15 अगस्त, 2023 को लालकिले की प्राचीर पर झंडारोहण करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की जनता को संबोधित कर रहे थे. 77वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आयोजित समारोह को मनाने के लिए सामने की दीर्घा में देश की जानीमानी राजनीतिक हस्तियों और सम्मानित अतिथियों के बीच देश के उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ भी उपस्थित थे.

भाषण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने उन की ओर देखते हुए क्षेत्रीय भाषाओं में अदालती फैसले उपलब्ध कराने को ले कर सुप्रीम कोर्ट की सराहना की और धन्यवाद दिया तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने भी हाथ जोड़ कर मुसकराते हुए उन का अभिवादन किया.

उस दिन चंद सैकंड का यह दृश्य तमाम टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज था. वहीं कार्यक्रम की समाप्ति पर देश के गृहमंत्री अमित शाह से आमनासामना होने पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने हाथ जोड़ कर उन का भी अभिवादन किया तो बड़ अनमने ढंग से गृहमंत्री ने भी हाथ जोड़े और चलते बने.

इस दृश्य को भी तमाम कैमरों ने कैद किया. दरअसल जस्टिस चंद्रचूड़ जब से प्रधान न्यायाधीश की कुरसी पर विराजमान हुए हैं, उन्होंने अपने कई फैसलों और फटकारों से सरकार की नाक में दम कर रखा है. यही वजह है कि कुछ समय पहले जहां सरकार कलीजियम को ले कर सुप्रीम कोर्ट को आंखें दिखाने की कोशिश में थी, वहीं मणिपुर और नूंह की घटनाओं के बाद अब उस से आंखें मिलाने में उसे शर्म आ रही है.

ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब कलीजियम को ले कर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में जारी रस्साकशी को पूरा देश देख रहा था. उस वक्त भाजपा के कानून मंत्री रहे किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को ‘संविधान से परे’ और एलियन करार दे दिया था. जज चुने जाने की प्रक्रिया पर भाईभतीजावाद और ‘अंकल संस्कृति’ का आरोप मढ़ कर उन्होंने सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ बाकायदा एक मुहिम शुरू कर दी थी.

फिर अचानक उन्हें कानून मंत्री की कुरसी से उतार कर गृह राज्यमंत्री बना दिया गया. अंदरखाने बात यह थी कि मोदी सरकार समझ गई थी कि रिजिजू की हरकतें सरकार पर भारी पड़ सकती हैं.

एक वक्त था जब देश के सब से बड़े न्याय के दरवाजे के आगे हर छोटेबड़े का सिर सम्मान से झुकता था. मगर मोदी सरकार सत्ता में आई तो उस ने सब को अपने अंगूठे के नीचे दबाने की नीति पर चलना शुरू किया. क्या पुलिस, क्या सीबीआई, क्या ईडी, क्या मीडिया सब को ऐसा काबू किया कि संविधान की शपथ खा कर बड़ेबड़े संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भूल गए कि उन्हें देश के कानून और संविधान के अनुसार काम करना है, न कि किसी राजनीतिक पार्टी की सत्ता में बने रहने की लालसा को पूरा करने के लिए.

सरकार के रवैए को देखते हुए इधर कुछ अंधभक्तों और ट्रोल आर्मी ने भी सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट को ट्रोल करने की कोशिश की. हालांकि, उदार हृदय कोर्ट ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और कानून के दायरे में अपने फैसले करती रही. उन में से ज्यादातर सरकार के कान उमेठने वाले थे और लगातार सरकार को परेशान कर रहे थे. मुख्य मुद्दे जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई शुरू की ये हैं:

  • समाजसेवी तीस्ता सीतलवाड़ की रिहाई का मामला.
  • गुजरात दंगे की पीडि़ता बिल्किस बानो के अपराधियों को जेल से रिहा किए जाने का मामला.
  • प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख संजय कुमार मिश्रा को सेवाविस्तार देने का मामला.
  • उत्तर प्रदेश में पुलिस कस्टडी में पूर्व सांसद अतीक अहमद और उस के भाई अशरफ की हत्या का मामला.
  • भाजपा नेता ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर जांच का आदेश देने का मामला.
  • उत्तर प्रदेश में 2017 के बाद हुए एनकाउंटर्स की रिपोर्ट तलब करना.

इन में से कई मामलों में सरकार की तरफ से जवाब दाखिल हो रहे थे, मगर जब मणिपुर की बर्बर घटना एक वीडियो के माध्यम से देश के सामने आई तो सुप्रीम कोर्ट के सब्र का प्याला छलक उठा.

सुप्रीम कोर्ट हैरान थी कि 4 महीने तक मणिपुर में एक समुदाय के खिलाफ आगजनी, हत्या, हिंसा, लूट और उन की औरतों को निर्वस्त्र कर उन की परेड निकालने का वीभत्स कांड जारी रहा, मगर मणिपुर के भाजपाई मुख्यमंत्री से ले कर उन का पूरा सरकारी तंत्र आंखों पर पट्टी व कानों में तेल डाले बैठा रहा.

चीफ जस्टिस औफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ हैरान थे कि कैसे मणिपुर की पुलिस ने खुद दंगाइयों को आगजनी और ईसाई महिलाओं के साथ हिंसा, बलात्कार, नग्न परेड निकालने और फिर उन्हें मार डालने की खुली छूट दी. महिलाओं के साथ हुई बर्बरता के वीडियो जब सोशल मीडिया पर जारी होने लगे और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने उन वीडियो को देखा तब चीफ जस्टिस औफ इंडिया को बड़े सख्त लहजे में कहना पड़ा, ‘अगर सरकार कोई ऐक्शन नहीं लेती है तो हमें लेना होगा.’

मोदी सरकार तो अब तक मामले को दबाए बैठी थी. भारत के गृहमंत्री उस दौरान कई बार मणिपुर का दौरा कर चुके थे. मगर मामले पर चुप्पी साधे बैठे थे. सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद उन्होंने जांच शुरू करवाने की बात मुंह से निकाली. मणिपुर की स्थिति से नाराज उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी थी, ‘2 महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाने वाला वीडियो बहुत परेशान करने वाला है. पुलिस की जांच बहुत ही सुस्त है. प्राथमिकियां बहुत देर से दर्ज की गई हैं. गिरफ्तारियां नहीं की गईं और बयान तक दर्ज नहीं हुए हैं. राज्य में कानून व्यवस्था और संवैधानिक मशीनरी पूरी तरह ध्वस्त हो गई है.’

मणिपुर पीडि़ताओं को राहत पहुंचाने के उद्देश्य से गठित सुप्रीम कोर्ट की अपनी कमेटी में जम्मूकश्मीर उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश रहीं गीता मित्तल हैं जो कमेटी की हैड हैं और उन के साथ 2 अन्य सदस्य रिटायर्ड जस्टिस शालिनी पी जोशी और जस्टिस आशा मेनन हैं. यह कमेटी मणिपुर में पीडि़तों की एफआईआर पर हो रही जांच की निगरानी के साथसाथ पीडि़तों के लिए हो रहे राहत कार्यों, उपचार, मुआवजे, पुनर्वास आदि कामों की जांच कर रही है.

अब कमेटी जैसेजैसे अपना काम आगे बढ़ा रही है, मणिपुर सरकार के ही नहीं, केंद्र सरकार के भी हाथपैर फूल रहे हैं.

दरअसल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों के तहत भाजपा पूरे देश में ध्रुवीकरण का खेल खेलना चाहती है. उस का पहला शिकार मणिपुर बना है, जहां ईसाई और मुसलिम धर्म को मानने वाले कुकी समुदाय पर मैतेई समुदाय के हिंदू दंगाइयों ने कहर बरपाया और सरकार व उस की पुलिस ने उन्हें ऐसा करने की खुली छूट दी.

उस के बाद हरियाणा के नूंह में दंगा हुआ जो मेवात सहित कई जिलों में फैल गया. मगर सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैए के चलते इन पर जल्दी ही काबू पा लिया गया.

मोदी सरकार में कई राज्यों में गवर्नर रह चुके और भाजपा की राजनीति को लंबे समय से बहुत करीब से देखने वाले सत्यपाल मलिक के एक इंटरव्यू को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है, जिस में उन्होंने कहा है कि ‘मोदीशाह सत्ता के लिए कुछ भी कर सकते हैं. 2019 के चुनावों के पहले पुलवामा हो गया था, जिस के बिना भाजपा नोटबंदी के कारण पैदा हुई अलोकप्रियता के कारण हारने की कगार पर थी. लेकिन पुलवामा के कारण मोदी को जीत मिली. अब 2024 के चुनावों में भी मोदीशाह को हार की आशंका सता रही है. ऐसे में फिर से कोई घटना हो जाए या जगहजगह दंगे भड़क जाएं तो कोई ताज्जुब की बात न होगी.’

सुप्रीम कोर्ट भी 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्र की मोदी सरकार और जो राज्य भाजपा शासित हैं, सब पर अपनी कड़ी नजर बनाए हुए है. इस के चलते सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवाद की लहर चला कर सत्ता में पहुंचने की भाजपा की कोशिश थोड़ी कमजोर पड़ गई है. वरना नूंह में मोनू मानेसर, बंटी जैसे बजरंग दल और विहिप के लोगों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से जिस तरह दंगे भड़काए गए, अगर सुप्रीम कोर्ट ऐक्शन में न आता तो पूरे देश में इन की पुनरावृत्ति होती.

नूंह में जब काफी दम लगाने के बाद भी दंगाई उन्माद नहीं भड़का पाए तो बौखलाहट में आ कर खट्टर सरकार ने नूंह की आम मुसलमान आबादी के घरों पर बुलडोजर चलवा दिया.

नूंह में हुए दंगों पर सरकार के खिलाफ सख्ती बरतने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि जहां भी हेट स्पीच होगी, उस से कानून के अनुसार निबटा जाएगा. हम इस बात पर ध्यान नहीं देंगे कि किस पक्ष ने क्या किया. हम नफरत फैलाने वाले भाषणों और उन लोगों से कानून के मुताबिक निबटेंगे.

इस बीच, सुप्रीम कोर्ट लगातार महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों पर भी नजर बनाए हुए है. हाल ही में यौनहिंसा के संबंध में उस ने वक्तव्य दिया कि भीड़ दूसरे समुदाय को अधीनता का संदेश देने के लिए यौनहिंसा करती है और राज्य इसे रोकने के लिए बाध्य हैं.

10 अगस्त को अपने 36 पेजी एक आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिलाओं को यौन अपराधों और हिंसा का शिकार बनाना पूरी तरह से अस्वीकार्य है और यह गरिमा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता के संवैधानिक मूल्यों का गंभीर उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि कि हेट क्राइम और हेट स्पीच पूरी तरह अस्वीकार्य है, आप देखें कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों.

महिलाओं की सुरक्षा और गरिमा की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रयास बेहद सराहनीय हैं. जो काम सरकार और उस की मशीनरी को करना चाहिए, उस का जिम्मा देश की सब से बड़ी अदालत ने अपने सिर लिया है. हाल ही में अपने एक फैसले में कोर्ट ने कहा है कि अब कोर्ट के भीतर महिलाओं के लिए वेश्या, रखैल, फूहड़, प्रोस्टिट्यूट, मिस्ट्रैस जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं होगा.

कोर्ट ने लैंगिक रूढि़वादिता से निबटने के लिए बाकायदा एक हैंडबुक जारी की है, जिस में वैकल्पिक शब्दों के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया है. यह हैंडबुक वकीलों के साथसाथ जजों के लिए भी है. इस हैंडबुक में स्पष्ट किया गया है कि ऐसे शब्द गलत क्यों हैं और वे मुकदमों को कैसे बिगाड़ते हैं.

मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने इस हैंडबुक को जारी करते हुए कहा, ‘‘महिला की गरिमा बनाए रखने के लिए यह जरूरी था.’’ उन्होंने यह भी कहा कि किसी महिला की पोशाक न तो उसे छूने का आमंत्रण है और न ही यौन संबंधों में संलग्न होने का इशारा है. किसी के चरित्र के बारे में उस के कपड़ों की पसंद या यौन संबंधों के इतिहास के आधार पर धारणाएं बनाना रूढि़वादी सोच है, इसे बदलना होगा.

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया पर अभद्र और अपमानजनक पोस्ट को ले कर भी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए ट्रोल आर्मी को कड़ा संदेश दिया है. कोर्ट ने कहा है कि सोशल मीडिया पर अपमानजनक पोस्ट करने वालों को सजा मिलनी जरूरी है.

जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस प्रशांत कुमार की बैंच ने इस मामले में सख्ती दिखाते हुए कहा कि ऐसे लोग अब माफी मांग कर आपराधिक कार्यवाही से बच नहीं सकते हैं. उन्हें अपने किए का नतीजा भुगतना पड़ेगा.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के ये तमाम फैसले भाजपा और संघ के लिए मुसीबत बन रहे हैं क्योंकि हेट स्पीच, ट्रोल आर्मी, सांप्रदायिक भाषण और दंगे भड़का कर महिलाओं को अपना शिकार बनाए बिना मिशन 2024 कैसे पूरा हो सकता है. ज्वलंत भाषणों पर अब सुप्रीम कोर्ट की पैनी नजर है. सरकार जहांजहां भी कुछ करतूत करने की कोशिश में है, सुप्रीम कोर्ट वहांवहां उस पर चोट कर रही है. इस से मोदी सरकार बौखलाई हुई है.

इधर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी कोर्ट काफी सख्ती बरत रही है. मोदी के गहन मित्र अडानी को ले कर जस्टिस चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट में कमेटी बना दी. अडानी-हिंडनबर्ग केस में जांच के लिए 6 सदस्यीय एक्सपर्ट कमेटी में रिटायर जस्टिस ए एम सप्रे के अलावा ओ पी भट्ट, जस्टिस के पी देवदत्त, के वी कामत, एन नीलकेणी, सोमेशेखर सुंदरेशन शामिल हैं. इन का काम जारी है.

कोर्ट की इस सख्ती से विपक्ष को ताकत और हौसला मिला है. हाल ही में मोदी सरनेम केस में सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को बड़ी राहत देते हुए न सिर्फ गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया, बल्कि राहुल की 2 साल की सजा पर भी रोक लगा दी है. इस के तुरंत बाद जहां राहुल गांधी की सांसदी बहाल हो गई, वहीं उन्होंने इस बार अमेठी से चुनाव लड़ने का भी मन बना लिया है. इस से भाजपा नेत्री स्मृति ईरानी के पांवतले जमीन हिल रही है क्योंकि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद राहुल का ग्राफ काफी ऊंचा चल रहा है.

उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस संजय कुमार की बैंच ने गुजरात हाईकोर्ट से पूछा कि हम जानना चाहते हैं कि ट्रायल कोर्ट ने मामले में अधिकतम सजा क्यों दी? जज को फैसले में यह बात बतानी चाहिए थी. अगर जज ने एक साल ग्यारह महीने की सजा दी होती तो राहुल गांधी को सांसद होने से डिस्क्वालिफाई न किया जाता. अधिकतम सजा के चलते एक लोकसभा सीट बिना सांसद के रह गई. यह सिर्फ एक व्यक्ति के अधिकार का ही मामला नहीं है, यह उस सीट के वोटर्स के अधिकार से भी जुड़ा मसला है.

सुप्रीम कोर्ट के ऐसे रवैए और ऐसे फैसलों से केंद्र सरकार की हालत अब खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे वाली हो गई है.

दिल्ली सरकार के अधिकारियों की नियुक्ति और उन के कामकाज के मामले में भी शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार की मंशा पर उंगली उठाई है. उस ने दिल्ली सरकार के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्ंिटग में केंद्र सरकार की दखलंदाजी पर कड़ी आपत्ति जताई है. इस मामले में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता से सीधा सवाल किया कि अगर दिल्ली में प्रशासन केंद्र सरकार के इशारे पर ही चलाया जाना है तो एक निर्वाचित सरकार होने का क्या मतलब है?

भाजपा नेता और ब्रजभूषण शरण सिंह को देश की ख्यात रेसलर्स के यौनशोषण मामले में बचाने के लिए पूरी पार्टी और पुलिस जिस तरह से लगी हुई थी, वह पूरे देश ने देखा. अगर जस्टिस चंद्रचूड़ इस मामले में ब्रजभूषण के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए न कहते तो लोगों को पता भी न लगता कि यह बाहुबली खेलों की आड़ में कर क्या रहा है.

सरकार की किरकिरी

केंद्र सरकार के चहेते अधिकारी संजय कुमार मिश्रा, जो वर्तमान में प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख हैं और सरकार के मिशन को आगे बढ़ाने में अपना भरपूर सहयोग देते रहे हैं, का सेवाविस्तार बारबार बढ़ाए जाने को ले कर भी सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा सख्त रुख इख्तियार किया है.

सरकार ने मिश्रा का कार्यकाल एक बार फिर अक्तूबर 2023 तक बढ़ाने की कोशिश की थी, मगर शीर्ष कोर्ट ने अपने फैसले में इसे छांट कर 15 सितंबर मध्यरात्रि तक कर दिया है. वह भी इस वजह से कि सरकार की तरफ से दाखिल याचिका में कहा गया था कि- फाइनैंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स की समीक्षा प्रक्रिया के दौरान उन का पद पर बने रहना आवश्यक है और भारत के पड़ोसी देश लगातार प्रयास कर रहे हैं कि देश ग्रे सूची में चला जाए.

गौरतलब है कि इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति विक्रमनाथ और न्यायमूर्ति संजय करोल की पीठ कर रही है. पीठ ने कहा, ‘सामान्य परिस्थितियों में ऐसे आवेदन पर विचार नहीं किया जाता. विशेष रूप से तब जब 17 नवंबर, 2021 और 17 नवंबर, 2022 को जारी आदेशों के माध्यम से संजय मिश्रा को दिए कार्यकाल विस्तार को गैरकानूनी करार दिया जा चुका है.’

संजय मिश्रा का कार्यकाल बढ़ाने के केंद्र सरकार के अनुरोध पर कोर्ट ने बहुत तल्ख टिप्पणी की. कोर्ट ने कहा, ‘क्या हम यह छवि पेश नहीं कर रहे हैं कि मिश्रा के अलावा और कोई नहीं है तथा पूरा विभाग अयोग्य लोगों से भरा पड़ा है? क्या यह विभाग का मनोबल तोड़ने जैसा नहीं है कि अगर एक व्यक्ति नहीं है तो विभाग काम नहीं कर सकता?’ न्यायमूर्ति गवई ने तो यहां तक कह दिया, ‘मैं भारत का प्रधान न्यायाधीश बनने वाला हूं, अगर मेरे साथ कुछ अप्रिय घटना हो जाए तो क्या सुप्रीम कोर्ट काम करना बंद कर देगा?’

पुलिस कस्टडी में अतीक-अशरफ की हत्या पर कोर्ट सख्त

सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल को प्रयागराज में लोकसभा के पूर्व सदस्य अतीक अहमद और उस के भाई अशरफ की पुलिस हिरासत में हुई हत्या पर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को भी फटकार लगाई है और साफ कहा है कि इस हत्याकांड में किसी की मिलीभगत है. शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति एस रविंद्र भट्ट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने कहा- ‘अतीक की सुरक्षा में 5 से 10 हथियारबंद पुलिसकर्मी थे, कोई कैसे आ कर गोली मार सकता है? ऐसा कैसे हो सकता है?’

अदालत ने कहा, ‘अहमद ब्रदर्स की हत्या में पुलिस की भूमिका हो सकती है, वरना हत्या करने वालों को कैसे पता कि अतीक और अशरफ को कहां ले जाया जा रहा है. किसी की मिलीभगत है.’ इस के साथ ही पीठ ने गैंगस्टर से नेता बने अतीक अहमद की बहन आयशा नूरी की याचिका पर उत्तर प्रदेश सरकार को एक नोटिस जारी करते हुए 2017 के बाद हुई 183 पुलिस मुठभेड़ों पर स्थिति रिपोर्ट मांग ली है. पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार को 6 सप्ताह के भीतर एक हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है, जिस में इन मुठभेड़ों का विवरण, जांच की स्थिति, दायर आरोपपत्र, गिरफ्तारियां और मुकदमे की स्थिति का विवरण होगा. इस से योगी सरकार की परेशानी भी बढ़ गई है.

बिलकिस बानो मामले में गुजरात कोर्ट को घेरा

2002 में गुजरात दंगों के दौरान मुसलिम महिला बिलकिस बानो का गैंगरेप किया गया था, जबकि वह 5 माह की गर्भवती थी. इस के साथ ही उस की आंखों के सामने उस के घर के 7 सदस्यों को दंगाइयों ने कत्ल कर डाला था. इस मामले में तब सीबीआई कोर्ट ने 11 लोगों को दोषी ठहराया था और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई थी. मगर गुजरात सरकार ने एक राहत कमेटी गठित कर उस की सिफारिश पर 2022 में 11 दोषियों की रिहाई करवा दी.

सरकार के फैसले को जब बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो कोर्ट ने गुजरात सरकार को आड़ेहाथों लिया. कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि जब बिलकिस बानो के दोषियों को सजा ए मौत से कम यानी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी तो 14 साल की सजा काट कर वे कैसे रिहा हो गए? इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सवालों की झड़ी लगा दी-

  • सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बी वी नागरत्ना ने पूछा, इस मामले में दोषियों के बीच भेदभाव क्यों किया गया? यानी पौलिसी का लाभ अलगअलग क्यों दिया गया?
  • 14 साल की सजा के बाद रिहाई की राहत सिर्फ बिलकिस बानो के दोषियों को ही क्यों दी गई? बाकी कैदियों को क्यों नहीं इस का फायदा दिया गया? कोर्ट ने गुजरात सरकार से दोषियों को ‘चुनिंदा’ छूट नीति का लाभ देने पर सवाल उठाया और कहा कि तब तो सुधार और समाज के साथ फिर से जुड़ने का अवसर हर कैदी को दिया जाना चाहिए. जब तमाम जेलें कैदियों से भरी पड़ी हैं, तो सुधार का मौका सिर्फ इन कैदियों को ही क्यों मिला?
  • सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार से यह भी पूछा कि बिलकिस के दोषियों के लिए जेल एडवाइजरी कमेटी किस आधार पर बनी? और जब गोधरा की अदालत ने ट्रायल ही नहीं किया तो उस से राय क्यों मांगी गई?

दरअसल, बिलकिस के दोषियों को जेल से निकलवा कर सरकार अपनी दंगा आर्मी को संदेश देना चाहती थी कि हम बैठे हैं न बचाने के लिए. मगर सुप्रीम कोर्ट ने इस घिनौनी मंशा को ताड़ लिया. इस मामले में सुनवाई अभी जारी है.

पिछले कुछ महीनों से चीफ जस्टिस औफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ ने जिस दिलेरी से कानून के दायरे में सरकार की गलत नीतियों और आशाओं की धज्जियां उड़ाई हैं और उस को नसीहतें बांची हैं, उस से अन्य जजों की हिम्मत भी खुली है. जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में जो फैसले आए हैं वे लंबे समय तक याद रखे जाएंगे. इन फैसलों ने मोदी सरकार के सिस्टम को हिला दिया है. चुनाव में साम, दाम, दंड और भेद के नियम पर चल कर येकेनप्रकारेण सत्ता हथियाने के भगवा पार्टी के सपने को बड़ी ठेस पहुंची है.

चुनाव आयुक्त की नियुक्ति

शीर्ष पद पर अपनी नियुक्ति के कुछ ही महीनों बाद जस्टिस चंद्रचूड़ ने चुनाव आयोग को ले कर मोदी सरकार को साफ संदेश दे दिया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों के अपौइंटमैंट का तरीका बिलकुल ठीक नहीं है. मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा चयनप्रक्रिया को खारिज कर कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का भी वही तरीका होना चाहिए जो सीबीआई चीफ की नियुक्ति का है. चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 5 जजों की बैंच ने अपने फैसले में कहा कि अब ये नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस की कमेटी की सिफारिश पर राष्ट्रपति करेंगे. अब तक मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती थी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह अवश्य कहा कि मौजूदा व्यवस्था तब तक जारी रहेगी जब तक संसद इस पर कानून न बना ले.

इसलिए मोदी सरकार 10 अगस्त को राज्यसभा में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और पदावधि) विधेयक 2023 ले कर आ गई. मौजूदा विधेयक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की एक प्रमुख बात को शामिल नहीं किया गया. मोदी सरकार की इस समिति में आयुक्तों के चयन के लिए प्रधानमंत्री हैं, लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं मगर चीफ जस्टिस औफ इंडिया का पत्ता साफ कर प्रधानमंत्री मोदी ने उन की जगह तीसरे सदस्य के तौर पर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को शामिल कर लिया है. इस कैबिनेट मंत्री को भी प्रधानमंत्री ही मनोनीत करेंगे.

यह सुप्रीम कोर्ट को सरकार का उत्तर है. देखना है जब इस कानून की संवैधानिकता की परीक्षा कोर्ट द्वारा होगी तो सुप्रीम कोर्ट कौन से तर्क लाता है.

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