ट्रेन एक हलके से धक्के के साथ चल पड़ी. सैकड़ों विशालकाय लोहे की कैंचियों ने ऋषिकेश तक की दूरी को काटना शुरू कर दिया.

‘बाहर बारिश हो रही है, इधर कई दिनों से उमस हो रही थी. बादल पूरे आसमान में छाए हुए थे, कई दिनों से आसमान को घेरे पड़े थे, उमड़घुमड़ रहे थे, अब जा कर बरसे हैं तो वातावरण हलका हो जाएगा,’ मधुकर ने नीचे की बर्थ पर चादर बिछाते हुए सोचा, ‘उस का अपना मन भी तो ऐसे ही बोझिल है, जाने कब हलका होगा,’ उस ने जूते उतारे और पैर समेट कर आराम से बैठ गया. बाहर देखने की कोशिश में अपना चेहरा खिड़की के शीशे से सटा दिया. बाहर खिड़की के कांच पर एकएक बूंद गिरती है, फिर ये एकदूसरे के साथ मिल कर धार बना लेती हैं, अनवरत धार, जो बहती ही चली जाती है. बूंदों में उसे एक चेहरा नजर आने लगा. झुर्रियों भरा, ढेर सारा वात्सल्य समेटे वह चेहरा जिस ने उसे प्यार दिया, जन्म दिया, अपने उदर में आश्रय दिया, आंचल की छांव दी.

उस चेहरे की याद आते ही मधुकर की छाती में जैसे गोला सा अटकने लग जाता है. उस की मां पिछले साल से ऋषिकेश के एक आश्रम में रह रही हैं. अपने कामधंधे में इस बीच वह इतना व्यस्त रहा कि पिछले 4 महीनों से मां के खर्च के लिए रुपए भी नहीं भेज सका. वह लगातार टूर पर था. उस ने सोचा कि नमिता ने भेज दिए होंगे और नमिता ने सोचा कि उस ने भेज दिए होंगे. कल जब पता चला कि 4 महीनों से किराया नहीं गया तो फिर उस की बेचैनी का अंत न रहा और उस ने तुरंत ऋषिकेश जाने का निश्चय कर लिया. जाने मां किस हाल में होंगी, उन्होंने कोई पत्र भी नहीं लिखा, असल में वह स्वाभिमानी तो शुरू से ही रही हैं, उस के लिए यही स्वाभाविक था. उन्हें कितनी भी तकलीफ क्यों न हो, दयनीय बनना तो उन की फितरत में नहीं है.

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