सियासी ड्रामेबाजी में तेलंगाना के नए मुख्यमंत्री ए रेवंता रेड्डी किसी से उन्नीस नहीं हैं जिन्होंने कुरसी संभालते ही मंच से कांग्रेस की 6 गारंटियों की फाइल मंजूर की. घाटघाट का पानी पी चुके 54 वर्षीय रेवंता जन्मना कांग्रेसी नहीं हैं, कर्मणा हैं और यह उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री पहले ही भाषण से साबित कर दिया. अपने भाषण की शुरुआत उन्होंने जय सोनिया अम्मा के उद्घोष से की जिस से सहज ही उन दिग्गज कांग्रेसियों को मायूसी हुई होगी जो मुख्यमंत्री बनने की दौड़ और होड़ में थे. मुख्यमंत्री आवास का नाम बदल कर ज्योतिबा फुले उन्होंने रखा है और हर शुक्रवार प्रजा दरबार लगाने की भी घोषणा की है जिस में आम लोगों की सुनवाई होगी.

तेलंगाना की जीत में रेवंता के साथसाथ कांग्रेस विधायक दल के नेता विक्रमार्क भट्टी और एक और दिग्गज कुमार रेड्डी के रोल भी अहम थे लेकिन दूध की जली कांग्रेस तेलंगाना में छाछ भी फूंकफूंक कर पी रही है. सोनिया, राहुल और प्रियंका के चहेते इस खेवनहार से कांग्रेस आलाकमान पहले ही वादा कर चुका था, इसलिए मुख्यमंत्री बनने के लिए रेवंता ने राज्यभर में ताबड़तोड़ मेहनत की. उलट इस के, विक्रमार्क भट्टी और कुमार रेड्डी अपनेअपने क्षेत्रों में उलझे रहे जहां उन्हें 95 फीसदी कामयाबी मिली भी.

लेकिन यह मुख्यमंत्री बनने के लये पर्याप्त नहीं था. सोनिया-राहुल की कृपा किसी भी योग्यता या अनुभव से ज्यादा जरूरी थी जिस पर रेवंता पास हो गए. यों उन के पास सियासी हालात को ताड़ने वाली नजर है लेकिन असल इम्तिहान अब शुरू होगा उन का भी और कांग्रेस का भी क्योंकि कांग्रेस के पास बहुमत से सिर्फ 4 सीटें ही ज्यादा हैं. लिहाजा, भाजपाई तोड़फोड़ की आशंका हमेशा सिर पर मंडराती रहेगी. गौरतलब है कि तेलंगाना की 119 सीटों में से कांग्रेस को 64,बीआरएस को 39 और भाजपा को 8 सीटें मिली हैं जबकि एआईएमएआईएम 7 सीट जीती है.

फिल्मी कहानी जैसी जिंदगी 

एक मामूली किसान परिवार में जन्मे रेवंता की जिंदगी की कहानी फिल्मों से कमतर नहीं है जिस में रोमांस, ऐक्शन, जेल, आंदोलन, दलबदल सबकुछ है जो इन दिनों कामयाबी की बड़ी शर्तें और वजहें हो चली हैं. उस्मानिया यूनिवर्सिटी से बीए करने के दौरान ही रेवंता छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए थे.

आरएसएस की सरपरस्ती में चलने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा लेकिन वह ज्यादा रास नहीं आया तो वे साल 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति से जुड़ गए जो अब बीआरएस है. पृथक तेलंगाना के नायक रहे केसीआर के साथ उन्होंने 2001 से ले कर 2006 तक काम किया.

न मालूम वजहों से रेवंता की पटरी केसीआर से भी नहीं बैठी और वे जोखिम उठाते साल 2007 में आंध्रप्रदेश विधान परिषद चुनाव में कूद पड़े और निर्दलीय जीते भी. टीडीपी मुखिया चंद्रबाबू नायडू की नजर इस होनहार युवक पर पड़ी तो वे उसे अपनी पार्टी में ले आए जिस से वे विधायक भी चुने गए. यहां से भी रेवंता का मोहभंग हो गया तो वे कांग्रेस में शामिल हो गए.

साल 2018 में वे कांग्रेस से विधानसभा चुनाव कोडंगल सीट से हारे तो नैया डगमगाती दिखी लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव मलकागिरी सीट से जीत कर उन्होंने खुद को साबित कर दिया. 2021 में कांग्रेस ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बना दिया और अब मुख्यमंत्री बनाने से भी गुरेज नहीं किया.

लव स्टोरी और सोनिया अम्मा  

कालेज के दिनों में राजनीति में हाथपांव मारने के ही दौरान रेवंता को गीता रेड्डी नाम की युवती से प्यार हो गया. यह पहली नजर का प्यार था जो नागार्जुन सागर बांध में नाव की सवारी के दौरान हुआ था. तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अब जिंदगी की नाव में गीता के साथ ही सफर करेंगे.

लेकिन यह आसान काम नहीं था क्योंकि गीता दिग्गज कांग्रेसी नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी की भतीजी थी. जैसे ही रसूखदार रेड्डी परिवार को इस अफेयर की हवा लगी तो उन्होंने इस पर एतराज जताया और फिल्मी तर्ज पर गीता को अपने मंत्री चाचा के घर दिल्ली भेज दिया.

यह उन दिनों की बात है जब रेवंता एबीवीपी में सक्रिय थे और आरएसएस का प्रकाशन संबंधी काम भी देखते थे. कांग्रेस और आरएसएस के बीच छत्तीस का आंकड़ा आज की तरह तब भी किसी सुबूत का मुहताज नहीं था. रेवंता को समझ आ गया था कि बात ऐसे नहीं बनने वाली, लिहाजा, एक दिन वे हिम्मत कर सीधे जयपाल रेड्डी से मिले और हाले दिल बयां कर डाला.

खुलेतौर पर तो रेवंता ने कभी नहीं स्वीकारा लेकिन ज्यादातर संभावना यही है कि उन्होंने गीता को हासिल करने के लिए ही इस हिंदूवादी संगठन का साथ और हाथ छोड़ा होगा. दूसरे, संघ में  गहरी डुबकी लगाने का मतलब था अविवाहित रहना, जो गीता से बढ़ती दोस्ती के चलते उन के लिए मुमकिन नहीं था.

सच जो भी हो लेकिन अपनी इस लव स्टोरी को अंजाम तक पहुंचाने में वे कभी पीछे नहीं हटे जिस में गीता ने हमेशा उन का साथ दिया. जयपाल रेड्डी ने गीता और रेवंता के प्यार की गहराई व गंभीरता को समझा. उन के दखल से दोनों 7 मई,1992 को जिंदगी की नाव में एकसाथ सवार हो गए.

इस के बाद वे यहां से वहां होते रहे.अब तक रेवंता को भी यह समझ आने लगा था कि यों भटकते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा. लिहाजा, वे सोनिया गांधी की शरण में चले गए जहां से उन्हें आशीर्वाद और संरक्षण दोनों मिले. अब रेवंता न केवल तेलंगाना बल्कि दक्षिण भारत की राजनीति का भी प्रमुख चेहरा बन चुके हैं. कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार भी उन के रिश्तेदार हैं.

चुनौतिया अभी बाकी हैं 

रेवंता पर 89 छोटेबड़े अदालती मामले दर्ज हैं जिन में से एक कैश फौर वोट के चलते वे जेल की हवा भी खा चुके हैं. बेटी निमिषा की शादी के वक्त वे जेल में ही थे तब बमुश्किल उन के वकीलों ने कुछ घंटों की जमानत का इंतजाम उन के लिए किया था. जाहिर है जमीनी राजनीति का तगड़ा तजरबा उन्हें है जिस के चलते उन्हें तेलंगाना का चाणक्य भी कहा जाने लगा है.

तेलांगना के लोगों खासतौर से आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों ने कांग्रेस पर गहरा भरोसा जताया है जिसे कायम रखना किसी चुनौती से कम नहीं. दूसरे उन्हें नाराज दिग्गज कांग्रेसियों को भी साध कर रखना है और खुद भी संभल कर रहना है क्योंकि भाजपाई तोड़फोड़ में माहिर हैं. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे और अजीत पवार इस के बेहतर उदाहरण हैं. कर्नाटक का उदाहरण तो उन के बहुत नजदीक है.

लेकिन इन से भी ज्यादा अहम है अगला लोकसभा चुनाव जिस की तैयारिया शुरू हो गई हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा तेलंगाना की 17 में से 4 लोकसभा सीट ले गई थी जबकि बीआरएस 9 पर जीती थी और कांग्रेस 3 पर सिमट कर रह गई थी. एक सीट एआईएमएम के खाते में गई थी.

अब कांग्रेस की उम्मीद और कोशिश तेलंगाना में 10 सीटें जीतने की होगी क्योंकि विधानसभा चुनाव में भाजपा और बीआरएस दोनों ही पार्टियों को निराशा हुई है. हालांकि अभी बीआरएस को ज्यादा कमजोर कर नहीं आंका जा सकता लेकिन अगले 6 महीने रेवंता सरकार का परफौर्मेंस तय करेगा कि वोटर उसे कितना भाव देगा. भाजपा ज्यादा बड़ा खतरा है जिस की हर मुमकिन कोशिश तेलंगाना में तोड़फोड़ की रहेगी जिस से बचने के लिए रेवंता को होशियार तो रहना ही पड़ेगा.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...