दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया पर अनुसूचित जाति और जनजाति यानि क्रमश: दलित और आदिवासी समुदायों के खिलाफ की गई किसी भी पोस्ट या जातिगत टिप्पणी पर सजा हो सकती है. ऐसी कोई भी टिप्पणी ऑनलाइन अब्यूज में शामिल की जाएगी. कोर्ट ने यह भी साफ किया है कि इस बात का सजा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि पोस्ट कर्ता ने अपनी प्राइवेसी सेटिंग को पब्लिक या प्राइवेट कर रखा है, अगर किसी की गैर मौजूदगी में भी किसी जाति विशेष का अपमान किया गया है तो इस पर भी एससी एसटी एक्ट लागू होगा.
किसी भी तरह की जातिगत टिप्पणी एससी एसटी एक्ट 1989 के तहत आती है. हालांकि यह फैसला फेसबुक वाल के संदर्भ में दिया गया है लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यह फैसला उन वेबसाइटस पर भी लागू होता है जिन पर प्राइवेसी सेटिंग होती है या जो कुछ लोगों के ग्रुप तक ही शामिल होता है. यानि व्हाट्सएप पर भी यह फैसला प्रभावी होगा.
जाहिर है अब सोशल मीडिया पर दलित आदिवासियों का अपमान करना महंगा पड़ेगा, जाहिर यह भी है कि चूंकि सोशल मीडिया इन समुदायों की बेइज्जती का एक बड़ा अड्डा बन गया है, इसलिए दिल्ली हाईकोर्ट को यह फैसला लेना पड़ा. एक वर्ग विशेष के स्वाभिमान के मद्देनजर यह फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन विचारणीय बात यह है कि क्या इससे जातिगत मानसिकता या पूर्वाग्रह खत्म हो जाएंगे. इस सवाल का जबाब बेहद निराशाजनक है कि नहीं होंगे, उल्टे सोशल मीडिया के जरिये जातिगत और धार्मिक जहर बहुत तेजी और आसानी से फैलने लगा है.
कल तक जो बातें चाय की गुमठियों और चौराहों पर होती थीं, वे अब सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से होने लगी हैं, दलित आदिवासियों का अपमान इनमे से एक है. समाज का ढांचा जरूर थोड़ा बदला है, लेकिन उसकी मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया है. व्हाट्सएप पर जातियों के ग्रुप बन गए हैं जितनी जातियां देश में हैं, उनसे लाख गुना ज्यादा उनके ग्रुप हैं. इन ग्रुपों में तुक या मुद्दे की बातें कम होती हैं दूसरी जाति वालों को कोसने की शाश्वत परम्परा का निर्वाह ज्यादा होता है. स्थिति यह है कि ऊंची जाति वाले ग्रुप नीची जाति वालों को कोसा करते हैं तो नीची जाति वाले ग्रुप ऊंची जाति वालों के पूर्व में किए और वर्तमान में किए जा रहे अत्याचारों का रोना रोते रहते हैं.
तकनीक का जातिगत दुरुपयोग हमारे महान देश में ही होना मुमकिन है जो दरअसल में हमारी जातिगत मानसिकता का आईना है. इसका इलाज कोई अदालत नहीं कर सकी, न कर सकती है क्योंकि जातिगत या जातिवादी व्यवस्था धर्म की देन है, अब भला किसकी मजाल कि वह धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म को ही खत्म करने की बात करे या फिर उसके समाज पर पड़ते दुष्प्रभावों की व्याख्या करे, उल्टे सोशल मीडिया या डिजिटल समाज की सुबह ही विभिन्न देवी देवताओं की तस्वीर और उनके पुण्य स्मरण से होती है. ऐसे जड़ और धर्मान्ध लोगों से क्या खाकर यह उम्मीद की जाये कि वे जातिगत टिप्पणियां करने से खुद को रोक पाएंगे.
धार्मिक निर्देशों के अनुयायी मनुवादी और पौराणिक वादी जातिगत व्यवस्था और समाज तोड़ने के हिमायती कभी कहीं से नहीं रहे तो अब दलित आदिवासी भी इसी को बनाए रखने में अपना भला देखने लगे हैं, उनका बड़ा और स्वाभाविक डर आरक्षण छिन जाने का है, जो एनडीए के सत्तानशीं होने के बाद से लगातार बढ़ ही रहा है. हालात ज्यों के त्यों यानि अट्ठाहरवी सदी जैसे हैं, तो जाहिर है जाति की जड़ किसी के उखाड़े से नहीं उखड़ रही, बल्कि और गहराती जा रही है. अदालतें एससी एसटी एक्ट सोशल मीडिया भी पर लागू कर दें इससे इस जड़ और जड़ता पर कोई फर्क पड़ेगा ऐसा लग नहीं रहा. लोगों की मानसिकता और जातिगत पूर्वाग्रह सिर्फ और सिर्फ जागरुकता से दूर हो सकते हैं, जिसके रास्ते में धर्म सबसे बड़ा रोड़ा है, शायद इसीलिए भीमराव अंबेडकर ने धर्म ग्रन्थों को जला देने की बात कही थी.