‘‘दीप्ति…’’ पीछे से किसी को अपना नाम पुकारते सुन बुरी तरह चौंकी दीप्ति. उस ने पलट कर देखा तो सामने खड़ा युवक जानापहचाना सा लगा.
‘‘जी…’’ दीप्ति सवालिया भाव लिए बोली.
‘‘अरे दीप्ति, मैं… मुझे नहीं पहचाना,’’ सामने खड़े युवक ने हैरानपरेशान हो कर कहा, पर लाख चाहने पर भी दीप्ति को उस का नाम याद नहीं आ रहा था.
‘‘माफ कीजिए, मैं ने आप को पहचाना नहीं,’’ दीप्ति किसी तरह कह पाई.
‘‘क्या कह रही हो दीप्ति, मुझे नहीं पहचाना? अपने सोमेंद्र को. भई, हद हो गई,’’ सोमेंद्र अपने चिरपरिचित अंदाज में बोला.
‘‘ओह सोमेंद्र,’’ कहते ही दीप्ति के मनमस्तिष्क में पुरानी यादों की आंधी सी उठने लगी.
सोमेंद्र उसे इस तरह राह चलते मिल जाएगा, यह तो उस ने कभी सोचा ही नहीं था. दुनिया गोल है, यह तो वह जानती थी, पर इतनी छोटी है, इस का उसे भान नहीं था.
सोमेंद्र… यानी कि उस का प्रेमी, नहीं, प्रेमी कहना ठीक नहीं होगा, केवल मित्रता थी उस से. ठीक है, मित्र ही सही, पर कई वर्षों बाद यदि मित्र भी मिले तो उस से कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं लोग, दीप्ति सोच रही थी. उस का मन तो न जाने क्यों जड़ हो गया था. मानो उमंगों और आकांक्षाओं का कोई मतलब ही न हो.
‘‘दीप्ति, कहां खो गई तुम,’’ सोमेंद्र पुन: बोला.
‘‘कहीं नहीं, कुछ पुरानी यादों में खो गई थी.’’
‘‘लो… और सुनो. मैं साक्षात तुम्हारे सामने खड़ा हूं और तुम हो कि पुरानी यादों में खोई हुई हो,’’ कहते हुए सोमेंद्र ने जोर से ठहाका लगाया.
‘‘चलो न, मेरे घर चलो, यहां पास ही है,’’ सोमेंद्र ने आग्रह करते हुए कहा.
‘‘नहीं, आज नहीं, जरा जल्दी में हूं, फिर किसी दिन आऊंगी.’’
‘‘ठीक है, घर तो देख लो, नहीं तो आओगी कैसे?’’
‘‘नहीं, आज नहीं, कृपया आज मुझे जाने दो,’’ दीप्ति बोली. वह घबरा गई थी.
‘‘क्या हुआ दीप्ति? तुम तो ऐसे घबरा रही हो, जैसे मैं तुम्हें जबरदस्ती उठा कर ले जाऊंगा. मैं ने तो सोचा था कि इतने दिनों बाद मुझ से मिल कर तुम फूली नहीं समाओगी, पर तुम्हें देख कर तो ऐसा नहीं लगता,’’ सोमेंद्र नाराजगी सी जाहिर करते हुए बोला.
‘‘मैं जरा जल्दी में हूं. फिर भी तुम जोर दे रहे हो तो चलती हूं, पर केवल 5 मिनट के लिए.’’
इतना सुनते ही सोमेंद्र अपना स्कूटर ले आया. स्कूटर पर बैठते ही दीप्ति की विचारधारा पंख लगा कर उड़ चली. पता नहीं, सोमेंद्र क्या सोच रहा है. क्या वह पुन: विवाह का प्रस्ताव रखेगा? क्यों उसे वह अपने घर ले जाने की हठ कर रहा है? जैसे अनेक विचार उस के मनमस्तिष्क में कौंधने लगे.
‘‘आजकल क्या कर रही हो दीप्ति?’’ स्कूटर से उतरते ही सोमेंद्र ने पूछा.
‘‘अभी तो पढ़ ही रही हूं. पिछले साल ही एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की है.’’
‘‘बहुत खुश हो तुम. तुम तो सदा से चिकित्सक ही बनना चाहती थीं. तुम्हारी आकांक्षा पूरी हो गई. अब आगे क्या करने का इरादा है?’’
‘‘आगे… अगर कहीं दाखिला मिल गया, तो आगे भी पढ़ाई का ही इरादा है.’’
‘‘तुम्हें भला दाखिला क्यों नहीं मिलेगा? मेहनती और मेधावी जो हो. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.’’
न जाने क्यों दीप्ति को लगा, जैसे सोमेंद्र का स्वर बोझिल हो उठा था.
दीप्ति ने एक बार फिर सोमेंद्र पर गहरी नजर डाली. उसे लगा, यह वह सोमेंद्र नहीं है, जिसे देख कर उस के दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं, जिस की एक झलक पाने की होड़ लग जाती थी उस की सहेलियों में.
‘‘वह देखो, सामने की तीनमंजिला इमारत के बीच वाली मंजिल में मेरी छोटी सी कुटिया है,’’ स्कूटर रोकते ही सोमेंद्र ने इशारा करते हुए कहा.
‘‘ठीक है, अब मैं चलूं, जरा जल्दी में हूं. प्रवेश परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूं.’’
‘‘यहां तक आ कर अंदर नहीं चलोगी क्या…? कम से कम मेरी पत्नी से तो मिल लो, उस से मिल कर तुम्हें सुखद आश्चर्य होगा.’’
‘‘क्या कह रहे हो? मुझे तो यह जान कर ही सुखद आश्चर्य हुआ है कि तुम्हारा विवाह हो गया है. मगर, फिर भी जब यहां तक आ ही गई हूं, तो तुम्हारी पत्नी से मिल कर ही जाऊंगी.’’
‘‘हां, क्यों नहीं, उसे भी तुम से मिल कर बहुत खुशी होगी,’’ कहता हुआ सोमेंद्र दीप्ति को अपने घर ले गया.
‘‘अरे, मीताली तुम. यहां क्या कर रही हो?’’ सोमेंद्र के घर बचपन की सब से प्यारी सहेली को देख कर दीप्ति ने चौंक कर पूछा.
‘‘दीप्ति, मीताली मेरी पत्नी है,’’ सोमेंद्र ने भेद भरे स्वर में बताया.
‘‘क्या कह रहे हो तुम? इतनी जल्दी तुम ने और मीताली ने विवाह कर लिया. मुझे तो विश्वास ही नहीं होता,’’ दीप्ति अपनी ही रौ में बहे जा रही थी.
‘‘हमारे विवाह को तो 4 साल हो गए दीप्ति,” मीताली बोली, तो दीप्ति का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया.
‘‘अभी तो तुम ने पहली ही हैरानगी देखी है, दूसरी नहीं देखोगी,’’ मीताली बोली.
‘‘वह भी दिखा ही दो,’’ कहते हुए दीप्ति मुसकराई.
तभी सोमेंद्र लगभग 1 साल की बच्ची को गोद में लिए वहां आ खड़ा हुआ.
‘‘लो, इस से मिलो, यह है हमारी बिटिया वत्सला,’’ सोमेंद्र बोला.
‘‘और कोई झटका देना हो, तो वह भी दे ही डालो,’’ दीप्ति वत्सला को गोद में लेती हुई बोली.
‘‘दीप्ति, आज तुम से मिल कर ऐसा लग रहा है, जैसे कोई अपना मिल गया हो. पिछले 4 वर्षों में मैं ने अपने मातापिता और भाईबहनों का मुंह तक नहीं देखा है. वे लोग मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहते.’’
‘‘पर, क्यों?’’
‘‘हम दोनों ने मातापिता की अनुमति के बिना कोर्ट में विवाह कर लिया था.
‘‘2 साल तो हम ने बहुत ही परेशानियों में गुजारे. हम दोनों में से कोई भी स्नातक नहीं था. नौकरी मिलती नहीं थी. मातापिता ने संबंध तोड़ लिए थे. तरस खा कर सोमेंद्र के बड़े भाईसाहब ने हमारी थोड़ीबहुत सहायता की. अब यहां उन्हीं के रेस्तरां में काम करते हैं. मुझे भी अब पास के नर्सरी स्कूल में काम मिल गया है.’’
‘‘कितनी अच्छी विद्यार्थी थीं तुम मीताली, और सोमेंद्र तुम, तुम तो चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति लाना चाहते थे. क्यों अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली तुम दोनों ने?’’ दीप्ति दुखी स्वर में बोली.
‘‘छोड़ो भी, सब नियति का खेल है. जो होना था हो गया, अब पछताने से क्या फायदा. चलो, चाय पियो,” सोमेंद्र ने वातावरण का तनाव कम करने का प्रयास करते हुए कहा.
‘‘चलो, तुम्हें छोड़ आता हूं, दीप्ति,’’ सोमेंद्र चाय पीते ही खड़ा हो कर बोला.
‘‘फिर आना दीप्ति, तुम से मिल कर बहुत अपना सा लगा,’’ कहते हुए मीताली की आंखें डबडबा आई थीं.
लौटते समय दोनों के बीच मौन पसरा हुआ था. बीच में राह पूछते समय ही इस मौन में व्यवधान आता था. दीप्ति का मन तो दूर कहीं अतीत में चला गया था, जब दीप्ति, मीताली और सोमेंद्र साथसाथ पढ़ते थे.
‘पापा, डा. अंबेडकर की मूर्ति वाले चौराहे पर 2 मिनट के लिए गाड़ी रोक दीजिएगा,’ उस दिन दीप्ति ने अपने पापा से कहा था.
‘ऐसा क्या काम है?’ पापा बोले थे.
‘सोमेंद्र मेरी किताबें ले गया है. 2 सप्ताह होने को आए हैं, न नोट्स लौटाए हैं और न ही मुझे सूचित किया है उस ने. मुझे भी तो पढ़ाई पूरी करनी है. प्रतियोगिता परीक्षा में केवल 2 माह ही शेष हैं,’ दीप्ति क्रोधित स्वर में बोली थी.
‘गली में तो घुप्प अंधेरा है. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं,’ कार से उतरते हुए पापा बोले थे.
दरवाजे की घंटी बजते ही सोमेंद्र की मम्मी ने दरवाजा खोला था.
‘दीप्ति… आओ बेटी, आज तो बहुत दिनों बाद दिखाई दी. तुम तो बिलकुल ईद का चांद हो गई हो,’ सोमेंद्र की मम्मी ने चहकते हुए कहा था.
‘आज भी मैं अपनी किताबें लेने आई हूं. आजकल मैं वार्षिक परीक्षा और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूं. सोमेंद्र को बुला दीजिए, मुझे देर हो रही है.’
‘सोमेंद्र तो आज मुंहअंधेरे ही निकल गया था. सुबह विशेष कक्षा होती है न. मैं ने तो सोचा था कि तुम्हारे ही घर गया होगा.’
‘मेरे यहां तो कई सप्ताह से नहीं आया वह, पर मेरी किताबें तो लौटा देनी चाहिए थीं उसे,’nदीप्ति नाराजगी जताती हुई बोली थी.
‘आओ दीदी, देखो तो दीप्ति आई है,’ मम्मी ने सोमेंद्र की बूआ को पुकारा. वह तुरंत आ खड़ी हो दीप्ति को गौर से देखने लगी थीं.
‘लड़की तो बहुत ही सुंदर है, पर अपना सोमेंद्र भी कौन सा कम है. हजारों में एक है. दोनों की जोड़ी खूब जंचेगी,’ बूआजी बोली थीं.
‘जोड़ी…? कैसी जोड़ी? देखिए, हम दोनों मात्र मित्र हैं. आप अपने मन में ये उलटेसीधे विचार मत लाइए,’ दीप्ति तल्खी से बोली. अपने पापा के सामने उन का ऐसा वार्तालाप सुन कर वह बौखला गई थी.
‘हम भी तो मित्र ही कह रहे हैं, हम ने कब कहा कि तुम दोनों एकदूसरे के शत्रु हो?’ कह कर दोनों ननदभौजाई हंस पड़ी थीं.
‘आप लोग तो कुछ समझती ही नहीं हैं न. सोमेंद्र मेरी किताबें लाया था. मुझे उन की सख्त जरूरत है. यदि वे उस के कमरे में रखी हों तो दे दें और ये जोड़ी आदि मिलाने की बात न ही करें तो अच्छा है. शायद आप लोग मित्रता का अर्थ ही नहीं समझतीं,’ दीप्ति ने झुंझला कर कहा था.
‘हमें नहीं मालूम कहां हैं तुम्हारी किताबें?’ सोमेंद्र की मम्मी रूखे स्वर में बोली थीं, ‘अरे, माना कि अमीर बाप की एकलौती बेटी हो, पढ़ने में तेज हो, पर हमारा सोमेंद्र भी कम नहीं है. हर क्षेत्र में तुम से बीस ही पड़ेगा, उन्नीस नहीं. लड़कियों को इतना दिमाग शोभा नहीं देता. गृहस्थी में खपना कठिन हो जाता है,’ वे अपनी ही रौ में बहे जा रही थीं.
उधर अपने पिता का तमतमाया चेहरा देखने का दीप्ति का साहस नहीं हो रहा था. हार कर उस ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और पापा के साथ कार में जा बैठी थी.
‘ऐसे हैं तुम्हारे मित्र और उन के परिवार वाले. अच्छा हुआ, आज सब अपनी आंखों से देख लिया. जोड़ी तो मिल गई, अब खुशखबरी कब सुना रही हो?’ पापा कार में बैठते ही क्रोध से फट पड़े थे.
‘पापा, आप मुझे ही दोषी समझ रहे हैं.’
‘और, और किसे समझूं? तुम ने बढ़ावा नहीं दिया होता तो उन लोगों का साहस कैसे हो जाता ऐसी बातें करने का? यहां हम आस लगाए बैठे हैं कि तुम मेहनत करोगी, परिवार का नाम ऊंचा करोगी और उधर जोड़ी मिलाई जा रही है.’
उस के बाद तो उन पर मानो दीप्ति की सुरक्षा का भूत सवार हो गया था. न उसे अकेले कालेज जाने देते, न ही कहीं और. उसी वर्ष उसे मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था तो वह शहर छोड़ कर वहीं रहने चली गई थी. फिर उस के पापा का वहां से स्थानांतरण हो गया था और वह शहर सदा के लिए छूट गया था.
आज अचानक सोमेंद्र और मीताली के संबंध में जान कर उस का दिल कांप कर रह गया था. आज पहली बार उस के मन में विचार आया था कि उस के पिता ने उसे दुनिया की नजरों से अभेद्य सुरक्षा न दी होती तो शायद आज मीताली के स्थान पर वह होती. वह घुटन, जो आज उस ने मीनाली के चेहरे पर देखी थी, शायद आज उस के चेहरे पर होती.
‘‘नहींनहीं, स्कूटर रोको,’’ अचानक दीप्ति बोली.
‘‘क्या हुआ, तुम्हारी मंजिल आ गई क्या?’’
‘‘यों ही समझ लो,’’ कहते हुए दीप्ति मुसकराई.
‘अपनी मंजिल तक अकेले पहुंचने का साहस है मुझ में और मनपसंद साथी की प्रतीक्षा करने का धीरज भी,’ सोचते हुए दीप्ति सधे कदम रख अपनी राह बढ़ गई.