रेटिंग- पांच में से साढ़े तीन स्टार

निर्माता, लेखक व निर्देशक- सुधांशु शर्मा

कलाकार- के के मेनन, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा, सुमित अरोड़ा, दीप रांभिया, मजेल व्यास, अतुल श्रीवास्तव और 200 राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी

बाल कलाकार- आर्क जैन व कबीर वर्मा

अवधि- 2 घंटे 11 मिनट

प्रदर्शन- एक सितंबर से सिनेमाघरों में

खेल, खेल के मैदान, खेल व राजनीति को ले कर कई फिल्में बन चुकी हैं. कई खिलाड़ियों पर बायोपिक फिल्में भी बन रही हैं. मगर इन में से ज्यादातर फिल्में दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. अब लेखक, निर्देशक व निर्माता सुधांशु शर्मा बैडमिंटन खेल को केंद्र में रख कर खेलभावना की बात करने वाली यथार्थपरक फिल्म ‘औल लव’ ले कर आए हैं, जिस में बाल मनोविज्ञान की समझ के साथ दृश्यों को पिरोने के अलावा राजनीतिज्ञों पर कुठाराघाट किया है.

फिल्म ‘औल लव’ एक ऐसी शिक्षाप्रद फिल्म है जिसे हर बच्चे के साथ ही हर मातापिता को देखनी चाहिए. बैडमिंटन की पृष्ठभूमि में पितापुत्र की भावुक कहानी दर्शकों के लिए जश्न ही है. यह फिल्म एक सितंबर को हिंदी के साथ ही उड़िया, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ व मलयालम भाषाओं में प्रदर्शित हुई है.

कहानी

फिल्म ‘लव औल’ की कहानी के केंद्र में भोपाल निवासी सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन), उन का 13 वर्षीय बेटा आदित्य शर्मा (अर्क जैन) व बैडमिंटन का खेल है. एक छोटे शहर के स्कूल में पढ़ने वाले लड़के सिद्धार्थ शर्मा (दीप रंभिया) की कहानी उस के पिता की मृत्यु के बाद रेलवे की नौकरी से जुड़े कुछ लाभों में से एक के रूप में उस की मां को दिए गए रेलवे के एक जर्जर क्वार्टर से शुरू होती है. सिद्धार्थ के पास सामान्य साधनों की कमी है. पर उसे एक होनहार बैडमिंटन खिलाड़ी बनना रोमांचकारी लगता है. बैडमिंटन खेल में उस की महारत देख शहर के सभी खेलप्रेमी उसे भविष्य के चैंपियन के रूप में देखते हैं. सिद्धार्थ की स्कूल की दोस्त व प्रेमिका सोमा (मजेल व्यास) और जिगरी दोस्त विजू (आलम खान) उस का हौसला बढ़ाते रहते हैं. मगर नियति की योजनाएं अलग थीं. खेल जगत से जुड़ी एक राजनीतिक हस्ती के गुर्गे एक रात सोमा के ही सामने सिद्धार्थ को ऐसी चोट पहुंचाते हैं कि सिद्धार्थ खेल से बाहर हो जाता है, क्योंकि उस की चोट के लिए आवश्यक औपरेशन का बिल भरने में उस की मां सक्षम नहीं होती है. एक खिलाड़ी सिद्धार्थ आखिरकार खेल की राजनीति के आगे झुक जाता है और सामान्य जीवन जीने के लिए शहर से दूर जा कर रेलवे में एक छोटी सी नौकरी कर लेता है उस खेल से बहुत दूर, जिस से वह कभी अलग नहीं हुआ करता था.

एक दिन सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन) माहिर मैकेनिक बन जाता है. वह जया (श्रीस्वरा) से विवाह कर लेता है और आदित्य (अर्क जैन) का पिता बन जाता हैं. जब आदित्य 13 वर्ष का होता है तब सिद्धार्थ का तबादला भोपाल हो जाता है. पता चलता है कि सोमा (स्वास्तिका मुखर्जी) ने शादी कर ली है और स्कूल में शिक्षक है. सिद्धार्थ के दोस्त विजू (सुमित अरोड़ा) ने स्पोर्टस के सामान की बिकी की दुकान ‘चैंपियन स्पोर्टस शौप’ के नाम से खोली है, जिस पर सिद्धार्थ की ही तसवीर लगा रखी है.

सिद्धार्थ एक दिन फिर से खुद को उन्हीं लोगों व उसी बैडमिंटन खेल से जुड़ा पाता है जिन से वह दूर भाग रहा था. सिद्धार्थ के न चाहते हुए भी उस का बेटा आदित्य बैडमिंटन खिलाड़ी बनता है और फिर सोमा व वीजू की सलाह पर सिद्धार्थ अपने बेटे आदित्य को बैडमिंटन की ट्रेनिंग भी देता है.

आखिरकार, अब राष्ट्रीयय जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप में आदित्य का मुकाबला उसी राजनेता के पोते शौर्य प्रताप (कबीर वर्मा) से होता है जिस की वजह से कभी सिद्धार्थ को खेल से बाहर होना पड़ा था. एक बार फिर राजनेता अपनी चाल चलता है. अब सवाल है कि जीत किस की होगी?

लेखन व निर्देशन

खेल व राजनीति का चोलीदामन का साथ है. कम से कम भारत देश में हर खेल राजनीतिज्ञों के हाथों में सिमटा हुआ है. हर खेल से जुड़े संगठनों पर सत्तापक्ष आसीन है. इसलिए भी खेल व राजनीति फिल्मकारों को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है. मगर अब तक खेल पर बनी फ़िल्में यथार्थ यानी सच को दिखलाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. हर फिल्म में नाटकीयता ही हावी रही है. मगर लेखक सुधांशु शर्मा ने एक बेहतरीन पटकथा वाली फिल्म बनाई है. फिल्म इमोशनल व शिक्षाप्रद होने के साथ ही राजनीतिज्ञों पर जबरदस्त तरीके से कुठाराघाट करती है. मगर इस के लिए लेखक व निर्देशक ने जबरन उत्तेजक संवाद या भाषणबाजी नहीं परोसी है.

राजनेता कभी भी आम जनता के सामने अपनी बांहें नहीं समेटता, वह तो राजनीतिक चाल चलते हुए अपने गुर्गो के माध्यम से खेल करवा कर अपनी इच्छा पूरी करता है. इसे एकदम सटीक अंदाज में सुधांशु शर्मा ने फिल्म ‘लव औल’ में चित्रित किया है.

इंटरवल से पहले फिल्म की गति धीमी है. मगर इंटरवल के बाद फिल्म तेज गति से खेल के रोमांच के साथ आगे बढ़ती है. फिल्म का क्लाइमैक्स अद्भुत है. अमूमन हर फिल्मकार अपनी फिल्मों में अपने किरदारों की बेबसी या राजनीतिज्ञों के कारनामों के सामने आम जनता को बेबस अथवा आंदोलन करते हुए चित्रित करते रहे हैं मगर इस फिल्मकार ने ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया. फिल्म में कहीं कोई भाषणबाजी या लंबेलंबे संवाद नहीं हैं. मगर फिल्म बहुतकुछ कह जाती है.

हम लगभग हर फिल्म में देखते हैं कि जब एक पुरुष देखता है कि उस की पत्नी या बेटा अच्छा या बुरा किसी भी काम को उस की इच्छा के विपरीत कर रहा है तो वह अपना आपा खो कर गुस्सा प्रकट करता है. लोगों के सामने ही बेटे की पिटाई करता है. लेकिन इस फिल्मकार ने इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखाया.

फिल्म में एक दृश्य है, जब सिद्धार्थ को पता चलता है कि उस का बेटा उस की इच्छा के विपरीत बैडमिंटन खेल रहा है तो वह अपने बेटे आदित्य को पकड़ कर वहां से चुपचाप ले आता है. घर पहुंचने पर वह पत्नी जया पर भी चिल्लाता नहीं है. लेकिन इस से आदित्य व जया के अंदर जो डर पैदा होता है वह दृश्य अपनेआप में बहुतकुछ कह जाता है. वह दृश्य बहुत बड़ी सीख बच्चे से ले कर बूढ़े तक को दे जाता है.

पूरी फिल्म देख कर एहसास होता है कि फिल्मकार को बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन समझ है, तो वहीं उस ने बैडमिंटन के खेल को भी बड़ी शिद्दत से पेश किया है.

फिल्मकार सुधांशु शर्मा राजनेता के किरदार और खेल में राजनीतिक दखलंदाजी को पेश करते समय कंजूसी बरत गए.

फिल्म के कुछ संवाद काफी अच्छे बन पड़े हैं, मसलन ‘जिंदगी के रंग अब कपड़ों में ही रह गए हैं’; ‘खेल का मैदान बच्चों को बेहतरीन इंसान बनाता है’; ‘सब से बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध, जिसे खिलाड़ी को भी अपने ही विरुद्ध लड़ कर जीतना पड़ता है’; ‘किसी को घायल कर के जीतना, उस की खुशी मनाना असली खेल नहीं होता है’ आदि. इस के अलावा फिल्मकार ने बड़ी सूझबूझ के साथ सभी गीतों को पृष्ठभूमि में रखा है.

अभिनय

युवा सिद्धार्थ शर्मा और युवा सोमा के छोटे किरदारों में क्रमशः दीप रंभिया और मजेल व्यास अपनी छाप छोड़ जाते हैं. खेल को अपनी जिंदगी के दुखों के लिए सर्वाधिक दोषी मानते हुए भी अंत तक खेलभावना का समर्थन करने वाले सिद्धार्थ के किरदार में अभिनेता के के मेनन का अभिनय शानदार है. उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वे हर किरदार में अपने अभिनय से जान फूंक सकते हैं. वहीं, आदित्य के किरदार में अर्क जैन ने एक कुशल व अनुभवी अभिनेता के साथ ही कुशल बैडमिंटन खिलाड़ी के रूप में खुद को पेश किया है. शौर्य प्रताप के छोटे किरदार में बाल कलाकार कबीर वर्मा ने साबित किया कि उस के अंदर बेहतरीन कलाकार बनने की संभावनाएं हैं. अतुल श्रीवास्तव, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा दुबे के हिस्से में करने को कुछ खास आया नही. सिद्धार्थ के दोस्त विजू के किरदार में सुमित अरोड़ा ठीकठाक ही रहे.

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