सरकारी सेंध प्रैस, सोशल मीडिया, टीवी मीडिया, संसद, चुनाव आयोग, ह्यूमन राइट्स आयोग, टैक्स संस्थाओं, सीबीआई व दूसरी जांच एजेंसियों आदि को पूरी तरह काबू में ले कर अब भाजपा सरकार को इन पर रोकटोक लगा सकने वाली न्यायपालिका की स्वतंत्रता को काबू में करने की जल्दबाजी लग रही है. सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में कलीजियम पद्धति से नए जजों के नाम चुनने की आजादी पर रोक लगाने के लिए छुटभैए छोड़ दिए गए हैं जो अनापशनाप बयानों से न्यायपालिका को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कलीजियम सिस्टम से नियुक्तियां कर के न्यायपालिका को राजनीतिबाजों से बचने के लिए एक सुदृढ़ किला बना लिया था पर अब सरकार मनचाहे जजों की नियुक्ति करने के लिए उस किले को तोड़ने में लगी हुई है. प्रैस, सोशल मीडिया, टीवी न्यूज चैनलों, संसद, चुनाव आयोग, सीबीआई की तरह न्यायपालिका को भी सरकारी बुलडोजरों से भयभीत रखने का यह सरकार का षड्यंत्र है. अब सोशल मीडिया, कानून मंत्री व उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष के माध्यम से केंद्र की भाजपा सरकार ‘कलीजियम सिस्टम’ पर सुप्रीम कोर्ट के साथ बहस को ले कर सड़कों तक उतर आई है और उसे उसी तरह ध्वस्त करने की तैयारी कर रही है जिस तरह भीड़ ले जा कर मसजिद तोड़ी गई थी.
जनता के सामने कलीजियम सिस्टम को खलनायक के रूप में पेश किया जा रहा है. 1993 के बाद पहली बार पूरे देश में बड़े स्तर पर कलीजियम सिस्टम चर्चा का विषय बन गया है. सरकार समर्थक लोग तर्क देते हैं कि भारत के अलावा कलीजियम सिस्टम किसी और देश में नहीं है. वे अमेरिका की तुलना में भारत की न्याय व्यवस्था को कमतर आंकते हैं. यह सही है पर कलीजियम पद्धति के कारण ही भारत की अदालतें मानवाधिकार को ले कर अमेरिका सहित बहुत देशों की अदालतों से अधिक संवेदनशील हैं. महिलाओं के गर्भपात कानून के आईने में देखें तो तसवीर साफ नजर आती है.
अमेरिका में 1971 में गर्भपात कराने में नाकाम रही एक महिला की तरफ से वहां की सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई. उसे ‘रो बनाम वेड’ मामला कहा गया. फैसले में कहा गया था कि गर्भधारण और गर्भपात का फैसला महिला का होना चाहिए न कि सरकार का. उस के 2 साल बाद 1973 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात को कानूनी अधिकार देते कहा, ‘संविधान गर्भवती महिला को फैसला लेने का हक देता है.’ अमेरिका के धार्मिक समूहों के लिए यह बड़ा मुद्दा था. 1980 तक यह मुद्दा ध्रुवीकरण का कारण बनने लगा. इस के बाद कई राज्यों में गर्भपात पर पाबंदियां लगाने वाले तरहतरह के नियम लागू किए गए. 2022 में अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट में ‘डौब्स बनाम जैक्सन वीमेन्स हैल्थ और्गेनाइजेशन’ का मामला सामने आया. इस के बाद वहां एक बार फिर गर्भपात को ले कर बहस छिड़ गई.
यह मामला मिसिसिपी राज्य का था जिस में राज्य के नए कानून 15वें सप्ताह के बाद अबौर्शन के प्रतिबंध को चुनौती दी गई थी. राज्य के पक्ष में फैसला देते हुए अब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया. 5 जज इस फैसले के पक्ष में थे जबकि 3 असहमत थे. इस के बाद अमेरिका के अलगअलग राज्य अपने अलग नियम बना सकते हैं. हैल्थकेयर और्गेनाइजेशन प्लान्ड पैरेंटहुड के अनुसार, करीब 36 मिलियन यानी 3.6 करोड़ महिलाओं से उन के गर्भपात का अधिकार छिन गया. डैमोक्रेट राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की निंदा करते कहा, ‘इस फैसले ने महिलाओं के स्वास्थ्य और जीवन को खतरे में डाल दिया है.’ इस से यह बात साफ हो गई कि अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं के मानवाधिकार की सुरक्षा नहीं की.
यह इसलिए हुआ क्योंकि अमेरिका में राष्ट्रपति जजों को नियुक्त करता है और पिछले कई रिपब्लिकन राष्ट्रपति चर्च समर्थक, गन समर्थक, कट्टरपंथी जजों को जानबू?ा कर नियुक्त करते रहे हैं. इस बार नए गर्भपात संबंधी फैसले में उन जजों ने गर्भपात को संवैधानिक अधिकार मानने से इनकार कर दिया जिन्हें रिपब्लिकन राष्ट्रपति ने नियुक्त किया था. इस के विपरीत भारत में सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर गर्भपात के बारे में कानून में संशोधन किया गया जिस के बाद गर्भपात करवाने के लिए मान्य अवधि 20 हफ्ते से बढ़ा कर 24 हफ्ते कर दी गई. स्वास्थ्य और कल्याण मंत्रालय के अनुसार 16 मार्च, 2021 को भारत में मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी (संशोधित) बिल 2020 को राज्यसभा में पास किया गया. इस में गर्भपात के लिए मान्य अवधि विशेष तरह की महिलाओं के लिए बढ़ाई गई है,
जिन्हें एमटीपी नियमों में संशोधन के जरिए परिभाषित किया जाएगा. इन में दुष्कर्म पीडि़त, सगेसंबंधियों के साथ यौन संपर्क की पीडि़त और अन्य असुरक्षित महिलाएं (विकलांग महिलाएं, नाबालिग) भी शामिल होंगी. दोनों अदालतों के फैसले को देखें तो भारत की सुप्रीम कोर्ट ने औरतों के हित में अधिक संवेदनशील फैसला दिया. कलीजियम सिस्टम के तहत नियुक्त जजों की वजह से ही अदालतें आधारभूत ढांचे को जनता के हित में रखने की मंशा के तहत काम कर रही हैं. अमेरिका से यह भिन्नता इसीलिए है. कई मामलों पर भारतीय अदालतें सरकार की नहीं सुनतीं. अमेरिका में जज चूंकि राष्ट्रपति यानी कि पार्टियां नियुक्त करती हैं इसलिए वे अपने समर्थकों को चुनती हैं. डैमोक्रेटिक पार्टी के जज उदार, स्वतंत्रताओं के रक्षक, बंदूक रखने के अधिकारों के विरुद्ध हैं जबकि रिपब्लिकन पार्टी के नियुक्त जज कट्टरवादी हैं.
अमेरिका की दक्षिणपंथी रिपब्लिकन की तरह भारत की दक्षिणपंथी भाजपा सुप्रीम कोर्ट में और ज्यादा कट्टरवादी जजों को भरना चाहती है जो अयोध्या जैसे मामलों की तरह अन्य धार्मिक विवादों के फैसलों के समय सरकार की सुनें. कलीजियम सिस्टम की बहस इसीलिए शुरू की गई है ताकि जजों की नियुक्ति भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे वाले नेता करें. इसीलिए कलीजियम सिस्टम पर टकराव एक मुद्दा बनाया जा रहा है जिस पर पूरे देश में बहस शुरू कर दी गई है.
जनता का एक पक्ष अपनी व्यथा को छिपा कर न्याय व्यवस्था का सम्मान तो करता है पर कई अनकही बातें कहने से डरता है. इस से सरकार को सुप्रीम कोर्ट से टकराव पर खुल कर बोलने का मौका मिल गया है. कलीजियम सिस्टम पर संविधान सभा में चर्चा जिस समय संविधान बन रहा था, कई बिंदु ऐसे आए जिन पर खुलेदिल व खुलेदिमाग से चर्चा हुई. इन महत्त्वपूर्ण बिंदुओं में एक मसला सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति का भी था. संविधान सभा बहुत ही गहन परामर्श व बहस के बाद इस मसले को हल कर पाई थी. सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज कैसे बनाए जाएं, इस पर संविधान सभा में 23 और 24 मई, 1949 को लगातार 2 दिन बहस हुई.
अनुच्छेद 124, जो संविधान के मसौदे में 103वां अनुच्छेद था, में मद्रास के रहने वाले बी पोकर ने 2 संशोधन प्रस्ताव रखे. पहला प्रस्ताव था कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया की शुरुआत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस करें. उन का दूसरा प्रस्ताव था कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति चीफ जस्टिस के सिर्फ परामर्श से नहीं बल्कि सहमति से करें. बी पोकर ने अपने भाषण में कहा, ‘मुख्य न्यायाधीश को अपनी सिफारिश सीधे राष्ट्रपति को भेजनी चाहिए. राष्ट्रपति को चीफ जस्टिस की सहमति से जजों की नियुक्ति करनी चाहिए. हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के मामले में राज्यपाल से परामर्श के बाद जजों की नियुक्ति हो.’ उन का कहना था, ‘मैं चाहता हूं कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति किसी भी तरह से राजनीति से प्रभावित न हो.’ लेकिन जजों की मंजूरी से जज बनाने का सिस्टम लाने की कोशिश वाले इस संशोधन को संविधान सभा ने ध्वनिमत से खारिज कर दिया.
ड्राफ्ंटिंग कमेटी के चेयरमैन डा. बी आर अंबेडकर ने इस पर गहरी आपत्ति जताई. क्या कहा डाक्टर अंबेडकर ने जजों की नियुक्ति सहित न्यायिक नियुक्तियों पर डा. अंबेडकर ने 24 मई, 1949 में संविधान सभा में एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया. इस में उन्होंने कहा, ‘इन संशोधन प्रस्तावों में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जज सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की मंजूरी से ही बनाए जाएं. इस बारे में दोराय नहीं है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र और अपने स्तर पर सक्षम होना चाहिए.
जहां तक चीफ जस्टिस की मंजूरी से जज नियुक्त करने का मामला है तो मु?ो ऐसा लगता है कि इस तर्क को देने वाले लोग चीफ जस्टिस की निष्पक्षता और उन के फैसला लेने की क्षमता पर पूरी तरह भरोसा कर रहे हैं. ‘मैं निजी तौर पर मानता हूं कि चीफ जस्टिस महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं लेकिन आखिर हैं तो वे आदमी ही. उन में आम आदमियों की तरह तमाम खामियां, तमाम तरह की भावनाएं और रागद्वेष हो सकते हैं. सो, मेरा मानना है कि जजों की नियुक्तियों में चीफ जस्टिस को वीटो यानी निर्णायक अधिकार देने की बात की जा रही है, जो वीटो पावर हम राष्ट्रपति और सरकार को भी नहीं दे रहे हैं. उसे चीफ जस्टिस को देना एक खतरनाक व्यवस्था होगी.’ संविधान सभा की इन 2 दिनों की कार्यवाही को देखने से इस में शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि संविधान सभा जजों की नियुक्ति का निर्णायक अधिकार जजों या चीफ जस्टिस को देने के खिलाफ था.
यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सभा भी एक तरह से संसद ही थी और जिस में उस समय के राजनीतिक नेता ही शामिल थे जो सम?ा रहे थे कि अगले आने वाले दशकों तक उन का राज रहेगा. वे अपने राज में एक और पावर सैंटर हरगिज नहीं चाहते थे. वे नहीं चाहते थे कि कांग्रेस के विरोधी कभी जज बनें. यह बात दूसरी है कि इस के बावजूद इलाहाबाद के जगमोहन लाल सिन्हा जैसे जज बने जिन्होंने इंदिरा गांधी का रायबरेली का उन का चुनाव रद्द कर दिया पर यह कांग्रेस द्वारा नियुक्त जजों की मेहरबानी ही थी कि इंदिरा गांधी के चुनाव मुकदमे को अपील को फैसले में बदल दिया गया और आपातकाल को भी संवैधानिक करार दे दिया गया.
1947 से ले कर 1993 तक कार्यपालिका और न्यायपालिका में जो टकराव हुआ उस का कारण रहा कि 1965 के बाद और फिर 1975, 1977, 1984 व 1989 के बाद कांग्रेस पार्टी कमजोर हुई और जजों को छूट मिली. 1993 में 9 जजों की बैंच ने अनुच्छेद 124 की व्याख्या कर के जजों की नियुक्ति का काम अपने हाथ में ले लिया है. दरअसल 1993 में 9 जजों की पीठ ने उस संविधान सभा की भावना के तो खिलाफ काम किया जिस में सरकारी पदों पर आसीन राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, डा. अंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कृपलानी, मावलंकर, पट्टाभि सीतारमैया जैसे थे और जिन्होंने जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति यानी सरकार को ज्यादा अधिकार देना उचित माना था लेकिन यह न भूलें कि ये सब राजनीति के मोहरे थे और हरेक का अपना एजेंडा था. वे खुद को भारत का भाग्यविधाता मानने लगे थे जैसे अब नरेंद्र मोदी अपने को मान रहे हैं. कानून संसद में बनेगा या सुप्रीम कोर्ट में भारत में भले ही लोकतंत्र हो पर हर किसी को अपनी अकेली प्रभुसत्ता चाहिए.
इस बात को संविधान बनाने वाले भी सम?ाते थे. उन की शंका निर्मूल साबित नहीं हुई. इस के बहुत सारे उदाहरणों में कलीजियम सिस्टम की जरूरत भी एक है. संविधान ने संसद को यह अधिकार दिया है कि वह कानून बना सकती है. सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है. अगर सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति को ज्यादा अधिकार दिए जाने से सहमत नहीं थी तो भी इस कानून में बदलाव संसद में होता, 9 जजों की बैंच में नहीं. आजादी के बाद विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका सभी के व्यवहार में गिरावट आई है. इस में किसी सर्वे की जरूरत नहीं है. देश का आम नगारिक इस बात को बेहद आसानी से समझता है.
राजनीति में भाईभतीजावाद पर खुल कर बात होती है, कार्यपालिका के भ्रष्टाचार पर खुलेआम चर्चा होती है लेकिन न्यायपालिका अपने बारे में इस बात की इजाजत नहीं देती. हालांकि देखा जाए तो अदालतों के बारे में ज्यादा भेदभाव या पक्षपात की शिकायतें नहीं होतीं क्योंकि यह किसी वादी, परिवादी को नहीं मालूम होता कि उस का मामला किस जज के पास जाएगा. एक बार मामला एक जज के पास जाता भी है तो सुनवाई के दौरान बीच में दूसरे के पास जा सकता है. कार्यपालिका में फैसले दिनों और घंटों में ले लिए जाते हैं. फैसलों में पक्षपात का आरोप लगना भी आम है. हाल में पंजाब कैडर के आईएएस अधिकारी अरुण गोयल रिटायर होने के 3 दिनों बाद ही नए चुनाव आयुक्त चुने गए. इस नियुक्ति की प्रक्रिया को ले कर भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमनेसामने आ गए हैं. सरकारें अपने फैसले मनमाने ढंग से ले तो रही हैं चाहे वे जवाहरलाल नेहरू व इंदिरा गांधी के जमाने में बैंकों के सरकारीकरण के हों, जमींदारी उन्मूलन कानूनों में जोरजबरदस्ती के हों या श्रमिक नेताओं को जरूरत से ज्यादा अधिकार देने के हों.
अगर न्यायपालिका नहीं होती तो ब्रेक नहीं लगता पर ब्रेक के बावजूद सरकारें अपनी धौंस चलाती रहीं क्योंकि जज कम से कम 1993 तक तो उन की मरजी के ही नियुक्त होते रहे हैं. जजों की नियुक्ति में कलीजियम सिस्टम लागू होने के बाद मोदी सरकार का सब से बड़ा आरोप है कि भाईभतीजावाद और परिवारवाद वहां जम गया है. अगर आज की सरकार में भाईभतीजावाद नहीं होता तो इस आरोप में दम होता पर पीयूष गोयल, जयशाह, अनुराग ठाकुर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दुष्यंत सिंह, पूनम महाजन, प्रीतम मुंडे, प्रवेश सिंह वर्मा और बी वाई राघवेंद्र और यहां तक कि राज्यसभा और लोकसभा में भाजपा के चुने सांसदों में 11 प्रतिशत सांसद किसी न किसी सियासी परिवार से संबंध रखते हैं. जाहिर है भारतीय जनता पार्टी में टैलेंट या मैरिट से ज्यादा परिवार की ही चल रही है. अदालतों में केसों की भरमार के लिए कलीजियम सिस्टम को दोष दिया जा रहा है.
यह आरोप ऐसा ही है जैसा कि घरों में नई बहू को दिया जाता है अगर शादी के तुरंत बाद ससुराल में कुछ नुकसान हो जाए या किसी की मृत्यु हो जाए. हमारे समाज में किसी विधवा का शादी में मौजूद रहना शादी में विघ्न माना जाता है. कलीजियम सिस्टम को उसी तरह मुकदमों की भरमार के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है. असल में सरकार सब से बड़ी लिटिगैंट है. ज्यादातर मुकदमे सरकारी कानूनों के कारण या सरकारी फैसलों के कारण ही होते हैं. भारत की विभिन्न अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं. इन में से कई मामले 10 साल से भी अधिक समय से लंबित हैं. अब इस में तर्क दिए जाते हैं कि कोर्ट में जजों की कमी, कोर्टों की कमी, आम लोगों के अधिकारों को ले कर बढ़ती जागरूकता जैसे कारण हैं जोकि एक सीमा तक सही भी हैं पर इन तर्कों की आड़ में यह छिपा दिया जाता है कि पैंडिंग मामलों में भारत सरकार ही सब से बड़ी मुकदमेबाज है. वह लगभग आधे लंबित मामलों के लिए जिम्मेदार है. अधिकांश मामलों में, जब सरकार कोई मामला दर्ज करती है, यह देखा जाता है कि सरकार अपनी बात को साबित करने में विफल रहती है. यह बात पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने बताई थी कि 50 प्रतिशत पैंडिंग मामलों में सरकार ही एक पक्षकार है.
इसलिए इस में केवल यह कह कर इसे टाला नहीं जा सकता कि देश की अदालतों में जजों की संख्या जरूरत के अनुसार नहीं है. सरकारी सैक्टर के हर विभाग में इस तरह की दिक्कतें हैं क्योंकि सरकार देरी को ही ताकत सम?ाती है. इलाज करने के लिए सही अनुपात में डाक्टर हैं नहीं. पुलिस में सही अनुपात में सिपाही नहीं. सही अनुपात में शिक्षक नहीं. सरकारी कार्यवाहों की संख्या हर जगह कम है. ऐसे में यदि जजों की संख्या में कमी है भी तो इस की बड़ी जिम्मेदार खुद सरकार ही है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर ने अपने कार्यकाल में न्यायाधीशों की संख्या 21 हजार से बढ़ा कर 40 हजार करने में कार्यपालिका द्वारा ‘निष्क्रियता’ जताने पर खेद व्यक्त किया था. उन्होंने केंद्र पर देश में अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने के लिए कुछ न करने का आरोप लगाया. उन्होंने केंद्र पर उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में बाधा डालने का भी आरोप लगाया.
कलीजियम सिस्टम को दोष नहीं दिया जा सकता कि उस के जेल या बेल के मामले रातोंरात कोर्ट खोल कर सुन लिए जाते हैं जबकि आम लोगों को सालोंसाल न्याय के लिए भटकना पड़ता है. सवाल है सरकार हर किसी को जेल भेजती ही क्यों है जबकि मामला चाहे मामूली या सरकार की आलोचना का हो. ज्यादातर निचली अदालतों में जिस मामले में बड़ी सजा हो जाती है, ऊंची अदालत में जा कर मामला छूट जाता है लेकिन जिस व्यक्ति के खिलाफ मामला होता है उस को सालोंसाल जेल में गुजारने पड़ते हैं, इस की कीमत कौन अदा करता है? इस के लिए कलीजियम सिस्टम दोषी नहीं, पुलिस और पुलिस के वकील जिम्मेदार हैं जो सरकार ही नियुक्त करती है और एक तरह से कहा जा सकता है जनता नियुक्त करती है. अब जज कभीकभार सरकार पर अंकुश लगाने लगे हैं. ऐसे समय में अंकुश जरूरी भी हो जाते हैं जब देश में विपक्ष को पंगु कर दिया गया हो और ताकत का केंद्र एक जगह केंद्रित हो गया हो और सरकार नोटबंदी, जीएसटी, एनआरसी, कृषि कानून मनमाने तरीके से जनता पर थोप रही हो.
कलीजियम सिस्टम सवालों के घेरे में क्यों जब सर्वोच्च न्यायालय का या उच्च न्यायालय का कलीजियम जजों को नियुक्त करता है तो उस के समक्ष वोटर नहीं होते. जब कानून मंत्री और प्रधानमंत्री जज नियुक्त करेंगे तो उन के सामने वोट व वोटर होंगे. चुनाव आयोग इस का एक बड़ा अच्छा उदाहरण है. चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर ज्यादा सवाल उठाए जा रहे हैं बजाय जजों के भाईभतीजावाद पर. क्या सरकार चुनाव आयोग पर अपना रवैया बदलने को तैयार है? कलीजियम सिस्टम से असहज महसूस करती देश की मौजूदा भगवाई भाजपा सरकार उस पर सवाल उठाने का मौका तलाशती रहती है. मोदी सरकार और उस के मंत्री किरेन रिजिजू कलीजियम सिस्टम पर बहस को सड़कों पर ले कर आने में सफल हो गए हैं क्योंकि आम जनता तो भाजपा की पक्षधर मीडिया की सुनती है, दूसरा पक्ष तो उसे सुनने को मिलता ही नहीं और सरकार को अधिकांश जनता का साथ मिलना ही था क्योंकि यह भी हिंदूमुसलिम विवाद सा है. न्यायपालिका से जुड़े लोग भी कलीजियम सिस्टम को अपारदर्शी सिस्टम बताते हैं. कलीजियम सिस्टम के आलोचक आरोप लगाते हैं कि जजों की नियुक्ति के वक्त सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह होता है कि कैंडिडेट के बापदादा क्या थे.
जज के बेटों को तरजीह मिलती है. यह आरोप अगर सही है तो जजों को देखना होगा पर केवल इस के लिए कलीजियम सिस्टम को कूड़े में फेंक कर जजों को प्रधानमंत्री की कठपुतली नहीं बनाया जा सकता. सरकारी पक्ष कहता है कि कामकाज के लिए लिखित मैनुअल का अभाव, चयन मानदंड का अभाव, पहले से लिए गए निर्णयों में मनमाने ढंग से उलटफेर, बैठकों के रिकौर्ड का चयनात्मक प्रकाशन कलीजियम प्रणाली की अपारदर्शिता को साबित करता है. कोई नहीं जानता कि न्यायाधीशों का चयन कैसे किया जाता है और इस प्रकार की नियुक्तियों ने औचित्य, आत्मचयन तथा भाईभतीजावाद जैसी चिंताओं को जन्म दिया है. यह प्रणाली अकसर कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी करती है. कलीजियम के जरिए जजों को नियुक्त करने की प्रक्रिया को सम?ाते हैं. कलीजियम वकीलों या जजों के नाम की सिफारिश केंद्र सरकार को भेजती है.
इसी तरह केंद्र भी अपने कुछ प्रस्तावित नाम कलीजियम को भेजती है. केंद्र के पास कलीजियम से आने वाले नामों की जांच और आपत्तियों की छानबीन की जाती है. इस के बाद रिपोर्ट वापस कलीजियम को भेजी जाती है. सरकार इस में कुछ नाम अपनी ओर से सु?ाती है. कलीजियम केंद्र द्वारा सु?ाव गए नए नामों और कलीजियम के नामों पर केंद्र की आपत्तियों पर विचार कर के फाइल दोबारा केंद्र के पास भेजती है. कलीजियम किसी वकील या जज का नाम केंद्र सरकार के पास दोबारा भेजती है तो केंद्र को उस नाम को स्वीकार करना ही पड़ता है. कब तक स्वीकार करना है, इस की कोई समयसीमा नहीं है. भारत के 25 हाईकोर्टों में 395 और सुप्रीम कोर्ट में जजों के 4 पद खाली हैं. न्यायालयों की नियुक्ति के लिए 146 नाम पिछले 2 साल से सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच मंजूरी न मिलने के कारण अटके हुए हैं. इन नामों में 36 नाम सुप्रीम कोर्ट कलीजियम के पास लंबित हैं जबकि 110 नामों पर केंद्र सरकार की मंजूरी मिलनी बाकी है.
सरकारी पक्ष यह बात जनता तक नहीं पहुंचने देता. सरकार और सुप्रीम कोर्ट क्यों हैं आमनेसामने सारे विवाद में सरकारी मंत्री एक भी मामला ऐसा सामने नहीं ला पाए जिस में अदालत ने किसी नागरिक को कहीं ज्यादा छूट दी हो या उसे बेबात परेशान किया हो. उलटे, सरकार पर लाखों करोड़ कुछ उद्योगपतियों को देने, नोटबंदी थोपने, कोविड में लाखों की मौतें छिपाने के आरोप हैं. सरकारें आज बुलडोजरों का उपयोग कर रही हैं जिन में पहले सजा और बाद में सुनवाई होती है. जेलों में बंद लाखों अंडरट्रायल सरकारी निकम्मेपन के सुबूत हैं, जजों के नहीं. जजों पर दबाव डाला जाता है कि फलां को हरगिज जमानत न दी जाए. ऊंची कोर्ट अगर दे भी दे तो सरकार नए मामले थोप देती है. ऐसी सरकार पर क्या निष्ठावान जज नियुक्त करने की उम्मीद की जा सकती है? सुप्रीम कोर्ट की मंशा देशहित में है. तृणमूल के सांसद सौगत रौय ने लोकसभा में सरकार की आलोचना करते कहा कि कलीजियम सिस्टम सरकार की तानाशाही पर अंकुश लगाने का कारगर तरीका है. यह एक गारंटी है जिस से सरकार की विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लगता है. कानून मंत्री किरेन रिजिजू के न्यायपालिका पर दिए बयान की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसा नहीं बोलना चाहिए था.
सरकार के एक पत्र, जो प्रहार था, में कहा गया कि कलीजियम में सरकार का प्रतिनिधि भी होना चाहिए ताकि पारदर्शिता बनी रहे. इस के उत्तर में 19 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने 5 उच्च न्यायालय जजों के नाम सरकार की आपत्तियों के बावजूद फिर दोहराए ही नहीं, वे कारण भी सार्वजनिक कर दिए जो सरकार ने नहीं दिए. सरकार इस तरह की पारदर्शिता तो नहीं चाहती थी. इन 5 जजों में से 3 को नियुक्त न करने के पीछे सरकार के कारण थे : एक जज समलैंगिक है और एक विदेशी पुरुष के साथ रह रहा है; एक ने ट्वीटर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ पोस्ट को शेयर किया था; एक ने नागरिकता कानून पर टिप्पणी की थी. केंद्र व हर राज्य सरकार हर तरह से आज अपारदर्शी है. सूचना का अधिकार जो कांग्रेस ने एक मौलिक अधिकार बना दिया था, अब समाप्तप्राय: हो गया है. संसद में सांसदों के प्रश्नों का उत्तर हां या न में कह कर टरका दिया जाता है. सरकार कलीजियम में नियुक्तियों को ले कर अपारदर्शिता का नाम तो नहीं ले सकती. केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच टकराव की शुरुआत नवंबर 2022 में हुई थी. केंद्र सरकार ने कलीजियम से हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति से जुड़ी 20 फाइलों पर दोबारा विचार करने को कहा. ये फाइलें 25 नवंबर को लौटाई गई हैं. इन में 11 नए मामले हैं और 9 मामलों को दोहराया गया है. इन मामलों में एक नाम एडवोकेट सौरभ किरपाल का भी है, जिन्हें दिल्ली हाईकोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश की गई है. एडवोकेट किरपाल पूर्व सीजेआई बी एन किरपाल के बेटे हैं.
इस के पहले मईजून 2018 जनवरी में कलीजियम ने इंदु मल्होत्रा और के एम जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने की सिफारिश की थी. सरकार ने इन के नाम पर भी दोबारा विचार करने को कहा था. मई में सरकार ने इंदु मल्होत्रा के नाम को तो मंजूरी दे दी लेकिन जस्टिस जोसेफ के नाम पर फिर सोचने को कहा. हालांकि बाद में सरकार ने जस्टिस के एम जोसेफ के नाम को भी मंजूर कर लिया था. फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम ने 74 जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश की थी, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा समय बीतने के बाद भी केंद्र सरकार ने इन्हें मंजूरी नहीं दी थी. क्यों, यह तो सरकार ने कभी नहीं बताया. यह अपारदर्शिता नहीं तो क्या है? अगस्त 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया था कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उस से टकराव लेने से नहीं हिचकेगी. केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद अक्तूबर 2015 जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाने के लिए कानून बनाया गया था. इस की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया और आयोग को निरस्त कर दिया. कलीजियम सिस्टम की सिफारिशों को नजरअंदाज करने पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कड़ी फटकार लगाई.
अदालत ने कहा कि यह एक कानून है और इस पर पूरी तरह से अमल करना जरूरी है. अटौर्नी जनरल को कड़ी हिदायत देते हुए कहा कि आप सरकार को जा कर सम?ाएं. अगर संसद के बनाए कानूनों को कुछ लोग मानने से इनकार कर देते हैं तो फिर क्या स्थिति होगी. कोर्ट का कहना था कि समाज अपने हिसाब से यह तय करने में लग जाए कि कौन से कानूनों की पालना करनी है और कौन से की नहीं तो यह एक ब्रेकडाउन जैसी स्थिति हो जाएगी. जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस विक्रम नाथ की बैंच ने केंद्र सरकार को साफतौर पर हिदायत दी कि वह किसी भी सूरत में संवैधानिक बैंच के दिए फैसले पर नरमी न बरते. उन का कहना था कि समाज के कुछ वर्गों को कलीजियम सिस्टम से दिक्कत होने से कोर्ट को कोई फर्क नहीं पड़ता.
अटौर्नी जनरल ने कोर्ट से कहा कि 2 बार खुद सुप्रीम कोर्ट के कलीजियम ने अपनी ही सिफारिशों में फेरबदल किया था क्योंकि केंद्र ने उस के सु?ाए नाम वापस कर दिए थे. इस से ?ालक मिली कि कलीजियम ने जो सिफारिश की थी वह अपनेआप में कहीं न कहीं अधूरी थी. जस्टिस संजय किशन कौल की बैंच ने इस पर कड़ा रुख दिखाते कहा कि एकदो बार के उदाहरण से केंद्र को लाइसैंस नहीं मिल जाता कि वह कलीजियम सिस्टम को नजरअंदाज करना शुरू कर दे. बैंच का कहना था कि जब एक मसले पर कोर्ट कोई फैसला दे चुकी है तो किसी अगरमगर की जरूरत नहीं रह जाती. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से कलीजियम बनाया था. कलीजियम की व्यवस्था संविधान में नहीं दी गई लेकिन ‘जजेस केस’ कहलाने वाले मामलों में उस ने संविधान की जो व्याख्या की, उस से कलीजियम की संरचना और अधिकार तय हुए.
इसीलिए दोनों बातें सही हैं- यह कि कलीजियम संविधान में नहीं है और यह भी कि, कलीजियम संविधान से निकला है क्योंकि संविधान में निहित प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट के पास है. कलीजियम सिस्टम फिलहाल सर्वोत्तम तरीका है जजों को नियुक्त करने का. पूछा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने किस से पूछ कर नेता नियुक्त किया था. कौन सी जनता ने उन की उम्मीदवारी पर मोहर लगाई थी. अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने से पहले ही बहुत बार पार्टी में वोटिंग होती है. कलीजियम सिस्टम को दोष देने वाले उस सिस्टम को पार्टियों में ला सकते हैं क्या?