साल 2016 में ‘दंगल’ फिल्म आई थी. इस में एक डायलौग था, ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम है के…’ यह डायलौग सिर्फ डायलौग नहीं था बल्कि आज के भारत का आईना था जहां लड़कियां बहुत से मामलों में आगे निकल रही हैं.

इस साल जून में नीट का रिजल्ट घोषित हुआ. नैशनल टैस्ंिटग एजेंसी ने जो रिजल्ट पेश किया उस ने यह तो साबित कर दिया कि लड़कियां आज न सिर्फ लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही हैं बल्कि अगर उन्हें बेहतर माहौल और मौका मिले तो वे बहुत जगहों पर आगे भी निकल सकती हैं क्योंकि जो रिजल्ट सामने आया उस में पश्चिम बंगाल की कौस्तव बाउरी व पंजाब की प्रांजल अग्रवाल ने टौप 10 रैंकिंग में अपनी जगह बनाई.

हाल ही में यूपीएससी का रिजल्ट घोषित हुआ जिस में इषिता किशोर ने पहली रैंकिंग हासिल की. वहीं दूसरे व तीसरे स्थान पर गरिमा लोहिया व उमा हरि थीं जिन्होंने दूसरी व तीसरी रैंक हासिल की.

यही कारण भी है कि उच्च पदों के अलावा लड़कियां अब पढ़ाई से ले कर जौब तक हर क्षेत्र में अपनी पहुंच बढ़ा रही हैं. एक जमाना था जब रोजगार की दुनिया में पूरी तरह से पुरुषों का कब्जा था. अगर किसी क्षेत्र में गिनीचुनी महिलाएं होती भी थीं तो वे पुरुषों के दबदबे वाली इस दुनिया में अजीब सी लगती थीं. लेकिन आज यह तसवीर पूरी तरह से बदल चुकी है. आज किसी भी क्षेत्र में लड़कियों की मौजूदगी अजूबा नहीं है. आज लड़कियां हर क्षेत्र में लड़कों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. यही नहीं, कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं, जहां लड़कियों की उपस्थिति तेजी से बढ़ी है.

कुछ जगह ऐसी हैं जो मेल फ्री जोंस में खास हैं- नर्सिंग, पीआर, कौल सैंटर, इंटीरियर डिजाइनिंग तथा नर्सरी टीचिंग. दरअसल, रोजगार और अर्थव्यवस्था की दुनिया में जैसेजैसे सेवा क्षेत्र का दबदबा बढ़ा है, वैसेवैसे लड़कियों का दबदबा भी बढ़ा है क्योंकि सेवा क्षेत्र में लड़कियां लड़कों के मुकाबले ज्यादा सफल हैं.

कुछ साल पहले सिडनी रिक्रूटमैंट फर्म द्वारा किए गए एक ताजा सर्वेक्षण ने इस बात

का खुलासा किया है कि महिलाओं की कई क्षेत्रों में बढ़ती एकल मौजूदगी कई तरह से नुकसानदायक भी है. यही नहीं, व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो पुरुषों की मौजूदगी भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि महिलाओं की. इसलिए सिर्फ मेल जोन या सिर्फ फीमेल जोन दोनों ही किसी भी क्षेत्र के लिए नुकसानदायक होते हैं. लेकिन पहले के समय लड़कियों को बाहर काम करने देने की तो छोड़ो बाहर निकलने की भी मनाही थी. उन्हें बस साजोसामान समझने लायक पढ़ालिखा कर शादी करा दी जाती थी.

विशेषज्ञों के मुताबिक लिंग असंतुलन कंपनी के लिए किसी भी माने में फायदेमंद नहीं हो सकता. यह वास्तव में एक खराब स्थिति होती है.

कंपनी की सोच

हालांकि जिन क्षेत्रों में लड़कियों की प्रधानता हो जाती है, उन का मैनेजमैंट लड़कों को कम महत्त्व देता है, जोकि कंपनी के विकास के लिए सही नहीं है. बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. दरअसल लड़कियां हर जगह और हर समय फैसला लेने वाले के रूप में उभर कर सामने नहीं आ पातीं. कई जगह आक्रामक होना पड़ता है तो कई जगहों पर तुरंत फैसले लेने पड़ते हैं. ऐसे मामलों और जगहों में लड़कियां अभी भी काफी पीछे हैं.

उन का आत्मविश्वास अब तक कमजोर ही साबित हुआ है. हालांकि भविष्य में क्या होगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन फिलहाल बाजार की स्थिति को देखते हुए फीमेल की अकेली प्रधानता किसी भी कंपनी के लिए अच्छी बात नहीं है.

इस के अलावा भी कई और नुकसान हैं जो फीमेल डोमिनैंस कंपनी को ?ोलने पड़ सकते हैं. हर महिला सही समय पर मां बनना चाहती है. इस में कोई बुराई भी नहीं है. अगर व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो फीमेल प्रैग्नैंसी कंपनी की प्रगति में कई बार बाधक बन जाती है, क्योंकि इस के चलते कई महीनों तक न चाहते हुए भी लड़की को कामकाज की सक्रिय भागीदारी से अपनेआप को अलग करना पड़ता है. ऐसी स्थिति में किसी भी कंपनी का मैनेजमैंट गड़बड़ा सकता है.

जरूरी है संतुलन

कुछ ऐसी भी समस्याएं हैं, जिन पर महिलाओं का कोई वश नहीं चलता और उन की वजह से कंपनी को घाटा उठाना पड़ता है. मसलन, कोई भी कंपनी अगर किसी अविवाहित लड़की पर काफी हद तक निर्भर हो जाती है और अचानक उस की शादी हो जाती है तो हो सकता है कि उसे नौकरी छोड़नी पड़ जाए या शहर छोड़ना पड़ जाए. ऐसा होने पर कंपनी के लिए अचानक परेशानी की स्थिति आ जाती है.

पुरुषों के साथ आमतौर पर ऐसा नहीं होता. शादी करने के बाद कम से कम भारत में पुरुषों को बहुत दुर्लभ मौकों पर ही अपना घर या शहर बदलना पड़ता है. यही नहीं, एक तरफ जहां शादी के बाद महिलाओं पर किसी कंपनी की निर्भरता खतरनाक हो सकती है, वहीं पुरुष कंपनी के मामले में ज्यादा जिम्मेदार हो जाता है.

कुल मिला कर किसी भी कंपनी या किसी भी रोजगार क्षेत्र का पूरी तरह से महिलाओं पर निर्भर हो जाना जहां कामकाज के लिहाज से जोखिम भरा हो जाता है, वहीं वर्क कल्चर और वर्किंग माहौल की नजर से भी उबाऊ हो जाता है.

एक प्राइवेट कंपनी में कार्यरत 39 वर्षीय पूर्णिमा का कहना है, ‘‘कंपनी में सिर्फ महिलाओं का काम करना या फिर सिर्फ पुरुषों का होना, दोनों ही अपनीअपनी जगह गलत हैं. पुरुषप्रधानता भी खराब है और महिलाप्रधानता भी. दोनों में संतुलन बना रहना बहुत जरूरी है, क्योंकि कंपनी का माहौल भी उस के विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है.

जहां सिर्फ महिलाएं होती हैं या सिर्फ पुरुष, वहां कामकाज का माहौल रुचिकर नहीं रह जाता. यही नहीं, ऐसी जगहों में काम बो?ा में तबदील हो जाता है. इसलिए दोनों का ही कंपनी में होना बहुत जरूरी है.’’

कामकाज में फर्क

जहां कई फैसले सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं तो कई काम सिर्फ महिलाओं के जिम्मे ही छोड़े जा सकते हैं. वहीं महिला और पुरुष दोनों मिल कर ज्यादा काम भी कर सकते हैं और वह भी बिना बोर हुए.

मजे की बात यह है कि जिस औफिस में पुरुषमहिला दोनों होते हैं, वहां कर्मचारियों को अगले दिन औफिस पहुंचने का बेसब्री से इंतजार रहता है, जबकि सिर्फ पुरुष या महिलाप्रधानता वाले क्षेत्र में ऐसा देखने को नहीं मिलता.

विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि महिलाप्रधान होने से कंपनी में ठहराव आ सकता है और पुरुषप्रधान होने पर भी ऐसी आशंका बनी रहती है. इसलिए कामकाज में मैच्योर कंपनियां दोनों का संतुलन चाहती हैं. वर्कप्लेस पर दोनों की मौजूदगी वास्तव में व्यावहारिक है.

30 वर्षीय अजीत का कहना है, ‘‘कंपनी में सिर्फ पुरुषों का होना या फिर महिलाओं का होना बिलकुल गर्ल्स स्कूल या बौयज स्कूल की तरह होना है. जिस तरह बौयज अकसर छुट्टी के बाद गर्ल्स स्कूल के बाहर पहरा देते नजर आते हैं, उसी प्रकार दफ्तरों में भी देखने को मिल सकता है. हालांकि कर्मचारी बचकानी हरकतें नहीं करेंगे. लेकिन गौर करने की बात यह है कि दफ्तर में आने की उन की ललक खत्म हो जाएगी. इतना ही नहीं, महिलाएं और पुरुष मिल कर नएनए आइडिया विकसित कर सकते हैं, नएनए प्रयोग कर सकते हैं.’’

कुल मिला कर उचित यही है कि वर्कप्लेस पर लड़केलड़कियों दोनों का होना जरूरी है. दोनों में से किसी एक की भी प्रधानता कामकाज का माहौल बिगाड़ती है और कामकाज की मात्रा व गुणवत्ता में भी फर्क लाती है.

रोजगार की दुनिया में महिलाओं का महत्त्व

हालांकि रोजगार के क्षेत्र में लड़कियों का होना देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा संकेत है. विभिन्न रोजगार स्थितियों का पता देने वाली एजेंसियों के आंकड़ों पर भरोसा करें तो आने वाले सालों में रोजगार की दुनिया में महिलाओं का महत्त्व पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा होगा. यह बात सिर्फ हिंदुस्तान या चीन जैसे देशों में लागू नहीं होती, बल्कि विकास के मामले में सैच्युरेटिंग पौइंट पर पहुंच चुके यूरोप और अमेरिका में भी महिलाओं के रोजगार का भविष्य पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा उज्ज्वल नजर आता है. भारत में तो खासतौर पर महिलाओं के लिए अगले एक दशक में तमाम क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर नौकरियों की बाढ़ आने वाली है.

भारतीय नर्सों की मांग : ऐसे क्षेत्रों में सब से पहला और विशेष क्षेत्र है नर्सिंग का. हालांकि मैडिकल साइंस का कोई भी क्षेत्र यह नहीं कहता कि नर्सिंग यानी तीमारदारी महज लड़कियों के लिए है, लेकिन यह भी सच है कि सालों से बल्कि आधुनिक मैडिकल व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद से ही सब से ज्यादा महिलाएं नर्सें ही देखने को मिलती हैं.

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यूरोप में जरूर बड़े पैमाने पर पुरुष नर्सों का चलन शुरू हुआ था, लेकिन जब तक युद्ध में घायल लोगों की बड़ी तादाद रही थी तब तक ही पुरुष बतौर नर्स कामयाब रहे. जैसे ही स्थितियां सामान्य हो गईं, नर्स बने पुरुषों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा, क्योंकि महिला नर्स पुरुष नर्स से बेहतर तीमारदारी कर सकती है.

महिलाएं न सिर्फ स्वाभाविक रूप से कोमल हृदय होती हैं, अपितु उन का स्पर्श भी कहीं ज्यादा सांत्वना भरा होता है. इस वजह से मैडिकल साइंस भी परोक्ष रूप से तीमारदारी का काम पुरुषों के बजाय महिला नर्सों को देने के पक्ष में रहता है. भारतीय महिला नर्सें तो वैसे भी पूरी दुनिया में अपने सेवाभाव के लिए जानी जाती हैं. यही कारण है कि पूरी दुनिया में भारतीय नर्सों की जबरदस्त मांग है. जो अमेरिका, जो किसी भी क्षेत्र के प्रोफैशनल तक को इन दिनों ग्रीन कार्ड देने से बचने की कोशिश कर रहा है, भारतीय महिला नर्सों के लिए पलकपांवड़े बिछाए रहता है.

पिछले साल आई ‘इंटरनैशनल काउंसिल औफ नर्सेज’ की माने तो दुनियाभर में 1.30 करोड़ नर्सों की जरूरत है. अभी भारत समेत दुनियाभर के देश नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं. ग्रैंड प्यू रिसर्च कहती है कि वैश्विक स्वास्थ्य देखभाल स्टाफिंग क्षेत्र सालाना 6.9 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है.

कोरोना जैसी चुनौतियों को देखते हुए देश स्वास्थ्य व्यवस्थाएं मजबूत बनाने पर जोर दे रहे हैं. माना जा रहा है कि 2030 तक इस क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए 5.17 लाख करोड़ रुपए तक खर्च किए जाएंगे.

2021 में राज्यसभा में पेश की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल 37 लाख पंजीकृत नर्सें हैं यानी 1,000 लोगों पर नर्सों की संख्या 1.7 के लगभग है जबकि 1,000 के मुताबिक होनी जरूरी है. इस माने इस क्षेत्र में महिलाओं के पास काफी स्कोप है.

आंकड़े कहते हैं अमेरिका में 5 लाख से ज्यादा नर्सों की जरूरत है, जिस में 90 प्रतिशत तक की आपूर्ति दूसरे देशों की नर्सों से होती है. इस माने में भारतीय नर्सों का पूरी दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है, क्योंकि भारतीय नर्सें स्वाभाविक रूप से अपनी तीमारदारी की कला में निपुण होती हैं.

यही हाल यूरोप का भी है. यूरोप में भी बड़े पैमाने पर भारतीय नर्सों की मांग है. ऐसोचेम के एक अध्ययन के मुताबिक, 2020 तक यूरोप में 7 लाख से ज्यादा भारतीय नर्सों की मांग हो सकती है. लेकिन रोजगार के लिए भारतीय नर्सें विदेश न जाना चाहें तो भी उन के लिए हिंदुस्तान में रोजगार की कोई कमी नहीं है.

  1. मैडिकल उद्योग : जिस तरह से भारत में मध्यवर्ग की स्वास्थ्य संबंधी सम?ा में दिनोंदिन  इजाफा हो रहा है और स्वास्थ्य के लिए सजगता बढ़ रही है, उस को देखते हुए भारत में भी मैडिकल उद्योग आने वाले सालों में फलेफूलेगा. फिलहाल मैडिकल उद्योग 20 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है, जो खतरनाक ढंग से डराने वाली औद्योगिक विकास दर और मंदी के भंवर में फंस रही अर्थव्यवस्था के लिए एक खुशखबरी है. विभिन्न उद्योग संगठनों के सा?ो अध्ययनों को अगर एकसाथ मिला दें तो 2020 तक भारत में 17 लाख से ज्यादा नर्सों की जरूरत पड़ेगी. इस तरह देखा जाए तो नर्सिंग के क्षेत्र में आने वाले सालों में रोजगार ही रोजगार हैं. नर्सिंग की ही तरह नर्सरी टीचिंग के क्षेत्र में भी भारतीय महिलाओं के लिए रोजगार की जबरदस्त संभावनाएं बन गई हैं.
  2. मीडिया जगत : मीडिया वह क्षेत्र है जिस में एक जमाने में पुरुषों का वर्चस्व हुआ करता था. लेकिन 90 के दशक में लड़कियों ने धीरेधीरे इस क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा दिए. आज मीडिया के क्षेत्र में लड़कियों की अच्छीखासी तादाद है. कुछ क्षेत्र तो खासतौर पर महिलाओं के वर्चस्व वाले हो गए हैं. उन में समाचारों की दुनिया की बात करें तो विजुअल मीडिया लड़कियों के लिए रोजगार के बड़े क्षेत्र के रूप में उभरा है. लेकिन अगर हम कहें कि मीडिया का एक क्षेत्र ऐसा है जो, मीडिया कम, व्यवसाय ज्यादा है, जिस में लड़कियों की मौजूदगी लड़कों के मुकाबले कहीं ज्यादा दिख रही है तो वह क्षेत्र है पीआरओ. पब्लिक रिलेशन औफिसर ऐसी पोस्ट है, जिस में 90 प्रतिशत लड़कियां हैं. पीआरओ का क्षेत्र मीडिया का ऐसा क्षेत्र है जहां लड़कियों का पूर्ण वर्चस्व है.
  3. ज्वैलरी डिजाइनिंग : वैसे तो डिजाइनिंग एक जमाने तक विशुद्ध रूप से पुरुषों का क्षेत्र था, लेकिन हाल के सालों में इस क्षेत्र में महिलाओं ने बहुत व्यवस्थित ढंग से अपने कदम जमाए हैं. डिजाइनिंग में खासतौर पर ज्वैलरी डिजाइनिंग और इंटीरियर डैकोरेशन में महिलाओं ने पुरुषों से बाजी मार ली है. ऐसे ही 2 दर्जन से ज्यादा और ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाएं नियोजक की पहली प्राथमिकता बन गई हैं. नतीजतन, यह कहने में किसी को जरा भी गुरेज नहीं होना चाहिए कि आने वाले सालों में म?िहलाएं नौकरी के लिए पहली पसंद होंगी.
  4. सेना में दमखम : भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों में भी अब महिलाओं का बोलबाला है. बीएसएफ ने तो बंगलादेशभारत सीमा पर महिलाओं की एक बटालियन तैनात की है.
  5. टीचर के रूप में रोजगार : जब से 14 साल तक के हर बच्चे के लिए सरकार की तरफ से अनिवार्य व मुफ्त पढ़ाई की सुविधा का कानूनी प्रावधान हुआ है, तब से महिलाओं की अध्यापिका के रूप में रोजगार की जबरदस्त संभावनाएं पैदा हो गई हैं. वैसे भी आने वाले 7-8 सालों में भारत को 40 लाख से ज्यादा नए शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी और वह भी छोटी कक्षाओं को पढ़ाने के लिए. पूरी दुनिया में छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए महिलाएं सब से उपयुक्त मानी जाती हैं.

भारत में जिस तरह से लोगों की खासकर मध्यवर्ग की क्रय शक्ति में इस महंगाई के बावजूद 7 प्रतिशत का सालाना इजाफा हो रहा है, उस से आने वाले सालों में पढ़ाई के लिए चाहत और कोशिशें और बढ़ेंगी. इस से पढ़ने वालों की संख्या बढ़ेगी तो रोजगार भी बढ़ेगा और चूंकि महिलाएं बच्चों को पढ़ाने में विशेषज्ञ मानी जाती हैं तो उन के लिए शिक्षा के क्षेत्र में रोजगार की सब से ज्यादा संभावनाएं हैं.

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