पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव नतीजों में आंकड़ों से ज्यादा अहमियत चेहरों की है, जहां 2 ही चेहरे थे- पहला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का और दूसरा वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का.

मोदी कट्टर हिंदुत्व का प्रतीक हैं जो हर समय यही राग अलापते रहते हैं कि पश्चिम बंगाल में हिंदुओं को दुर्गा पूजा नहीं करने दी जाती जबकि दुनिया जानती है कि वहां दुर्गा पूजा बड़े जोरशोर से होती है और ममता बनर्जी इस में न केवल बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं बल्कि पंडालों के लिए उदारतापूर्वक सरकारी खजाने से पैसा भी देती हैं.

ममता बनर्जी की छवि धर्मनिरपेक्ष नेता की है जो न केवल सियासी, बल्कि सामाजिक तौर पर राज्य के 30% मुसलमानों की अहमियत समझती हैं। लेकिन उन के साथ हिंदुओं की तादाद भी कम नहीं है जो यह मानते और समझते हैं कि राज्य की सुखशांति और भविष्य उन्हीं के हाथों में सुरक्षित है. आएदिन जो हिंसा होती रहती है उस में कट्टर हिंदूवादियों का रोल अहम रहता है, जिन्हें वे भाजपाई गुंडे कहती रहती हैं।

पंचायत चुनाव के दौरान 10 जुलाई की हिंसा सांप्रदायिक थी या नहीं थी यह कह पाना मुश्किल काम है, मगर दुखद यह रहा कि इस हिंसा में तकरीबन 47 लोग मारे गए थे, जिन में अधिकतर टीएमसी के कार्यकर्त्ता थे।

बड़े पैमाने पर हिंसा

छोटे चुनावों में हिंसा आम बात है जो सभी राज्यों में होती है लेकिन पश्चिम बंगाल में इस बार यह बड़े पैमाने पर हुई। चुनाव की तरह हिंसा में भी वाम दलों और कांग्रेस की भूमिका तमाशबीन की ही थी जो मैदान में होने भर को थे। नतीजों पर नजर डालें तो लगता है नंबर 2 पर आई भाजपा के हाथ भी कुछ खास नहीं लगा है. टीएमसी की आंधी ने पूरे विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया है.

एक तरह से यह ममता बनर्जी के प्रति जताया गया भरोसा है जिसे अगले साल लोकसभा और फिर 2026 के विधानसभा चुनाव तक कायम रखना ममता के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा क्योंकि भाजपा चुनाव हारी है हिम्मत अभी नहीं हारी है. पश्चिम बंगाल का माहौल बिगाड़ने की उस की कोशिशें थम जाएंगी, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं है.

ममता का जादू चल गया

त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में ग्राम पंचायत की कुल 63,229 सीटों में से (घोषित 54,478) टीएमसी ने 35,500 सीटें जीतीं जबकि भाजपा के खातें में महज 9,877 सीटें गईं। सीपीएम गठबंधन ने 3,154 और कांग्रेस ने 2,611 सीटें जीतीं। अन्य और निर्दलीय 3,286 सीटों पर जीते.

पंचायत समिति की 9,730 सीटों में से (घोषित 8460) टीएमसी ने 6,651 सीटें जीतीं जबकि भाजपा ने 1,038 सीटें जीतीं। सीपीएम के खाते में 200 और कांग्रेस के खाते में 273 सीटें गईं. अन्य व निर्दलीयों ने 298 सीटें जीतीं.

सब से अहम थी जिला परिषद की 928 सीटें जिन पर सभी की नजरें थीं। इन में से 880 सीट जीत कर टीएमसी ने अपना दबदबा कायम रखा. भाजपा 31 सीटों पर सिमट कर रह गई तो सीपीएम को महज 2 सीटों से तसल्ली करना पड़ा. कांग्रेस 13 सीटें जीत कर तीसरे नंबर पर रही। अन्य और निर्दलीय 2 सीटों पर जीते।

कुछ सीटों के नतीजे अभी स्पष्ट नहीं हुए हैं लेकिन यह साफ हो गया है कि टीएमसी की झोली मतदाताओं ने 85% सीटों के साथ भर दी है जिसे 70% के लगभग वोट मिले हैं. इस चुनाव में 5 करोड़ 67 लाख वोटर्स में से 81% ने वोट किया था.

भाजपा को झटका

पंचायत चुनाव से भाजपा को उम्मीद थी कि पिछले लोकसभा का ट्रैंड बरकरार रहेगा और वोटर का इरादा अभी बहुत ज्यादा बदला नहीं होगा। गौरतलब है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 42 में से 18 सीटें 40% वोट के साथ मिली थीं जो ममता बनर्जी के लिए खतरे का अलार्म था। तब ऐसा माना जाने लगा था कि कभी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का हिंदुत्व खारिज कर देने बाले पश्चिम बंगाल को नरेंद्र मोदी और भाजपा का हिंदुत्व रास आ गया है. लेकिन तब सियासी पंडितों को यह भी समझ आया था कि दरअसल में सीपीएम और कांग्रेस का वोट बैंक भाजपा की तरफ शिफ्ट हो गया है, टीएमसी का तो बरकरार है। लेकिन यह भी बहुत बड़ा खतरा था जिसे ममता बनर्जी नजरंदाज करने की स्थिति में नहीं थीं।

ममता का उपहास भारी पङा

फिर आया 2021 का विधानसभा चुनाव जिस में लोकसभा नतीजों से उत्साहित भाजपा ने खुद को पूरी तरह झोंक दिया था और ममता बनर्जी के कथित मुसलिम तुष्टिकरण को मुद्दा बनाने की कोशिश की जो कि चला नहीं। चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में नरेंद्र मोदी का एक खास अपमानजनक और उपहासजनक अंदाज में ममता बनर्जी को “दीदी ओ दीदी….” कहना काफी महंगा साबित हुआ था. भाजपा को तब 292 में से 77 सीटें (38% वोट) मिली थीं लेकिन टीएमसी के खातें में रिकौर्ड 215 सीटें (48% वोट ) गई थीं। लैफ्ट और कांग्रेस जीरो पर सिमट कर रह गए थे। इस चुनाव में भी जाहिर है, भाजपा को वामदलों और कांग्रेस के हिस्से का वोट मिला था।

पंचायत चुनाव नतीजों ने साफ कर दिया है कि वामदलों और कांग्रेस का जो वोट भाजपा को जा रहा था वह अब टीएमसी की तरफ टर्न हो रहा है जिस के मद्देनजर भाजपा को लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल से बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं लगाना चाहिए क्योंकि मोदी और हिंदुत्व का जादू और प्रभाव दोनों गांवदेहातों तक से खारिज हो चुके हैं। असल में पश्चिम बंगाल के मुसलमान और आदिवासी भाजपा का नया शिगूफा यूसीसी जो धौंस की शक्ल में है, पसंद नहीं कर रहे हैं जिस को ले कर उन का गुस्सा चुनाव में फूटा भी। ये दोनों ही तबके गांवोंकसबों में बड़ी तादाद में रहते हैं।

नहीं चलेगा उत्तर भारतीय हिंदुत्व

कर्णाटक विधानसभा चुनाव नतीजों से ही साबित हो गया था कि राम नामी हिंदुत्व हिंदी भाषी राज्यों के अलावा कहीं और नहीं चलेगा और वहां भी और ज्यादा घिसट पाएगा, ऐसे आसार दिख नहीं रहे. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का माहौल जहां इस साल के आखिर में चुनाव हैं, देखते लग नहीं रहा कि काठ की यह हांडी चुनावी चूल्हे पर चढ़ पाएगी।

रामनामी हिंदुत्व सनातनी है और वर्ण व्यवस्था पर आधारित है। ऐसा नहीं है कि पश्चिम बंगाल में जातिवाद या जातिगत छुआछूत नहीं है या नहीं थे वहां तो बल्कि और ज्यादा थे। बंगला साहित्य और फिल्में इस की गवाह हैं। लेकिन 60 के दशक में चारू मजूमदार के नक्सली आंदोलन ने भद्र सवर्ण बंगालियों की मुश्कें कस दी थीं। नक्सली आंदोलन मूलतया जमींदारी और शोषण के खिलाफ था जो बाद में दक्षिणी राज्यों सहित ओडिशा, मध्य प्रदेश और बिहार में भी फैला।

धार्मिक इतिहास की छाप

चारू मजूमदार के डेढ़ दशक पहले कट्टर हिंदूवादी नेता डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा से अलग हो कर जनसंघ की स्थापना की थी जिस का सावरकर छाप राष्ट्रवाद और हिंदुत्व हिंदी भाषी इलाकों में तो चला लेकिन नक्सल प्रभावित राज्यों में नहीं, क्योंकि इन इलाकों का हिंदू उत्तर भारत के हिंदुओं से अलग है. वह न तो राम का उपासक है और न ही कृष्ण का यानी विष्णु अवतारों को वह नहीं मानता। इसलिए रामायण और गीता भी वहां दैनिक जीवन का हिस्सा नहीं है। व्रतउपवास के दिनों में वहां मांसाहार वर्जित नहीं है. पश्चिम बंगाल के सवर्ण हालांकि कृष्ण को पूजते हैं लेकिन उन का कृष्ण मथुरा, द्वारका और महाभारत के कृष्ण से एकदम अलग है.

इस धार्मिक इतिहास की छाप अभी भी दिखती है. पश्चिम बंगाल में नरेंद्र मोदी अब “जय श्रीराम…” का उद्घोष अब नहीं करते। एकाध बार कोशिश की थी तो ममता बनर्जी ने उस का सार्वजनिक विरोध किया था जिस पर आम लोगों ने कोई एतराज नहीं जताया था क्योंकि वे दुर्गा और काली के उपासक हैं. इसीलिए ममता बनर्जी का चंडी पाठ विधानसभा चुनाव में खासा चर्चित रहा था।

60 के दशक के बाद चारू मजूमदार का नक्सलवादी आंदोलन श्यामाप्रसाद मुखर्जी के राष्ट्रवाद पर इतना भारी पड़ा था कि वहां उस का कोई नामलेवा नहीं बचा था. फिर लंबे वक्त तक वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल पर शासन किया. बुद्धदेव भट्टाचार्य के पहले मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के राजकाज में गरीब मजदूर आंखें मुंदे कम्युनिस्टों को अपना मसीहा मानते रहे.

लेकिन जैसे ही वामपंथियों ने पूंजीपतियों से पींगे बढ़ाना शुरू कीं तो जनता ने ममता बनर्जी को सत्ता सौंप दी जो अभी तक तो उन की उम्मीदों पर खरी उतर रहीं हैं. पंचायत चुनावों में टीएमसी को मिली भारी कामयाबी इस की गवाह है और यह मैसेज भी देती है कि अब वहां न तो राम चलेगा न वाम, इस लिहाज से कांग्रेस कुछ उम्मीदें लगा सकती है, जो इन चुनाव में तीसरे नंबर पर रही है।

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