लगभग 3 वर्ष बाद मैं लखनऊ जा रही थी. लखनऊ मेरे लिए एक शहर ही नहीं, एक तीर्थ है, क्योंकि वह मेरा मायका है. उस शहर में पांव रखते ही जैसे मेरा बचपन लौट आता है. 10 दिन के बाद भैया की बड़ी बेटी शुभ्रा की शादी थी. मैं और मेघना दोपहर की गाड़ी से जा रही थीं. राजीव बाद में पहुंचने वाले थे. कुछ तो इन्हें काम की अधिकता थी, दूसरे इन की तो ससुराल है. ऐनवक्त पर पहुंच कर अपना भाव भी तो बढ़ाना था.

मेरी बात और है. मैं ने सोचा था कि कुछ दिन वहां चैन से रहूंंगी, सब से मिलूंगी. बचपन की यादें ताजा करूंगी और कुछ भैयाभाभी के काम में भी हाथ बंटाऊंगी. शादी वाले घर में सौ तरह के काम होते हैं.

अपनी शादी के बाद पहली बार मैं शादी जैसे अवसर पर मायके जा रही थी. मां का आग्रह था कि मैं पूरी तैयारी के साथ आऊं. मां पूरी बिरादरी को दिखाना चाहती थीं कि आखिर उन की बेटी कितनी सुखी है, कितनी संपन्न है या शायद दूर के रिश्ते की बूआ को दिखाना चाहती होंगी, जिन का लाया रिश्ता ठुकरा कर मां ने मुझे दिल्ली में ब्याह दिया था. लक्ष्मी बूआ भी तो उस दिन से सीधे मुंह बात नहीं करतीं.

शुभ्रा के विवाह में जाने का कुछ तो अपना ही चाव कम नहीं था, उस पर मां का आग्रह. हम दोनों, मांबेटी ने बड़े ही मनोयोग से समारोह में शामिल होने की तैयारी की थी. हर मौके पर पहनने के लिए नई और आधुनिक पोशाक, उस से मैचिंग चूड़ियां, गहने, सैंडिल और न जाने क्याक्या जुटाया गया.

पूरी उमंग और उत्साह के साथ हम स्टेशन पहुंचे. राजीव हमें विदा करने आए थे. हमारे सहयात्री कालेज के लड़के थे, जो किसी कार्यशाला में भाग लेने लखनऊ जा रहे थे. हालांकि गाड़ी चलने से पहले वे सब अपने सामान के यहांवहां रखरखाव में ही लगे थे, फिर भी उन्हें देख कर मैं कुछ परेशान हो उठी. मेरी परेशानी शायद मेरे चेहरे से झलकने लगी थी, जिसे राजीव ने भांप लिया था. ऐसे में वह कुछ खुल कर तो कह न पाए, लेकिन मुझे होशियार रहने के लिए जरूर कह गए. यही कारण था कि चलतेचलते उन्होंने उन लड़कों से भी कुछ इस तरह से बात की, जिस से यात्रा के दौरान माहौल हलकाफुलका बना रहे. गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी. हम अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे. लड़कों में अपनीअपनी जगह तय करने के लिए छीनाझपटी, चुहलबाजी शुरू हो गई.

वैसे, मुझे युवा पीढ़ी से कभी कोई शिकायत नहीं रही. न ही मैं ने कभी अपने और उन में कोई दूरी महसूस की है. मैं तो हमेशा घरपरिवार के बच्चों और नौजवानों की मनपसंद आंटी रही हूं. मेरा तो मानना है कि नौजवानों के बीच रह कर अपनी उम्र के बढ़ने का एहसास ही नहीं होता, लेकिन उस समय मैं लड़कों की शरारतों और नोकझोंक से कुछ परेशान सी हो उठी थी.

ऐसा नहीं कि बच्चे कुछ गलत कर रहे थे. शायद मेरे साथ मेघना का होना मुझे उन के साथ जुड़ने नहीं दे रहा था. कुछ आजकल के हालात भी मुझे परेशान किए हुए थे. देखने में तो सब भले घरों के लग रहे थे, फिर भी एकसाथ 6 लड़कों का ग्रुप, उस पर किसी बड़े का उन के साथ न होना, उस पर उम्र का ऐसा मोड़, जो उन्हें शांत, सौम्य और गंभीर नहीं रहने दे रहा था. मैं भला परेशान कैसे न होती.

मेरा ध्यान शुभ्रा की शादी, मायके जाने की खुशी और रास्ते के बागबगीचों, खेतखलिहानों से हट कर बस, उन लड़कों पर केंद्रित हो गया था. थोड़ी ही देर में हम उन लड़कों के नामों से ही नहीं, आदतों से भी परिचित हो गए.

घुंघराले बालों वाला सांवला सा, नाटे कद का अंकित फिल्मों का शौकीन लगता था. उस के उठनेबैठने में फिल्मी अंदाज था तो बातचीत में फिल्मी डायलौग और गानों का पुट था. एक लड़के को सब सैम कह कर बुला रहे थे. यह उस के मातापिता का रखा नाम तो नहीं लगता था, शायद यह दोस्तों द्वारा किया गया नामकरण था. चुस्तदुरुस्त सैम चालढाल और पहनावे से खिलाड़ी लगता था. मझली कदकाठी वाला ईश ग्रुप का लीडर जान पड़ता था. नेवीकट बाल, मूंछों की पतली सी रेखा और बड़ीबड़ी आंखों वाले ईश से पूछे बिना लड़के कोई काम नहीं कर रहे थे. बिना मैचिंग की ढीलीडाली टीशर्ट पहने, बिखरे बालों वाला, बेपरवाह तबीयत वाला समीर था, जो हर समय चुइंगम चबाता हुआ बोलचाल में अंगरेजी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा कर रहा था.

मेरे पास बैठे लड़के का नाम मनीष था. लंबा, गोराचिट्टा, नजर का चश्मा पहने वह नीली जींस और कीमती टीशर्ट में बड़ा स्मार्ट लग रहा था. कुछ शर्मीले स्वभाव का पढ़ाकू सा लगने वाला मनीष एक अंगरेजी नोवल ले कर बैठा ही था कि आगे बढ़ कर रजत ने उस का नोवल छीन लिया. रजत बड़ा ही चुलबुला, गोलमटोल हंसमुख लड़का था. हंसते हुए उस के दोनों गालों पर गड्ढे पड़ते थे. रजत पूरे रास्ते हंसताहंसाता रहा. पता नहीं क्यों मुझे लगा कि उस की हंसी, उस की शरारतें, सब मेघना के कारण हैं. इसलिए हंसना तो दूर, मेरी नजरों का पहरा हरदम मेघना पर बैठा रहा.

मेरे ही कारण मेघना बेचारी भी दबीघुटी सी या तो खिड़की से बाहर झांकती रही या आंखें बंद कर के सोने का नाटक करती रही. अपने हमउम्र उन लड़कों के साथ न खुल कर हंस पाई, न ही उन की बातचीत में शामिल हो सकी. वैसे न मैं ही ऐसी मां हूं और न मेघना ही इतनी पुरातनपंथी है. वह तो हमेशा सहशिक्षा में ही पढ़ी है. वह क्या कालेज में लड़कों के साथ बातचीत, हंसीमजाक नहीं करती होगी. फिर भी न जाने क्यों, शायद घर से दूरी या अकेलापन मेरे मन में असुरक्षा की भावना को जन्म दे गया था. उन से परिचय के आदानप्रदान और बातचीत में मैं ने कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. मुझे लगा, वे मेघना तक पहुंचने के लिए मुझे सीढ़ी बनाएंगे. उन लड़कों के बहानों से उठी नजरें जब मेघना से टकरातीं तो मैं बेचैन हो उठती. उस दिन पहली बार मेघना मुझे बहुत ही खूबसूरत नजर आई और पहली बार मुझे बेटी की खूूबसूरती पर गर्व नहीं, भय हुआ. मुझे शादी में इतने दिन पहले इस तरह जाने के अपने फैसले पर भी झुंझलाहट होने लगी थी. वास्तव में मायके जाने की खुशी में मैं भूल ही गई थी कि आजकल औरतों का अकेले सफर करना कितना जोखिम का काम है. वह सभी खबरें जो पिछले दिनों मैं ने अखबारों में पढ़ी थीं, एकएक कर के मेरे दिमाग पर दस्तक देने लगीं.

कई घंटों के सफर में आमनेसामने बैठे यात्री भला कब तक अपने आसपास से बेखबर रह सकते हैं. काफी देर तक तो हम दोनों मुंह सी कर बैठी रहीं, लेकिन धीरेधीरे दूसरी तरफ से परिचय पाने की उत्सुकता बढ़ने लगी. शायद यात्रा के दौरान यह स्वाभाविक भी था. यदि सामने कोई परिवार बैठा होता तो क्या खानेपीने की चीजों का आदानप्रदान किए बिना हम रहतीं और सफर में कुछ महिलाओं का साथ होता तो क्या वे ऐसे ही अनजबी बनी रहतीं. उन कुछ घंटों के सफर में तो हम एकदूसरे के जीवन का भूगोल, इतिहास, भूत, वर्तमान सब बांच लेतीं.

चूंकि वे जवान लड़के थे और मेरे साथ मेरी जवान बेटी थी, इसलिए उन की उठी हर नजर मुझे अपनी बेटी से टकराती लगती. उन कही हर बात उसी को ध्यान में रख कर कही हुई लगती. उन की हंसीमजाक में मुझे छींटाकशी और ओछापन नजर आ रहा था. कुछ घंटों का सफर जैसे सदियों में फैल गया था. दोपहर कब शाम में बदली और शाम कब रात में बदल गई, मुझे खबर ही न हुई, क्योंकि मेरे अंदर भय का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा घना था.

हालांकि जब भी कोई स्टेशन आता, लड़के हम से पूछते कि हमें चायपानी या किसी अन्य चीज की जरूरत तो नहीं. उन्होंने मेघना को गुमसुम बैठे बोर होते देखा तो अपनी पत्रपत्रिकाएं भी पेश कर दीं. जबजब उन्होंने कुछ खाने के लिए पैकेट खोले तो बड़े आदर से पहले हमें पूछा. हालांकि हम हमेशा मना करती रहीं.

मैं ने अपनेआप को बहुत समझाया कि जब आपत्ति करने लायक कोई बात नहीं तो मैं क्यों परेशान हो रही हूं. मैं क्यों सहज नहीं हो जाती, लेकिन तभी मन के किसी कोने में बैठा भय फन फैला देता. कहीं मेरी जरा सी ढील, बात को इतनी दूर न ले  जाए कि मैं उसे समेट ही न सकूं. मैं तो पलपल यही मना रही थी कि यह सफर खत्म हो और मैं खुली हवा में सांस ले सकूं.

कानपुर स्टेशन आने वाला था. गाड़ी वहां कुछ ज्यादा देर के लिए रुकती है. डब्बे में स्वाभाविक हलचल शुरू हो गई थी, तभी एक अजीब सा शोर कानों से टकराने लगा. गाड़ी की रफ्तार धीमी हो गई थी. स्टेशन आतेआते बाहर का कोलाहल कर्णभेदी हो गया था. हर कोई खिड़कियों से बाहर झांकने की कोशिश कर ही रहा था कि गाड़ी प्लेटफार्म पर आ लगी. बाहर का दृश्य सन्न कर देने वाला था. हजारों लोग गाड़ी के पूरी तरह रुकने से पहले ही उस पर टूट पड़े थे, जैसे शेर शिकार पर झपटता है. स्टेशन पर चीखपुकार, लड़ाईझगड़ा, गालीगलौज, हर तरफ आतंक का वातावरण था.

इस से पहले कि हम कुछ समझते, बीसियों लोग डब्बे में चढ़ कर हमारी सीटों के आसपास, यहांवहां जुटने लगे, जैसे गुड़ की डली पर मक्खियां चिपकती चली जाती हैं. वह स्टेशन नहीं, मानो मनुष्यों के समुद्र पर बंधा हुआ बांध था, जो गाड़ी के आते ही टूट गया था. प्लेटफार्म पर सिर ही सिर नजर आ रहे थे. तिल रखने को भी जगह नहीं थी.

कई सिर खिड़कियों से अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे. मेघना ने घबरा कर खिड़की बंद करनी चाही तो कई हाथ अंदर आ गए, जो सबकुछ झपट लेना चाहते थे. मेघना को पीछे हटा कर सैम और अंकित ने खिड़कियां बंद कर दीं. पलट कर देखा मनीष, रजत और ईश, तीनों अंदर घुस आए आदमियों के रेवड़ को खदेड़ने में लगे थे. किसी को धकिया रहे थे तो किस से हाथापाई हो रही थी. समीर ने सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जल्दीजल्दी सारा सामान बंद खिड़कियों के पास इकट्ठा करना शुरू कर दिया.

लड़कों को उन धोतीकुरताधारी, निपट देहातियों से उलझते देख कर जैसे ही मैं ने हस्तक्षेप करना चाहा तो ईश और सैम एकसाथ बोल उठे, आंटीजी, आप दोनों निश्चिंत  हो कर बैठिए. बस, जरा सामान पर नजर रखिएगा. इन से तो हम निबट लेंगे.

तब याद आया कि सुबह लखनऊ में एक विशाल राजनीतिक रैली होने वाली थी, जिस में भाग लेने यह सारी भीड़ लखनऊ जा रही थी. लगता था जैसे रैली के उद्देश्य और उस की जरूरत से उस में भाग लेने वाले अनभिज्ञ थे. ठीक, वैसे ही उस रैली के परिणाम और इस से आम आदमी को होने वाली परेशानी से रैली आयोजक भी अनभिज्ञ थे.

पूरी गाड़ी में लूटपाट और जंग छिड़ी थी. जैसे वह गाड़ी न हो कर शोर और दहशत का बवंडर था, जो पटिरयों पर दौड़ता चला जा रहा था. लड़कों का पूरा ग्रुप हम दोनों, मांबेटी की हिफाजत के लिए डट गया था. एक मजबूत दीवार खड़ी थी हमारे और अनचाही भीड़ के बीच, उन छहों की तत्परता, लगन और निष्ठा को देख कर मैं मन ही मन नतमस्तक थी. उस पल शायद मेरा अपना बेटा भी होता तो क्या इस तरह अपनी मां और बहन की रक्षा कर पाता.

कानपुर से लखनऊ तक के उस कठिन सफर में वे न बैठे, न उन्होंने कुछ खायापिया. इस बीच में अपनी शरारतें, चुहलबाजी, फिल्मी अंदाज, सबकुछ भूल गए थे. उन के सामने जैसे एक ही उद्देश्य था, हमारी और सामान की हिफाजत.

मैं आत्मग्लानि की दलदल में धंसती जा रही थी. इन बच्चों के लिए मैं ने क्या धारण बना ली थी, जिस के कारण मैं ने एक बार भी इन से ठीक व्यवहार नहीं किया. एक बार भी इन से प्यार से नहीं बोली, न ही इन के हासपरिहास अथवा बातचीत में शामिल हुई. क्या परिचय दिया मैं ने अपनी शिक्षा, अनुभव, सभ्यता और संस्कारों का. और बदले में इन्होंने दिया इतना शिष्ट सम्मान और सुरक्षा.

उस दिन पहली बार एहसास हुआ कि वास्तव में महिलाओं का अकेले यात्रा करना कितना असुरक्षित है. साथ ही एक सीख भी मिली कि कम से कम शादीब्याह तय करते समय या यात्रा पर निकलने से पहले हमें शहर में होने वाली राजनीतिक रैलियों, जलसे, जुलूसों की जानकारी भी ले लेनी चाहिए. उस दिन महिलाओं के साथ घटी दुर्घटनाएं अखबारों के मुखपृष्ठ की सुर्खी बन कर रह गईं. कुछ घटनाओं को तो वहां भी जगह नहीं मिल पाई.

लखनऊ स्टेशन का हाल तो उस से भी बुरा था. प्लेटफार्म तो जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया था.

सामान, बच्चे, महिलाओं को ले कर यात्री उस भीड़ से निबट रहे थे. चीखपुकार मची थी. भीड़ स्टेशन की दुकानें लूट रही थी. दुकानदार अपना सामान बचाने में लगे थे. प्रलय का सा आतंक हर यात्री के चेहरे पर स्पष्ट नजर आ रहा था. मेरी तो आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा था. इतना सारा कीमती सामान और साथ में खूबसूरत जवान बेटी. उस पर किसी भीड़ जिस की न कोई नैतिकता, न सोच, बस, एक उन्माद होता है.

वैसे तो भैया हमें लेने स्टेशन आए हुए थे, लेकिन उस भीड़ में हम उन्हें कहां मिलते. उस भीड़ में तो सामान उठाने के लिए कुली भी न मिल सका. उन लड़कों के पास अपना तो मात्र एकएक बैग था. अपने बैग के साथ सैम ने हमारी बड़ी अटैची उठा ली. छोटी अटैची मेरे मना करने पर भी मनीष ने उठा ली. मेेघना के पास पानी की बोतल और मेरे पास मात्र मेरा पर्स रह गया. हमारे दोनों बैग भी ईश और अंकित के कंधों पर लटक गए थे. उन सब ने भीड़ में एकदूसरे के हाथ पकड़ कर एक घेरा सा बना लिया, जिस के बीच हम दोनों चल रही थीं. उन्होंने हमें स्टेेशन से बाहर ऐसे सुरक्षित निकाल लिया, जैसे आग से बचा कर निकाल लाए हों.

मेरे पास उन का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं थे. उस दिन अगर वे नहीं होते तो पता नहीं क्या हो जाता, इतना सोचने मात्र से मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मैं ने जब उन का आभार प्रकट किया तो उन्होंने बड़े ही सहज भाव से मुसकराते हुए कहा था, ‘‘क्या बात करती हैं आप, यह तो हमारा फर्ज था.’’

दिल ही दिल में सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए मैं ने उन्हें शुभ्रा की शादी में शामिल होने की दावत दी, लेकिन उन का आना संभव नहीं था क्योंकि वे मात्र 4 दिनों के लिए लखनऊ एक कार्यशाला में शामिल होने आए थे. उन के लिए 10 दिन रुकना असंभव था. फिर भी एक शाम हम ने उन्हें खाने पर बुलाया. सब से उन का परिचय करवाया. वह मुलाकात बहुत ही सहज, रोचक और यादगार रही. सभी लड़के सुशिक्षित, सभ्य और मिलनसार थे.

हम लोग अकसर युवा पीढ़ी को गैरजिम्मेदार, संस्कारविहीन और दिशाहीन कहते हैं, लेकिन हमारा ही अंश और हमारे ही दिए संस्कारों को ले कर बड़ी हुई यह युवा पीढ़ी भला हम से अलग सोच वाली कैसे हो सकती है. जरूर उन्हें समझने में कहीं न कहीं हम से ही चूक हो जाती है.

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