लखनऊ शहर के ऐतिहासिक ग्राउंड बेगम हजरत महल पार्क में चारों तरफ हरी घास फैली हुई थी. पर, एक कोने की घास काफी हद तक बच्चों ने क्रिकेट खेल कर खराब कर दी थी, लेकिन इन बच्चों को, जिन में से अधिकांश किशोर उम्र के थे, इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था उन्हें तो खेलने के लिए एक अदद मैदान चाहिए था, जो इस बेगम हजरत महल पार्क के रूप में उन्हें मिल गया था.

न जाने कितनी राजनीतिक और ऐतिहासिक रैलियों का गवाह बना है ये पार्क. इस पार्क के ठीक सामने 2 मकबरे बने हुए हैं. इन मकबरों के गुंबद आसमान को छूते हैं. एक तो नवाब सआदत अली खान का मकबरा है और दूसरा मकबरा उन की बेगम का है.

प्रेमी जोड़ों की प्रेमभरी बातों और शिकवेशिकायतों का गवाह बनी हैं ये मकबरे की इमारत और आज इसी मकबरे की इमारत की छाया में सबा और सुकुमार कभी आने वाले जीवन के बारे में संजीदा हो रहे हैं, तो कभी मामले की गंभीरता को हलका करने के लिए हलकीफुलकी नोकझोंक भरी बातें भी कर लेते हैं.

‘‘ये मकबरे असली प्रेम की निशानी होते हैं, चाहे कितने ही साल बीत जाएं, पर मरने के बाद भी दो जिस्म एकदूसरे के पास रहते हैं,‘‘ सबा ने मकबरे की तरफ देखते हुए कहा.

थोड़ी देर के लिए सुकुमार गंभीरता ओढ़े बैठा रहा, फिर चुटकी लेते हुए बोला, “अरे, मरने के बाद अगर किसी मकबरे में आप के शरीर को दफन भी कर दिया जाए तो क्या बात है? अरे, मजा तो तब है, जब जीतेजी मुहब्बत को जिया जाए,” कहते हुए सुकुमार ने सबा का हाथ थाम लिया था. पता नहीं क्यों, पर उन्हें एकदूसरे से दूर कर दिए जाने का एक अनजाना सा भय भी लग रहा था.

सुकुमार ने सबा को छेड़ने की गरज से कहा, ‘‘वैसे, तुम्हारे शहर आगरा में तो ताजमहल नाम का एक ही मकबरा है, पर हमारे शहर लखनऊ में तो देखो मकबरों के साथ कितनी  ऐतिहासिक इमारतें भी हैं.‘‘

“हां, है तो एक ही, पर एक ताजमहल ही सब पर भारी है, पर क्या हमारी मुहब्बत भी कहीं नाकाम मुहब्बत न बन कर रह जाएगी? और क्या हमारे एकसाथ जिंदगी बिताने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा? काश, हमारा भी छोटा सा घर होता और वहां सिर्फ मैं और तुम ही होते.”

सबा ने अपने घोंसले में वापस आती चिड़ियों को देख कर कहा.

सबा की बात पर सुकुमार खामोश बैठा रहा. दोनों एकदूसरे की खामोशी को सिर्फ सुन ही नहीं रहे थे, बल्कि कुछ अनपूछे सवालों के जवाब समझ भी रहे थे.

सुकुमार लखनऊ के एक प्राइवेट सैक्टर में काम करता था, जबकि आगरा की रहने वाली सबा लखनऊ के सेवा अस्पताल में नर्स का काम करती थी और चैक इलाके में पेइंग गेस्ट के तौर पर रहती थी. वह समय मिलने पर अपने अम्मीअब्बू से मिलने आगरा जाती थी या कभीकभी उन दोनों को ही अपने पास बुला लेती थी.

सुकुमार की मुलाकात सबा से अस्पताल में ही हुई. उसे अपनी दाढ़ का रूट कैनाल ट्रीटमेंट कराना था, इसलिए वह सेवा अस्पताल के दंत विभाग में जाता था. बस, इसी सेवा अस्पताल में एक बार सुकुमार की मुलाकात एक गेहुंए रंग की लड़की से हुई, जो सुकुमार के मन को भा गई थी और उस लड़की को भी सुकुमार की हाजिरजवाबी भा गई थी.

सुकुमार की दाढ़ का इलाज भले ही हो गया था, पर वह अस्पताल जाता रहा, क्योंकि उसे सबा से मुलाकात जो करनी होती थी और ये मुलाकात धीरेधीरे प्यार में बदल गई.

28 साल के सुकुमार और 24 साल की सबा का ये प्यार कोई टाइमपास करने वाला प्यार नहीं था, बल्कि दोनों इस मुहब्बत को शादी में बदलना चाहते थे, मगर दोनों इस बात की गंभीरता और खतरे भी जानते थे, क्योंकि सुकुमार हिंदू था और सबा एक मुसलिम परिवार से आती थी, इसलिए अलगअलग धर्म से होने के कारण राह में आने वाली परेशानियों का अंदाजा दोनों को था.

सबा और सुकुमार अच्छी तरह से जानते थे कि उन के घर वाले इस शादी के लिए कभी नही मानेंगे. इसलिए सबा तो सुकुमार से कोर्ट मैरिज कर के अलग रहने पर भी राजी थी. वह कहती थी कि अगर घर वाले अनुमति न दें, तो वह घर वालों से अलग रहने लगे. पर, फिर भी बात तो बात करने से ही बनती है न, इसलिए इस बात की पहल सबा ने अपने घर में की तो मानो घर में बम फट गया था. मुन्ना भाई पूरे घर में चिल्लाता फिरता था और अम्मी अलग कोने में बड़बड़ा रही थीं, इन सभी बातों के लिए सबा की पढ़ाई को ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा था.

“मैं कहती थी न कि लड़की जात को इतना पढ़ाना ठीक नहीं. अरे, अगर पढ़लिख भी गई, तो नौकरी करने के लिए इतनी दूर भेजने की क्या जरूरत थी. अरे, आगरा में भी हजार नौकरियां थीं. अब भुगतो.”

सिर्फ अब्बू ही थे, जो दो जवां दिलों के जज्बात को समझ रहे थे. सबा ने किचन से देखा कि वे खिड़की पर खड़े हो कर नीचे सड़क पर झांक रहे थे. भले ही वे खामोश थे, अलबत्ता उन के दिमाग में भी अंधड़ तो चल ही रहा था.

‘‘मुन्ना की अम्मी, नौकरीपेशा लड़की है और उस पर से जवान भी है. इस उम्र में दिमाग आसानी से बगावत कर सकता है और कहीं कुछ ऊंचनीच कर बैठी तो हम अपनेआप को कभी माफ नहीं कर पाएंगे,‘‘ बड़े लाचार से दिख रहे अब्बू की आवाज में दोनों की शादी के लिए स्वीकार भाव था और यह स्वीकार भाव अम्मी को भी समझ आ गया था. शादी के लिए उन दोनों की स्वीकृति तुरंत तो नहीं मिली, पर सबा को काफीकुछ समझ आ गया था.

लड़की हो कर सबा ने अपने घर में अपनी ही शादी एक हिंदू लड़के से करने की बात कहने की हिम्मत दिखाई, पर सुकुमार यह हिम्मत नहीं कर पा रहा था. इस की वजह थी उस के पिता की बीमारी. सुकुमार के पिता किडनी इन्फेक्शन से पीड़ित थे और ऐसी हालत में वह अपने पिता को कोई टैंशन नहीं देना चाहता था, पर जब सबा ने सुकुमार से कहा कि अगर उस के अंदर हिम्मत नहीं है, तो वह खुद उस के पिता से मिल कर अपनी शादी की बात करेगी, पर उस की बात सुन कर सुकुमार ने कहा कि वह आज खुद ही बात कर लेगा.

“आकर्षण तो विरोध में ही होता है, पर शादियां अपने धर्म और बराबरी वालों में ही हों तो ठीक रहता है, क्योंकि मैं ने न जाने कितने प्रेमियों को देखा है, जो अलगअलग जाति के होने के कारण शादी नहीं कर सके,” एक लंबी सांस छोड़ते हुए सुकुमार के पिताजी ने कहा.

पिताजी की आंखों में अतीत लहरा रहा था. उन्हें वह महल्ला याद आ रहा था, जिस में वे रहा करते थे और वहां रहने वाली एक ईसाई लडकी से उन्हें प्रेम हुआ था और वे दोनों आपस में शादी करना चाहते थे, पर उन के घर में कोई राजी नहीं था. उन्हें ताने मिलने लगे और चरित्रहीन तक कहा गया. महल्ले वालों ने घर आ कर धमकी दी कि लड़के ने धर्म विरोधी काम किया, तो पूरे परिवार को महल्ला छोड़ कर जाना होगा. घर वाले मजबूर दिखे, इसलिए अपना मन मसोस कर अपने धर्म में ही शादी कर ली.

सुकुमार के पिताजी ने यह कहते हुए सुकुमार को सबा से शादी की अनुमति दे दी, ‘‘अगर वह ठीक समझता है, तो सबा से शादी कर सकता है.’’

सुकुमार ने सबा से यह बात बताई तो वह भी बहुत खुश हुई. दोनों परिवारों के मां और पिता में मुलाकात जरूरी थी, इसलिए एक दिन निश्चित किया गया और नियत दिन पर सबा के अम्मीअब्बू आगरा से लखनऊ आ गए. ये मुलाकात ‘‘मीना महल‘‘ नाम के एक होटल में रखी गई.

सबा और सुकुमार अपने परिवार के साथ थे, पर फिर भी दोनों की प्रेमभरी नजरें एकदूसरे से टकरा ही जाती थीं. शुरुआत में दोनों परिवार थोड़े असहज लगे, पर धीरेधीरे दोनों में बातचीत आगे बढ़ी तो वे घुलनेमिलने लगे और अब तक दोनों परिवारों ने सबा और सुकुमार के मन में चलने वाले प्रेम के बवंडर को भी जान और पहचान लिया था, इसलिए शादी की तारीख पर दोनों परिवारों ने मुहर लगा दी. सबा के बड़े भाई मुन्ना ने इस शादी में शामिल होने से इनकार कर दिया था.

अगले दिन सुकुमार ने अपने औफिस में शादी के लिए छुट्टी की अर्जी लगा दी और बातोंबातों में यह बात सब को पता चल गई कि सुकुमार एक मुसलिम लड़की से शादी कर रहा है. कुछ दोस्तों ने खुशी व्यक्त की, तो कुछ ने धर्म विरोधी कह कर सुकुमार का मजाक उड़ाया.

शाम का समय था. सुकुमार परिवार के साथ बैठा चाय पी रहा था, तभी “छनाक‘‘ की आवाज के साथ खिड़की के शीशे के टूटने की आवाज आई, तो सुकुमार ने बाहर की ओर देखा. ये 5-7 लोग थे, जो काफी गुस्से में दिख रहे थे और उसी गुस्से के अतिरेक के कारण उन्होंने शीशा तोड़ दिया था.

“क्या चाहते हैं आप लोग? और ये… ये क्या बदतमीजी है?” सुकुमार ने दरवाजा खोलते हुए कहा, तो उन मुस्टंडे लड़कों में से एक ने सुकुमार का गरीबान पकड़ लिया और उसे धमकाने लगा. ये सब हिंदू युवा ब्रिगेड के लड़के थे.
“सुना है कि तू किसी मुसलिम लड़की से शादी कर रहा है. अरे, अपने धर्म का कुछ तो खयाल कर. या तेरी बुद्धि ही फिर गई है. याद रख, अगर महल्ले में रहना है, तो अपने धर्म के हिसाब से रहना होगा. अगर किसी दूसरे धर्म की लड़की से शादी की, तो अंजाम ठीक नहीं होगा,” उन लोगों ने धमकी दी थी.

यह सुन कर सुकुमार डर तो गया ही था. वह अंदर आ कर सोफे में धम्म से बैठ गया. पिताजी भी घर में थे. उन्होंने भी सब देखा और सुना था.

“ये महल्ले के चंद लड़कों ने हमारे जीवन का ठेका ले रखा है क्या? हमें क्या खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए, ये हमे बताएंगे क्या…?” सुकुमार के पिता का बरसों से दबा हुआ आवेग गुस्से की शक्ल में बाहर आ रहा था.

“आज ये कह रहे है कि इस से शादी मत करो, तो कल को कहेंगे कि इस दुनिया में सांस मत लो और ये धर्म के ठेकेदार आज की दुनिया में ही नही हैं. ये 50 साल पहले भी ऐसे ही थे. अगर इन को ठीक से सबक नहीं सिखाया गया, तो ये सारे समाज की ठेकेदारी अपने नाम लिखा लेंगे,” सुकुमार के पिताजी ने उस को हिम्मत देते हुए कहा कि उस की शादी सबा से ही होगी, चाहे इस के लिए उन्हें कुछ भी करना पड़े, क्योंकि अब वे ये नहीं चाहते थे कि इतिहास अपने को दोहराए और जो उन के साथ हुआ, वह उन के बेटे के साथ न हो.

सुकुमार के पिता यह बात समझ चुके थे कि समाज के ठेकेदार उन्हें यहां रहते हुए तो शादी नहीं करने देंगे, इसलिए उन्होंने सबा का नंबर ले कर उस से बात कर कुछ पूछताछ की और जब शाम को सुकुमार घर आया तो उन्होंने उस से कहा कि वह कैरियर और प्रेम में एक का चुन ले.

“क्या मतलब पापा…?”

सुकुमार के पिता ने उस से कहा कि वह इस महल्ले में रहते हुए सबा से शादी नहीं कर सकता, इसलिए उन्हें यह महल्ला… या बेहतर होगा कि ये शहर छोड़ कर कहीं और जाना होगा. उन्होंने सबा की स्वीकृति ले ली है. वह अपना ट्रांसफर सीतापुर की ब्रांच में करा लेगी, पर चूंकि सुकुमार की जौब प्राइवेट है, इसलिए उस का ट्रांसफर तो हो नहीं सकता. अतः जौब छोड़ना ही उस के लिए एकमात्र औप्शन होगा.

“ठीक है पापा, मैं सबा को पाने के लिए ये भी करने को तैयार हूं.”

सबा और सुकुमार ने यही किया. शादी के बाद दोनों सीतापुर शिफ्ट हो गए. दोनों ने एक छोटा सा घर किराए पर ले लिया था. वे दोनों खुशी से रह रहे थे, पर सबा से शादी करने के फेर में सुकुमार की नौकरी छूट गई थी और उसे अपने मातापिता को छोड़ कर सीतापुर आना पड़ गया था.

सबा के नौकरी पर जाने के बाद सुकुमार एकदम अकेला हो जाता. हालांकि उस का बायोडाटा नौकरी डौट कौम पर अपलोड था, पर नौकरी मिलने में समय लगता है और दूसरी तरफ अपने पापा की बिगड़ती तबीयत उस की चिंता का कारण बन रही थी.

उस की ये परेशानी सबा समझ गई थी और उस ने सुकुमार से कहा, ‘‘जिन मम्मीपापा ने समाज की परवाह न करते हुए हमारी शादी कराई है, उन्हें भला हम अकेले कैसे छोड़ देंगे. आप मम्मीपापा को यहां सीतापुर ही बुला लीजिए.‘‘

“पर, यह तो किराए का मकान है. वह भी सिर्फ 2 कमरों का,” सुकुमार झिझका.

“अगर एक कमरा भी होता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता था. दिल में जगह हो तो घर अपनेआप बड़ा हो जाता है. यहां पर उन की किडनी इन्फेक्शन का इलाज भी अपनी नजरों के सामने ही कराऊंगी और जरूरत पड़ी तो उन्हें अपनी किडनी भी देने से पीछे नही हटूंगी,” सबा ने कहा, तो सुकुमार उस की समझदारी देख कर भावुक हो गया.

आननफानन में सुकुमार ने अपने पापा से बात कर मम्मी के साथ उन्हें भी सीतापुर बुला लिया. अब वे चारों लोग एकसाथ रहने लगे.

सबा ने अपने ससुर की किडनी की सारी जांचें कराईं और उन की रिपोर्ट आने के बाद डाक्टर ने ट्रीटमेंट शुरू कर दिया. लखनऊ में सुकुमार नौकरी करता था और उस के बाहर जाने के बाद पिताजी की दवाओं का ध्यान रखना और उन को नियमित रूप से जांच कराने के लिए अस्पताल ले जाना संभव नहीं हो पाता था. पर यहां तो बहू के रूप में उन के पास सबा थी, जो उन का पूरा ध्यान रखती और सारी जांचें समय से कराती. सही देखभाल और दवा के ठीक इस्तेमाल से तबीयत में सुधार होने लगा.

डाक्टरों ने यह बताया था कि अब उन्हें सबा से किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत नहीं पड़ेगी, सिर्फ दवाएं खा कर ही बीमारी कंट्रोल में रह सकती है.

पिताजी ने अपनी जीवनशैली को भी नियमित कर रखा था. सबा को सुबह 8 बजे अस्पताल के लिए निकलना होता. पिताजी सुबह 5 बजे उठते. हालांकि, वे खुद तो चाय नहीं पीते थे,  पर सबा के लिए एक कप चाय जरूर बना देते. अपने ससुर का प्यार देख कर सबा निहाल हुए जाती थी. सच ही तो है कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती और ताली की आवाज से प्यार का संगीत तब ही सुनाई देता है, जब प्यार का परस्पर लेनादेना हो.

आएदिन इस महल्ले में दोनों धर्मों के ही कोई न कोई धर्मिक अनुष्ठान और कार्यक्रम होते थे. पर, ये परिवार किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में भाग नहीं लेते थे. उन्हें इन सब चीजों की जरूरत ही नहीं महसूस हुई.

सबा के सासससुर को उन की बहू और बेटे का प्रेम मिल रहा था, क्योंकि उन्होंने भी तो सबा को अपना प्रेम और सम्मान दिया था.

इस परिवार में धर्म के नाम पर कोई बहसबाजी कभी नहीं हुई, क्योंकि धर्म हमें एकदूसरे से श्रेष्ठ होना बताता है और दूसरे को नीचा बताता है. पर, सच्चा प्रेम वही होता है, जो एकदूसरे को बराबरी का दर्जा दे.

प्रेम के सौदे में कभी घाटा नहीं होता, प्यार और मुहब्बत का सौदा ही तो होता है खरा सौदा प्रेम का.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...