धार्मिक फिल्म ‘आदिपुरुष’ से जुड़े विवाद का फसाना, बस, इतना है कि इसे कुछ धार्मिक लोगों ने बनाया. कुछ धार्मिक लोगों ने ही सड़कों पर आ कर इस पर बवाल मचाया. फिर कुछ धार्मिक लोग विवाद ?को अदालत तक ले गए. इस के बाद मामला आयागया हो गया. लेकिन इस ड्रामे से एक लचर फिल्म कुछ दिनों के लिए सही हिट हो गई.

इस खेल में निर्माता सहित फिल्म से जुड़े सभी लोगों ने तबीयत से चांदी काटी और बेवकूफ बनी हमेशा की तरह वह आम जनता जिस की धार्मिक भावनाएं बातबात पर भड़क जाया करती हैं. कुछ और हुआ, न हुआ हो लेकिन इस मामले से यह जरूर साबित हो गया कि धर्म से जुड़े लोग ही धर्म का ज्यादा मजाक बनाते हैं और उस से पैसा भी बनाते हैं. दुनिया के इस सब से बड़े धंधे में हाथ हर कोई धो रहा है.

‘आदिपुरुष’ के जिस डायलौग पर बवाल मचा था वह मनोज मुंतशिर का नहीं था बल्कि इस्कौन के युवा संत अमोघ लीला दास का था जिसे उन्होंने कभी अपने प्रवचनों में कहा था. यह डायलौग कुछ यों था, ‘घी किस का रावण का, कपड़ा किस का रावण का, आग किस की रावण की, जली किस की रावण की’.

भक्तों को यह अमर्यादित लगा या लगाया गया तो उन्होंने जगहजगह हल्ला मचाया लेकिन अमोघ लीला का नाम कहीं बीच में नहीं आया और सारी शोहरत व क्रैडिट इसे न लिखने वाले मनोज बटोर ले गए जिन के बारे में अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि वे ‘आदिपुरुष’ की यूनिट के साथ किसी अज्ञात स्थान पर मीटिंग करते किसी नए धार्मिक विवाद से पैसा कमाने की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे होंगे.

मनोज मुंतशिर की उपलब्धि यही रही कि उन की कीमत बढ़ गई और उन्हें कई और लोग जानने लगे, ठीक वैसे ही जैसे ताजा बेवजह के विवाद के बाद अमोघ लीला दास को जानने लगे हैं. अमोघ को जानने वाले लोग एक अलग वर्ग के हैं जो अभिजात्य हैं और धनाढ्य भी. इस तबके के लोगों के लिए धर्म के माने भी अलग लगभग विलासी हैं. इन का भगवान महंगे और भव्य मंदिरों में रहता है जिन में टैंट तले भंडारा नहीं होता बल्कि अक्षयपात्र होता है (अक्षयपात्र, पौराणिक साहित्य में वर्णित एक बरतन जिस में कितना भी निकाले जाओ, खाना कभी खत्म नहीं होता).

मंगल आरती के बाद होने वाले इस्कौन मंदिरों के अक्षयपात्रों में तर देसी घी और ड्राई फ्रूट से बने सैकड़ों व्यंजन होते हैं. इस वर्ग के लोग अगर खुले मैदानों के भंडारों में घटिया तेल से बनी पूरी, सब्जी, खीर और रायता खा लें तो उन्हें एमीबियोसिस या गैस्ट्रोएन्ट्राइटिस होना तय है.

अमोघ लीला इस्कौन से ताल्लुक रखते हैं जिसे इंग्लिश में इंटरनैशनल सोसाइटी फौर कृष्णा  कौंशेसियस्नैस और हिंदी में अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ कहते हैं. नाम से ही स्पष्ट है कि यह संस्था कृष्ण को आराध्य मानते उन के भक्ति सिद्धांतों और दर्शन का प्रचारप्रसार करती है. यही उस का कारोबार, मकसद और मिशन है.

दुनियाभर में इस के 400 से भी ज्यादा मंदिर हैं जिन में से एकाध ही सौ करोड़ रुपए से कम का होगा. साल 1964 में किन्ही आचार्य भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ने न्यूयौर्क में इस की स्थापना की थी जिस का मुख्यालय अब पश्चिम बंगाल के मायापुर में है. यह नगर कोलकाता से 123 किलोमीटर दूर है. धार्मिक जगत में इसे वैष्णव धार्मिक परंपरा का वैदिक नगर कहा जाता है. अलावा इस के, यह कृष्ण परंपरा के एक और नामी संत चैतन्य महाप्रभु का जन्मस्थान भी है. गौडीय या गोदिया वैष्णव भक्तों के गढ़ इस मायानगरी में अरबोंखरबों के छोटे कम बड़े मंदिर ज्यादा हैं.

‘मैं तो अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग आते गए और कारवां बढ़ता गया’ की तर्ज पर देखते ही देखते महज 59 साल में इस्कौन दुनिया का सब से बड़ा धार्मिक संप्रदाय बन गया, जिस के सदस्य विदेशों में गेरुए कपड़े पहने ‘हरे रामा हरे कृष्णा…’ की धुन पर उन्मादियों की तरह नाचतेगाते नजर आते हैं.

इन गोरी चमड़ी वालों को देख हमारे देश के मिडिल क्लासी हिंदू, जिन्हें इस्कौन की ई भी नहीं मालूम, बड़े फख्र से कहते नजर आते हैं कि देखी सनातन की महिमा, अंगरेज भी बाइबिल छोड़ हाथ में श्रीमद्भागवदगीता लिए झूम रहे हैं. अब ये ईसामसीह को नहीं, बल्कि कृष्ण को मानते और पूजते हैं. हालांकि यह नाचना, गाना और झूमना ठीक वैसा ही है जैसा देवानंद कृत फिल्म ‘हरे कृष्णा हरे रामा’ में जीनत अमान और उस की मंडली में था, बस, कमी हाथ में चिलम भर की रहती है.

कौन हैं अमोघ लीला दास

अमोघ लीला दास, जिन्हें कोईकोई इस्कौनी प्रभु भी कहने लगे हैं, उन लाखों युवाओं में से एक हैं जो इस्कौन से कम उम्र यानी नौजवानी में ही जुड़ गए थे. लखनऊ के खासे खातेपीते सिख परिवार में जन्मे अमोघ का सांसारिक नाम आशीष अरोड़ा है. कम उम्र से ही उन का रु?ान धर्म और आध्यात्म की तरफ हो गया.

साल 2004 में सौफ्टवेयर इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद उन्होंने अमेरिका की एक कंपनी में नौकरी कर ली लेकिन 2010 में छोड़ भी दी. वजह थी इस्कौन, जिस से जुड़ कर उन्होंने संन्यास और ब्रह्मचर्य धारण कर लिया. यह कोई नई या हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि लाखों पलायनवादी युवा जब संघर्ष क्षमता खोने लगते हैं तो वे वही करते हैं जो आशीष अरोड़ा नाम के युवक ने किया.

महत्त्वाकांक्षी अमोघ लीला दास उर्फ आशीष अरोड़ा को जल्द ही दिल्ली के द्वारका स्थित इस्कौन मंदिर का उपाध्यक्ष बना दिया गया. इस्कौन के युवा संन्यासियों की जिंदगी आसान नहीं होती. उन्हें कई बंदिशों में रहना पड़ता है. मसलन, वे तामसी करार दे दिया गया खाना नहीं खा सकते. यानी मांस, मांसाहार और शराब तो दूर की बात है प्याज, लहसुन और चायकौफी भी नहीं पी सकते. अनैतिक आचरण की भी उन के लिए मनाही है और अनिवार्य यह है कि वे रोज कम से कम एक घंटा हिंदू शास्त्रों का पठन करें जिस से उन के दिलोदिमाग में छाया आध्यात्म का सुरूर बना रहे. इस से भी ज्यादा जरूरी और अहम काम यह है कि संन्यासी इस्कौन का साहित्य बेचें जिस से दूसरों के दिलोदिमाग में यह सुरूर ठूंसा जा सके.

इस्कौन मंदिरों में ही रहने वाले इन संन्यासियों की दिनचर्या जैन मुनियों सरीखी होती है जिन का खानापीना और पहनना तक बड़े गुरुओं के हुक्म के मुताबिक निर्धारित होता है, जिस के चलते इन की व्यक्तिगत इच्छाओं के कोई माने नहीं रह जाते. ये दिनरात कृष्ण भक्ति के प्रचार के अलावा भगवान और मोक्ष के बारे में ही सोचते रहते हैं. इस्कौन से जुड़े संपन्न परिवारों के युवा हर कहीं गीता बेचते नजर आ जाते हैं. ये कभी गरीब बस्तियों में नहीं जाते. यह बेचना भिक्षावृति का परिष्कृत रूप है क्योंकि कथित रूप से इन की रोजीरोटी यही होती है.

भोपाल के पटेलनगर स्थित एक युवा इस्कौनी संन्यासी की मानें तो जिस दिन गीता नहीं बिकती उस दिन उसे भूखा भी सोना पड़ता है. खिचड़ी भी नसीब नहीं होती. अमोघ ने ऐसा क्या कह दिया जिस पर ‘आदिपुरुष’ सरीखा विवाद हुआ. इस से पहले एक नजर उन युवाओं के पेरैंट्स की परेशानी पर डालना जरूरी है जिन की संतानें इस्कौन के झांसे में आ कर जिंदगी के सुख गिरवी रख चुकी हैं.

निशाने पर ये युवा 

यहां बदला हुआ नाम देने का भी कोई मतलब नहीं. भोपाल के पौश इलाके शाहपुरा के एक संपन्न प्रतिष्ठित दंपती पिछले एक साल से ढंग से खा, पी और सो नहीं पा रहे हैं क्योंकि उन का इकलौता बेटा इस्कौन का संन्यासी बनने की जिद लिए हुए है. वह हर कभी इस्कौन मंदिर चला जाता है और घर आ कर बहकीबहकी सी बातें करने लगता है.

20 वर्षीय यह युवा इंजीनियरिंग का छात्र है और पढ़ाईलिखाई में काफी होशियार है. कालेज कैंपस में ही वह इस्कौनियों के संपर्क में आया और उन से इतना प्रभावित हुआ कि मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म, संन्यास और मुक्तिभक्ति वगैरह की तथाकथित भारीभारी बातें करने लगा. दिनरात गीता और दूसरे धर्मग्रंथों में डूबे इस युवा में अपनी उम्र के लड़कों जैसा कोई शौक अब नहीं रह गया है.

पेरैंट्स को असल झटका तब लगा जब उन्हें यह पता चला कि साहबजादे एक परिचित को बिट्टन मार्केट स्थित पैट्रोल पंप पर इस्कौनियों के साथ गीता बेचते दिखे थे और आजकल वैशालीनगर स्थित एक होस्टल भी जाते हैं, जहां इस्कौन से जुड़े कोई 25 छात्र रहते हैं. इन पेरैंट्स की मानसिक अवस्था शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती जिन्हें कभी धर्मकर्म से परहेज नहीं रहा लेकिन अब घर का चिराग ही जरूरत से ज्यादा करने लगा है तो उन के हाथपांव फूले हुए हैं. हालत जांघ के पास हुई दादखाज जैसी हो गई है जिसे सार्वजनिक तौर पर खुजाया भी नहीं जा सकता.

लड़का काउंसलिंग के लिए किसी डाक्टर के पास जाने को तैयार नहीं. उलटे वह कहता यह है कि साईकेट्रिस्ट की जरूरत मुझे नहीं, आप लोगों को है. मैं तो प्रभु मार्ग पर चल पड़ा हूं. आप लोगों को ज्यादा परेशानी हो तो कल ही इस्कौन मंदिर में जा कर रहने लगता हूं. इस से मेरा आप का सांसारिक रिश्ता खत्म नहीं हो जाएगा.

विवेकानंद पर बेवजह का विवाद

यही कभी आशीष अरोरा ने किया था जो इन दिनों अपने एक विवादित बयान के कारण सुर्खियों में है. नई उम्र के लड़कों को तुलसी माला और भगवद्गीता के ज्ञान से परिचित कराने वाले अमोघ दास ने एक प्रवचन में जो कहा उस का सार इतना भर है कि स्वामी विवेकानंद और उन के गुरु रामकृष्ण परमहंस मछली खाते थे. उन में करुणा कैसे हो सकती है? विवेकानंद तो सिगरेट भी पीते थे. अपनी बात को जितना हो सकता था उस ने विस्तार दिया लेकिन खुद भी शायद ही समझ पाया होगा कि उस की मंशा आखिर थी क्या.

भारतीय दर्शन में कईयों की करुणा का हवाला अकसर दिया जाता है. इन में बुद्ध और महावीर की करुणा प्रमुख हैं. बाकी पौराणिक नायकों में तो करुणा पाई ही नहीं जाती थी. वे तो जिंदगीभर युद्ध और हिंसा में लगे रहे. राम और कृष्ण इस के अपवाद नहीं. अगर अमोघ गुरुनानक देव की करुणा की बात कर रहा था जिस की संभावना उस के सिख होने के चलते ज्यादा है तो भी वह विवेकानंद पर फिट नहीं बैठती.

विवेकानंद के मछली खाने न खाने से देश की मौजूदा समस्याओं का कोई ताल्लुक नहीं है, न तो इस से महंगाई काबू होने वाली, न भ्रष्टाचार कम होने वाला और न ही बेरोजगारी थमने वाली है. साधुसंत किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों, अकसर ऐसी ही बेतुकी बातें करते रहते हैं. इन बातों के जरिए भी वे अपने भक्तों को दिशानिर्देश देते रहते हैं कि उन्हें क्या खानापीना और पहनना है.

बात चूंकि विवेकानंद की थी, इसलिए भक्तों को बुरी लगी. सो, उन्होंने अमोघ दास को ट्रोल करना शुरू कर दिया. धनाढ्य बुद्धिजीवी वर्ग भी गंभीर हो उठा मानो कोई प्रलय आ गई हो और उस में अपनी भूमिका तय कर पाने में वे खुद को असमर्थ पा रहे हों. इन में से कुछेक को ही एहसास होगा कि दरअसल 1893 के शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में विवेकानंद ने सनातन या हिंदू धर्म के जो बीज बोए थे उन की फसल आज तक इस्कौन काट रहा है.

4 जुलाई से उठा यह विवाद कोई एक हफ्ते बाद थमा जब इस्कौन ने अमोघ लीला दास को एक महीने के लिए बैन कर दिया. उन्हें मायापुर मुख्यालय से लिखित हुक्म दिया गया कि आप एक महीने सार्वजनिक जीवन से दूर रहते हुए मथुरा के गोवर्धन पर्वत में विचरण करेंगे. अब तक अपने भक्तग्राहकों में इस विवेकानंद मछली कांड का जम कर पोस्टमार्टम हो चुका था और ‘आदिपुरुष’ की तरह इस्कौन का नाम भी नए लोगों की जबां पर चढ़ चुका था कि इस से जुड़ कर सशुल्क मोक्ष हासिल किया जा सकता है.

यानी किसी मिलीभगत की साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता. मोक्ष की ग्राहकी और धर्म का धंधा बढ़ाने का यह टोटका काफी पुराना है और हर वर्ग में लोकप्रिय है. गरीब ?ाग्गीबस्तियों में मोक्ष नहीं बिकता. वहां नीबू, हड्डी और सिंदूर के टोटके चलते हैं. मिडिल क्लास हमेशा की तरह नीम करोली बाबा के अलावा बागेश्वर बाबा, प्रदीप मिश्रा और देवकीनंदन ठाकुर जैसे ब्रैंडेड बाबाओं की ग्रिप में है जो इन दिनों दोनों हाथों से दक्षिणा बटोरते हिंदू राष्ट्र के निर्माण की मुहिम में लगे हैं. इस्कौन भी राम और कृष्ण के नाम पर बनी हजारों संस्थाओं में से एक है और उस की मंजिल भी हिंदू राष्ट्र ही है. बस, राह और तरीका अलग है.

धन ही धर्म है

अगर आप की जेब में 35,500 रुपए हों तो आप इस्कौन से जुड़ सकते हैं. यह पैसे वालों का शोरूम है. यहां जब कोई आशीष अरोड़ा अमोघ लीला दास बनने की ख्वाहिश लिए आता है तो उस का बैंक बैलेंस भी इस्कौन का हो जाता है. उस के शरीर पर एक कपड़ा डाल उसे उकसाया जाता है कि और युवाओं को संन्यास के लिए प्रेरित करो जो सांसारिक भोगविलास में उल?ो कीड़ेमकोड़ों की तरह बिलबिला रहे हैं. प्रभु तुम्हारे जरिए ही उन का उद्धार करना चाह रहे हैं. तुम्हारे पूर्वजन्म के पुण्य कर्म अब फलीभूत हो रहे हैं और यह जन्म तुम्हारा अंतिम जन्म साबित हो सकता है. इस के बाद तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा. तुम ईश्वर में विलीन हो जाओगे.

इस ब्रेनवाश के शिकार युवा संन्यासी सेल्समैनों की तरह गीता सीने से लगाए कालेज कैंपसों, मौल्स और चौराहों पर निकल पड़ते हैं. वे पूरे देश में दिखते हैं, मनाली के माल रोड पर भी मिल जाते हैं, बेंगलुरु के फीनिक्स मौल में भी उन्हें देखा जा सकता है.

रात को अपने मंदिर में आ कर खिचड़ी खाने के बाद ये एकदूसरे को बड़े उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने आज कितनी किताबें बेचीं और कितनों को संन्यास व मोक्ष के लिए प्रेरित किया. मथुरा में अमोघ लीला दास गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाने की कोशिश या प्रैक्टिस नहीं कर रहे होंगे बल्कि यह चिंतनमनन कर रहे होंगे कि और कैसेकैसे पैसे वाले शिक्षित अपरिपक्व बुद्धि वाले संभ्रांत परिवारों के युवाओं को इस्कौन से जोड़ा जा सकता है जिस से वे भव सागर पार हो जाएं.

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