दुनियाभर में ऐसी कई महान हस्तियां रही हैं जिन की आदतों को उन की सनक माना गया. पर क्या उन की आदतें सचमुच सनक थीं या उन के पीछे कुछ और ही मामला था? विज्ञान, कला और साहित्य के क्षेत्र में ऐसे अनेक महान लोग हुए हैं और कुछ अभी भी हैं जिन का आचारव्यवहार समाज की सामान्य मान्यताओं से हट कर कुछ विचित्र लगता है. आम बोलचाल की भाषा में इसे सनकीपन कहा जाता है. वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, चित्रकारों, कलाकारों, राजनेताओं और खिलाडि़यों के सनकी व्यवहार से संबंधित अनेक रोचक किस्सों से विश्व साहित्य भरा पड़ा है.

अब प्रश्न उठता है कि क्या सचमुच प्रतिभाएं सनकी होती हैं अथवा प्रतिभा के साथ सनक एक नैसर्गिक लक्षण है? जिसे समाज सनक कहता है वह वास्तव में किसी व्यक्ति विशेष का साधारण या खास व्यवहार होता है. यदि हम मकबूल फिदा हुसैन के नंगे पैर रहने के प्रण और राष्ट्रपति डा.एपीजे अब्दुल कलाम के बिखरे बालों को सनक में गिनते हैं तो यह हमारी सतही सोच है. मकबूल फिदा हुसैन ने गरीबी का वह मंजर देखा था जो उन के दिमाग से कभी निकल नहीं पाता था. इसलिए वे हमेशा नंगे पैर रह कर उस पीड़ा को यों कहिए कि उस हकीकत को जीवंत रखना चाहते थे.

महान वैज्ञानिकों और साहित्यकारों ने कभी भी बनठन कर रहने में समय नहीं गंवाया है बल्कि समय के एकएक पल को चिंतन तथा कर्म के रूप में इस्तेमाल किया है. यही कारण है कि बहुत से वैज्ञानिक, शिक्षाविद और दार्शनिक रहनसहन, खानपान और सजावट की तरफ उतना ध्यान नहीं देते जितना कि आम आदमी देता है. बहुधा आप ने सुना होगा कि फलां प्रोफैसर साहब बाजार में पाजामा एवं हवाई चप्पल पहने हुए घूम रहे थे या फलां वैज्ञानिक अमुक विचार गोष्ठी में बिना दाढ़ी बनाए हुए ही मौजूद थे. इस प्रकार की बातें कुछ संकीर्ण विचारधारा वालों के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं लेकिन प्रतिभाओं की नजर में ये अत्यंत गौण हैं. इटली के लियोनार्डो द विंची को सब से अधिक प्रतिभाशाली व्यक्ति माना जाता है. मोनालिसा का चित्र बना कर शोहरत की ऊंचाइयां छूने वाले विंची एक चित्रकार के साथसाथ मूर्तिकार, वास्तुकार, भूगर्भविज्ञानी, संगीतज्ञ आदि भी थे.

उन्होंने इटली के मिलान शहर में एक घोड़े की मूर्ति स्थापित करने का प्रोजैक्ट तैयार किया था किंतु फ्रांसीसी आक्रमण के कारण वे घोड़े की विशाल मूर्ति तैयार न कर सके. जीवन के अंतिम समय में विंची अकसर चौंक कर उठ जाते थे, चीखतेचिल्लाते थे कि मैं असफल व्यक्ति हूं. उन दिनों इस महान प्रतिभा को पागल करार दिया गया था जबकि वास्तविकता यह है कि वह बहुमुखी प्रतिभा राजनीतिक कारणों से मूर्ति प्रोजैक्ट को पूरा नहीं कर पाई थी. ईमानदारी तथा कार्यसमर्पण भाव के कारण ही विंची अपनेआप को असफल कह रहे थे. इसी प्रकार अलबर्ट आइंस्टीन बचपन में अत्यंत गुस्सैल और तुनकमिजाज थे. बड़े होने पर जब वे किसी गंभीर समस्या का हल ढूंढ़ने का प्रयास करते थे तो अपने सिर के बालों को खींचते हुए कमरे में पागलों की तरह चक्कर काटते थे.

अलबर्ट आइंस्टीन खुद अपनी भी बातें खूब करते थे. वे अपने वाक्यों को धीमेधीमे दोहराते रहते थे. यह सनकीपन नहीं था. यह मस्तिष्क को और ज्यादा इस्तेमाल करने में सहायक होता है. इस तरह की आदत आम लोगों में भी पाई जाती है लेकिन वह केवल परिवार तक ही सीमित रहती है जबकि महान व्यक्ति जनचर्चा के केंद्रबिंदु बन जाते हैं. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सभी व्यक्तियों में सभी प्रकार के गुण एवं अवगुण मौजूद रहते हैं. हां, इन में प्रतिशत एवं मात्रा का अंतर हो सकता है. सच तो यह है कि हम सभी क्रोधी, सनकी एवं भुलक्कड़ हैं. इस में कोई कम है, कोई ज्यादा. अपनेअपने क्षेत्रों में शोहरत प्राप्त प्रतिभाओं में क्रोध तथा भूलने की 2 आदतें आमतौर पर चर्चा का विषय रही हैं. इंसान के स्वभाव में यदि क्रोध का गंभीरता से अवलोकन एवं विश्लेषण करें तो पाते हैं कि अधिकांश प्रतिभाशाली व्यक्ति किसी बिंदु विशेष से चिढ़ कर गुस्सा प्रकट करते हैं.

दिखावा, दूसरों की जीहुजूरी, ढोंग तथा भ्रष्ट आचरण उन के स्वभाव में अकसर नहीं होता है. सो, वे इन निंदनीय साधनों का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के प्रति खुलेआम गुस्सा प्रकट करते हैं. चूंकि लोकप्रियता के साथसाथ निंदा एवं ईर्ष्या भी चलती है इसलिए प्रतिभाओं को सनकी कहने का फैशन सा चल पड़ा है. जहां तक भूलने का सवाल है तो इस से बहुत से व्यक्ति पीडि़त रहे हैं और आज भी हैं. वास्तव में मस्तिष्क की सूचना संग्रहण क्षमता सीमित है. यदि इंसान अधिक सूचनाएं इस में जमा करता है तो पहले की सूचनाएं बाहर निकल जाती हैं. चूंकि वैज्ञानिक, शिक्षाविद, कलाकार तथा साहित्यकार अपनीअपनी विधा से संबंधित ज्ञान अधिक से अधिक मात्रा में जमा करने का प्रयास करते हैं और किसी एक खास समस्या पर लंबे समय तक सोचते रहते हैं.

बहुत कम प्रतिभाएं ऐसी होती हैं जो किसी व्यक्ति को एक बार ?िड़कने या खरीखोटी सुनाने के बाद उस घटना को याद रखती हैं. जब वह पीडि़त व्यक्ति किसी अन्य अवसर पर उसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के सामने पड़ता है तो पाता है कि वह महान विभूति उस के साथ बहुत प्रेम से व्यवहार कर रही है. यह स्वभाव में सनकीपन नहीं, बल्कि स्वाभाविकता है. यह तो हम सभी जानते हैं कि प्रतिभावान लोगों की सोच कुछ अलग तरह की होती है. जब वे किसी विषय पर सोचते हैं तो बेहद गहराई से सोचते हैं. इसलिए उन से पूरी तरह सामाजिक परंपरा के अनुसार व्यवहार की उम्मीद करना व्यर्थ है, क्योंकि जो बात इन व्यक्तियों को तार्किक आधार पर तो ठीक नहीं लगती है उसे वे एकदम नकार देते हैं. ज्यादातर प्रतिभाएं अधिक बोलने के बजाय गंभीर रहती हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ये प्रेम, रोमांस या ममता का महत्त्व नहीं सम?ाती हैं. उन के लिए पारिवारिक, सामाजिक जीवन काम के सामने दूसरी वरीयता पर रहता है. गंभीरतापूर्वक सोचिए, यदि उन महान विभूतियों ने अपना सिर आविष्कारों में न खपाया होता तो क्या आज का भौतिक जीवन सुखी एवं सपन्न होता? आमतौर पर प्रतिभाएं अपना रास्ता खुद चुनती हैं, सो, इन्हीं में से कुछ के व्यक्तिगत नियम, सिद्धांत एवं विचारधाराएं भी विकसित हो जाती हैं.

स्वाभाविक है यह प्रचलित कला, विज्ञान, लोक व्यवहार और समाज के नियमों से मेल नहीं खाती हैं और इसलिए विचित्र दिखाई पड़ती हैं. एक बार जयपुर में खेल शंकर दुर्लभजी स्मृति व्याख्यानमाला में सिने कलाकार दिलीप कुमार ने उपस्थित श्रोताओं को यह कह कर ?ाक?ार दिया, ‘‘मैं अपनेआप में द्वंद्व कर रहा हूं. परदे पर ?ाठा अभिनय कर मैं सत्य को ढांप रहा हूं. जो हीरोइन मेरी बांहों में दम तोड़ते दिखाई जाती है वह कैमरे के हटते ही कपड़े ?ाड़ कर चल देती है. किसी में मैं मां, मां कह कर जिस के लिए रोता हूं वह मेरी मां नहीं है. ऐसा लगता है कि मैं खुद से तथा सारे समाज से फरेब कर रहा हूं.’’ अब सवाल यह उठता है कि क्या अभिनेता दिलीप कुमार की संवेदनशीलता को आम आदमी सचमुच उसी रूप में सम?ा रहा है जिस रूप में दिलीप कुमार कह रहे हैं या फिर हम इसे प्रतिभा की सनक भर मानते हैं. इस बारे में होम्स ने अलगअलग प्रतिभाओं का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश प्रतिभाएं एक सीमा तक सनकी होती हैं.

शेक्सपियर ने भी इस पर कहा है कि प्रतिभाएं सचमुच पागल नहीं होतीं बल्कि काम के प्रति धुन या लगन उन का व्यवहार विशिष्ट बना देता है जो आम लोगों की नजर में उपहास का विषय बन जाता है. राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का आइडिया शुरू में फिल्मों सा क्रेजी लगा होगा पर अब यह तो लगता है कि इस यात्रा ने उन का व्यक्तित्व भी सुधार दिया है और लाखों लोगों को सड़क पर आ कर चलने को आज उकसा दिया है.

लेखक-डा. सुरेंद्र कटारिया

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