आस्था जब दिखावे की चीज बन जाती है तब न सिर्फ आप खुद इसे भोग रहे होते हैं बल्कि दूसरों को भी परेशानी झेलनी पड़ती है. आस्था ऐसी चीज होती है जिस में दूसरा व्यक्ति मरपिट रहा होता है जबकि आस्थावान को कोई फर्क ही नहीं पड़ता.
सुजय आज बहुत खुश था. खुश हो भी क्यों न, बात ही खुश होने की
थी. माइनिंग इंजीनियरिंग से डिग्री लेने के बाद लगभग 2 साल तक इधरउधर टप्पे खाने के बाद उस ने छोटीमोटी नौकरी की और अलगअलग जगह बड़ी नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. उस की मेहनत रंग लाई और दोदो परीक्षाएं में सफल होने के बाद एक प्रसिद्ध सीमेंट फैक्ट्री में फाइनल इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था.
यह सीमेंट फैक्ट्री देश की बड़ी फैक्ट्रियों में गिनी जाती थी. सब से बड़ी बात यह थी कि फैक्ट्री जिस इलाके में थी उसी इलाके में देवीजी का एक प्रसिद्ध मंदिर भी था. सुजय इस बात से भी खुश था कि चयन होने के बाद वह खाली समय में देवी दर्शन के लिए भी चला जाएगा.
इंटरव्यू का बुलावा भी उन्हीं 9 दिनों के बीच ही था जिन दिनों में देवीजी सब से ज्यादा पूजी जाती हैं और स्पष्टतया सुजय के लिए यह ‘माता ने बुलाया’ वाली स्थिति थी.
सुजय के गृहनगर से यह जगह लगभग 250 किलोमीटर दूर थी और वहां पहुंचने में लगभग 4 घंटे लगते हैं. सुजय को इंटरव्यू के लिए दोपहर एक बजे का समय दिया गया था. उस ने निश्चित किया कि वह सुबह 5 बजे चलने वाली ट्रेन से निकलेगा और 9 बजे तक वहां पहुंच जाएगा. नाश्ता वगैरह कर के 11 बजे तक फैक्ट्री पहुंच जाएगा.
निश्चित दिन निश्चित समय पर सुजय स्टेशन पहुंच गया. स्टेशन का दृश्य विस्मित करने वाला था. प्लेटफौर्म पर इतनी भीड़ थी कि पैर रखने की जगह भी न थी. ट्रेन लगभग 30 मिनट देरी से आई. सुजय पर्याप्त समय ले कर निकला था, इसलिए इस देरी से उसे खास प्रभाव नहीं पड़ा. जैसेतैसे इस भीड़ में वह एक कोच में घुसने में कामयाब हो गया. इतनी भीड़ थी कि उसे खड़े होने में भी असुविधा हो रही थी. ‘‘अरे बाप रे, इतनी भीड़,’’ सुजय डब्बे में घुसते ही बोला.
‘‘अरे भैया, यह भीड़ नहीं, यह तो आस्था है,’’ एक यात्री ने कहा.
‘‘यह कैसी आस्था जिस में आप खुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं.’’ सुजय बड़ी मुश्किल से अपने को एडजस्ट करता हुआ बोला.
‘‘या तो आप हिंदुस्तानी नहीं हैं या हिंदुस्तान में रहते नहीं हैं. यहां आस्था ऐसे ही दिखावे के माध्यम से प्रदर्शित की जाती है. यहां शादी की जाती है तो दिखावे के लिए बरात निकाली जाती है और उस बरात में भी जिस ने बुलाया है उस के प्रति आस्था प्रकट करने के लिए बीच सड़क पर कमर मटकाई जाती है. यहां तक कि अगर देशप्रेम प्रकट करना हो तो प्रभातफेरी निकाली जाती है, घर में तिरंगा फहराया जाता है.’’ पास खड़ा आदमी बोला.
‘‘सही है, अंकल,’’ सुजय बोला, ‘‘आप बिलकुल ठीक बोल रहे हैं. दिखावे का मतलब ही आस्था है. अगर ऐसा न होता तो हर गली में चंदा ले कर तीनचार जगह स्थापना क्यों की जाती? जगहजगह आरती, महाआरती, प्रदर्शनी, गरबा के नाम पर रास्ता क्यों रोका जाता? जरा सोचिए किसी गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को अस्पताल ले जाने में कितनी परेशानी होती होगी?’’
अब ट्रेन धीरेधीरे रेंगने लगी थी. अभी कुछ ही दूर चली थी कि किसी ने ट्रेन की जंजीर खींच दी. करीब 15 मिनट तक रुके रहने के बाद ट्रेन फिर चली.
सुजय और उस के पड़ोसी की बातें अभी भी आस्था पर ही चल रही थीं.
सुजय बोला, ‘‘ईश्वर में आस्था हो तो भी इसे सार्वजनिक स्तर पर दिखावे के रूप में प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए.’’
‘‘मैं आप से सहमत हूं’’, सहयात्री बोला और तभी किसी ने फिर से जंजीर खींच कर ट्रेन रोक दी. फिर यह काम हर 5-10 किलोमीटर पर होने लगा. गंतव्य तक पहुंचतेपहुंचते ट्रेन ढाई घंटे लेट हो गई.
9 बजे पहुंचने वाली ट्रेन साढ़े 11 बजे पहुंची. भीड़ का एक बड़ा सा रेला ट्रेन में से निकला. सुजय भी किसी तरह धकियाता हुआ प्लेटफौर्म के बाहर निकला. बाहर आने पर ज्ञात हुआ कि संबंधित फैक्ट्री स्टेशन से लगभग 11 किलोमीटर दूर है तथा वहां तक जाने के लिए औटो के अलावा कोई और साधन नहीं है.
स्टेशन पर चारों तरफ जन सैलाब के अलावा कुछ और नजर नहीं आ रहा था. बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ते हुए कुछ दूर एक औटो रिकशा खड़ा हुआ दिखाई पड़ा. उस के पास उस की ही उम्र के 2 लड़के उस रिकशा वाले से बात कर रहे थे. सुजय भी वहां पहुंच गया. वे दोनों भी उसी फैक्ट्री में इंटरव्यू के लिए आए थे तथा औटो वाले से वहां तक छोड़ने की गुजारिश कर रहे थे. किंतु औटो वाले ने यह कह कर मना कर दिया कि इतनी भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने किसी भी तरह के वाहन को सुबह
9 बजे के बाद प्रतिबंधित कर दिया है. यदि उसे पकड़ लिया गया तो उस का लाइसैंस प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.
‘‘कोई दूसरा विकल्प भी तो होगा न,’’ सुजय ने पूछा.
‘‘कम से कम 3 किलोमीटर तो इस भीड़ के साथ पैदल चलना ही होगा. दूसरे छोर पर शायद औटो मिल सकते हैं,’’ औटो वाला बोला, ‘‘3-4 साल पहले किसी वाहन चालक ने भीड़ पर गाड़ी चढ़ा दी थी, तभी से इन दिनों में सभी तरह के वाहन प्रतिबंधित रहते हैं सिवा एंबुलैंस के. अब आप तीनों में से कोई बीमार पड़ जाए तो एंबुलैंस से तुरंत निकल सकते हैं,’’ औटो वाला मजाक में बोला.
निराश हो कर तीनों दूसरा औटो ढूंढ़ने लगे. तभी उन्हें एक और औटो वाला दिखाई पड़ा. पहले तो उस ने स्पष्ट रूप से मना ही कर दिया किंतु मिन्नतों के बाद जब मुंहमांगी रकम देने की बात कही तो वह प्रतिव्यक्ति 400 रुपए के मान से चलने को तैयार हो गया. चूंकि साढ़े 12 बज चुके थे, सो तीनों यह रकम देने को मान गए.
अभी आधा किलोमीटर ही चले थे कि पीछे से पुलिस की जीप आ गई. इंस्पैक्टर ने तीनों की बात सुने बिना ही औटो से उतार दिया और औटो को नजदीक के पुलिस थाने ले जाने का हुक्म दे दिया. तीनों बेचारे इंस्पैक्टर से एक बार बात सुनने का अनुरोध करते रहे परंतु उस के पास इन की बातें सुनने का समय नहीं था.
अब तक डेढ़ बज चुका था, फिर भी तीनों का अनुमान था कि उन की समस्या सुनने के बाद मैनेजमैंट उन्हें इंटरव्यू में अपीयर होने देगा. सो तीनों ने निश्चित किया कि वे इस 4 किलोमीटर की दूरी को पैदल ही तय करेंगे और अगले छोर से औटो पकड़ कर फैक्ट्री जाएंगे. तीनों भूखेप्यासे पैदल चलने लगे. लगभग
2 घंटे बाद उस जगह पर पहुंचे जहां से उन्हें औटो मिल सकता था. जब तीनों फैक्ट्री गेट पर पहुंचे तब तक साढ़े 4 बज चुके थे और इंटरव्यू समाप्त हो चुका था. सो उन्हें अंदर ही नहीं जाने दिया गया. तीनों लुटेपिटे से वापस स्टेशन आ गए.
स्टेशन पर एक बच्चा अपने पिता से पूछ रहा था, ‘‘देवीजी को नारियल क्यों चढ़ाया जाता है?’’ और पिता उसे सम झा रहा था, ‘‘नारियल वास्तव में एक प्रतीकात्मक बलि है जो कि देवीजी को दी जाती है.’’
‘‘परंतु आज तो देवीजी ने हमारे कैरियर की वास्तविक बलि ले ली है,’’ सुजय बाकी दोनों की तरफ देख कर बोला.
यह शहर का एक संभ्रांत इलाका है. इस इलाके में शहर के लगभग सभी धनपति रहते हैं. सभी इतने व्यस्त हैं कि एकदूसरे से मिलने का समय तक नहीं निकाल पाते हैं. इन घरों में काम करने वाले वर्कर्स ने सार्वजनिक नवरात्र मनाने का निर्णय लिया. चंदे की तो कोई बात ही नहीं थी. हजारों से ले कर लाखों रुपयों तक का चंदा देने वाले मौजूद थे और नवरात्र मनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य भी यही था कि अधिक से अधिक वसूली की जाए. 9 दिनों तक रंगारंग कार्यक्रम किए गए. किसी दिन भजन संध्या, किसी दिन और्केस्ट्रा, किसी दिन गरबा आदि. अंतिम दिन जो कार्यक्रम था वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, वह कार्यक्रम था कन्याभोज और भंडारे का.
भंडारा क्या था, व्यंजनों की प्रदर्शनी थी. चूंकि इन दिनों दूध का बना मावा अच्छा नहीं आ रहा था, इसलिए यह निश्चित हुआ कि सिर्फ मेवे की ही दोतीन मिठाइयां बनाई जाएं. खाने के तेल से कई लोगों को एलर्जी हो जाती है. सो नमकीन में भुने हुए काजू और बादाम रखे जाएंगे. 4-5 तरह की सब्जियां तो होनी ही चाहिए अन्यथा वैरायटी की कमी दिखेगी.
आयोजन बड़े पैमाने पर हो रहा था. काम पर कई मजदूर भी लगाए गए थे.
इस काम के लिए सब से ज्यादा चंदा दो लाख रुपए घनश्याम दासजी ने दिए थे. उन के आने के बाद ही कार्यक्रम प्रारंभ होना था. घनश्याम दासजी राजनीतिक व्यक्ति थे जिन की शहर में एक बड़ी फैक्ट्री भी थी. मतलब राजनीतिक उद्योगपति.
घनश्याम दासजी के आते ही कार्यकर्ताओं में एक जोश सा आ गया और सब अपने को दूसरे से अधिक कर्तव्यनिष्ठ दिखाने के चक्कर में जबरन भागदौड़ करने लगे और इसी चक्कर में सलाद काट रही महिला के पास सो रही उस की 9 माह की बच्ची पर किसी कार्यकर्ता का पैर पड़ गया. बच्ची दर्द से बिलख पड़ी. उसे चुप करवाने के लिए उसे मां का दूध पिलाना जरूरी था.
कार्यकर्ता किसी भी कीमत में भंडारे में देरी होने देना नहीं चाहते थे क्योंकि घनश्याम दासजी बहुत ही सीमित समय के लिए आए थे, साथ ही, जो बच्चे स्कूल गए थे वे भी लौटने वाले थे. बड़े घर के बच्चे खाने के लिए प्रतीक्षा करें, यह तो उचित नहीं होगा. लगभग 15 मिनट तक वह बच्ची रोती रही. अंत में साथ में काम कर रही महिला को दया आई और अपने हाथ का काम छोड़ कर आई और बच्ची की मां से बोली, ‘जा उस देवस्वरूप कन्या को कन्याभोज करवा दे जो शायद इन में से किसी को भी नहीं दिख रही है.’
यह महिला, दरअसल बरतन साफ करने का काम कर रही थी और अपने साथ अपनी 6 वर्ष की कन्या को भी ले कर आई थी जो सुबह से ही भूखी थी और काम में अपनी मां का हाथ बंटा रही थी. लगभग ढाई बजे यह बच्ची अचानक चक्कर खा कर गिर पड़ी. शायद भूख के कारण उस की यह हालत हो गई थी. शोर सुन कर कई लोग आ गए और कहने लगे, ‘‘शायद डिहाइड्रेशन हो गया है तुरंत नमकशक्कर का पानी पिलाओ और घर भेज दो. भंडारा तो अभी 2 घंटे और चलेगा, उस के बाद ही वर्कर्स को खाना दिया जाएगा.’’
आस्था की यह परिभाषा किसी को समझ में आए तो कृपया हमें भी सम झाएं.