Wrietr- अशोक गौतम

विश्व स्तर पर दोस्ताना संघ की स्थापना जब हुई हो तब हुई हो, पर इस की नींव की बहुतकुछ आउटलाइन मेरे जवान होते दिनों में उस समय तैयार होने लगी थी जब हम सब महल्ले के सारे जवान होते बातबात पर एकदूसरे के हाथों में एकदूसरे का हाथ ले उसे पूरे जोर से दबा कसम खाते नहीं थकते थे कि हम सब अपनी अपनी दोस्ती की कसम खाते हैं कि जो हम में से किसी को दूसरे महल्ले के गधे ने भी हाथ लगाया तो हम सब मिल कर साले के हाथपांव तोड़ कर रख देंगे. उस के हाथपांव हों या न. उस की पूंछ, कान मरोड़ कर रख देंगे. उस के पूंछ, कान हों या न. हम में से किसी की ओर दूसरे महल्ले का सही होने पर भी जो कोई आंख उठा कर भी देखेगा तो उस की आंखों में देगीमिर्च डाल देंगे. बाद में घर में दाल में मिर्च न डले, तो न सही.

मुझे तब अपने दोस्तों पर यह कसम खाते हुए बहुत गर्व होता था. तब मैं अपने को कई बार महल्ले की ही नहीं, शहर की महाशक्ति समझने लग जाता था. तब मुझे लगता था कि मेरा अमेरिका भी कुछ नहीं कर सकता.  तब मैं सोचता था कि मेरा चीन भी कुछ नहीं कर सकता. पर एक दिन मेरा दोस्ती का सारा घमंड चूरचूर हो गया.

हुआ यों कि एक दिन बिन बात के दूसरे महल्ले के लड़के ने मेरी आती जवानी को बेकार में ललकार दिया जबकि मेरी आती जवानी ने उस के महल्ले का कुछ भी बुरा नहीं किया था. उस की बेकार की ललकार को सुन मैं भी तब गुस्से में आ गया था. हद है यार, बिन कुछ किए ही बंदा ललकार रहा है?

मैं गुस्से में इसलिए नहीं आया था कि मुझ में उस का विरोध करने का दम था. मैं ने सोचा था कि जिस के पीछे उस के दोस्त हों, उसे तो खुदा से भी डर नहीं लगता है. लगना भी नहीं चाहिए. दोस्तों के सिवा मेरे पास उस वक्त, बस, आतीआती जवानी थी, जबकि वह औलरैडी एडवांस लैवल का जवान था. मैं तो गुस्से में इसलिए आया था कि मेरे पास मेरे पीछे बीस दोस्त थे. मुझे अंधविश्वास था कि मेरे पीछे मेरे दोस्त हिमालय की तरह खड़े हैं. वे मेरी खाल तो क्या,  किसी भी कीमत पर मेरा बाल भी बांका नहीं होने देंगे.  मुझे यह  पता था कि मैं उस के सामने पिददी हूं. पर मैं ने दोस्तों के दम पर सहर्ष उस का चैलेंज स्वीकार कर लिया. क्योंकि किताबों में किस्सेकहानियों में पढ़ा था कि जिस के पीछे दोस्त होते हैं उस का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.

बस, फिर क्या था. मैं ने उस की ललकार को अपनी नईनई दहाड़ से दबाने की कोशिश की तो दूसरे महल्ले का लड़का और भी आक्रामक हो गया. मैं ने उस के आगे बेखौफ हो अपनी नएनए लड़ने के तरीकों से अनजान छाती तान दी कलाशनिकोव राइफल की तरह, यह सोच कर कि मेरे पीछे मेरे दोस्तों की मिजाइलें हैं.

दस मिनट… बीस मिनट… तब मैं अकेला ही जैसेतैसे उस का विरोध उस के लातघूंसे सहन करते करता रहा. पर मेरे दोस्त मेरी सहायता को नहीं आए, तो नहीं आए. वे, बस, दूर से हवा में हौकियां, डंडे लहराते, मेरे जोश को तालियां बजाते बढ़ाते, मेरी पीठ के बहाने अपनी पीठ थपथपाते,  तो दोतीन दूर से मेरे जख्मों पर मरहम लगाते. मैं ने तब उन्हें तब उस का सामना करने को अपने साथ आने को बहुत पुकारा. पर वे नहीं आए, तो नहीं आए. मुझे  लगा, जैसे वे उस के भी दोस्त हों.

अंत में मैं खुद ही जैसेतैसे हौसला बना कर उस का आधापौना सामना किया और जैसेकैसे अपने को बचा पाया. उस के बाद टांगों के नीचे से कान पकड़े थे कि बेटे, जिंदगी में जो हिम्मत हो, तो किसी की गलतसही ललकार का सामना हो सके तो अकेले ही करना. हर वह, जो मुसीबत में काम आने की कसम खाता है, दोस्त नहीं होता. कलियुग में दोस्त हाथी के दांतों की तरह होते हैं, मुसीबत आने से पहले कसमें खाने वाले और, तो मुसीबत के वक्त काम आने वाले और.

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