ओटीटी पर रिलीज हुई फिल्म ‘कटहल’ जातिवाद पर कड़ा प्रहार करती है. फिल्म शुरू होने से पहले लगा था कि यह उत्तर प्रदेश या बिहार की राजनीति पर बनने वाली आम सी हलकी फिल्म होगी पर इस की गंभीरता इसे देखने बाद समझ आती है.

इस फिल्म में बारीकी से बताया गया है कि कैसे हमारे सिस्टम की नसनस में जातिवादी और गरीबविरोधी भावना भरी पड़ी है. हंसीठट्ठे और हलकी कौमेडी के साथ यह फिल्म सामाजिक संदेश देने का काम बखूबी करती है. कटहल के नाम पर फिल्म ‘अंगूर’ बन गई सी लगती है.

फिल्म की मुख्य किरदार एक महिला है जो बसोर जाति से है. बसोर जाति के लोग अतीत से बांस से बने उत्पादों को बनाते रहे हैं. इन्हें दलित जाति में गिना जाता है जो उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश से संबंधित हैं. इस लिहाज से निर्देशक यशोवर्धन मिश्रा की तारीफ तो बनती है कि उन्होंने ऐसे समय किसी दलित नायिका को लीड लेने का विचार किया जब लगभग सभी फिल्मों में ऊंची जातियों के नायकनायिकाएंही दिखाए जा रहे हैं.

फिल्म में प्रशासनिक सिस्टम पर भी कटाक्ष किया गया है, जैसे हमारे देश की पुलिस नेताओंके दबाव में रहती है. अगर किसी गरीब की बच्ची गुम हो जाए या जवान बेटी को कोई उठा ले तो पुलिस उसे ढूंढनेमें उतनी मेहनत और संसाधन खर्च नहीं करती. मगर वहीं किसी वीवीआईपी या मंत्री की भैंस, कुत्ता या कटहल चोरी हो जाए तो पूरा पुलिस महकमा उसे ढूंढने में लग जाता है, भले ही प्रशासन के इस पर लाखों रुपए खर्च क्यों न हो जाएं.

ओटीटी पर रिलीज हुई ‘कटहल’ यानी जैकफ्रूट इसी तरह की फिल्म है. फिल्म में माननीय विधायक (मुन्नालाल पटेरिया) के बगीचे में पेड़ पर लगे 15-15 किलो के विदेशी प्रजाति के 2 कटहल चोरी हो जाते हैं. विधायक पटेरिया को मंत्री बनना है, जिस के लिए वे प्रदेश के सीएम को इंप्रैस करने के लिए कटहल का अचार भेजना चाहते हैं. समस्या यह है कि यही कटहल चोरी हो गए हैं. मामला हाईप्रोफाइल बन जाता है. कटहल को ढूंढने की जिम्मेदारी पुलिस अफसर महिमा बसोर को दी जाती है.

इस फिल्म में सान्या मलहोत्रा ने महिमा बसोर की भूमिका निभाई है. फिल्म में कई मौकों पर जातिवाद पर कटाक्ष किया गया है. छानबीन करने के दौरान महिमा बसोर के पैर विधायक पटेरिया के घर मेंबिछी महंगी कालीन पर पड़ जाते हैं. अब पटेरिया तिलमिला जाते हैं और महिमा को लताड़ते हुए पीछे हटने को कहते हैं, साथ ही, अपनी पत्नी से कालीन में गंगाजल छिड़कने को कह देते हैं.

महिमा केस की छानबीन करती है तो उसे पता चलता है कि विधायक के घर से माली गायब है. शक माली पर जाता है.माली जब मिलता है तो पता चलता है कि उस की खुद की किशोरी बेटी घर से गायब हो गई है.यहां एक घटना घटित होती है. जब वह थाने में माली को बैठने को कहती है तो माली जमीन पर बैठ जाता है. फिर महिमा उसे कुरसी पर बैठने को कहती है.

महिमा बसोर अब चिंता में आ जाती है कि कटहल ढूंढना जरूरी है या माली की बेटी. इस बीच, उसे पता चलता है कि ऐसी कई लड़कियां हैं जो लापता हो जाती हैं जिन्हें कोई ढूंढ ही नहीं रहा, और ये सारी गरीब, दलितों व अल्पसंख्यकों की लड़कियां हैं. वह दिमाग लगाती है और अनाउंस कर देती है कि माली की बेटी ने ही कटहल चुराया है ताकि पुलिस अब माली की बेटी को ढूंढने लग जाए.

इस बीच, कई घटनाक्रम हैं जो काफी गंभीर हैं, जैसे माली की बेटी को ढूंढते हुए पुलिस जब छानबीन करती है तो, चूंकि लड़की नीची जाति से होती है तो कहा जाता है कि उस के लक्षण ठीक नहीं हैं, गुटखा खाती थी, फटी जीन्स पहनती थी.

फिल्म में पैरलर लवस्टोरी भी है. महिमा बसोर अपने कलीग कांस्टेबल सौरभ द्विवेदी से प्यार करती है. सौरभ चूंकि ऊंची जाति से है और बसोर नीची से तो सौरभ के परिवार वाले शादी के लिए राजी नहीं, ऊपर से बसोर उस से रैंक मेंआगे है.महिमा एक जगह सौरभ से कहती है, ‘हम दोनों के बीच की दीवार मैं हर बार तोड़ने की कोशिश करती हूं लेकिन तुम हो कि उस में 2-3 ईंट जोड़ ही देते हो.

जांच में महिमा को एक बाहुबली हलवाई (रघुवीर यादव) के बारे में पता चलता है. वह ऐसी फरार लड़कियों को खरीदने का काम करता है और उन्हें आगे बेच देता है. महिमा उस हलवाई के प्रतिष्ठान पर छापा मारती है. माली की बेटी को उस बाहुबली ने 15 हजार रुपए में खरीदा था. वहां खूब मारधाड़ होती है. हलवाई को गिरफ्तार कर लिया जाता है.

फिल्म के क्लाइमैक्स में अदालत में जज महोदया चोरी हुई कटहलों की कीमत मंडी से पता कराती हैं तो पता चलता है कि इन 15-15 किलो के 2 कटहलों की कीमत 12 रुपए प्रतिकिलो है यानी कि 360 रुपए. जज महोदया की यह टिप्पणी कि 360 रुपए के कटहलों के लिए प्रशासन ने हजारों रुपए स्वाहा कर डाले. तो ऐसी है हमारे सिस्टम की बदहाली की कहानी.

फिल्म में किरदार बहुत बढ़िया से लिखे गए हैं, जैसे कांस्टेबल मिश्रा जी हैं जिन की बेटी की शादी होनी है लेकिन दहेज़ में देने वाली उन की गुलाबी रंग की नैनो कार चोरी हो गई है. इस के अलावा एक दूसरी महिला कांस्टेबल है जिस का पति जिला कोर्ट में जज है. उस के ऊपर घर के कामों को करने की जिम्मेदारी है. उस का पति उस के काम को कम ही आंकता है.

इन सब के बीच सब से ज्यादा लाइमलाइट लेने वाले यूट्यूब चैनल चलाने वाले अनुज पत्रकार (राजपाल यादव) हैं. वे चतुर किस्म के हैं. हर छोटी खबर को सनसनी बनाने पर तुले रहते हैं. एक जगह उन एक डायलौग है कि, ‘“धक्का काहे मार रहे हो, चौथे खंबे को गिरा दोगे क्या?’” अनुज के किरदार में राजपाल जमा है. उसे दलित लड़कियों की खबर चलाने के मामले में द्रोह के केस में जेल हो जाती है.

फिल्म में अमीरगरीब, ऊंचीनीची जाति इन सबके भेददिखाते हुए बिलकुल नाजायज नहीं लगती. फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे खुद को समाज का स्वयंभू समझने वाला तबका अपनी जाति की अकड़ और घमंड अब भी साधे हुए है. पटेरिया है जो सत्ता तक पहुंचा है और जातीय घमंडसे लबालब है. मिश्रा जो कि गरीब है और रीतिनीति से परेशान है पर जातीयता का भाव उस में भी है. गांव के सवर्ण की दलितों के प्रति घृणा वाली ही नजर है. प्रेमी द्विवेदी है जो जातिवाद नहीं मानता पर उसे मिले उच्चजातीय संस्कार ऐसे हैं कि वह निचलों की भावनाओं को भी नहीं समझ पा रहा.

फिल्म की इस कहानी में कुछ कमियां भी हैं. पुलिस सिस्टम में एक कांस्टेबल प्रमोशन पा कर सीधे सब इंस्पैक्टर नहीं बन सकता. सान्या मलहोत्रा ने इंस्पैक्टर के रोल में बढ़िया अभिनय किया है. विजयराज छोटे रोल में है, मगर दमदार है. अन्य कलाकार साधारण हैं. फिल्म में सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रहार किया गया हैजहां समर्थ आदमी के कटहल चोरी होने पर उस की सुनवाई है वहीं गरीब आदमी की बेटी के गुम होने पर भी कोई सुनवाई नहीं है.

गीतसंगीत साधारण है. कहानी और पटकथा और मेहनत मांगती है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

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