फिल्मकार अनिल शर्मा जब 2001 में प्रदर्शित अपनी सफलतम फिल्म ‘गदर एक प्रेमकथा’ की शूटिंग कर रहे थे, उस वक्त तारा सिंह और सकीना के बेटे जीते के लिए बाल कलाकार नहीं मिल रहा था. जीते को ऐक्शन दृश्यों का भी हिस्सा बनना था, जिस के चलते कोई भी मातापिता अपने 6 साल के बच्चे को इस फिल्म से जोड़ने के लिए तैयार नहीं था. तब अनिल शर्मा ने अपने बेटे उत्कर्ष शर्मा को ही जीते बना दिया था. उस वक्त उत्कर्ष शर्मा 6 साल के थे.

इस बात को 22 साल बीत गए हैं. उत्कर्ष ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. उस के बाद फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ने के लिए फिल्म मेकिंग सीखने वे अमेरिका चले गए. फिर फिल्म ‘जीनियस’ में हीरो बन कर आए थे. अब वह ‘गदर 2’ में युवा जीते के किरदार में नजर आने वाले हैं। प्रस्तुत हैं, उत्कर्ष शर्मा से हुई बातचीत के खास अंश :

आप की परवरिश फिल्मी माहौल में हुई है, तो आप को संघर्ष नहीं करना पड़ा?

देखिए, संघर्ष को हर इंसान अपनेअपने नजरिए से देखता है. जहां तक मेरा सवाल है, मैं ने काफी मेहनत की है. मैं ने कम उम्र में अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम किया जबकि बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं.

ऐसा अकसर होता था, जब पढ़ाई के बीच में मैं अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम करता था. बाद में मैं फिल्म मैकिंग में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए अमेरिका चला गया. वहां पर मैं ने अभिनय की ट्रैनिंग लेने के साथ ही 1 साल तक थिएटर भी किया. बतौर कलाकार वहां की कई शौर्ट फिल्मों में अभिनय भी किया. मैं ने वहां कई शौर्ट फिल्मों का निर्माण व निर्देशन भी किया, जिन्हें फिल्म फैस्टिवल में पसंद भी किया गया. मैं यह सारी मेहनत अपने अंदर के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए कर रहा था.

देखिए, आप अभिनेता हैं तो घर से बाहर का इंसान ही पैसा लगाएगा तो वह भी अपने तरीके से परखेगा कि रिस्क कितना है. अब मेरी पहली फिल्म ‘जीनियस’ पर भी दीपक मुकुट व कमल मुकुट की कंपनी ने मेरी प्रतिभा पर भरोसा कर पैसा लगाया था. फिल्म ‘जीनियस’ को ओटीटी पर अच्छी सफलता मिली. इस के गाने बहुत ज्यादा हिट हुए हैं.

आप ने 5-6 साल की उम्र में अभिनय किया था. आप अपने पिता के साथ शूटिंग के दौरान सैट पर जाते थे. बतौर सहायक निर्देशक काम किया. फिर आप ने अमेरिका जा कर ट्रैनिंग लेने की जरूरत क्यों महसूस की?

फिल्म इंडस्ट्री में हमेशा कहा जाता है कि पश्चिम का सिनेमा हम से बेहतर है. तो मैं यह देखना चाहता था कि इन लोगों की ऐसी नींव क्या है। उन के पास ऐसी क्या कला है। फिल्में तो हम भी अच्छी बनाते हैं, इस में कोई शक नहीं है. हमारी कई फिल्में उन से ज्यादा अच्छी हैं. पर हम चाह कर भी हौलीवुड स्तर की फिल्में नहीं बना पा रहे हैं जबकि हमारे यहां कहानी कहने का तरीका बहुत ही सशक्त है।

हमारी फिल्मों में इमोशंस बहुत सशक्त ही नहीं बल्कि खासियत भी है. तो मैं यह समझना चाहता था कि हौलीवुड तकनीक में हम से किस तरह ज्यादा आगे हैं। अगर मैं वहां से कुछ सीख कर आऊंगा, तो अपने देश के सिनेमा की कुछ मदद कर सकता हूं. फिर वह वीएफऐक्स हो चाहे औनसैट प्रोडक्शन हो. आखिर हौलीवुड ही सिनेमा का आधार है. सिनेमा का जन्म वहीं हुआ है. फिल्म स्टूडियो से ले कर सारी चीजें, फिल्म कलाकार भी वहीं से थे। उन के यहां स्टूडियोज आज भी 1915 वाले हैं. वे आज भी चल रहे हैं. उन की ब्रैंड बहुत स्ट्रौंग है तो उन की खासियत जानने की मेरी उत्सुकता मुझे वहां तक खींच कर ले गई. वहां जा कर मैं ने काफी चीजें सीखी.

बतौर कलाकार मुझे वहां मौका मिला. एक अलग माहौल में एक अलग कल्चर में काम करने, अभिनय करने, स्टेज शो करने, थिएटर करने का अवसर मिला. मेरी अंगरेजी भारतीय एसेंट वाली है. इसलिए मेरे लिए वहां की भाषा के एसेंट को पकङना काफी तकलीफदेह रही. इन सारी चीजों का भी अनुभव मुझे मिला.

हर देश के दर्शकों का इमोशन एकजैसा ही है. भारतीय होने के नाते अगर आप को कोई भावना छू रही है, तो वही भावना अमेरिका के दर्शकों के साथ भी है. एक एशियन होने के नाते यूरोप तो मेरे लिए एक पर्सनल टेस्ट था कि मैं और क्या सीख सकता हूं।

वहां की ट्रैनिंग के बाद आप के अंदर क्या असर हुआ?

मैं ने कम मानवीय शक्ति यानी कि कम इंसानों के साथ काम कैसे किया जाए, यह सीखा. मुझे सब से अच्छी बात यही लगी थी कि वहां पर वे लोग कम मैनपावर के साथ अच्छा काम करते हैं. हमारे यहां सैट पर बहुत बड़ी युनिट होती है. वहां पर हरएक आदमी के आधार पर जिम्मेदारियां बांटी जाती हैं. हर आदमी ज्यादा जिम्मेदारियां सभालता है जबकि भारतीय आदमी ज्यादा मेहनती होता है. वहां पर मैनेजमैंट सिस्टम बहुत ज्यादा बेहतर है. अब धीरेधीरे भारत में भी वही चीजें आ रही हैं. लेकिन फिर भी अभी सुधार की जरूरत है.

अकाउंटेबिलिटी वाला मसला तो नहीं है?

नहीं। हर भारतीय तकनीशियन बहुत मेहनत करते हैं. लेकिन हम भारतीयों को भीड़ लगाने का भी शौक होता है. दूसरी बात यह भी है कि विदेशों की अपेक्षा हमारे देश में मैन पावर सस्ता है. इसलिए शायद हमलोग एक ही काम के लिए ज्यादा लोगों को रखते हैं. मसलन, फिल्म ‘लगान’ में एक ही गेंद/बौल के पीछे सभी लोग भागते हैं. यह कोई गलत बात नहीं है. लेकिन हमें सीखना चाहिए कि हम किस जगह पर खुद को सुधार सकते
हैं. आखिर, हमें भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को आगे बढ़ाना है.

हमारे देश में बमुश्किल 8 हजार स्क्रीन हैं. उस में से लगभग 5 हजार हिंदी फिल्मों के हिस्से में आते हैं. कुछ छोटे सिनेमाघर बंद भी होते रहते हैं. यह हालात तब है जब हमारे देश के लोग सिनेमाप्रेमी हैं. हमारे पास बहुत ज्यादा स्कोप है.

जब आप अमेरिका से ट्रैनिंग ले कर आए थे, उस के बाद आप के पिता से हमारी बात हो रही थी, तब उन्होंने कहा था कि उत्कर्ष ने जो कुछ सीखा है, उस से मुझे बहुत कुछ सीखना है?

ऐसा कुछ नहीं है. मैं पापा को क्या सिखा सकता हूं. वे तो खुद गुरु हैं. सच यही है कि मैं ने खुद ही उन से सबकुछ सीखा है. उन्होंने अपनी जिंदगी में इतनी बड़ीबड़ी फिल्में बनाई हैं। उन के पास कोई किताबी ज्ञान नहीं है. उन के पास अपने अनुभव का ज्ञान है. स्क्रीन तो उन लोगों ने बनाया है. पहले फिल्म मैकिंग की इस की कोई किताब नहीं थी. पहले यह कोई साइंटिफिक विषय नहीं था जिस की थ्योरी लिखी गई हो, जिसे आप जब तक पढ़ेंगे नहीं तब तक कुछ कर नहीं सकते हैं. जिस ने भी इस पर किताब लिखी है, वह पहले खुद ही लेखक, निर्देशक या अभिनेता रहा होगा. उसी आधार पर वह कह रहा है कि कैसे लिखा जाता है तो लोगों के अनुभवों से सीखा जा सकता है.

तो पापा को मैं ने कुछ नहीं सिखाया है, बल्कि मैं ने उन से बहुतकुछ सीखा है. मैं ने उन से सीखा है कि कहानी हमेशा दर्शकों को ध्यान में रख कर ही बनानी चाहिए. कई चीज व कई सीन हमें बहुत अच्छे लगते हैं पर जरूरी नहीं है कि वह सीन फिल्म को भी अच्छी बनाएं. फिल्म की कहानी और इमोशन सही हो. मतलब, संवाद या बेमतलब के ऐक्शन नहीं हों.

आप पहली बार 6 साल की उम्र में ‘गदर एक प्रेम कथा’ में जीते का किरदार निभाने के लिए सैट पर गए थे. उस वक्त की कोई बात आप को याद है? उस समय आप के मन में क्या चल रहा था? क्या आप खुश थे?

वह मेरा पहला अनुभव था. उस जमाने में वीएफऐक्स भी नहीं था. सारी चीजें वास्तविक होती थीं. कौस्ट्यूम से ले कर घोड़े तक. यहां तक कि उस फिल्म के सारे स्टंट पूरी तरह से वास्तविक थे, जिन्हें करना पड़ा था और ज्यादातर हमें ही करना पड़ा था. मुझे तो उस फिल्म का एकएक मूवमैंट याद है. फिल्म कैसे बनी थी? क्या गरमी थी? तब भी हम ने लखनऊ में गरमी के दिनों में शूटिंग की थी. कपड़े तो पसीने से ही भीगे रहते थे. पर क्या था, उस जमाने का लुक भी था. नैचुरल लुक आता था, जो मेकअप से नहीं आ सकता.

मुझे याद है कि मेरी शूटिंग का पहला दिन था. हमें पूरे 72 घंटे तक शूटिंग करनी पड़ी थी. उस जमाने में ऐसा नहीं था बाकी बची हुई शूटिंग मुंबई में आ कर सैट को रिक्रिएट कर के कर
लो. हमें वह पूरा सीक्वैंस फिल्माना ही था. हम ने गाना ‘उड़ जा काले…’ जहां सनी देओल, अमीषा को ले कर आते हैं, इस गाने व उस के आगेपीछे के दृश्य को हम ने लगातार 3 दिनों तक शूटिंग की थी. मेेरे लिए तो शूटिंग का यह पहला अनुभव था.

‘गदर एक प्रेम कथा’ में तो आप के पापा ने कहा और आप ने अभिनय कर लिया था. मगर आप ने स्वयं अभिनय को कैरियर बनाने का निर्णय कब लिया?

2-3 मोड़ आए. पहला मौका तब आया जब मैं फिल्म ‘वीर’ के सैट पर अपने पापा के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर रहा था. सलमान सैट पर आए, तो वे एकदम अलग नजर आए. मगर कैमरे के सामने पहुंचते ही मैं ने उन को बदलते देखा. उस दिन गाना फिल्माया जा रहा था, जिस में गाने के बोल पर सलमान को सिर्फ होंठ चलाने थे. मैं अपने पापा के साथ कैमरे के पीछे था और हमारी निगाहें मौनीटर पर थीं. पर मैं ने वास्तव में सलमान को देखने के लिए आंखें उठाईं तो वे एकदम बदले हुए नजर आए. मेरी आंखे खुली की खुली रह गईं. तब उस दिन मुझे लगा था कि मुझे अपनी जिंदगी में यही करना है.

मुझे अभिनय पसंद आया कि मैं हर इमोशंस को व्यक्त कर सकता हूं. लोगों से जुड़ सकता हूं. मेरे दिमाग में आया कि मुझे ऐक्टर ही बनना है. तब मैं ने यह नहीं सोचा था कि मुझे कौन से जोन में जाना है. बस, इतना जरूर सोचा था कि मुझे अच्छा ऐक्टर बनना है. अचानक अभिनय मेरी प्राथमिकता बन गई थी.

कई लोग कहते हैं कि आप का डांस रितिक रोशन या फलां के जैसा होना चाहिए. बौडी ऐसी होनी चाहिए, ऐक्शन ऐसा होना चाहिए?

मेरे हिसाब से यह सब चीजें ऐडिशनल हैं. यदि आप अभिनय कला में माहिर हैं तभी आप लंबी रेस का घोड़ा बन सकते हैं. अमिताभ बच्चनजी 80 साल की उम्र में भी अभिनय कर रहे हैं. धर्मेंद्रजी आज भी ऐक्टिंग कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे बेहतरीन अभिनेता हैं. धर्मेंद्रजी ऐक्शन में माहिर हैं।

मैं इस प्रोफैशन को ऐंजौय कर रहा हूं और इस के लिए मैं अपनी ऐक्टिंग को ही प्राथमिकता देता हूं. बाकी तो फिर जिस तरह का किरदार है, इस के हिसाब से ही आप को बदलना होता है. यही तो अभिनय है.

अमेरिका में ट्रैनिंग के दौरान आप ने जो लघु फिल्में बनाई थीं, उन्हें वहां पर किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिली थीं?

वहां के सिनेमा में बहुत रोचकता है क्योंकि मैं ने तो यहां ज्यादातर भारतीय सिनेमा ही देखा था. वहां जा कर मैं ने पश्चिमी सिनेमा ज्यादा देखा. हम वहां के सिनेमा के आधार पर ही निर्णय लेते थे कि वहां के लोग किस तरह के हैं. हम ज्यादा भावुक हैं. हमारे सिनेमा में भी बहुत ज्यादा इमोशंस हैं. ये इमोशंस मांबाप से जुड़े होते हैं. पश्चिमी सिनेमा में इस का घोर अभाव है. लेकिन जब आप वहां जाते हैं, तो आप को इमोशंस नजर आता है. वहां पर हम कई लड़के एकसाथ मिल कर रहते थे. जब मेरे सहपाठी/रूमर्पाटनर्स की मांएं उन्हें छोड़ने आती थीं, तो उन की आंखों में भी आंसू होते थे. मेरी मां की आंखों में भावनाएं थीं. कहने का अर्थ यह कि इमोशंस को तो इंसान बदल नहीं सकता. शायद रंग बदल जाएं, चाहे देश बदल जाए. अब फिल्म ‘गदर 2’ का ट्रेलर आने के बाद मुझे रूस व पूरे यूरोप से इतने ज्यादा कमैंट्स आए हैं कि कमाल हो गया।

खुद को एक परिपक्व कलाकार बनाने के लिए अभिनय के अलावा क्याक्या सीखा?

हर तरह का डांस सीखा. हिपहौप सीखा है. टैप डांस मैं ने अमेरिका में सीखा. हालांकि अभी तक उसे किसी फिल्म में करने का मौका नहीं मिला. मौका मिलेगा तो करूंगा. मैं जीन कैली का बहुत बड़ा फैन हूं तो अमेरिका में जब मैं था, तो मुझे टैप डांस सीखने का अवसर मिला. मैं ने ऐक्शन सीखा. इस के अलावा घुड़सवारी, स्वीमिंग, तलवारबाजी सहित कुछ छोटीछोटी चीजें भी सीखी हैं. इस के अलावा फिल्म व किरदार की मांग के अनुरूप चीजें सीखता रहता हूं. जैसेकि मैं ने फिल्म ‘जीनियस’ के लिए क्यूबिक सौल्व करना सीखा था.

फिल्म ‘गदर 2’ के लिए पंजाबी भाषा का उच्चारण सीखना पड़ा. फिल्म की कहानी की पृष्ठभूमि पंजाबी है. इसलिए मेरा जीते का किरदार पंजाबी बोलता है. लेकिन उसे उर्दू में भी बात करनी पड़ती है, जो गलत नहीं हो सकती थी. मेरे लिए यह महत्त्वपूर्ण था कि मैं भाषा और उस की बोली को पूरी ईमानदारी के साथ सीखूं.

अमेरिका से अभिनय की ट्रैनिंग पूरी करने के बाद आप ने ‘जीनियस’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी, जिसे खास सफलता नहीं मिली थी?

मैं ने पहले ही कहा कि वह गलत समय प्रदर्शित हुई थी. पर उस के गाने काफी सफल हैं. इस के अलावा इसे ओटीटी पर काफी पसंद किया गया. इन दिनों ‘गदर 2’ के प्रोमोशन इवेंट में जाता हूं तो लोग मुझ से फिल्म ‘जीनियस’ का संवाद सुनाने के लिए कहते हैं. यह देख कर हमें अच्छा लगता है कि ‘जीनियस’ हम ने जिस युवा पीढ़ी के लिए बनाई थी, उन्हें पसंद आई.

फिल्म ‘गदर एक प्रेम कथा’ में आप ने तारा सिंह व सकीना के 6 साल के बेटे जीते का किरदार निभाया था. अब ‘गदर 2’ में वही जीते बड़ा हो गया है. इसलिए आप ने यह फिल्म की अथवा घर की फिल्म है, इसलिए कर ली?

यदि ‘गदर 2’ एक प्रोजैक्ट बन रहा होता, तो मैं नहीं करता और मेरे पापा अनिल शर्माजी भी नहीं करते क्योंकि प्रोजैक्ट बनाना बहुत आसान है. ‘गदर एक प्रेम कथा’ को मिली ऐतिहासिक सफलता के बाद इस का सीक्वल बनाने में 22 साल लग गए क्योंकि हमें अच्छी कहानी नहीं मिल रही थी. अब जब लेखक शक्तिमान ने फिल्म की वन कहानी सुनाई, तो वह सुनते ही मेरेे पापा को लगा कि इस पर फिल्म बनाई जानी चाहिए. फिर वही वन लाइन की कहानी सुन कर जी स्टूडियो के शारिक पटेल ने भी हमें आगे बढ़ने के लिए हामी भर दी. उस के बाद मेरे अपने कुछ दूसरे प्रोजैक्ट थे, उन्हें छोड़ कर पूरी तरह से ‘गदर 2’ से जुड़ा.

मेरे पापा ने भी कुछ प्रोजैक्ट छोड़ दिए. सनीजी भी वन लाइन कहानी सुन कर फिल्म करने के लिए तैयार हो गए. यह सब लौकडाउन के वक्त हुआ, जब हालात अच्छे नहीं थे. किसी को पता नहीं था कि अब सिनेमा की क्या हालत होगी. सिनेमाघर खुलेंगे या नहीं. जहां तक मेरा ‘गदर 2’ से जुड़ने का सवाल है, तो जब तक मुझे एहसास नहीं होगा कि इस किरदार में अपनी तरफ से कुछ योगदान दे पाउंगा, मैं अपने दर्शकों का मनोरंजन कर पाउंगा, तब तक मैं कोई फिल्म स्वीकार नहीं करता. हां, फिल्म ‘गदर’ में अभिनय करना मेरी मजबूरी थी क्योंकि उस समय कोई भी 6 साल के बेटे को स्टंट के साथ अभिनय कराने के पक्ष में नहीं थे।

अब आप अपने जीते के किरदार को ले कर क्या कहेंगे?

देखिए, ‘गदर एक प्रेम कथा’ में जीते को लोग देख चुके हैं. जोकि अपने पिता के साथ हमेशा खड़ा रहता है. अगर कोई उस की मां को परेशान करे तो वह अपनी मां के लिए खड़ा हो सकता है. अगर पिता, मां को लेने जा रहे हैं, तो वह लक्ष्मण की तरह अपने पिता के साथ जाएगा ही जाएगा. मतलब वह अपने पिता से इस कदर भावनात्मक तरीके से जुड़ा हुआ है. अब वह युवा हो चुका है. पर आज भी उस के अंदर जिद और बचपना दोनों है. उस के अंदर परिपक्वता भी है. अब वह 22 साल का है, तो वह जवानी में जा रहा है.

जब हम जवानी मे जा रहे होते हैं, तो कुछ चीजों में बच्चे रह जाते हैं और कुछ चीजों में ओवर ऐक्साइटेड भी हो जाते हैं. तो जीते भी उसी के बीच जूझ रहा है. अपनी मां सकीना, जिसे अमिषा पटेल ने निभाया है, के संग भी उस का प्यारा रिश्ता है. पिता के साथ एक अलग जुगलबंदी है.

आप के लिए किस दृश्य को निभाना आसान रहा?

आसान तो कोई दृश्य नहीं रहता. जब फिल्म में कोई संवाद नहीं होता है, तब भी उस दृश्य को निभाना कई बार बहुत कठिन हो जाता है. यदि किसी दृश्य में मेरा कोई संवाद नहीं है. सिर्फ चलना है या केवल पैर या हाथ ही नजर आने वाला है. चेहरा नजर नहीं आने वाला है, तो भी यह दृश्य आसान नहीं है. हर दृश्य में एकएक चीज मायने रखती है. हाथ के पोस्चर से ले कर हर छोटी चीज उस किरदार में बैठना चाहिए. आखिर वह किरदार ऐसा क्यों है? क्या वह इसी तरह से बिहैव करेगा? यदि मैं कुछ ढूंढ़ रहा हूं तो कई किरदार एक उंगली से ढूंढ़ते हैं, तो कुछ 2 उंगलियों से, तो वहीं कुछ किरदार अपने होंठों के बीच उंगली रख कर तलाश करते हैं. तो हमें हर दृश्य के वक्त सोचना होता है कि किरदार के माइंड सैट के
अनुसार क्या फिट बैठेगा.

इस फिल्म में एक तगड़ा दृश्य है जो हमारे लिए सब से अधिक कठिन रहा. इस दृश्य का कुछ अंश ट्रेलर में भी है, जहां सनी देओल का संवाद है. इसे लखनऊ में अप्रैल माह में भीषण गरमी में फिल्माया गया है. 2 से 5 हजार की भीड़ उपयोग की गई है. प्रोडक्शन वाइज भी कठिन था क्योंकि मैं प्रोडक्शन वालों का भी पक्ष सुन रहा था. निर्देशक व अभिनय के लिए भी कठिन था. 5 हजार लोगों के सामने एक संवाद बोलना हो, जिस का असर 5 हजार लोगों के सामने बोलने वाला लगे, वह बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. पर कलाकारों की गरमी, भीड़ सबकुछ नजरंदाज कर अपने किरदार के भावनाओं को पकड़ना बहुत ही ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है.

सुना है कि फिल्म में मुसकान का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री सिमरत कौर का औडीशन आप ने लिया था?

फिल्म में मुसकान के किरदार के लिए 5-6 लड़कियों के औडिशन लिए जा चुके थे. मगर किसी न किसी वजह से कोई फिट नहीं बैठ रही थी. यह सारा काम मेरे पापा ही संभाल रहे थे. कलाकार के चयन में मेरी कोई भूमिका नहीं थी. हम पालमपुर में शूटिंग कर रहे थे. कास्टिंग डाइरैक्टर मुकेश छाबड़ा मुंबई से लड़कियों को औडीशन के लिए वहीं पर भेज रहे थे. जिस दिन सिमरत कौर पालमपुर पहुंची, उस दिन हम लोग सुबह से ही बारिश व कीचड़ वाले दृश्य फिल्मा रहे थे. शाम तक हम सभी थक चुके थे. पालमपुर में हर लड़की का औडिशन कैमरा व स्क्रिप्ट के साथ होता था. लेकिन सिमरत के लिए उस वक्त कैमरामैन भी मौजूद नहीं था. मेरे और पापा के पैर में भी चोट थी. सिमरत को मुंबई वापस भी जाना था. तब उस को होटल में ही बुलाया गया कि यहीं पर तुम्हारा औडिशन ले लेते हैं. पापा ने मुझ से कहा कि उत्कर्ष तुम जा कर मोबाइल से ही उस का एक औडिशन ले लो.

मैं ने बहाना किया. पर फिर मुझे पापा के आदेश का पालन करना ही पड़ा. मैं ने सहायक से पूछा कि वह किरदार के अनुरूप सही लगती है, तो उस ने कहा सर, आप देखे लो। वह किरदार में फिट बैठेगी या नहीं।

जब मैं गया तो देखा कि सिमरत स्क्रिप्ट ले कर रिहर्सल कर रही थी. मैं ने पहले अपनी गुगली फेंकते हुए उस से कहा कि स्क्रिप्ट रख दो. हमलोग पहले इंप्रूवाइज करते हैं. हमें अच्छी महिला कलाकार चाहिए थी. शूटिंग लगातार चल रही थी, तो वक्त भी नहीं था. हमारे पास रिहर्सल आदि में समय खराब करने का वक्त ही नहीं था. मैं तो अपनेआप को तीसमारखां समझ रहा था. हम ने मोबाइल की लाइट में ही इंप्रूवाइज का खेल शुरू किया. मतलब हमारी तरफ से उस के साथ पूरी नाइंसाफी हो रही थी. खैर, कुछ देर में ही मेरी बोलती बंद हो गई. मैं अटक गया. पर सिमरत की परफौर्मैंस देख कर मुझे एहसास हुआ कि यह जबरदस्त कलाकार है.

मैं ने पापा को वह औडिशन का वीडियो देते हुए कहा कि लड़की कमाल की है. कुछ न कुछ कमाल का अभिनय कर के दिखाएगी. फिर पापा ने औडिशन देखा. उन्हें सिमरत पसंद आई और जब 3-4 दिन बाद हम वापस मुंबई पहुंचे, तब पापा ने सिमरत को बुला कर उस का सही ढंग से दोबारा औडिशन लिया और उसे चुन लिया गया.

सिमरत ने अच्छा काम किया है. हमारे बीच जल्द ही ट्यूनिंग भी हो गई थी. किसी भी किरदार को निभाने के लिए हर कलाकार अपनी कल्पनाशक्ति के साथ ही निजी जीवन के अनुभवों का उपयोग करता है.

आप को ‘गदर 2’ में जीते का किरदार निभाने में किस ने कितनी मदद की?

आप का यह सवाल बहुत अच्छा है. मेरी राय में हर किरदार को निभाने में निजी जीवन के अनुभव और कल्पनाशक्ति का मिश्रण होना चाहिए. क्योंकि जिंदगी के अनुभव बहुत हो सकते हैं, कल्पनाशक्ति भी बहुत हो सकती है. पर जब दोनों का मिश्रण होगा, तो एक नया किरदार निकल कर आएगा ही आएगा.

जब मैं अमेरिका में पढ़ाई कर रहा था, तो वहां पर जीवन के अनुभवों को ज्यादा महत्त्व देते हैं. हमारे यहां कल्पना को ज्यादा तरजीह दी जाती है. मैं ने मुंबई में गरमी की छुट्टियों में किशोर नमित कपूर के यहां से वर्कशौप किया था. यह तब की बात है जब मैं ने 12वीं पास किया था. इसलिए मेरी राय में दोनों का मिश्रण ही सही जवाब है. मैं ने जीते के किरदार को निभाते हुए यही किया. कई बार पटकथा पढ़ते दृश्य के साथ हम खुद जुड़ जाते हैं. तब कल्पनाशक्ति या जीवन के अनुभवों का उपयोग करने की जरूरत नहीं पड़ती. पर जब किसी दृश्य के लिए तैयारी करने की जरूरत हो तो अनुभवों व कल्पनाशक्ति के मिश्रण के हथियार का प्रयोग किया जाना चाहिए.

अभिनय में नृत्य कितनी मदद करता है?

वास्तव में हमारे यहां चेहरे पर भाव बहुत मायने रखते हैं। ऐक्सप्रैशंस जरूरी माना जाता है. जितने भी बड़ेबड़े कलाकार रहे हैं, उन के ऐक्सप्रैशंस की चर्चा रही है. फिर चाहे वे राजेश खन्ना जी रहे हों, राजकुमार जी रहे हों, गोविंदाजी हों, सनीजी हों, शाहरुख खानजी हों, सभी के ऐक्सप्रैशंस दिल से निकलते हैं. हमारे यहां डांस व म्यूजिक बहुत मायने रखता है. जब ये लोग डांस करते हैं, तो उन के हर स्टैप्स से पूरी कहानी समझ में आ जाती है.

भारतीय नृत्य तो हमारी अभिनय का सब से बड़ा हथियार है. भारतीय फिल्मों में डांस के बिना अभिनय करना मुश्किल है. कत्थक व भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य से एक ग्रेस आता है.

आप के अनुसार वर्तमान समय में सिनेमा के हालात क्या हैं और उन्हें कैसे बेहतर बनाया जा सकता है?

हमारे देश में सिनेमा के हालात बेहतर होते जा रहे हैं. बौक्स औफिस कलैक्शन बढ़ रहा है जबकि हमारे यहां सिनेमाघर काफी कम हैं.

आप के शौक क्या हैं?

फिल्में देखने के अलावा किताबें पढ़ना पसंद है. फुटबाल खेलना पसंद है. गिटार बजाना पसंद है. संगीत का शौक है. मो रफी और किशोर कुमार को सुनना अच्छा लगता है. थोड़ाबहुत गाता रहता हूं पर माइक के सामने नहीं गाता.

आप को गाने का शौक कैसे हुआ?

मेरी मम्मी गायक हैं. मेरी बहन गायक है. मेरी नानी पक्ष के लोग संगीत में महारत रखते रहे हैं. मेरी मम्मी ने बचपन में हमें भी क्लासिकल संगीत सिखाया है. मैं ने अपनी फिल्म ‘गदर 2’ के लिए 60 व 70 के दशक के गीत बहुत सुने.

किताबें कौन सी पढ़ते हैं?

पिछले कुछ समय से हिंदी साहित्यिक किताबें भी पढ़ना शुरू किया है. मुंशी प्रेमचंदजी को भी पढ़ रहा हूं. कुछ अंगरेजी की किताबें भी पढ़ता रहता हूं।

आप तो पटकथाएं भी लिखते हैं?

जी, कहानियां लिखते रहता हूं।

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