Romantic Story : रेडियो एफएम पर पुराने गीत बज रहे थे. रमा गीतों के साथसाथ गुनगुनाती हुई अपना काम किए जा रही थी. एक पुस्तक शैल्फ में रखते हुए अचानक उसे लगा कि प्रकाश उस की ही तरफ देख रहे हैं.

रमा ने अपनी आवाज थोड़ी हलकी कर दी और काम कर के दूसरे कमरे में जा कर उस दिन को याद कर खुश हो गई जब पहली बार उस ने यह गीत गुनगुनाया था और तब से आज 4 महीने हो गए, फिर प्रकाश दोबारा उसे किसी उबाऊ कार्यक्रम में नहीं ले गए.

रमा को याद आया अगस्त माह का वह दिन जब शाम के 4 बजे थे. फोन की घंटी ने रमा की नींद खोल दी. प्रकाश का फोन था. उस ने हैलो कहा, तो उधर से आवाज आई, “रमा, आज शाम को तैयार रहना. कामानी थिएटर में एक प्रोग्राम है, चलेंगे और फिर बाहर कहीं खापी कर आएंगे.”

“आज, आज मन नहीं कर रहा है.”

“अरे, चलो न. बहुत दिन हुए गए, हम बाहर नहीं गए. चलो, इसी बहाने घर से बाहर थोड़ी मस्ती करेंगे.”

“अच्छा, क्या मस्ती करेंगे, न जाने कितनी बार आप ने यही वादा किया और फिर क्या होता है? ऐसीऐसी जगह जाना पड़ता है जहां मैं जाना ही नहीं चाहती. और जहां मैं जाना चाहती हूं, वहां के लिए आप के पास टाइम नहीं है.”

“देखो, तुम मेरी व्यस्तता तो जानती ही हो, इन्हीं व्यस्तताओं के बीच समय निकाल कर मस्ती करनी पड़ेगी.”

“यह तो बताइए कि आज मस्ती के लिए कहां, किस कार्यक्रम में ले जा रहे हैं?”

“कामानी थिएटर में.”

“क्या नाटक देखने चल रहे हैं?” उत्सुकतावश उस ने पूछा.

“नहींनहीं, शास्त्रीय संगीत है.”

“क्या, शास्त्रीय संगीत? जिस का मुझे एबीसी तक नहीं पता, वहां जा कर मैं क्या करूंगी?”

“अरे चलो, थोड़ी देर बैठेंगे और फिर घूमफिर कर कहीं बाहर खाना खा कर आ जाएंगे. मैं गाड़ी भेज रहा हूं,” प्रकाश ने कहा.

“ठीक है,” कह कर रमा ने फोन रख दिया और सोचने लगी कि क्या करूंगी जा कर, पर फिर घर में अकेले शाम बिताने से अच्छा था प्रकाश के साथ ही रहे. वैसे भी घर में अकेले रहना बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. दिन तो किसी प्रकार बीत जाता था, पर शाम बिताए नहीं बीतती थी.

शाम को कामानी थिएटर के पास पहुंचते ही लंबी लाइन देख कर उसे अपनेआप पर लज्जा आ गई. जिस कार्यक्रम को देखने के लिए लोग लाइनों में खड़े थे, उस के लिए वह मना कर रही थी.

जैसे ही गाड़ी गेट के सामने पहुंची, कार पर रखा परिचयपत्र देख कर गार्ड ने जोरदार सैल्यूट मारा. एक व्यक्ति भागाभागा आया और दरवाजा खोल कर प्रकाश के स्वागत में खड़ा हो गया. द्वार पर खड़ी लड़कियों ने आरती की व चंदन के टीके से स्वागत कर के प्रकाश व रमा को वीआईपी गेट से अंदर ले जाने लगे, तो एक टीवी चैनल वाला रास्ता रोक कर पूछने लगा, “सर, आप शास्त्रीय संगीत में रुचि रखते हैं?”

“जी हां.”

“क्या आप गाते भी हैं?”

“नहीं, मैं खो जाता हूं.”

तभी व्यवस्थापक ने चैनल वाले से माफी मांगते हुए प्रकाश को अंदर बुला लिया.

रमा तो प्रकाश के जवाब से अचंभित हो गई. शास्त्रीय संगीत में खो जाता हूं. क्या बात है? घर चल कर पूछती हूं कि कहां खो जाते हो? शास्त्रीय संगीत की बात तो दूर, मैं ने तो कभी आप को गीत में भी डूबते नहीं देखा.

कार्यक्रम के अंत तक आतेआते रमा लगभग बोर हो चुकी थी और अपनेआप को कोस रही थी कि क्यों प्रकाश की बातों में आ कर यहां आ गई. जहां पूरा दिन प्रकाश के बिना गुजार देती है, वहां थोड़ी देर और सही. यहां तो सुर, ताल, लय सब सिर के ऊपर से गुजर रहा था और प्रकाश थे कि उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे, जबकि उसे पता था कि उन की भी समझ में कुछ नहीं आ रहा होगा. पीछे लोगों का खानापीना चल रहा था. अच्छीअच्छी खुशबू आ रही थी. उस का भी मन किया कि कुछ खरीद कर खाए, पर यहां तो वह विशेष अतिथि की पत्नी थी, इसलिए आगे बैठीबैठी कुछ दाने काजू के खा कर मन मसोस रही थी.

कार्यक्रम के समाप्त होते ही खाने के लिए सभी अतिथिगण एक अलग कक्ष में जाने लगे, तो अचानक मीडिया के लोगों ने प्रकाश को फिर से घेर लिया और इंटरव्यू लेने लगे. वह चुपचाप वहीं दीवार के सहारे खड़ी हो गई. अंदर ही अंदर वह कुढ़ रही थी, पर चेहरे पर झूठी मुसकान बिखेरे सभी के अभिवादन का जवाब दिए जा रही थी.

तभी एक व्यक्ति ने पास आ कर धीरे से पूछा, “काफी बोर हो चुकी हैं क्या?”

चौंक कर रमा ने कहा, “नहीं तो.”

“आइए, चलिए, खाना खाने चलते हैं. अभी सर को बहुत समय लगेगा.”

“नहींनहीं, मैं ठीक हूं.”

“आप की मरजी. वैसे, आप के चेहरे से साफ पता चल रहा है कि आप काफी बोर हो चुकी हैं और आप को बड़ी जोर की भूख लगी है. मैं भी खाने की तरफ ही जा रहा हूं, इसलिए आप से साथ चलने के लिए आग्रह कर रहा था.”

उस समय तो रमा ने कह दिया, “जी धन्यवाद. मैं बाद में खा लूंगी,” पर, दूसरे ही क्षण उस ने सोचा कि यहां किस को मेरी परवा है? मैं क्यों यहां स्टैच्यू की तरह खड़ी रहूं. पेट में चूहे कूद रहे थे और ये जो प्रकाश मस्ती कराने लाए थे… रमा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच रहा था.

एक क्षण के लिए रमा रुकी, फिर धीरेधीरे चलती हुई खाने की जगह पहुंच गई. गुस्से में पूरा बदन जल रहा था. कैसे मीठीमीठी बातें कह कर मुझे ले कर आए थे कि चलो थोड़ी देर बैठेंगे, फिर कहीं खाने चलेंगे. यह थोड़ी देर है? अभी भी कहां फुरसत है जनाब को?

खाना ले कर वह चुपचाप छोटेछोटे रोटी के टुकड़े तोड़ रही थी कि तभी ‘मैं यहां बैठ जाऊं’ की आवाज से चौंक पड़ी. पीछे मुड़ कर देखा तो वही सज्जन खड़े थे, जो थोड़ी देर पहले साथ खाना खाने का आग्रह कर रहे थे.

थोड़़ा संभल कर रमा बोली, “हां, हां, क्यों नहीं. बैठिए.”

“शास्त्रीय संगीत के बारे में आप के क्या विचार हैं?” उस व्यक्ति ने पूछा.

“अच्छा है, बहुत अच्छा होता है शास्त्रीय संगीत. पर, सच कहूं, मुझे समझ में नहीं आता.”

“मुझे भी शास्त्रीय संगीत में बिलकुल रुचि नहीं है.”

“तो, यहां कैसे?”

“खाने को मुफ्त में मिल जाता है. इसलिए आप को ऐसे कार्यक्रम में हमजैसे लोग मिल ही जाएंगे.”

“हमजैसे लोग से क्या मतलब?”

“हमजैसे लोग से मतलब, जिस के घर में खानेपीने का ठिकाना न हो.”

“क्यों? क्या आप ने शादी नहीं की?”

“शादी, न बाबा, न, शादी कर के कौन मुसीबत में फंसेगा?”

“शादी मुसीबत बिलकुल नहीं है.”

“अच्छा, क्या है शादी?”

“शादी, शादी 2 परिवारों, 2 लोगों का मिलन है.”

“अच्छा, इस मिलन का परिणाम क्या है?”

“क्या मतलब?”

“मतलब, इस मिलन में एक को दूसरे की सुननी पड़ती है, तब कहीं शादी निभती है.”

“तो इस में बुराई क्या है?”

“कोई बुराई नहीं. बस, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के लिए न चाहते हुए शास्त्रीय संगीत सुनने आना पड़ता है. बोर होते हुए भी जबरदस्ती चेहरे पर मुसकान बनाए रखनी पड़ती है. बस और कुछ नहीं.”

“अगर आप का इशारा मेरी तरफ है, तो मैं आप को बता दूं कि प्रकाश ने कोई जबरदस्ती नहीं की, बल्कि मुझ से पूछा था. मैं आना चाहती थी, इसलिए आई.”

“कभी न कह कर देखिए.”

“क्या मतलब?”

“सीधा सा मतलब है, कभी न कह कर देखिए.”

“क्या होगा?”

“कह कर देख लीजिए.”

“आप को क्या लगता है कि प्रकाश जबरदस्ती करेंगे?”

“शायद करें या न भी करें, पर…”

“पर क्या?”

“तब संबंध में मिठास कम हो जाएगी.”

“अच्छा, बड़े अनुभवी हैं आप.”

“जी, ठीक पहचाना आप ने. मैं एक आर्टिस्ट हूं, चेहरा पढ़ लेता हूं.”

“अच्छा, फिर बताइए कि मेरा चेहरा क्या कह रहा है?”

“आप का चेहरा, आप का चेहरा कह रहा है…हूं…हूं, कह रहा है कि, इस समय मैं आगबबूला हूं, पर अपने गुस्से को दबा कर रख रही हूं. चलो, घर में बताती हूं. कितना बोर किया?”

अजनबी की बेबाक बातें सुन कर रमा अपनी हंसी रोक नहीं पाई और जोर से खिलखिला कर हंस पड़ी. सभी लोग उस की तरफ देखने लगे. प्रकाश ने भी पीछे मुड़ कर देखा और एक अजनबी के साथ बेतकल्लुफ होते देख आश्चर्य भी किया.

वापस घर आते समय प्रकाश कुछ ज्यादा ही चुप थे. वैसे, यदि ऐसे किसी कार्यक्रम से लौट रहे हो, जहां अच्छी बोरियत होती थी, तो प्रकाश एहतियातन कुछ ज्यादा ही चुप हो जाया करते थे, ताकि कोई बात न हो सके.

अचानक रेडियो पर गीत बजने लगा, ‘आज मदहोश हुआ जाए रे, मेरा मन, मेरा मन…’

रमा ने प्रकाश को चिढ़ाने के लिए ड्राइवर से कहा, “पाठकजी, जरा गाना तेज कर दीजिए.”

थोड़ी देर में प्रकाश ने पूछा, “तुम्हें नहीं लगता कि गाना बहुत जोर से बज रहा है?”

“हां. पर, अच्छा लग रहा है. बजने दो.”

थोड़ी देर बाद रमा ने पूछा, “अगली बार कब चलेंगे हम?”

“कहां?”

“यहीं कामानी थिएटर में.”

“क्यों, क्या तुम्हें शास्त्रीय संगीत अच्छा लगा?”

आज रमा प्रकाश को चिढ़ाने के मूड में थी, इसलिए कह दिया, “शास्त्रीय संगीत नहीं, मुझे वहां का वातावरण बड़ा अच्छा लगा.”

प्रकाश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा और बोला, “जल्दी ही.”

लेकिन, उस के बाद 4 महीने बीत गए, लेकिन प्रकाश दोबारा किसी शास्त्रीय संगीत या ऐसे उबाऊ कार्यक्रम में ले कर नहीं गए और न ही कामानी थिएटर.

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