राजनीति में धारणा का सब से बड़ा महत्त्व होता है. कई बार चुनाव मैदान में इस धारणा से ही माहौल बदल जाता है. राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने पूरे देश में एक धारणा को स्थापित होने में मदद की कि मोदी से राहुल ही लड़ सकते हैं. इस के बाद ही भाजपा के खिलाफ लामबंद हो रहे विपक्ष को एक दिशा मिल गई. वह कांग्रेस की अगुवाई में आगे बढ़ने लगे. कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा का अगला कदम ‘इंडिया गठबंधन’ के रूप में तैयार किया. यह गठबंधन एक सार्थक दिशा में बढ़ने लगा था. कई विरोधी विचारधारा के दल अपने विरोध को छोड़ कर मोदी को सत्ता से हटाने के लिए एक मंच जुट गए थे.

इंडिया गठबंधन इस बात के लिए भी करीबकरीब सहमत था कि कांग्रेस की अगुवाई में वह आगे बढ़ेंगे. राहुल गांधी को ले कर भी कोई विरोध नहीं रह गया था. लालू यादव ने इंडिया गठबंधन की मीटिंग में यह कह भी दिया था कि ‘हमारे दूल्हा राहुल गांधी है. हम सब बाराती हैं.’ इसी बीच नवंबर माह में 5 राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव आ गए. इन चुनावों में इंडिया गठबंधन को साथ मिल कर चुनाव लड़ना था. लेकिन इस की नीति नहीं बन सकी.

साथियों से दगा

कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता इंडिया गठबंधन का विरोध कर रहे थे. कांग्रेस अपने क्षेत्रीय नेताओं को समझाने में सफल नहीं हो रही थी. इंडिया गठबंधन की एक मीटिंग भोपाल में प्रस्तावित थी. राहुल गांधी चाहते थे कि भोपाल में यह मीटिंग हो जिस से मध्य प्रदेश के चुनावी माहौल को गर्मी दी जा सके. यह बात मध्य प्रदेश में कांग्रेस के नेता कमलनाथ को पसंद नहीं थी. कमलनाथ का तर्क यह था कि इंडिया गठबंधन में शामिल कई दल हिंदू धर्म को ले कर उल्टे सीधे बयान दे रहे हैं. ऐसे में अगर मीटिंग के बाद पत्रकारों के सवाल जवाब या अपने से किसी ने कुछ बोल दिया तो मध्य प्रदेश का चुनावी माहौल खराब हो जाएगा.

कमलनाथ ने कांग्रेस हाई कमान को यह समझाया था कि वह हिंदुत्व का विरोध नहीं कर सकते थे. कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव में हनुमान के मंदिर बनवाने की बात कर के चुनाव जीत लिया था तो उसे कमलनाथ की बात समझ आ गई. इस के बाद इंडिया गठबंधन की भोपाल मीटिंग टाल दी गई.

जब सवाल इस बात का हुआ कि विधानसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन एक साथ मिल कर चुनाव लडेगा तो कांग्रेस ने कोई साफ नीति नहीं बनाई. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने की बात समाजवादी पार्टी ने की. कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी की बात भी हुई. समाजवादी पार्टी 6-7 सीटों की मांग मध्य प्रदेश में कर रही थी.

कांग्रेस का अति आत्मविश्वास

हाई कमान स्तर पर यह बात तय हो गई कि समाजवादी पार्टी के साथ मध्य प्रदेश में चुनावी तालमेल करना है. इस तालमेल का जिम्मा कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को सौंप दिया गया. यह लोग सपा प्रमुख अखिलेश यादव से बात कर रहे थे. कमलनाथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस के प्रस्तावित मुख्यमंत्री थे, उन को लग रहा था कि मध्य प्रदेश में सपा का कोई वोट नहीं है.
ऐसे में उन को 6-7 सीटें देना नुकसानदायक हो सकता है. सपा सीटें जीत नहीं पाएगी. कांग्रेस का नुकसान होगा. उन के सामने बिहार का उदाहरण था जहां राजद के साथ गठबंधन में कांग्रेस ने ज्यादा सीटें मांग ली चुनाव जीत नहीं पाई जिस से राजद को बहुमत से कम सीटों पर सिमटना पड़ा.

कांग्रेस ने सपा से सीटें देने की बात तो कहीं पर एक भी सीट नहीं दी. इस से खफा समाजवादी पार्टी ने मध्य प्रदेश में 70 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए. चुनाव प्रचार में दोनों ही दलों के बीच जुबानी जंग भी हुई. इस से इंडिया गठबंधन की साख पर सवाल खड़े हो गए. कांग्रेस इस भुलावे में रही कि वह मध्य प्रदेश जीत रही है. इसलिए उस ने केवल सपा का ही निरादर नहीं किया, बहुजन समाज पार्टी के साथ भी कोई तालमेल नहीं कर पाई.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बसपा ने गोंड़वाना गणतंत्र पार्टी यानि जीजीपी से गठबंधन किया. इस के तहत बसपा ने 178 और जीजीपी ने 52 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे. इसी तरह से छत्तीसगढ़ में बसपा ने 53 और जीजीपी ने 37 सीटों पर चुनाव लड़ा. पिछले चुनावों में बसपा ने दोनों ही राज्यों में 2-2 सीटें जीती थीं, इस चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हुई.

अगर कांग्रेस इन विरोधी दलों से तालमेल किया होता तो भाजपा के साथ मुकाबला हो सकता था. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में ही कांग्रेस को अति आत्मविश्वास था. इसलिए उस ने किसी दल से तालमेल की जरूरत नहीं समझी और उस की सत्ता डूब गई.

राजस्थान में भी कांग्रेस ने बसपा और लोकदल को तबज्जो नहीं दिया. वहां जादूगर अशोक गहलोत अपने ही साथी सचिन पायलेट के साथ पूरे कार्यकाल लड़ते नजर आए. जिस से जनता को यकीन हो गया कि अशोक गहलोत सही तरह से राज चलाने की हालत में नहीं है. कभी वह हाई कमान से लड़ रहे थे तो कभी सचिन पायलेट से.

उन की जादू वाली झप्पी जनता को रास नहीं आई. कांग्रेस यहां भी इंडिया गठबंधन को साथ ले कर नहीं चल पाई, जिस का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. राजस्थान में कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख 66 हजार और भाजपा को 1 करोड़ 65 लाख 23 हजार के करीब वोट मिले. अगर कांग्रेस की नीति साफ और संगठन में झगड़े नहीं होते तो जादूगर का जादू काम कर जाता.

विचारों से समझौता

राजनीति में विचारों का अपना महत्व होता है. कांग्रेस में हिंदूवादी विचारों के नेता पहले भी थे. 1948 में फैजाबाद सीट पर उपचुनाव हो रहा था. सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के बतौर आचार्य नरेंद्र देव उपचुनाव लड़ रहे थे. कांग्रेस ने बाबा राघव दास नामक साधु को अपना उम्मीदवार बनाया. वह मूलतः पुणे महाराष्ट्र के रहने वाले थे. कांग्रेस ने आचार्य नरेंद्र देव को नास्तिक बताया. पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी चुनाव प्रचार में आचार्य की नास्तिकता का सवाल उठाया. बाबा राघवदास ने स्वयं घरघर जा कर तुलसी की माला बांटी. वह धर्म के नाम पर चुनाव भी जीत गए.

आजाद भारत में धर्मनिरपेक्षता पर कट्टर हिंदुत्व की यह पहली जीत थी. इस जीत के बाद ही 1949 में बाबरी मस्जिद में रामलला प्रकट हुए. असल में कांग्रेस में कई नेता ऐसे थे जो ब्राहमणवाद के समर्थक थे. इन में महात्मा गांधी और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग भी थे. उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत के विचार अयोध्या विवाद मसले में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से अलग थे. पंत धार्मिक विचार वाले नेता थे और नेहरू धर्म की राजनीति के खिलाफ थे.

1949 में 22 और 23 दिसंबर की आधी रात मस्जिद के अंदर कथित तौर पर चोरी छिपे रामलला की मूर्तियां रख दी गईं. अयोध्या में शोर मच गया कि जन्मभूमि में भगवान प्रकट हुए हैं. मौके पर तैनात कांस्टेबल के हवाले से लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में लिखा गया है कि इस घटना की सूचना कांस्टेबल माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज राम दुबे को दी. ‘50-60 लोगों का एक समूह परिसर का ताला तोड़ कर, दीवारों और सीढ़ियों को फांद कर अंदर घुस आए और श्रीराम की प्रतिमा स्थापित कर दी. साथ ही उन्होंने पीले और गेरुआ रंग में श्रीराम लिख दिया.’

इस के बाद अयोध्या में मंदिर मस्जिद की राजनीति शुरू हो गई. अयोध्या का राम मंदिर मुददा बन चुका था. ‘युद्ध में अयोध्या’ किताब में लेखक पत्रकार हेमंत शर्मा ने मूर्ति रखने के विवाद पर लिखा है कि केरल के अलप्पी के रहने वाले के के नायर 1930 बैच के आईसीएस अफसर थे. फैजाबाद के जिलाधिकारी रहते इन्हीं के कार्यकाल में बाबरी ढांचे में मूर्तियां रखी गईं. बाबरी मामले से जुड़े वह ऐसे व्यक्ति हैं जिन के कार्यकाल में इस मामले में सब से बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया.

नायर 1 जून 1949 को फैजाबाद के कलैक्टर बने. 23 दिसंबर 1949 को जब भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में स्थापित हुईं तो तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत से फौरन मूर्तियां हटवाने को कहा. उत्तर प्रदेश सरकार ने मूर्तियां हटवाने का आदेश भी दिया. जिला मजिस्ट्रेट नायर इस के लिए तैयार नहीं थे. उन्होने दंगों और हिंदुओं की भावनाओं के भड़कने के ड़र से इस आदेश को पूरा करने में असमर्थता जताई.

इस के बाद नेहरू ने दोबारा मूर्तियां हटाने को कहा तो केके नायर ने सरकार को लिखा कि मूर्तियां हटाने से पहले मुझे हटाया जाए. देश के सांप्रदायिक माहौल को देखते हुए सरकार पीछे हट गई. इस पूरे विवाद में कांग्रेस की नीति आजादी के बाद से ही मंदिर समर्थक की रही. विभाजन की त्रासदी के बाद देश में जो सांप्रदायिक हालात थे उस के आगे तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने घुटने टेके. मूर्तियों की पूजा-अर्चना शुरू हुई. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी धर्म के नाम पर झुकते रहे. अयोध्या में ताला खुलवाने और शिलान्यास में राजीव गांधी की धर्म के प्रति स्पष्ठ नीति सामने नहीं रही. कांग्रेस का सौफ्ट हिंदुत्व उस की नीतियों पर भारी पड़ने लगा.

न राम काम आए न हनुमान

कर्नाटक चुनाव में जब हनुमान का नाम ले कर कांग्रेस को जीत हासिल हुई तो पूरी कांग्रेस हनुमान के रंग में रंग कई. मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने इंडिया गठबंधन की मीटिंग इसलिए नहीं होने दी कि कहीं धर्म के विरोध में कोई बयान न मुददा बन जाए जिस से उन की बनी हुई हवा खराब हो जाए. मध्य प्रदेश से भी अधिक भरोसे में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल थे. उन की सरकार ने राम के नाम पर राम वन गमन मार्ग बनवाया था. इस के नाम पर कई बड़े आयोजन कराए थे. उन को लग रहा था जब हिंदुत्व और धर्म के नाम पर वोट मिल रहे हैं तो फिर वह तो सब से बड़े राम के पुजारी है.

एक तरफ छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को राम के नाम पर भरोसा था तो दूसरी तरफ कमलनाथ को हनुमान पर पूरा भरोसा था. कांग्रेस की मजबूरी यह थी कि वह जिस भाजपा के साथ धर्म की राजनीति पर आमनेसामने दोदो हाथ कर रही थी वह धर्म के सब से ताकतवर खिलाड़ी थी. कांग्रेस ने न केवल अपने इंडिया गठबंधन के साथियों के साथ दगा किया बल्कि जो चुनावी मुददे वहां इंडिया गठबंधन के थे उन को भी छोड़ कर सौफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ी. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सौफ्ट हिंदुत्व बनाम हार्ड हिंदुत्व की दो पाटन की चक्की के बीच फंस गई. ऐसे में उस का साबुत बचना संभव नहीं था वह दोनों प्रदेश हार गई.

देखा जाए तो कांग्रेस और भाजपा के बीच वोट प्रतिशत में बहुत अंतर नहीं रहा है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख 64 हजार वोट मिले जबकि सरकार बनाने वाली भाजपा को 2 करोड़ 11 लाख 13 हजार वोट मिले. इसी तरह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को 66 लाख 2 हजार 588 वोट मिले और भाजपा को 72 लाख 34 हजार 968 वोट मिले.

अगर जनता में साफ संदेश गया होता तो कांग्रेस के लिए सत्ता हासिल करना कठिन नहीं था. साफ राजनीतिक विचार न होने के कारण कांग्रेस को भाजपा की बी टीम मान कर जनता ने ए टीम को ही चुन लिया. 3 राज्यों की हार से इंडिया गठबंधन में कांग्रेस की ताकत घटी है.
इस के बाद भी कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जो टूटे दिलों को जोड़ कर भाजपा के खिलाफ 2024 के लोकसभा चुनाव में एक विकल्प दे सकती है. उस के पहले उसे अपने साथियों को जादू की एक झप्पी देनी होगी.

अच्छी बात यह है कि क्षेत्रीय दलों का झगड़ा कांग्रेस के हाई कमान से नहीं है. ऐसे में घाव भरना सरल होगा. क्षेत्रीय दलों की लड़ाई कांग्रेस के प्रदेश स्तर के नेताओं तक ही सीमित है. कांग्रेस हाई कमान को इंडिया गठबंधन को ले कर जल्द सक्रिय होना पड़ेगा और बड़ा दिल दिखाते हुए सब को साथ ले कर चलने और लोकसभा की सीटों के बटवारे पर काम करना होगा. आपसी मतभेद दूर करने होंगे क्योंकि टूटे मन से कोई लड़ाई नहीं जीती जा सकती है.

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