आजाद खयालों वाली महिलाएं पुरुषों को हमेशा से खटकती रही हैं. जिन महिलाओं ने पुरुषों की इस चाल को सम?ा लिया वे उन के प्रभाव से निकलने में कामयाब रहीं और अब दुनियाभर में वे अपना दबदबा स्थापित कर रही हैं. दुनियाभर में औरत को हमेशा से पुरुष के अधीन रखा गया है. एक लड़की को उस के बचपन से यह बताया जाता है कि वह कोमल और कमजोर है. अकेली रहे तो असुरक्षित है. अपने बारे में लिया गया उस का फैसला गलत है. उसे बताया जाता है कि पिता, भाई, पति या बेटे के अधीन रह कर ही वह सुरक्षित है. हमेशा अपने घर के पुरुषों का कहा मानो.
उन के आदेशानुसार सारे कार्य करो. उन के साथ ही घर से बाहर जाओ. उन्हें जैसा पसंद है वैसा परिधान पहनो. वे जो खिलाएं वही खाओ. वे जितना कहें उतना पढ़ो. वे जो कहें वही पढ़ो. धर्म और संस्कारों की दुहाई दे कर लड़कियों को जिंदगीभर दायरे में रखने की कोशिश होती है असलियत यह है कि औरतों के प्रति यह चलन और ऐसा नजरिया दुनियाभर में है. दुनियाभर में औरत पुरुष के सर्विलांस में रहने को मजबूर है. वह क्या पहने, क्या काम करे, क्या खाए, क्या पढ़े, किस से मिले, क्या बात करे, कितना हंसे, कितना मुंह ढके, कितना तन ढके आदि सब पुरुषों के मनमुताबिक करना होता है.
जबकि पुरुषों के लिए ऐसे कोई नियम दुनिया में कहीं भी नहीं हैं. पुरुष औरत के पैर में पड़ी वह जंजीर है जो उस को खुले आसमान में उड़ने से रोकती है. लेकिन इस जंजीर को तोड़ कर जो औरतें आगे बढ़ीं, आज दुनिया उन के हुनर, काबीलियत और नेतृत्व की कायल है. जिन औरतों ने पुरुषसत्ता को दरकिनार कर अपने जीवन के फैसले खुद लिए, उन के नाम आज चमक रहे हैं. दुनिया का नेतृत्व करने वाली, राजनीति में ऊंचे पदों पर पहुंचने वाली अधिकांश औरतें वे हैं जिन के सिर पर कोई पुरुष अपने आदेशों की चाबुक लिए नहीं खड़ा है, जिन्होंने पुरुषों की मौजूदगी और प्रभाव को स्वीकार नहीं किया. रेडियोधर्मिता पर गहन शोध करने वाली और नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक मैरी क्यूरी से ले कर इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी तक और मदर टेरेसा, सरोजिनी नायडू, अमृता प्रीतम, इंदिरा गांधी, ममता बनर्जी व प्रियंका चोपड़ा जैसी महिलाओं की एक लंबी फेहरिस्त है,
जिन्होंने पुरुषसत्ता के दबाव को ?ाटक कर अपने फैसलों और अपनी इच्छा के मुताबिक अपने व्यक्तित्व को गढ़ा. फ्रांसीसी वैज्ञानिक मैरी स्क्लाडोवका क्यूरी को रेडियोएक्टिव तत्त्व रेडियम की खोज के लिए नोबेल पुरुस्कार मिला. क्यूरी के पिता ने उन को एक सीमित शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति दी थी. वे नहीं चाहते थे कि वे बहुत ज्यादा पढ़ें. मगर उन्होंने पुरुष समाज द्वारा औरतों पर थोपे गए इस प्रतिबंध को नहीं माना और छिपछिपा कर उच्चशिक्षा प्राप्त की. उन की बहन ने उन की आर्थिक मदद की और वे भौतिकी एवं गणित की पढ़ाई के लिए पेरिस चली गईं. पिता के प्रभाव से मुक्त होने के बाद क्यूरी ने अपने जीवन के सारे फैसले खुद लिए. उन्होंने फ्रांस में डाक्टरेट पूरा करने वाली और पेरिस विश्वविद्यालय में प्रोफैसर बनने वाली पहली महिला होने का गौरव पाया.
रेडियम की खोज ने उन्हें अमर कर दिया. अमेरिकी नागरिक समानता अधिकार के लिए लड़ने वाली रोजा लुईज मक्काली पार्क्स को दुनिया मदर औफ फ्रीडम मूवमैंट के नाम से जानती है. 1955 की बात है. उस वक्त दक्षिण अमेरिकी प्रांत अलाबामा में नस्लभेद अपने चरम पर था. ब्लैक महिलाओं, पुरुषों और बच्चों को बंदी बना कर उन का लगातार शोषण किया जाता था. उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था. गोरे जिस रास्ते पर चलते, उस पर ब्लैक अपना पैर नहीं रख सकते थे. पानी के नल और बस की सीट तक बंटी हुई थीं. इस नस्लीय हिंसा और भेदभाव वाले समय में ही डिपार्टमैंटल स्टोर में काम करने वाली ब्लैक महिला रोजा पार्क्स ने एक दिन बस से सफर करते वक्त एक गोरे व्यक्ति के लिए अपनी सीट से उठने से इनकार कर दिया. इस पर बस के ड्राइवर ने पुलिस बुला ली और रोजा पार्क्स को दोषी करार दिया गया. उन पर 10 डौलर का जुर्माना लगाया गया और अलग से 4 डौलर की कोर्ट फीस भी देनी पड़ी. लेकिन रोजा पार्क्स के विरोध ने यह सुनिश्चित कर दिया कि ब्लैक्स की स्थिति जो अमेरिका में थी उस के खिलाफ वे आवाज उठाएंगी. रोजा पार्क्स ने अमेरिका में समानता की लड़ाई का बिगुल फूंक दिया.
नस्लभेद के खिलाफ कानून को चुनौती दी, जिस ने दूसरे लोगों को भी अन्याय और भेदभाव का विरोध करने के लिए प्रेरित किया. रोजा का अकेले का विद्रोह सब का बन गया. यह नागरिक आंदोलन लगभग एक साल चला और अंत में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा कि ब्लैक नागरिक बस या ट्रेन में कहीं भी बैठ सकते हैं, उन्हें गोरों के लिए सीट छोड़ने की जरूरत नहीं है. नस्लभेद के खिलाफ उठ खड़े होने का फैसला रोजा का अपना फैसला था, जिस ने अमेरिका में नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ एक क्रांति उत्पन्न कर दी. पुरुषसत्ता के दबाव से निकल कर सामाजिक कार्यक्षेत्र में अपने लिए जगह बनाना महिलाओं के लिए हमेशा से ही चुनौतीपूर्ण रहा है. देश की संसद, जिसे लैंगिक रूप से संवेदनशील और पुरुषसत्ता से आजाद होना चाहिए, में भी महिलाओं को पुरुषसत्ता और गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है. लेकिन शिक्षा ने महिलाओं को स्वावलंबी बनाने में बड़ी मदद की है. पढ़ीलिखी महिलाएं आज चुनावों में शामिल हो कर नेतृत्व संभालने के लिए आगे बढ़ रही हैं.
साल 1951-52 में जहां राजनीति में औरतों की भागीदारी 5 फीसदी थी, वैश्विक स्तर पर अब यह भागीदारी लगभग 26 फीसदी है. हालांकि भारत की आबादी की तुलना में राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है. आजादी के 75 वर्ष बाद भी महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व और नेतृत्व निराशाजनक कहा जाएगा क्योंकि वे पुरुषों की तुलना में नीचे के स्तरों पर ही कार्यरत होती हैं. उन को नेतृत्व की बागडोर नहीं दी जाती है. भारत में इंदिरा गांधी के 16 साल तक प्रधानमंत्री रहने के बाद भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी निराशाजनक है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में तो उन की स्थिति सेवादार से ज्यादा नहीं होती. ग्राम प्रधान के पद पर चुनाव जीतने के बाद भी उन्हें संचालन का हक नहीं मिलता. उन के नाम को सामने रख कर पति, पिता, भाई, बेटा या ससुर ही प्रधानी करते दिखाई देते हैं. समाज में पुरुषसत्ता भयानक रूप से व्याप्त है.
अधिकतर वंशानुगत संभ्रांत परिवार की महिलाएं ही राजनीति में टिकती हैं जो उच्चशिक्षा प्राप्त और आर्थिक रूप से मजबूत होती हैं. वे महिलाएं ज्यादा कामयाब हैं जो अविवाहित हैं क्योंकि उन के सपनों के पंखों को बांधने वाला मर्द उन के इर्दगिर्द नहीं है. न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिन्डा अर्डन हों या इटली की प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी, इन महिलाओं ने अपने नेतृत्व कौशल से वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर पितृसत्ता को चुनौती दे कर यह सिद्ध किया है कि महिलाएं कुशल नेतृत्व करने में सक्षम हैं. ब्रिटेन, जरमनी, अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी महिलाएं पितृसत्ता को चुनौती देती दिख रही हैं. वे महिलाओं के हक और शोषण के खिलाफ एकसाथ मिल कर आवाज उठा रही हैं. मारग्रेट थैचर ब्रिटिश राजनीतिज्ञ मारग्रेट हिल्डा थैचर 20वीं शताब्दी में सब से लंबी अवधि (1979-1990) के लिए यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री रहीं. एक सोवियत पत्रकार ने उन्हें ‘आयरन लेडी’ की उपाधि दी, एक ऐसा उपनाम जो उन की असंबंध राजनीति और नेतृत्व शैली से जुड़ा हुआ था. प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने ऐसी नीतियां लागू कीं, जिन्हें थैचरवाद के रूप में जाना गया. मारग्रेट थैचर के फैसले हमेशा पुरुष मानसिकता के प्रभाव से मुक्त रहे. वे पुरुषों की सोच को अपने ऊपर हावी नहीं होने देती थीं.
यही वजह है कि उन में इतिहास को बदलने का दम था. आजादी की उन की अवधारणा के सिर्फ 3 पहलू थे, व्यक्तिगत, राजनीतिक और आर्थिक. जब कभी 10, डाउनिंग स्ट्रीट में 11 साल के उन के राज के दौरान किसी भी तरह की आजादी को कोई चुनौती मिली, उन्होंने कदम पीछे नहीं हटाए. ग्रैंथम के एक परचून वाले की लड़की जब ब्रिटेन की सब से ज्यादा साल तक राज करने वाली पहली महिला प्रधानमंत्री बनी तब देश में राज करने के हालात नहीं थे. राजनीति स्टालिनवादी रु?ान के वामपंथियों और यथास्थितिवादी दक्षिणपंथियों के चंगुल में फंसी हुई थी. दोनों सिरों पर पुरुषों का प्रभुत्व था. मगर थैचर ने उन को मात देते हुए पार्टी में जीत हासिल की. सत्ता में लेडी थैचर के आक्रामक व्यक्तित्व ने एक ऐसी विचारधारा की तमाम चीजों को छिन्नभिन्न कर डाला जो समाज में पारंपरिक चीजों का उत्सव मनाने की आदी थी. इंदिरा गांधी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी, साहस और संघर्ष की प्रतीक और करिश्माई व्यक्तित्व की धनी देश की पहली और इकलौती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पुरुषसत्ता के मद में चूर लोग ‘गूंगी गुडि़या’ के नाम से पुकारते थे. लेकिन बाद में इंदिरा गांधी को 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को करारी शिकस्त देने के बाद उन्हें आयरन लेडी कहा जाने लगा.
इंदिरा गांधी राजनीति के आसमान में तब चमकीं जब न सिर पर पिता का साया रहा और न पति का. इन दोनों के रहते वे राजनीति से दूर ही रहीं. लेकिन जब पिता और पति दोनों ही नहीं रहे तो इंदिरा गांधी ने खुद फैसले लेने शुरू किए और उन की कार्यशैली ने उन के व्यक्तित्व को ऐसा करिश्माई रूप दिया कि वे कालांतर में देशदुनिया की लोकप्रिय जननेता बन गईं. वे दूरदृष्टा तो थी हीं, चिंतन में दृढ़निश्चय, त्वरित निर्णय क्षमता जैसे गुण भी थे उन में. राजनीति की बिसात पर वे सिर्फ अपने मन की सुनती थीं और खुद सारे फैसले लेती थीं. इंदिरा गांधी को उन के दृढ़ संकल्पी व्यक्तित्व और कठोर निर्णयों के लिए जाना जाता है. उन्होंने 2 बार देश की सत्ता संभाली. 1969 में उन्होंने बैंकों और तेल कंपनियों का सरकारीकरण कर के देश के उद्योगपतियों को चुनौती दी थी. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता व समानता के आधार पर भारत को विश्व में शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में स्थापित किया.
गरीब देश होते हुए भी परमाणु परीक्षण कर दुनिया को यह आभास कराया कि भारत के वैज्ञानिक तकनीक के किसी मामले में पीछे नहीं हैं. गौर कीजिए, यदि इंदिरा गांधी न होतीं तो क्या बंगलादेश बन सकता था? क्या सिक्किम का भारत में विलय हो सकता था? क्या श्रीलंका की हिंसक बगावत काबू में की जा सकती थी? क्या खालिस्तान आंदोलन की कमर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर पर सैनिक हमला किए बिना तोड़ी जा सकती थी. फिरकापरस्त ताकतों और सांप्रदायिक हिंसा को समाप्त करने के लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया और देश की एकता व अखंडता की मजबूती के लिए अपना बलिदान दिया. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के एक निम्नमध्य श्रेणी के बंगाली परिवार में जन्मी ममता बनर्जी की ताकत और नेतृत्व क्षमता का सामना बड़ेबड़े राजनेता नहीं कर पा रहे हैं. बंगाल की शेरनी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी ने 9 वर्ष की उम्र में अपने पिता को खो दिया था.
बहुत कम उम्र में उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी उठाई. समाज के दबाव में वे कभी नहीं रहीं और परिवार से संबंधित, छोटे भाईबहनों से संबंधित और खुद से संबंधित सारे फैसले उन्होंने स्वयं लिए. कोलकाता में जोगमाया देवी कालेज से इतिहास में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद कोलकाता विश्वविद्यालय से इसलामी इतिहास में मास्टर की उपाधि उन्होंने प्राप्त की. ममता ने कोलकाता के श्री शिक्षायतन कालेज से शिक्षा में डिग्री और कोलकाता के जोगेश चंद्र चौधरी लौ कालेज से कानून की डिग्री हासिल की है. उन्होंने विवाह नहीं किया. राजनीति में उन का प्रवेश बहुत ही कम उम्र में हुआ था, जब वे स्कूल में ही थीं. वे राज्य की कांग्रेस (आई) पार्टी में शामिल हो गईं और पार्टी एवं अन्य राजनीतिक समूहों में अलगअलग पदों पर सेवा प्रदान की. उन्होंने बहुत तेजी से राजनीतिक सीढि़यां चढ़ीं. 1976 से 1980 तक वे महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं. 1997 में कांग्रेस से अलग हो कर ममता ने अपनी नई पार्टी अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस का गठन किया. 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में ममता रेल मंत्री बनीं. बाद में उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया.
बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुआई वाली वाम मोरचा सरकार द्वारा पश्चिम बंगाल में उद्योगों को किसानों की जमीन देने के लिए किसानों और कृषि विशेषज्ञों की जबरन भूमि अधिग्रहण के खिलाफ 20 अक्तूबर, 2005 को ममता ने सक्रिय रूप से विरोध प्रदर्शन किया. अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और एसयूसीआई के गठबंधन ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव 2011 में 227 सीटों पर जीत दर्ज की और 34 वर्ष से सत्ता पर काबिज वाम मोरचा सरकार को पटखनी दे कर 20 मई, 2011 को ममता बनर्जी बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. उस के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. आज अमित शाह बारबार कोलकाता का तख्ता पलटने की साजिशें करते नजर आ रहे हैं पर ममता के जबरदस्त नेतृत्व के आगे उन की दाल नहीं गल रही है.
सोनिया गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी का स्वनिर्मित व्यक्तित्व राजनीति की बिसात पर बड़ेबड़े धुरंधरों को धूल चटा चुका है. वे भले इंदिरा गांधी की बहू और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पत्नी थीं, लेकिन उस वक्त वे राजनीति से बहुत दूर अपने बच्चों को पालने में मशगूल थीं. फिर वक्त ने करवट ली. पहले सास और उस के बाद पति के बलिदान ने उन्हें ?ाक?ार कर रख दिया. पार्टी को डूबने से बचाने के लिए वे उठ खड़ी हुईं. उन्होंने राजनीति में कदम रखा तो लोगों को लगा कि पार्टी में मौजूद पुराने घाघ नेता उन्हें अपने हाथों की कठपुतली बना लेंगे, लेकिन अपने दिल की सुनने वाली और खुद फैसले लेने का साहस रखने वाली सोनिया गांधी ने एकएक नेता को ऐसा साधा कि सब उन के आगे नतमस्तक हो गए. विरोधियों ने उन की कमजोर हिंदी को मुद्दा बनाया, उन के विदेशी मूल को उछाला, उन पर परिवारवाद का आरोप जबतब लगाया.
यही नहीं, पार्टी के नेताओं ने उन पर हावी होने की भी कोशिश की, मगर दृढ़ निश्चयी सोनिया गांधी को उन के फैसलों से डिगा पाना कभी संभव नहीं हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन का कार्यकाल पार्टी के इतिहास में सब से लंबा कार्यकाल है. 2004 और 2009 में केंद्र में सरकार बनाने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई और आज भी वे कांग्रेस की बागडोर मजबूती से थामे हुए हैं. जियोर्जिया मेलोनी इटली में जियोर्जिया मेलोनी की जीत ने दुनियाभर के उदारवादियों की नींद उड़ा दी है. मुसोलिनी की प्रशंसक 45 वर्षीया मेलोनी समलैंगिक और ट्रांसजैंडर अधिकारों और गर्भपात के अधिकार पर लगातार सवाल उठाती रही हैं. वे परंपरागत पारिवारिक मूल्यों की वकालत करती हैं. ये तमाम बातें दुनियाभर के धुर दक्षिणपंथी नेताओं का भी एजेंडा हैं. हाल के समय में मेलोनी की पार्टी ब्रदर्स औफ इटली पार्टी की लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ है. हाल के मतदान में एकचौथाई मतदाताओं ने उन का समर्थन किया है.
मेलोनी 1992 में नव फासीवादी राजनीतिक दल इटालियन सोशल मूवमैंट की युवा शाखा, यूथ फ्रंट में शामिल हुई थीं. बाद में वे नैशनल अलायंस के छात्र आंदोलन, स्टूडैंट ऐक्शन की राष्ट्रीय नेता बनीं. 1998 से 2002 तक वे रोम प्रांत की काउंसलर रहीं, बाद में एएन की यूथ ऐक्शन की अध्यक्ष बनीं. 2008 में उन्हें बर्लुस्कोनी कैबिनेट में युवा मंत्री नियुक्त किया गया. वे इस पद पर साल 2011 तक काबिज रहीं. 2012 में उन्होंने ब्रदर्स औफ इटली नाम की पार्टी की स्थापना की और 2014 में इस की अध्यक्ष बन गईं. 2018 के इटली के आम चुनाव के बाद उन्होंने 18वीं संसद में विपक्षी नेता के तौर पर भूमिका अदा की. उन के भाषण और कार्य ने आम लोगों के मन में उन की पार्टी का विशेष स्थान बनाने में बड़ी भूमिका अदा की. प्रधानमंत्री ड्रैगी के कार्यकाल में ब्रदर्स औफ इटली एकमात्र विपक्षी पार्टी थी. यही कारण है कि 2022 के आम चुनाव में जियोर्जिया मेलोनी की ब्रदर्स औफ इटली पहले स्थान पर रही. जियोर्जिया मेलोनी को घोर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी इटैलियन राजनेता माना जाता है.
वे शुरू से ही गर्भपात, इच्छामृत्यु, सेम सैक्स मैरिज जैसी मांगों का विरोध करती रही हैं. जियोर्जिया को नाटो समर्थक नेता माना जाता है. हालांकि वे यूक्रेन पर आक्रमण से पहले रूस के साथ अच्छे संबंधों के पक्ष में भी थीं लेकिन चुनावप्रचार के दौरान उन्होंने खुल कर यूक्रेन का समर्थन किया और उसे हथियार भेजने की बात भी कही. जेसिन्डा अर्डन न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिन्डा अर्डन ने अपने नेतृत्व कौशल से वैश्विक स्तर पर लोकप्रियता हासिल कर पितृसत्ता को चुनौती दे कर यह सिद्ध किया है कि महिलाएं कुशल नेतृत्व करने में सक्षम हैं. ब्रिटेन, जरमनी, अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में भी महिलाएं पुरुषसत्ता को चुनौती देती दिख रही हैं. दुनियाभर में युवा महिलाएं जिस मुखरता से चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो रही हैं, उस से पुरुषसत्ता की जड़ें हिलने तो लगी हैं मगर उस की आवृत्ति अभी कम है क्योंकि अधिकांश महिलाओं के पीछे पुरुष खड़े हैं जो उन्हें अपनी मरजी के मुताबिक काम करने से रोकने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. आज भले भारत में चुनिंदा संसद में महिला मंत्रियों, सांसदों, विधानसभा में महिला विधायकों को देख कर यह अंदाजा लगाया जा रहा हो कि देश में महिलाओं का सशक्तीकरण हो चुका है लेकिन महिलाओं की इतनी बड़ी आबादी के मुकाबले में आज भी महिलाओं का राजनीति में नेतृत्व और भागीदारी में मामूली योगदान है. बात भारत की राजनीतिक परिदृश्य की करें तो साल 1963 से देश में केवल 16 महिलाएं मुख्यमंत्री बनीं. देश आज तक केवल एक महिला प्रधानमंत्री के शासन में रहा.
महिलाओं को राजनीति में सफल रूप से भागीदारी न करने देने का कारण धार्मिक कट्टरता और सामाजिक सोच है. भारतीय राजनीति की बागडोर हमेशा से पुरुषों के हाथों में रही है. भारत का इतिहास इस बात का भी गवाह है कि आज तक महिलाओं की राजनीति में भूमिका को ले कर उन्हें राजनीतिक दलों से बहुत कम सहयोग मिला है. राजनीतिक दल महिला भागीदारी को सुनिश्चित करने के प्रश्न पर मौन हैं क्योंकि इस से पुरुष राजनीतिज्ञ को अपने विशेषाधिकारों के कम या समाप्त हो जाने का भय होता है. यही कारण है कि वे महिला आरक्षण बिल को ले कर भी उत्साह नही दिखाते, जो 1994 से प्रस्तावित है. पुरुषसत्तात्मक समाज में अधिकांश पुरुषों को खुद से कामयाब महिलाएं खटकती हैं. खासतौर पर तब जब राजनीतिक दुनिया में सदियों से पुरुषों का ही दबदबा रहा है. ऐसे में आगे निकलती महिलाओं को नीचा दिखाना, उन के कपड़े, बोलचाल का अंदाज, शिक्षा, बच्चों की संख्या, उन के निजी जीवन जीने के ढंग पर सवाल खड़ा करना और उन के चरित्र पर लांछन लगाना सब से आसान तरीका है. इन आक्षेपों से महिलाएं विचलित हो जाती हैं, उन का मनोबल डगमगा जाता है और वे समाज के बनाए दायरों में सिमट जाती हैं. लेकिन जिन महिलाओं ने पुरुषों की इस चाल को सम?ा लिया वे उन के प्रभाव से निकलने में भी कामयाब रहीं और उन्होंने अपनी क्षमताओं का लोहा भी मनवाया.
आज के दौर की महिलाएं पुरुष के समकक्ष ही नहीं, बल्कि कई क्षेत्रों में तो वे पुरुष के वर्चस्व को चुनौती भी दे रही हैं. अपनी मेहनत और काबीलियत के बल पर उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई है. लेकिन पितृसत्तात्मक समाज ने आज भी उन्हें अपने से कमतर आंकना नहीं छोड़ा है. पुरुष प्रधान समाज, जो महिलाओं का दमनशोषण करना अपना शौक सम?ाता रहा है, इस बात को सहन नहीं कर पा रहा है कि दबीकुचली महिलाएं अपने अधिकारों के लिए बोलने लगी हैं, आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं हैं, अपने कार्यकौशल और काबीलियत से उन से ऊपर ओहदे पर काम कर रही हैं आदिआदि. ऐसे में अपनी स्थिति को सुधारने के लिए यह जरूरी है कि महिलाएं पुरुष वर्चस्व को ही नकार दें और उसे चुनौती दें. पितृसत्तात्मक समाज की सोच को बदलने के लिए खुद महिलाओं को मेहनत करनी होगी, बंधन तोड़ कर आगे आना होगा, लड़ना होगा, घर में भी, समाज में भी और राजनीति में भी. तभी एक स्वतंत्र इकाई के रूप में वे अपने को स्थापित कर पाएंगी. ऊपर से ले कर निचले तबके तक मांओं को अपनी बेटियों का उत्साहवर्धन करना होगा. उन की नेतृत्व शक्ति को जगाना होगा.
उन में यह आत्मविश्वास भरना होगा कि उन में अपने घर, समाज, संगठन या देश का नेतृत्व करने की ताकत है. हर सास को चाहिए कि वह बहू के साथ गृहयुद्ध में न लगी रहे, घरेलू हायहाय किचकिच में महिलाशक्ति को क्षीण न करे बल्कि बहू के हाथ में पावर दे, उसे उत्साहित करे कि घर के फैसलों में वह अपनी राय पूरी ताकत से रखे. ?सास अगर बहू की राय का समर्थन करेगी तो घर के किसी पुरुष की हिम्मत न होगी उस के फैसले को पलटने की. सरकार महिला सशक्तीकरण का चाहे कितना ही ढोल पीटे, महिला सशक्तीकरण तब तक संभव नहीं होगा जब तक मां अपनी बेटी को और सास अपनी बहू को सशक्त बनाने में उन की मदद न करेंगी.