मां बनना हर महिला के जीवन के अनमोल क्षणों में आता है. जब वह गर्भधारण करती है तब उस के शरीर में परिवर्तन होते हैं, जिन्हें समझना हर महिला के लिए बहुत मुश्किल होता है. ऐसे में गर्भावस्था को सुरक्षित और आसान बनाए रखने के लिए गर्भावस्था में कुछ टैस्ट करवाने जरूरी हो जाते हैं. क्या हैं ये टैस्ट और कितने जरूरी हैं कराने, यह बता रही हैं डब्ल्यू हौस्पिटल की मैडिकल डाइरैक्टर रागिनी अग्रवाल:
गर्भावस्था टैस्ट क्यों जरूरी:
गर्भधारण करने के बाद महिला के शरीर में एचसीजी हारमोन का स्राव होता है. घर पर प्रैगनैंसी टैस्ट पौजिटिव आने के बाद भी अपनी प्रैगनैंसी सुनिश्चित करने के लिए डाक्टर के पास जांच के लिए जरूर जाएं. इस से यह भी पता लगेगा कि आप का शरीर शिशु को जन्म देने के लिए तैयार है या नहीं अथवा और कोई समस्या तो नहीं है.
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डाक्टर की सलाह पर कराएं टैस्ट:
गर्भावस्था के सभी टैस्ट डाक्टर की सलाह पर ही कराएं, क्योंकि इन से किसी भी तरह के इनफैक्शन इत्यादि से बचा जा सकता है. गर्भावस्था के दौरान कई तरह की जांचें की जाती हैं. शुरुआत के 3 महीने काफी अहम होते हैं. कोई परेशानी होने पर 15 दिनों में जांच की जाती है. इस दौरान मां के शरीर में काफी बदलाव होते हैं. मां का शरीर इन बदलाव और भ्रूण के साथ ऐडजस्ट कर रहा होता है. फिर भी हीमोग्लोबिन, कैल्सियम, ब्लड शुगर, यूरिन और एचआईवी टैस्ट जरूर कराएं. ये हर 3 महीने में कराए जाते हैं. इस के अलावा कोई परेशानी न हो तो अल्ट्रासाउंड 3 बार कराया जाता है.
दूसरे महीने में शिशु की धड़कन जानने के लिए, चौथे महीने में शिशु का विकास देखने के लिए और आखिरी महीने में शिशु की स्थिति देख कर डिलिवरी प्लान करने के लिए अगर डाक्टर को जरूरी लगता है, तो बीच में भी अल्ट्रासाउंड करा सकता है. 6 से 8 हफ्ते में एक टैस्ट भू्रण यूटरिन में है या नहीं यह जांचने के लिए किया जाता है.
यूरिन की जांच से इनफैक्शन का पता चलता है. ब्लड की जांच में मां का ब्लड ग्रुप कौन सा है. अगर नैगेटिव है तो पति का भी चैक कराना है और यह भी टैस्ट कराना है कि आप एचआर नैगेटिव तो नहीं हैं.
हैपेटाइटिस और हीमोग्लोबिन की भी जांच की जाती है. हीमोग्लोबिन की जांच 3-4 बार करानी आवश्यक होती है. 7वें महीने में शुगर की जांच होती है. इस में 75 ग्राम ग्लूकोज दे कर शुगर की जांच की जाती है.
स्वस्थ गर्भावस्था की योजना कैसी हो
डा. एससीआई हैल्थकेयर की निदेशक, स्त्रीरोग विशेषज्ञा व आईवीएफ विशेषज्ञा शिवानी सचदेव गौड़ के अनुसार, प्रसूति विशेषज्ञों द्वारा प्रसवपूर्व देखभाल के दौरान समयसमय पर सभी प्रकार की जांचों के लिए उचित समय के बारे में दिशानिर्देश दिए जाते हैं. इन जांचों में कंप्लीट ब्लड काउंट, जिस में हीमोग्लोबिन, रैड ब्लड सैल्स काउंट, व्हाइट ब्लड सैल्स काउंट व प्लेटलेट काउंट किए जाते हैं.
पतिपत्नी दोनों के ब्लड ग्रुप व आरएच टाइपिंग दर्ज किए जाते हैं. गैस्टेशनल डायबिटीज (गर्भाविधि मधुमेह) का पता लगाने के लिए ग्लूकोज टौलरैंस (ओजीटीटी) किया जाता है. इस में भूखे पेट 75 ग्राम ग्लूकोज के सेवन के बाद ब्लड शुगर की जांच की जाती है. थायराड संबंधी समस्याओं से बचाव के लिए थायराइड प्रोफाइल किया जाता है.
संक्रमण से बचाव
मां के संक्रमण से बचाव के लिए कुछ खास जांचें की जाती हैं. इन में सीफिलिस, हैपेटाइटिस बी, ह्यूमन इम्यूनोडैफिशिएंसी वायरस (एचआईवी) एवं टौर्च शामिल है. टार्च कुछ विशेष जांचों का समूह है, जिस में टौक्सोप्लाज्मा, रुबेला, साइटोमेगालो वायरस एवं हर्प्सेसिंपलैक्स के खिलाफ रोग प्रतिरोधक क्षमता का पता लगाया जाता है.
– थैलेसीमिया, जो एक दुर्लभ रक्त विकारों का समूह है, की संभावना से इनकार के लिए हीमोग्लोबिन इलैक्ट्रोफोरेसिस किया जाता है.
– यूरिन इनफैक्शन तथा यूरिन में शुगर व प्रोटीन की उपस्थिति का पता लगाने के लिए यूरिन ऐग्जामिनेशन किया जाता है.
– गर्भावस्था के दौरान अल्ट्रासाउंड स्कैन, जिस में डेटिंग स्कैन लैवल-1, स्कैन लैवल-2, स्कैन एवं कलर डौप्लर शामिल हैं, किए जाते हैं.
अल्ट्रासोनोग्राफी जांच
गर्भावस्था टैस्ट में एक और महत्त्वपूर्ण जांच अल्ट्रा सोनोग्राफी है, जिस में होने वाले शिशु के विकास, शारीरिक हलचल, आकार आदि के साथ ही गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा इत्यादि के बारे में भी जांच की जा सकती है. अल्ट्रा सोनोग्राफी डाक्टर की सलाह अनुसार समयसमय पर करानी चाहिए और 9 महीने के दौरान कम से कम 3-4 बार जरूर करानी चाहिए.
पहली सोनोग्राफी जांच:
पहली सोनोग्राफी जांच डेढ़-2 महीने की गर्भावस्था में की जाती है. इस से भ्रूण की स्थिति के सही निदान के साथ ही प्रसव की सही तारीख भी तय की जा सकती है.
इस के बाद चौथे महीने में सोनोग्राफी करवा कर गर्भस्थ भू्रण के अंदर कोई जन्मजात गड़बड़ी जैसे सिर, हृदय, रीढ़, पेट में गड़बड़ी हो तो उस का पता कर लिया जाता है.
7-8 महीने की सोनोग्राफी जांच:
इस महीने गर्भनाल की स्थिति, शिशु का वजन, बच्चेदानी के अंदर का पानी आदि की जांच होती है. जरूरत पड़ने पर 7वें महीने के बाद एक से अधिक सोनोग्राफी जांचें हो सकती हैं.
कलर डौप्लर सोनोग्राफी टैस्ट:
यदि शिशु में विकास की दर कम हो तो इस में शिशु की धमनियों में रक्तप्रवाह कैसा है, उसे जांचा जाता है और आने वाले खतरों की चेतावनी मिलती है.
गर्भावस्था पोषण:
गर्भावस्था के दौरान सही जीवनशैली व पोषक तत्त्वों का चयन उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना सही दवा व खुराक लेना. सही पोषण, पर्याप्त आराम, व्यायाम सभी गर्भावस्थ के महत्त्वपूर्ण अंग हैं.
जिस समय शिशु मां के गर्भ में होता है, तो वह अपनी मां के रक्त से लगभग 500 ग्राम प्रोटीन, 14 ग्राम फास्फोरस, 24 ग्राम कैल्सियम और 4 ग्राम लौह तत्त्व ग्रहण करता है. इन सारे तत्त्वों से मिल कर शिशु का विकास होता है. गर्भ में भू्रण का विकास गर्भावस्था के आखिरी 3 महीनों में होता है. 7-8वें और 9वें महीने में भ्रूण पूरी तरह शिशु में बदल चुका होता है. इसलिए इन दिनों में पौष्टिक आहार भरपूर मात्रा में होना चाहिए, जिस में खासकर फोलिक ऐसिड, आयरन की पर्याप्त मात्रा समेत सभी जरूरी विटामिन व खनिज शामिल हों. भोजन में हरी सब्जियां, गाजर, दही, सलाद एवं फल खासकर सेब मौजूद होना चाहिए यानी इन दिनों आप के भोजन में ये चीजें जरूर शामिल होनी चाहिए:
– सब्जियां और फल जो विटामिन, खनिज व फाइबर प्रदान करते हैं.
– दूध एवं दूध से बने उत्पाद, कैल्सियम, प्रोटीन व विटामिन बी-12 प्रदान करते हैं.
– दाल, अन्न व साबूत अनाज खासकर शाकाहारियों के मामले में प्रोटीन के स्रोत हैं.
– मांस, मछली और पौल्ट्री उत्पाद प्रोटीन प्रदान करते हैं. मछली के चयन में सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि कुछ खास किस्म की मछलियों में पारे की उच्च मात्रा होती है, जिस का सेवन नहीं करना चाहिए.
– वसा एवं तेल:
ज्यादातर वैजिटेबल औयल लेने की कोशिश करें, क्योंकि उन में अधिक संतृप्त वसा वाले घी व मक्खन की तुलना में ज्यादा असंतृप्त वसा होती है.
सावधानियां
गर्भवती महिलाओं को कुछ खास सावधानियां बरतने की जरूरत होती है:
– प्रीजर्वेटिव खाद्य सामग्री से बचना चाहिए, क्योंकि इस में डाला जाने वाला प्रीजर्वेटिव हानिकारक सिद्ध हो सकता है.
– हवाई यात्रा करने से पहले स्त्रीरोग विशेषज्ञ से सलाह लेनी चाहिए. पैरों में खून के थक्कों से बचने के लिए उड़ान के दौरान पर्याप्त मात्रा
में पानी पीना चाहिए और नियमित तौर पर टहलना चाहिए.
– पालतू जानवर के मलमूत्र (कुत्तेबिल्ली) आदि को नंगे हाथों छूने से बचना चाहिए.
– सुबह की कमजोरी, अपच और गैस से बचने के लिए थोड़ेथोड़े अंतराल पर कम मात्रा में कुछकुछ खाने की जरूरत होती है.
प्रीनेटल वर्कशौप
आजकल प्रीनेटल वर्कशौप और प्रोग्राम काफी चलन में हैं. साइंटिफिक तरीके से डिजाइन किए गए इन प्रोग्राम्स में औडियोविजुअल और स्टडी मैटीरियल के जरीए पेरैंट्स को आने वाले शिशु के लिए जानकारी दी जाती है. उन्हें शारीरिक और भावनात्मक रूप से तैयार किया जाता है. उन्हें डिलिवरी का वीडियो दिखाया जाता है. शिशु का खयाल रखने और उस के सामान के बारे में बताया जाता है. पेरैंट्स प्रैगनैंसी से पहले, प्रैगनैंसी के दौरान और डिलिवरी के बाद भी यह वर्कशौप अटैंड कर सकते हैं. ये प्रोग्राम शिशु के फिजिकल, इमोशनल, सोशल और स्प्रिचुअल डैवलपमैंट में मदद करते हैं. आमतौर पर प्रीनेटल कोर्सों में लगभग 10-15 क्लासें होती हैं और फीस लगभग 8 से 15 हजार तक होती है.