Best Hindi Story : “किस बात की बेचैनी है. सब तो है तुम्हारे पास… शिफान और हैंडलूम की साड़ियों का बेहतरीन कलेक्शन, सब के साथ मैच करती एसेसरीज, पैरों के नीचे बिछा मखमली गलीचा. मोहतरमा और क्या ख्वाहिश है आप की?”
हालांकि सरगम ये सब मुझे हंसाने के लिए कह रही थी, लेकिन ये बातें मुझे इस समय अच्छी नहीं लग रही थी. मेरा मन फूटफूट कर रोना चाह रहा था, जिस का कारण वो खुद भी नहीं समझ रहा था. अचानक से हुई तेज बारिश ने शहर की सड़कों को पानी में डुबो दिया था. उस पर ये ट्रैफिक… घर पहुंचने में बहुत देर हो जाएगी. बच्चे इंतजार कर रहे होंगे. इतनी बारिश में शांति दीदी भी नहीं आ पाएंगी. खाना कैसे बनेगा? बाहर से मंगवा लूं?
लगातार बजते हौर्न की आवाजों से मेरी बेचैनी और बढ़ रही थी. आंख से निकलते आंसू मुझ से ही सवाल कर रहे थे. ये रास्ता तो तुम ने खुद ही चुना था अब क्यों परेशान हो? तुम को ही तो अपनी मां जैसी जिंदगी नहीं जीनी थी? एक महत्वहीन जिंदगी, जिस का कोई उद्देश्य नहीं था. मां को हमेशा मसालों की गंध में महकता देख तुम ही तो सोचती थी कि मां जैसी कभी नहीं बनूंगी. सच ही तो था ये… चाची की कलफ लगी साड़ियां, उन के शरीर से आती भीनी खुशबू, चाचा का उन की हर बात को मानना और चचेरे भाईबहनों का सब से अच्छे इंगलिश स्कूल में पढ़ना… सबकुछ उसे अपनी और मां की कमतरी का अहसास दिलाता था. उस ने कभी भी अपने मम्मीपापा की जिंदगी में उस रोमांच को महसूस नहीं किया, जो चाचाचाची की जिंदगी में बिखरा हुआ था. बचपन से ही एक छत के नीचे रहते 2 परिवारों के बीच का अंतर उसे अंदर ही अंदर घोलता रहा.
विचारों की तंद्रा घर के सामने आ कर ही टूटी. गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर मैं बदहवास सी अंदर गई. वैभव अब तक घर नहीं आए थे. बेटा अंकु मुझे देखते ही लिपट गया. बेटी मुझे देख कर अपने कमरे में चली गई. मैं ने अंकु को पुचकारते हुए पूछा, ”भूख लगी है मेरे बेटे को?”
अंकु ने नहीं में सिर हिलाया. मेज पर रखी प्लेट में ब्रेड का एक छोटा टुकड़ा रखा हुआ था. मुझे लगा कि वैभव ने बच्चों के लिए कुछ और्डर किया होगा? तब तक अंकु ने कहा, ”आज दीदी ने बहुत अच्छा सैंडविच बनाया था मम्मा.”
“ अवनी ने?”
“हां मम्मा, पहले तो बस ब्रेडबटर ही देती थी, लेकिन आज सैंडविच बनाया.”
अंकु के खिलौनों को समेटती हुई अवनी के कमरे की तरफ गई. मोबाइल पर तेजी से चलती उस की उंगलियां मुझे देख कर थम गई थीं. मैं ने अवनी को पुचकारते हुए अपने सीने से लगा लिया, ”मेरी गुड़िया तो बहुत समझदार हो गई है. सैंडविच बनाने लगी है.”
अवनी ने खुद को अलग करते हुए कहा, “ये आप का परफ्यूम… और अब मैं 13 साल की हो गई हूं. आप घर में नहीं रहेंगी तो इतना तो कर ही सकती हूं.”
इतना अटपटा जवाब… ऐसे क्यों बात कर रही है मुझ से? अरे रोज तो शांति दीदी शाम को आ ही जाती हैं, तब तक वैभव की आवाज आई, ”अरे, आज हमारी रानी साहिबा रसोईघर में. कहीं सपना तो नहीं देख रहा हूं मैं.”
उन की मुसकान ने मुझे फिर से सामान्य कर दिया. वैभव ने हमेशा मुझे वो सम्मान दिया, जो चाचा चाची को देते थे. सबकुछ तो ठीक था मेरी जिंदगी में, जैसा मुझे चाहिए था. मैं ही कुछ ज्यादा सोचने लगती हूं. पता नहीं, किस अपराध बोध में घिर जाती हूं. ये परेशनियां तो जिंदगी के साथ लगी ही रहती हैं. आज समाज में वैभव के नाम के बिना भी मेरी पहचान है.
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जब सब जिंदगी में कुछ ठीक चल रहा हो तो समझ लो जिंदगी करवट लेने वाली है. रात को 11 बजे पापा का फोन आया कि मां की तबियत खराब है. क्या हुआ? कब हुई? ये सब पापा ने सुना ही नहीं. पिछले 3 दिन से इतनी व्यस्त थी कि मां से बात नहीं हुई थी.
सुबह की किरणों के साथ मैं अस्पताल के गेट पर पहुंची. पापा,चाचा आईसीयू गेट के बाहर खड़े थे. मैं उन की तरफ बढ़ने लगी, तो वैभव ने मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “हिम्मत रखना.” मैं तब भी कुछ समझ नहीं पाई.
सबकुछ शांत था. मां के पास लगे मौनिटर के अलावा… अब कुछ नहीं हो सकता है. ‘दर्शन कर लो,’ कह कर चाचा मुझे अंदर ले कर गए. मां की आंखें बंद थीं. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. दर्द की एक लहर मेरे सीने से ले कर हाथ तक दौड़ रही थी. मां का चेहरा देख कर लगा कि वो गहरी नींद में सो रही हैं. कांपते हुए हाथों से मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया. वैसी ही गरम हथेलियां… महसूस हुआ कि उन्होंने भी मेरा हाथ हलके से दबाया है, तब तक वो मुसकराने लगी और सांस के तेज झटके के साथ सब बंद हो गया. मैं चिल्लाती रह गई, लेकिन मां ने कुछ नहीं सुना. ऐसे मुंह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं हों. भला ऐसे कौन मां जाती है? अचानक से बिना कुछ बोले… बिना मिले…
मैं उन की अलमारी से कपड़ों को निकाल कर उन की गंध खोज रही थी. सब कपड़े धुले हुए थे. चाची के पास इस उम्मीद में बैठी कि उन से मां का स्पर्श मिलेगा, लेकिन वो तो खुद की ही सुधबुध खो चुकी थीं.
अस्पताल से आए कपड़ों में उन का कपड़ा मिला, जो उस दिन उन्होंने पहना हुआ था. वही मसालों की गंध जिस से मुझे चिढ़ थी, आज मां के पास होने का अहसास करा रही थी. हर रस्म अहसास दिला रहे थे कि मां अब वापस नहीं आएगी. दोनों बच्चों के समय मातृत्व अवकाश खत्म होने के बाद मां कुछ महीने मेरे पास ही रही थीं. वैसे भी साल में 2 बार तो मां उन दोनों के जन्मदिन पर आती ही थीं. अब मेरे पास बस उन पलों की यादें ही बची थीं. अवनी का जुड़ाव मां से बहुत ज्यादा था.
तेरहवीं की रस्मों के बाद पूरा परिवार एकसाथ बैठा हुआ था. अगले दिन सब को अपनेअपने घर निकलना था. चाची की आंखें फिर से डूबने लगीं, वो सुबकते हुए कहने लगीं, “भाभी ने मुझे मुंहदिखाई देते हुए कहा था, ये सारे उपहार तो साल दो साल में पुराने पड़ जाएंगे, लेकिन आज मैं तुम्हें वचन देती हूं कि मेरे जिंदा रहते तुम्हें मायके की कमी महसूस नहीं होने दूंगी.” उन के चलते ही मैं ने अपना पढ़ने और नौकरी करने का सपना पूरा किया.
पापा जो अब तक बिलकुल शांत थे. उन्होंने चाची को समझाते हुए कहा कि वो देवी थीं इस घर को मंदिर बनाने आई थीं अपना काम पूरा कर के चली गईं. अब तुम्हें सब संभालना है. ये क्या बोल रहे थे पापा? मैं ने तो उन्हें कभी मां की तारीफ करते नहीं सुना या उन दोनों के मूक प्रेम को मैं समझ ही नहीं पाई?
मां के जाने के बाद जिंदगी रुक गई थी. कभी लगा ही नहीं वो दूर हो कर भी इस कदर मेरी जिंदगी में मौजूद हैं. शांति दीदी को काम करते देख मैं उन्हें गले लगा लेती. उन से आती गंध में मैं मां को खोजने लगती थी. लगता था, मैं बहुत खराब बेटी हूं. मुझे उन की स्निग्धता और परिपक्वता पर गर्व करना चाहिए था और मैं अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के मद में अंधी बनी रही. अपराध बोध से बड़ी कोई सजा नहीं होती और मुझे नहीं पता था कि इस सजा की अवधि कितनी है.
बढ़ती कमजोरी और मानसिक स्थिरता के कारण मैं ने छुट्टी ले ली. वैभव, बच्चे सब मेरी इस हालत से परेशान थे. परेशान तो मैं खुद भी थी, लेकिन इन सब से उबरने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था.
पतझड़ का सूनापन नई पत्तियों की आमद से ही दूर होता है. नन्हे पक्षियों की चहचहाहट से ही निर्जनता को आवाज मिलती है. एक दिन अवनी ने मुझे अपना मोबाइल दिया और कहने लगी, ”मम्मा, आप को पता है कि नानी आप को कितना प्यार करती थीं? आप जितना मुझे और अंकु को मिला कर करती हो उस से भी ज्यादा. याद है, उस दिन मैं ने अंकु के लिए सैंडविच बनाया था, वो मुझे नानी ने ही सिखाया था. पता नहीं क्यों उस दिन मुझे आप पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मैं ने नानी से कह दिया कि आप ने मम्मा को अपने जैसा क्यों नहीं बनाया. वो मुझ से कहने लगीं कि आप उन से भी अच्छी हैं, लेकिन मुझे उस दिन कोई बात सुनने का मन नहीं कर रहा था. तब उन्होंने ये मैसेज मुझे भेजा था.
“अवनी बेटा तुम्हें लगता है कि आभा तुम लोगों का ध्यान नहीं रख पाती. उसे भी नौकरी छोड़ कर तुम लोगों के साथ पूरे समय घर पर रहना चाहिए. लेकिन, ये तो गलत है ना बेटा. एक औरत जब बच्चों को छोड़ कर घर से काम करने निकलती है, तो वह खुद ही परेशान होती है. इस नौकरी को पाने के लिए जितनी मेहनत तुम्हारे पापा ने की थी, उतनी ही मेहनत मम्मा ने भी की है. मुझ पर घरपरिवार की बहुत जिम्मेदारियां थीं, लेकिन उस ने मुझे कभी किसी शिकायत का मौका नहीं दिया. जब वो अधिकारी बनी तो तुम्हारे नाना ने कहा कि ये सब तुम्हारे अच्छे कर्मों का फल है. उस की सफलता ने मुझे भी सफल मां बनाया है. उस को कभी गलत मत समझना और हमेशा मजबूती के साथ उस का साथ देना.”
एक बोझ था जो आंसुओं के साथ हलका हो रहा था. अवनी मुझ से चिपकी हुई थी. कह रही थी, आप के अंदर से नानी की खुशबू आ रही है.
लेखिका- पल्लवी विनोद