मुख्य न्यायाधीश ने कहा है कि उन्हें ठीक से न्यायसंगत निर्णय लेने में मीडिया ट्रायलों से तकलीफ होने लगी है क्योंकि मीडिया पहले से ही फैसले सुना देती है कि कौन कितना अपराधी है. सनसनी फैलाने में इलैक्ट्रौनिक टीवी चैनल और सोशल मीडिया आगे हैं जबकि प्रिंट मीडिया व समाचारपत्र काफी संयत हैं. आमतौर पर जज चाहते हैं कि जब फैसला उन के हाथों में हो, तो उन को समाचारपत्रों, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर प्रचारित की जा रही बातों को सुनना न पड़े ताकि वे उस तरह के तर्कों से प्रभावित न हों.

मीडिया से ज्यादा न्यायपूर्ण निर्णय देने में जो बात आज आड़े रही है और जिस का जिक्र मुख्य न्यायाशीश ने नहीं किया वह है सरकार व सत्ताधारी पार्टी के बयान जो पहले तो मतलब के मामले उछालते हैं और फिर उन्हें बुरी तरह ले उड़ते हैं. 2012-13 के दौरान भाजपाई सोच वाले कंपट्रोलर जनरल औफ इंडिया (लेखा विभाग के महानिरीक्षक) विनोद राय ने मीडिया की बात व निराधार तथ्यों के आधार पर कोयला खानों के ठेकों और टैलीकौम स्कैमों पर लाखोंकरोड़ों के घपलों की रिपोर्टें जारी कर दी थीं.

उन के तर्क लचर थे. कांग्रेस सरकार को दबाव में झुकना पड़ा. जजों ने सरकारी मोहर लगे झूठ के कारण कितनों को जेलों में भेज दिया. आज 15 साल बाद विनोद राय अपनी गलती मान रहे हैं क्योंकि उन आरोपों में किसी को सजा नहीं पर उन आरोपों के लिए कितने ही जेलों में महीनों, सालों बंद रहे और कांग्रेस सरकार ने राज खो डाला.

आज कोई विनोद राय पनपता है तो उस पर विनोद राय जैसे ही आरोप लगा कर उसे बंद कर दिया जाता है. सो, डर के मारे सब ने मुंह सी लिया है.

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने टीवी चैनलों और सोशल मीडिया को फटकारा, यह बहुत अच्छा है पर फटकार से काम नहीं चलता. सुप्रीम कोर्ट चाहे तो ट्रायल कोर्टों को आदेश दे सकती है कि निराधार आरोप लगाने वालों के खिलाफ दायर किए गए मुकदमों में महीनों में नहीं बल्कि सप्ताहों में सजा दे दी जाए मुजरिम चैनलों व सोशल मीडिया पर भारी जुर्माना लगाया जाए. ऐसा हो जाए तो काफी हद तक सुधार हो सकता है. सोशल मीडिया चैनल को बंद करने या चलाने वाले को गिरफ्तार करने का आदेश फिर भी गलत होगा. लेकिन कोरा कथन काफी नहीं है.

समाज को आलोचना करने का हक यथावत रहना चाहिए. आलोचना करने वाले को ही पकड़ कर बंद कर देने की जो पौराणिक परंपरा आज फिर से पिछले दरवाजे से लाई जा रही है, बंद होनी चाहिए. टीवी चैनल और सोशल मीडिया असल में पौराणिक सोच को थोपने के षड्यंत्र के हिस्से हैं. इन के निशाने पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी, ममता बनर्जी, स्टालिन या निर्भीक पत्रकार नहीं हैं, इन के निशाने पर सवर्णों की औरतें, पिछड़ों के नेता, दलितों के मुखर होते विचारक, मुसलमानों के हक मांगने वाले लोग हैं. इन का उद्देश्य यह है कि धर्म का व्यापार न केवल चले, पौराणिक गाथाओं की तरह फलेफूले और राजा को सुरक्षा भी मिले. ये चाहते हैं कि देश उन के कहने पर चले जैसे विश्वामित्र के कहने पर राजा दशरथ ने रामायण की कथा में राम और लक्ष्मण को बालावस्था में ही आश्रम की सुरक्षा के लिए भेज दिया था.

आज न्यायपालिका में पौराणिक सोच वाले कम नहीं हैं. अमेरिका जैसे उन्नत व स्वतंत्र देश में डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के मनोनीत वकील घोषित रूप में चर्च की सोच के गुलाम नजर आते हैं.

भारत का लोकतंत्र आज फिर जंगखाई पुरानी पटरियों पर उतर चुका है. परिणाम चाहे घातक व भयंकर बढ़ती बेरोजगारी, मंहगाई, अभावों, अराजकता, सर्विलैंस स्टेट के रूप में सामने आ रहा हो लेकिन मंदिर व्यवसाय तो चमक रहा है न. और जब बढ़ते मंदिर, बढ़ती वर्णव्यवस्था व महिलाओं की अपमानजनक स्थिति का लक्ष्य पूरा हो रहा हो तो किसे न्यायसंगत निर्णयों की आवश्यकता है. भगवा सरकार तो यही चाहती है न.

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