जब पीट-पीट कर उसकी गर्दन तोड़ दी गई, वह जिंदा था. जब उसका हाथ काटकर उसी के बाजू में टांग दिया गया, वह जिंदा था. प्राणों की भीख मांगते उस निरीह को घेरकर जब वहशी दरिंदे क्रूर अट्टहास कर रहे थे, वह जिंदा था. उसके कटे-टूटे शरीर से उसका लहू बूंद-बूंद कर टपकता रहा और वहां खड़े धर्म का ठेका लिए हत्यारे उसकी हर एक बूंद का स्वाद अपनी आँखों से चखते रहे. उसकी कमजोर पड़ती जा रही सिसकियों को चटखारे लेकर सुनते रहे और अंत में जब प्राण उसके शरीर से निकल गए तो उसकी निर्जीव देह को जमीन पर खींच-खींच कर उसका तमाशा दिखाया और फिर बेरिकेटिंग पर उलटा लटका कर उसके बगल में हथियार लहराते हुए हत्यारे “राज करेगा खालसा” के नारे लगाते रहे. ये किसी एक हत्यारे का काम नहीं था, इसमें कई हत्यारे शामिल थे, कुछ उसका शरीर काट रहे थे, कुछ निर्दयी अट्ठास कर रहे थे तो कुछ नारे लगा रहे थे. लखबीर को मारने के लिए हत्यारों का पूरा गिरोह था.

लखबीर सिंह, पुत्र दर्शन सिंह, गांव चीमा कला, थाना सराय अमानत खान, जिला तरनतारन, जो अपनी हत्या से पहले तक बहुत धार्मिक व्यक्ति था, सेवादार था, धर्म की सेवा में जीवन दिए दे रहा था, उसी लखबीर की धर्म के नाम पर हत्या कर दी गयी. 8, 10 और 12 साल की तीन मासूम बेटियों के पिता को भरे चौराहे सबके सामने काट डाला गया. उसकी पत्नी जिसने हजारों बार श्रीगुरु ग्रंथ महाराज के आगे मत्था टेककर अपने सुहाग की खुशहाली और लम्बी उम्र की प्रार्थनाएं की होंगी, उसी ग्रन्थ साहेब के अपमान का आरोप मढ़कर उसका सुहाग उजाड़ दिया गया. धर्म के भेड़ियों को मानव रक्त चखने की इच्छा हुई और उसने सबसे निरीह मेमने (दलित) को घसीट कर ‘बेअदबी’ का इलज़ाम लगा कर ज़िंदा नोच खाया.

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ये हिन्दुस्तान के भीतर घुसा तालिबान है जो मासूम लोगों की हत्या कर उनके शवों को सार्वजनिक स्थान पर लटका कर आम लोगों को डराने की कोशिश करता है. तालिबान भी पहले हाथ और पैर काटता है और फिर मरते हुए आदमी को किसी सार्वजनिक स्थान पर लटका देता है. लखबीर सिंह की लाश को सिंघु बॉर्डर से गुजरने वाली एक ऐसी सड़क पर बैरिकेड से लटकाया गया जहां से रोज सैकड़ों गाड़ियां गुजरती है.

मीडिया के सामने सीना तान कर घूम रहे धूर्तों में से एक के भी पास जवाब नहीं था कि लखबीर से आखिर ‘बेअदबी’ किस तरह हुई? उसने क्या किया जिसकी सजा ऐसी बर्बर और दर्दनाक मौत के रूप में उसको दी गयी? किसी हत्यारे ने कहा कि वह निक्कर पहन कर गुरु ग्रंथ साहिब के पास मंडरा रहा था, कोई बोला वहां माचिस पड़ी थी, उससे जला भी सकता था.

यानी सिर्फ शक की बिना पर कि ‘माचिस पड़ी थी जिसको वह जला सकता था’ उसको मार डाला. कल ये कुंद दिमाग के हत्यारे ऐसे ही किसी को भी खींचकर ज़िंदा फाड़ देंगे, बस मनोरंजन के लिए और कह देंगे कि ‘बेअदबी’ हुई. क्या समाज के अंदर ऐसे भयानक अपराधियों की कोई जगह होनी चाहिए? क्या धर्म का झंडा इनके हाथों में होना चाहिए? क्या ये किसी समाज की अगुवाई के लायक हैं?

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धर्म का झंडा उठाये धर्म के बर्बर ठेकेदारों ने एक निरीह को कैसी दर्दनाक मौत दी, वह मंजर पूरे देश ने देखा. धर्म के नाम पर मानव के क़त्ल की वीभत्स दृश्य सबके सामने हैं. जिस समय ये वीभत्स काण्ड अंजाम दिया जा रहा था, सैकड़ों की भीड़ उसका वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर अपलोड करने में जुटी थी. लखबीर सिंह तड़पता रहा, चीखता रहा, दर्द से करहाता रहा लेकिन वहां खड़े लोगों में से एक भी आगे बढ़ कर हत्यारों का विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पाया. धर्म के नाम पर क़त्ल हो रहा था और सब कथित धार्मिक धर्म को अपमानित होता देख रहे थे. अभी भी देख रहे हैं. पुलिस वालों की पतलूनें हत्यारों को गिरफ्तार करने में ढीली हुई जा रही हैं. कानून धर्म के आगे हाथ जोड़े कांप रहा है. अब तक मात्र एक आदमी को पुलिस अदालत के सामने पेश कर पायी है, वो भी तब जब उसने खुद सीना ठोंक कर सरेंडर किया और कहा कि मैंने मारा लखबीर को. बाकी सारे कातिल छुट्टे सांढ़ की तरह छातियाँ ताने घूम रहे हैं और पुलिस की हिम्मत नहीं कि उनकी गर्दन पकड़ें.

बाबा बलवान सिंह ने फेसबुक पर वीडियो पोस्ट करके ह्त्या की जिम्मेदारी बड़ी शान से ली. उसने अपना फ़ोन नंबर भी दिया. मगर पुलिस अभी तक उस हत्यारे को गिरफ्तार नहीं कर पायी. बाबा नारायण सिंह नाम के निहंग ने बड़े गर्व के साथ अपने फेसबुक अकाउंट पर दावा किया कि उसने लखबीर सिंह के पैर काटे. अमनदीप सिंह नाम के निहंग ने लिखा कि उसने उसके हाथ काटे. मगर पुलिस इन हत्यारों तक नहीं पहुंच पायी. यह सोच कर झुरझुरी पैदा होती है कि मानवता के हत्यारे सोशल मीडिया पर किस कदर सक्रिय हैं और देश का कानून और कानून के रक्षक इनके आगे कितने लाचार और अपंग हैं. इन खूंखार अपराधियों के आगे उनके हौसले पस्त हैं.

 

किसान आंदोलन के दौरान निहंगों ने कुंडली बॉर्डर पर पहले भी कई हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है. इनमें निहंगों पर मुकदमे भी दर्ज हुए हैं. 12 अप्रैल को कुंडली बार्डर पर निहंग ने एक युवक शेखर पर तलवार से जानलेवा हमला किया था. 12 जून को सेरसा गांव के पंच रामनिवास पर हमला कर उन्हें घायल किया गया. 3 अगस्त को सीआरपीएफ जवान पर जानलेवा हमला हुआ, जिसमें 10-15 अज्ञात प्रदर्शनकारियों पर मुकदमा दर्ज हुआ. 2 अक्टूबर को लंगर में दाल लेने गए युवक राजू पर तलवार से हमला कर गंभीर रूप से घायल कर दिया गया. मनौली के कार सवार किसान पर जानलेवा हमला किया और उसकी गाड़ी तोड़ दी गयी.  कुंडली के एक दुकानदार पर उसकी दुकान में घुसकर हमला किया गया. पिछले वर्ष पटियाला में भी ऐसी ही एक घटना हुई थी, जब निहंग सिखों ने एक पुलिस इंस्पेक्टर का हाथ सिर्फ इसलिए काट दिया था क्योंकि उसने उन्हें सब्जी मंडी में प्रवेश की इजाजत नहीं दी थी.

उस समय पंजाब समेत पूरे देश में लॉक डाउन था. इसी तरह जब 2020 की शुरुआत में जब दिल्ली में दंगे हुए थे, तब भी एक निहंग सिख हाथ में तलवार लेकर एक पुलिस वाले के पीछे दौड़ रहा था. इसी साल 26 जनवरी के मौके पर लाल किले के पास हिंसा हुई थी. तब भी कुछ निहंग सिखों ने आस पास खड़े लोगों को और पुलिस वालों को तलवारों से डराने की कोशिश की थी. मगर इन तमाम वारदातों से पुलिस ने खुद को दूर ही रखा. कोई एफआईआर नहीं, कोई छानबीन नहीं, कोई गिरफ्तारी नहीं. उधर किसान नेताओं ने निहंगों की वहशियाना हरकतों को शह दी. किसी ने इनकी ना तो निंदा की और ना इन नृशंस और कुंद दिमाग के लोगों को धरना स्थल खाली करने के लिए कहा गया. अब इतनी बड़ी घटना के बाद किसान नेताओं को होश आया है.

लखबीर की नृशंस ह्त्या के बाद संयुक्त किसान मोर्चा और किसान आंदोलन से जुड़े दूसरे गुटों ने खुद को तुरंत इस घटना से अलग कर लिया है. योगेंद्र यादव ने तुरंत बयान जारी कर ह्त्या की निंदा की और कहा कि ये लोग (निहंग) किसान आंदोलन का हिस्सा नहीं हैं. मीडियाकर्मियों को तुरंत संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से वाट्सएप मैसेज भेजे गए कि – ‘संयुक्त किसान मोर्चा इस नृशंस हत्या की निंदा करते हुए यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि इस घटना के दोनों पक्षों, इस निहंग समूह/ग्रुप या मृतक व्यक्ति, का संयुक्त किसान मोर्चा से कोई संबंध नहीं है. हम किसी भी धार्मिक ग्रंथ या प्रतीक की बेअदबी के खिलाफ हैं, लेकिन इस आधार पर किसी भी व्यक्ति या समूह को कानून अपने हाथ में लेने की इजाजत नहीं है. हम यह मांग करते हैं कि इस हत्या और बेअदबी के षड़यंत्र के आरोप की जांच कर दोषियों को कानून के मुताबिक सजा दी जाए. संयुक्त किसान मोर्चा किसी भी कानून सम्मत कार्यवाही में पुलिस और प्रशासन का सहयोग करेगा. लोकतांत्रिक और शांतिमय तरीके से चला यह आंदोलन किसी भी हिंसा का विरोध करता है.’

सवाल उठता है कि अगर ये बर्बर निहंग आंदोलन का हिस्सा नहीं थे, तो अब तक वे सिंधु और कुंडली बॉर्डर पर क्या कर रहे थे? जब भीड़ बढ़ानी हो, सीमा पर जमावड़ा लगाना हो, तब ये आंदोलन का हिस्सा हो जाते हैं और जब ये किसी अमानवीय घटना को अंजाम दे दें तो तुरंत इनसे किनारा कर लिया जाता है? क्या ये आंदोलन का नेतृत्व करने वाले नेताओं के दोगलेपन को उजागर नहीं करता? जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचने का ये तरीका देश के मौकापरस्त राजनीतिज्ञों की कु-प्रवृत्ति से अलग है क्या?

लखबीर सिंह को सिर्फ मारा नहीं गया, बल्कि तड़पा-तड़पा कर मारा गया. वह दलित था. हमारे देश में दलितों के नाम पर खूब राजनीति होती है. दलितों के नाम पर इस देश के नेता राजनीति करने का एक भी मौका नहीं गंवाते हैं, दलितों के नाम पर खूब वोट लूटे जाते हैं, लेकिन दलितों की हत्याओं पर सब अपनी आँखें मूँद लेते हैं. लखबीर सिंह की हत्या पर भी सब चुप हैं और अब इसमें किसी को दलित एंगल दिखाई नहीं दे रहा. दलितों के रहनुमा बने मायावती, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नेताओं के मुँह पर ताले पड़े हैं. दलितों के घर पूड़ी-सब्जी जीमने वाले राहुल, प्रियंका, अमित शाह, नरेंद्र मोदी के मुँह से निहंगों की बर्बरता के खिलाफ एक बोल नहीं फूटा. अभी तक वे अपने शब्दों को तोल रहे हैं कि क्या कहें जिससे इस ह्त्या का भी राजनीतिक फायदा हासिल हो. यूपी, पंजाब में विधानसभा चुनाव सामने हैं.

320 साल पुराना है निहंगों का इतिहास

निहंग सिखों का इतिहास 320 वर्ष पुराना है. वर्ष 1699 में सिखों के आखिरी गुरु, गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत की थी. खालसा पंथ के पास दो तरह के सैनिक थे – एक वो, जो साधारण कपड़े पहनते थे और दूसरे वो जो नीले रंग के कपड़े पहनते थे. नीले रंग के कपड़े पहनने वालों को ही निहंग कहा गया.

निहंग की उत्पत्ति संस्कृत के निशंक शब्द से मानते हैं, जिसका मतलब होता है निडर और शुद्ध. खालसा पंथ में निहंग सैनिकों को शामिल करने का उद्देश्य था आक्रमणकारियों से धर्म की रक्षा करना. 18वीं शताब्दी में जब अफगानिस्तान से आए अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब पर कई बार आक्रमण किया तो उसे रोकने में निहंग सिखों की बड़ी भूमिका थी. निहंग सैनिक बहुत शानदार योद्धा माने जाते थे. इनके बारे में कई अंग्रेज़ अफसरों ने भी लिखा था कि उन्होंने कहीं भी निहंगों से बेहतर तलवारबाज़ और तीरंदाज नहीं देखे.

मुस्लिम हमलावरों से लड़ने में अहम भूमिका

महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भी निहंगों का एक जत्था हुआ करता था, जो खतरनाक इस्लामिक आक्रमणकारियों से लड़ने में माहिर था. निहंग सिखों का धार्मिक चिह्न निशान साहिब भी नीले रंग का होता है जबकि बाकी के सिख केसरी रंग के निशान साहिब को अपना धार्मिक चिन्ह मानते हैं.

अब सवाल ये है कि जो सेनाएं एक जमाने में धर्म की रक्षा करने के लिए बनाई गई थीं, उनका आज के दौर में क्या काम है? अगर ये परंपरा का हिस्सा है तो फिर परंपरा के नाम पर इन्हें कत्ले आम की इजाजत कैसे दी सकती है?

भारत को आक्रमणकारियों से बचाने में निहंगों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन अगर इन्ही में से कोई अपने ही देश में लोगों के हाथ पांव काटने लगे और उनकी हत्याएं करने लगे तो फिर तालिबान और हमारे देश के लोकतंत्र में फर्क ही क्या रह जाएगा?

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