने एक पत्रकार वार्त्ता आयोजित कर कहा कि भाजपा के इन दोनों वरिष्ठ नेताओं से मैं ने कहा कि आप दोनों बुजुर्ग हैं, इसलिए स्वास्थ्य व उम्र को देखते राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा में न आएं. बकौल चंपत राय, दोनों ने इसे मान भी लिया.

थोड़ीबहुत नानुकुर मुरली मनोहर जोशी ने की लेकिन चंपत राय ने उन से कहा, ‘गुरुजी मत आइए. आप की उम्र और सर्दी… आप ने अभी घुटने भी बदलवाए हैं.’ चंपत राय ने एक तथाकथित दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए यह भी बताया कि कैसे 5 अगस्त को राम मंदिर आंदोलन के सहनायकों में से एक कल्याण सिंह शिलान्यस के दिन आने के लिए अड़ गए थे और उन्हें चालाकी दिखाते ऐन वक्त पर आने से रोक दिया गया. घर के बुजुर्गों को इसी तरह रोका जाता है.

 

फैसला और इमेज  

आडवाणी और जोशी की यह त्रासदी ही है कि उन्हें आज से कोई 30-32 साल पहले भी अयोध्या जाने से रोकने की कोशिश या साजिश हुई थी. तब उन का रास्ता रोकने वाले लालू और मुलायम यादव जैसे लोग थे लेकिन आज तो अपने वाले ही नहीं चाह रहे कि वे अपने लगाए पेड़ का फल चखें. उस दौर में भी रास्ता आईएएस अफसरों की सलाह पर ही रोका गया था और आज भी ऐसा ही लग रहा है क्योंकि चंपत राय कोई इतनी बड़ी हस्ती नहीं हैं कि बिना मोदी आज्ञा और पीएमओ के फरमान के यह अहम फैसला ले पाएं. यह स्क्रिप्ट किस ने लिखी, यह शायद ही कभी पता चले पर क्यों लिखी, यह हर कोई समझ रहा है.

प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘बूढ़ी काकी’ की तर्ज पर इन दोनों की बेरहम अनदेखी और उन्हें  आने से रोकने का इकलौता मकसद यह है कि सिर्फ नरेंद्र मोदी ही दिखें. लालकृष्ण आडवाणी न होते तो आज भी राम मंदिर एक सपना बन कर ही रह जाता. उन्होंने जो किया उसे देश जानता है.

आज जो हो रहा है उसे भी देश समझ रहा है कि सवाल नरेंद्र मोदी की इमेज का है. अगर आडवाणी और जोशी आए तो मंदिर आंदोलन के अगुआ होने के नाते मीडिया और देश के हिंदुओं का ध्यान उन्हीं की तरफ रहेगा. तब लोग यह भी पूछ और सोच सकते हैं कि मुख्य यजमान आडवाणी जी क्यों नहीं जबकि सारा कियाधरा तो उन्हीं का है.

अगर भाजपा एक परिवार है तो उस में बुजुर्गो की इतनी उपेक्षा क्यों कि उन्हें एक अति शुभ कार्य का साक्षी भी नहीं बनने दिया जा रहा जबकि सनातनी संस्कार तो यह कहते हैं कि घर के बुजुर्ग ही सर्वेसर्वा होते हैं, वे तो प्रभुतुल्य होते हैं. यह और बात है कि चंपत राय ने  4 दिनों पहले ही नरेंद्र मोदी को विष्णु अवतार माना है. रही बात अस्वस्थता और उम्र की, तो वह किसी के गले नहीं उतर रही. इन दोनों ने ही इस बाबत अपने से कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है. ऐसे में चंपत राय, जो मुद्दत से इन की खैरखबर लेने नहीं गए, को कैसे जादू के जोर से पता चल गया कि ये आने की स्थिति में नहीं.

90 के दौर के किशोर और युवा हिंदू जो जान जोखिम में डाल कर अयोध्या गए थे वे इस पर  क्या सोचते हैं, यह कहना भी मुश्किल है. उन्होंने भाजपा के बहुत मुश्किल और चुनौतीपूर्ण दिनों में आडवाणी का जलवा देखा है जो उन्होंने खुद हासिल किया था. वही पीढ़ी नरेंद्र मोदी युग भी देख रही है जिस में इन की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी नहीं. ये लोग सोशल मीडिया पर हिंदुत्व से ताल्लुक रखती सच्चीझूठी पोस्ट फौरवर्ड करने के आसान काम करने भर को रह गए हैं. ये कुछ बोल भी नहीं सकते क्योंकि जब सुनी नींव रखने वालों की नहीं जा रही तो इन की हैसियत क्या.

सुनी सिर्फ उन आईएएस अधिकारियों की जा रही है जो सरकार की दिशा और दशा तय कर रहे हैं, जो विकसित भारत संकल्प यात्रा के रथी बना दिए गए हैं. दौर हमेशा से अर्जुनों का रहा है. ये एकलव्य तो अंगूठा दान करने को जन्मे हैं. दौर नृपेंद्र मिश्रा जैसे आईएएस अधिकारियों का है जो राम मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष की हैसियत से अयोध्या के नए ऋषिमुनि बन बैठे हैं जिन्होंने 92 के आंदोलन में अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया वे परचून और भजिये की दुकान पर बैठे या दूसरे छोटेमोटे कामों से गुजर करते उस दौर के संस्मरण सुना रहे हैं.

ज्यादती कईयों के साथ हो रही है और यही क्रूरता ही धर्म का सच है.

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