जड़ समाज और सक्रिय समाज में अंतर जरा सा ही होता है. ऊपर से देखने पर तो पता भी नहीं चलता. जड़ समाज में न नया सोचने की इजाजत होती है, न नया करने की. लेकिन जड़ समाज सदियों से जो भी नई तकनीक आती है उसे अपना ही लेता है. पर इसे विकास नहीं कहा जा सकता क्योंकि तकनीक उन इलाकों से आती हैं जहां विविधता को बढ़ावा मिलता है.

हमारा समाज एक बार फिर जड़ता की ओर बढ़ रहा है. पहले सैकड़ों देवीमां, देवताओं को पुजवाने वाले चतुर बिचौलियों ने अब देश के झंडे, राष्ट्रभक्ति, भारतमाता और वंदेमातरम को पूज्य आइकनों की तरह पेश कर दिया है और उन को सरदार पटेल, शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसों से जोड़ दिया है. उद्देश्य यह है कि साबित किया जा सके कि जो उन का युग था वही आदर्श था. हां, इस का एक बड़ा कारण इसलामी कट्टरपन का बढ़ना है. पश्चिमी एशिया के देशों में जिस तरह तेल के पैसों के कारण इसलाम ने अपनी कट्टरता और पुरानी सोच बनाए रख कर दुनियाभर में अपने भक्तों को न केवल सोच में पुरातनवादी होने का जो आदेश दिया है, पहरावे व दिखने में भी उन को धर्म का पट्टा माथे पर लगा कर चलने का जो आदेश दिया है, उस से उदार होते समाज भी डर गए हैं.

यही नहीं, इसलामी कट्टरपंथी ही आज के आतंकवादी हैं. उन के आतंक के आगे जापान की रैड आर्मी या दक्षिणी अमेरिका के चे ग्वेरा के समर्थक फीके पड़ गए हैं. श्रीलंका के तमिल उग्रवादियों व पंजाब के खालिस्तानी बंदूकधारियों ने इतना कहर नहीं मचाया है जितना इसलामी कट्टरवादियों ने मचाया है. और इसी ने, दूसरे धर्मों के दुकानदारों को सुनहरा मौका दे दिया है कि वे अपने समर्थकों को बरगला सकें. दुनियाभर में ईसाई, हिंदू, यहूदी व अन्य धर्मों वाले अब और ज्यादा मुखर होने लगे हैं और उन के देशों में अब खुली सोच, विचारों की अभिव्यक्ति, बहुरंगीन समाज खतरे में हैं. हर देश में हम ही हम का नारा लगने लगा है. सभी देशों में हिटलरवादी तत्त्व सिर उठाने लगे हैं.

जो प्रगति समाज ने पिछले 200 सालों में की है उसे अब दफनाया जा रहा है. लेखक, पत्रकार विचारक सिर्फ चाटुकार और भांड़ बन कर रह गए हैं. जिन का काम शासक की तारीफों के पुल बनाने का ही रहता जा रहा है. नतीजा क्या हो सकता है, यह जानना है तो क्यूबा चले जाइए जहां कम्युनिस्ट शासक फिदेल कास्त्रो ने देश को50 साल पहले का अजायबघर बना कर रखा है. अमेरिका का पड़ोसी क्यूबा बेहद गरीब देश है. टूटे मकान, पुरानी गाडि़यां, फटेहाल लोग, अस्पतालों में दवाएं नहीं, शिक्षा बेकार लेकिन शासक के नाम पर सिर्फ वाहवाही और वाहवाही.

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