यह सच है कि किसी भी समस्या को तनाव बना लेने से वह हल नहीं होती. यह भी सच है कि केवल सैलिब्रेशन भर से जिंदगी खुशहाल नहीं होती. जीवन की खुशहाली के लिए मजबूत धरातल का होना जरूरी होता है, तभी सैलिब्रेशन भी अच्छा लगता है. हाल के कुछ सालों में जीवन का धरातल कमजोर पड़ता जा रहा है और हम सैलिब्रेशन के जरिए खुशियों का दिखावा कर रहे हैं. जीवन के धरातल और सैलिब्रेशन के बीच एक संतुलन बनाने की जरूरत है, तभी देश और समाज में वास्तविक खुशहाली आएगी. इवैंट के जरिए सफलता दिखाना आसान होता है पर एक लंबी नीति बना कर खुशहाल भविष्य बनाना मुश्किल है.
‘संतोष ही सब से बड़ा सुख है,’ यह मानने वाला भारतीय समाज हमेशा परिस्थितियों के हिसाब से खुद को ढाल लेता है. भले ही उस की चाहतें पूरी न हों पर वह निराश नहीं होता. वह दूसरों की खुशी में भी अपनी खुशी तलाश लेता है. आजादी की लड़ाई के समय जनता को यह बताया गया कि देश में सारे फसाद की जड़ अंगरेज हैं. अंगरेजों के भारत छोड़ते ही पूरे देश में खुशहाली आ जाएगी. जनता ने पूरी उम्मीद से इस काम को पूरा किया. 75 साल के बाद भी देश के हालात पहले जैसे ही हैं. इस के बाद भी देश में खुशी का माहौल है. देश की जनता हर साल आजादी का उत्सव पूरे उत्साह से मनाती है. यह उत्साह की जनता की ताकत है. इस बात को बहुत छोटेछोटे उदाहरणों के जरिए समझा जा सकता है.
भाईचारा दिखा पर भरोसा घटा : उत्सव के जरिए जिंदगी में उत्साह का ही कारण है कि उत्तर भारत के लोग भी दक्षिण भारत के ओणम को मनाते हैं. केवल ओणम ही नहीं, पंजाब की लोहड़ी और असम का बिहु भी पूरे देश के लोग मनाते हैं. कभी पंजाबियों द्वारा मनाया जाने वाला करवाचौथ अब पूरे देश की महिलाएं मनाती हैं.
बिहार का छठ पर्व पूरे देश में मनाया जाता है. होली और दीवाली को पूरा देश मनाता है. यही इस देश की अनेकता में एकता का उदाहरण है.
25 दिसंबर को देश के बड़े हिस्सों में ‘क्रिसमस’ भी मनाया जाता है. इस दिन गिरजाघरों के आसपास भी रौनक बढ़ जाती है. ईद की बधाई देने और मुसलिम परिवारों में गैरमुसलिम लोग भी मिलने और सेंवईं का आनंद लेने आते हैं.
वोटबैंक राजनीति ने समाज को जाति और धर्म के नाम पर बांटने का कितना भी प्रयास किया हो पर भारत के लोग अपने पड़ोसी के सुख में खुश होने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते हैं. गांव में किसी के लड़के की शादी में बहू हैलिकौप्टर से विदा हो कर आती है तो पूरा गांव उसे देखने आ जाता है. वह यह नहीं सोचता कि मेरे घर तो आई नहीं, मैं क्यों खुश होऊं.
भारत के लोगों ने तालाबंदी को भी छुट्टी का अवसर माना. घरों के किचन और जिम को ही मनोरंजन का जरिया बना लिया. यह देश परेशान हाल में खुश रहना जानता है. पूरी दुनिया कोरोना के संकट में तनाव में घिर गई थी. कोरोना संकट के कारण वेतन में कटौती हुई तो भी संतोष कर लिया और कम पैसे में भी खुशहाल रखना सीख गया. जनता के इस गुण के ही कारण सरकारों को जवाबदेही नहीं देनी होती.
पैट्रोल की कीमत बढ़ कर 100 रुपए हो गई, इस के बाद भी भारतीयों के चेहरों पर मुसकान है. सरकार से कोई नाराजगी नहीं है. जिंदगी जीने की यही अदा है कि देश के जिम्मेदार लोग आजादी से पहले किया गया वादा भले ही 75 साल बाद भी पूरा न कर सके हों पर देश की जनता आजादी का महाउत्सव मनाने में आगे है. कोई भी उत्सव में हिस्सा लेने के बाद भी आजादी के बाद जिंदगी में कोई बदलाव का अनुभव नहीं कर रहा.
अनेकता में एकता भरते त्योहार : पहले के दौर में लोग अपनेअपने इलाके में अपने उत्सवों में खुश रहते थे. धीरेधीरे लोग एकदूसरे के संपर्क में आए तो एकदूसरे के सुखदुख में शामिल होने लगे. लखनऊ के हजरतगंज इलाके में दक्षिण भारत के 2 परिवार रहने आए. ये लोग अपने देशी स्टाइल से डोसा और इडली जैसे व्यंजन बनाते थे. अपने उत्तर भारत के दोस्तों को खिलाते थे. धीरेधीरे इन की दोस्ती गहरी होने लगी. इन की संख्या बढ़ गई. अब ये एक ही जगह पर दक्षिण भारत के त्योहार मनाने लगे, खासतौर पर ओणम जैसे त्योहार को धूमधाम से मनाने लगे. उत्तर भारत के लोग भी इस में दक्षिण भारत के लोगों जैसे पहनावे में शामिल होने लगे.
ओणम केरल का एक प्रमुख त्योहार है. ओणम को केरल का राष्ट्रीय पर्व भी माना जाता है. ओणम का उत्सव सितंबर में राजा महाबली के स्वागत में आयोजित किया जाता है, युवतियां रंगोलियों के चारों तरफ वृत्त बना कर उल्लासपूर्वक नृत्य करती हैं.
यही काम बिहु के साथ भी हुआ. असम से आए कुछ परिवारों ने इस को शुरू किया. अब इस में हर तरह के लोग हिस्सा लेने लगे. बिहु असम के 3 अलग सांस्कृतिक उत्सवों के रूप में मनाया जाता है. कुछ सालों में यह हर जगह लोकप्रिय त्योहार बन गया है. एक अप्रैल को मनाए जाने वाले बिहु में असमिया नववर्ष भी शामिल है.
इस में किसी भी तरह की जाति और धर्म का भेद नहीं होता. अप्रैल के अलावा 2 और माह में बिहु मनाया जाता है. अक्तूबर माह में कोंगाली बिहु और जनवरी में भोगाली बिहु मनाया जाता है.
बिहार में मनाए जाने वाले छठ पर्व को बिहार के बाहर रहने वाले जानते नहीं थे. कुछ सालों में वे न केवल छठ को जानने लगे हैं बल्कि अपने रीतिरिवाज मान कर उस को मनाने भी लगे हैं. गैरबिहारी लोग भी इस को मनाने लगे हैं.
क्रिसमस ट्री, कैप, और सैंटा क्लौज की ड्रैस बाजार में खूब बिकती हैं. बाजार को उसी तरह से सजाया जाता है. बच्चे से ले कर बड़े तक इस में उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते हैं.
जरूरतें सैलिबे्रशन से पूरी नहीं होतीं: हमारे समाज के लोग हर फैस्टिवल का सैलिब्रेशन करने लगे हैं. हम अपनी जरूरतों को भूल सैलिब्रेशन करते हैं, जैसे वोट देने के बाद यह नहीं पूछते कि वोट लेने के समय जो वादा किया था वह पूरा कब होगा. हमें चुनाव भी फैस्टिवल जैसा ही लगता है. सोशल मीडिया पर सैल्फी डालते कहते हैं- राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे दिया.
इसी तरह सालदरसाल आजादी का जश्न भी मनाते हैं. अभी हाल के दिनों में कोरोना का संकट पूरी दुनिया पर छाया था. हम ने इस के सैलिब्रेशन का मौका नहीं छोड़ा. ताली, थाली, टौर्च और मोमबत्ती से खुशियां मनाई गईं पर इस से मरीजों के मरने की संख्या कम नहीं हुई.
अखबारों में कई बार खबर छपती है कि पुलिस थाने में आने वालों को गुलाब का फूल दिया गया. सैलिब्रेशन अलग है पर क्या सही मानो में पुलिस अपना काम सही से करने लगी? मुकदमा लिखने लगी? सिफारिश बंद हो गई? जल्द न्याय मिलने लगा? सैलिब्रेशन के जरिए यह दिखाने की कोशिश की गई कि सबकुछ अच्छा हो गया है. इवैंट आधारित कामों से बुनियादी बदलाव नहीं होते.
सैलिब्रेशन से चीजें नहीं बदलतीं. कुछ देर के लिए चेहरे पर मुसकान आ जाती है. सोशल मीडिया के आने के बाद इस तरह के सैलिब्रेशन बढ़ गए हैं. आज देश का हर फैस्टिवल हर क्षेत्र में सैलिब्रेट किया जा रहा है पर क्या देश में रहने वालों के बीच सांमजस्य और भाईचारा बढ़ा है? द्य