मध्यप्रदेश की राजनीति यादवों के इर्दगिर्द इस चुनाव के दौरान कहीं भी नहीं दिखी थी जिस का खमियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. यह अब डाक्टर मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद समझ आ रहा है. बिलाशक यह चौंका देने वाले फैसलों की एक और कड़ी है जिस के माने अच्छेअच्छों की समझ नहीं आ रहे.

अरुण यादव कांग्रेस का एक बड़ा नाम और चेहरा है जो चुनाव के दौरान गायब रहा. उन के पिता सुभाष यादव मध्यप्रदेश के उप मुख्यमंत्री रहे हैं जिन्हें अपने दौर के कद्दावर ठाकुर नेता अर्जुन सिंह आगे लाए थे. निमाड़ इलाके में खासा दखल रखने वाले अरुण यादव को नतीजों के बाद सोनिया, राहुल गांधी ने तलब किया तो राजनातिक विश्लेषकों ने यह अंदाजा गलत नहीं लगाया कि अब कांग्रेस को वापस पिछड़े वर्ग की तरफ लौटना पड़ेगा, खासतौर से यादवों की तरफ जिन की प्रदेश में 12 फीसदी आबादी है.

लेकिन भाजपा ने नतीजों से सबक लेते हुए मोहन यादव को प्रदेश की कमान देते हुए एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं जिन में से पहला और अहम दिग्गजों की कलह को पनपने से रोकने का है. अब प्रहलाद पटेल, कैलाश विजयवर्गीय, ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर सहित शिवराज सिंह चौहान को भी कोई दिक्कत नहीं है. हालांकि इन में से खुश कोई नहीं है लेकिन बहुत ज्यादा दुखी भी कोई नहीं है. अगर कोई दुखी है, तो उस का इजहार लोकसभा चुनाव के वक्त वह कर सकता है.

58 वर्षीय मोहन यादव आरएसएस के अखाड़े के पहलवान हैं जिन के तलवार लहराते वीडियो शपथ लेने के पहले से वायरल होने लगे थे. उज्जैन के रहने वाले मोहन यादव भी मामूली खातेपीते घर के हैं जिन्होंने अपने नाम की घोषणा के साथ ही महाकाल के साथसाथ नरेंद्र मोदी का भी आभार व्यक्त किया. पुराने दिग्गजों को किनारे करते जो नई टीम नरेंद्र मोदी गढ़ रहे हैं एक तरह से मोहन यादव उस के वाइस कैप्टन हैं.

अब भाजपा ने खुद को इस आरोप से भी मुक्त कर लिया है कि वह यादवों से परहेज करती है. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और बिहार में तेजस्वी यादव को अब थोड़ा सतर्क रहना पड़ेगा क्योंकि भाजपा इन राज्यों में दूसरीतीसरी पंक्ति के यादव नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को हवा देगी. मोहन यादव की ताजपोशी यादव कुनबे में सेंध लगाने का आगाज भी है.

नई पीढ़ी के मोहन यादव की तरह शिक्षित हो चले यादव यह दाना नहीं चुगेंगे, इस सवाल के जवाब में न कहने की कोई वजह नहीं, जिन में कास्ट फीलिंग कूटकूट कर भरी है. अब इन की निष्ठाएं हिंदुत्व के चलते बदल भी सकती हैं. ठीक वैसे ही जैसे दलितों और आदिवासियों की बदल रही हैं. यह और बात है कि हालफिलहाल इस बात की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा कि ये युवा भी बड़े पैमाने पर धर्मांधता का भी शिकार हो सकते हैं.

उत्तर प्रदेश में जो यादव कांग्रेस और जनसंघ का वोटबैंक हुआ करता था उसे 80 के दशक से ही मुलायम ने इकट्ठा करना शरू कर दिया था जिस के दम पर सपा ने वहां राज भी किया लेकिन इस दौरान जातिगत राजनीति में आए बदलावों के नएनए समीकरणों में ब्राह्मण-ठाकुर भाजपा के होते गए. बनिए और कायस्थ तो उस के साथ पहले से थे ही.

संघ परिवार की नई बिरादरी 

तीनों राज्यों में भाजपा को खासा और अप्रत्याशित बहुमत मिला है जिस के चलते वह नएनए प्रयोग करने का जोखिम भी उठा रही है. तेजी से यह सवाल भी सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है कि अगर मोहन यादव और विष्णु साय जैसों के पीछे नरेंद्र मोदी हैं तो उन के पीछे कौन हैं जो वर्णव्यवस्था का नया स्ट्रक्चर खड़ा कर रहा है. यह ढांचा ठीक वैसा ही है जो कभी कांग्रेस के दौर में इंदिरा गांधी ने खड़ा किया था.

नरेंद्र मोदी के पीछे आरएसएस है जिस के मुखिया मोहन भागवत 5 वर्षों से जातिगत एकता का राग आलापते रहे हैं. इसी साल जब उन्होंने यह कहा था कि जातियां ब्राह्मणों ने गढ़ी हैं तो देशभर के ब्राह्मणों ने आसमान सिर पर उठा लिया था और उन से `सौरी` बुलवा कर ही दम लिया था.

कहने का मतलब यह नहीं कि भगवा गैंग छोटी जातियों को बराबरी का दर्जा देने को तैयार हो गई बल्कि हो यह रहा है कि वह ब्राह्मणों को यह मेसेज दे रही है कि अगर वर्चस्व बनाए रखना है तो इन नए पुरोहितों को उन की आबादी के मुताबिक हिस्सा तो देना ही पड़ेगा. राज और दबदबा धर्म का ही रहेगा, यह गारंटी मोदी के जरिए दी और दिलवाई जा रही है. अयोध्या में 22 जनवरी को जो भव्य आयोजन होगा उस में सारे धार्मिक सूत्र श्रेष्ठि वर्ग के हाथों में ही रहेंगे.

‘जिस की जितनी आबादी उतनी उस की भागीदारी’ वाला कांशीराम का फार्मूला अब कम से कम सियासी गलियारों में चलता दिख रहा है लेकिन प्रशासन सवर्णों के हाथों में सिमट रहा है ऐसे में राहुल गांधी के यह पूछने के माने खत्म हो जाते हैं कि इतने और उतने सैक्रेट्री ओबीसी के हैं तो बताओ उन के हाथ में है क्या.

उन के हाथ में अब कुछ राज्यों की सत्ता है जिस के लिए वे खाकी नेकर पहन कर नव हिंदुत्व के पैरोकार बन रहे हैं तो चिंता अब कांग्रेस, सपा और जेडीयू जैसे दलों को करना चाहिए कि उन की असल लड़ाई है किस से और 2024 में किस की भूमिका क्या होगी? मध्यप्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ने बुदेलखंड की खूब ख़ाक छानी थी लेकिन उन्हें मिला कुछ नहीं, उलटे सपा ऐतिहासिक दुर्गति का शिकार हो कर रह गई.

कमलनाथ ने बेहद अपमानजनक तरीके से अखिलेश यादव के बारे में कहा था कि ये अखिलेश वखिलेश कौन. तभी समझने वालों की समझ आ गया था कि यादवों के स्वाभिमान को ठेस लगी है. चूंकि सपा की दुर्गति का आभास यादवों को था इसलिए वे भाजपा को वोट दे आए.

उन के इस फैसले पर अब भाजपा ने मोहर लगा दी है तो सभी सकपकाए हुए हैं और गलती अभी भी इसे सियासी नजरिए से देखने की ही कर रहे हैं. जरूरत इस बात की है कि इस और ऐसे फैसलों को सामाजिक नजरिए से देखा जाए कि वर्णव्यवस्था का यह नया स्वरूप पिछड़ों को पिछड़ा रखने के लिए ही है.

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