लेखक-डा. संदीप कुमार, डा. शैलेश कुमार सिंह, डा. सोमेंद्र नाथ, डा. अश्विनी कुमार सिंह, प्रो. रवि प्रकाश मौर्य
कृषि में संसाधन संरक्षण तकनीक स्थायी रूप से दीर्घकालीक खाद्य उत्पादन में सहायक होता है, परंतु मशीनों के अधिक प्रयोग से मृदा उर्वरता में कमी आने लगती है. धानगेहूं फसल प्रणाली में आधुनिक व बड़े आकार के फार्म मशीनरी जैसे कंबाइन हार्वेस्टर, रोटावेटर, सीड ड्रिल वगैरह की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है. इस प्रकार की कृषि प्रणाली में ज्यादातर किसान फसल अवशेषों को जला दे रहे हैं, जो वातावरण के लिए एक गंभीर समस्या है. नवीन और नवीकरण ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, भारत में हर साल 500 मिलियन टन फसल अवशेषों का उत्पादन होता है और दूसरे प्रदेशों की तुलना में उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा 60 मिलियन टन फसल अवशेषों का उत्पादन होता है,
जिस का उपयोग घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में किया जा सकता है. अगर फसलों की बात की जाए, तो सब से ज्यादा खाद्यान्न फसलों (धान, गेहूं, मक्का इत्यादि) से तकरीबन 70 फीसदी फसल अवशेष प्राप्त होता है. फसल अवशेष जलाने के हानिकारक प्रभाव पोषक तत्त्वों का अधिक मात्रा में नुकसान : फसल अवशेषों को जलाने से उस में पाए जाने वाले पोषक तत्त्वों का काफी मात्रा में नुकसान हो जाता है. एक शोध के अनुसार एक टन धान की पराली जलाने से 5.5 किलोग्राम नाइट्रोजन, 2.3 किलोग्राम फास्फोरस, 25 किलोग्राम पोटैशियम और 1.2 किलोग्राम सल्फर के अलावा कार्बनिक पदार्थों की हानि होती है. इसी तरह पंजाब प्रांत में स्टडी के मुताबिक, पराली जलाने से 100 प्रतिशत कार्बन व 90 फीसदी नाइट्रोजन का हृस होता है. मृदा जीवों पर गलत असर : अवशेषों को बारबार जलाने से मृदा का तापमान काफी बढ़ जाता है, जिस से उस में निवास करने वाले लाभदायक जीव खासकर विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं का नुकसान होने लगता है. भूमि के ऊपरी हिस्से में जीवांश कार्बन और नाइट्रोजन का स्तर कम होने लगता है, जिस से फसलों का विकास अच्छा नहीं होता है.
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मृदा में जो भी खाद व उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है, वह लाभदायक जीवाणुओं की हालत में ही पोषक तत्त्वों के रूप में पौधों को प्राप्त होता है. इस के अलावा अन्य लाभदायक जीव जैसे राइजोबियम, एजोस्पाइरिलम, ट्राइकोडर्मा और मृदा में रहने वाले केंचुए अधिक तापमान के कारण नष्ट हो जाते हैं. हानिकारक गैसों का उत्सर्जन : पराली जलाने पर उस में मौजूद कार्बन का 70 फीसदी हिस्सा कार्बनडाईऔक्साइड के रूप में, 7 फीसदी कार्बनमोनोऔक्साइड और 0.66 प्रतिशत हिस्सा मीथेन के रूप में उत्सर्जित होता है. ग्रीन हाउस और अन्य गैसें जैसे सल्फरडाईऔक्साइड, नाइट्रोजन औक्साइड का उत्सर्जन होने से ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है, जिस से हमारे पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा?है. फसल की कटाई के पश्चात अवशेषों को जलाने से हवा में विषैला रसायन डाईऔक्सिन की मात्रा 33-270 गुना बढ़ जाती है, जिस का प्रभाव वातावरण में अधिक समय तक रहता है और मनुष्य व पशुओं की त्वचा पर जमा हो जाता है,
जिस से खतरनाक बीमारियां होती हैं. इस के अलावा फसल अवशेषों को जलाने से पशुओं के लिए चारे की कमी हो जाती है, इस प्रकार फसल अवशेषों का प्रबंधन कर के पशु चारे की कमी को दूर किया जा सकता?है और मल्चिंग के द्वारा मृदा की जल धारण क्षमता को बढ़ा कर फसल उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है. फसल अवशेषों का प्रबंधन फसल अवशेषों को अंधाधुंध जलाने से मृदा स्वास्थ्य, कार्बनिक पदार्थों की मात्रा, पौधों के गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के अलावा मृदा के सूक्ष्म जीवों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है, इसलिए उचित फसल अवशेष प्रबंधन की रणनीत पर्यावरण हितैषी और कृषि को बढ़ाने वाली है. संरक्षित जुताईगुड़ाई, मृदा संरक्षण का कार्य, शून्य जुताई व फसल अवशेष मल्चिंग, पशुओं का चारा और कंपोस्ट तैयार करना इत्यादि फसल अवशेष प्रबंधन तकनीकों को अपनाया जा सकता है. मृदा के भौतिक गुणों में सुधार : भारी मशीनों जैसे प्लांटर, जीरो टिल, रीपर व कंबाइन हार्वेस्टर के प्रयोग से मृदा सख्त हो जाती है, जिस से मृदा के भौतिक गुणों जैसे अंत:स्पंदन गति, हवा का आवागमन और जल धारण क्षमता पर विपरीत असर पड़ता है.
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यदि मृदा में दलहनी व अन्य फसलों के अवशेषों को मृदा में मिलाते हैं तो इस से मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होता है. इस के अलावा अवशेषों को मृदा में मिलाने से फसलों की वृद्धि व विकास अच्छा होता है और जड़ क्षेत्र में पोषक तत्त्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है. धान आधारित फसल प्रणाली में फसल अवशेषों का प्रयोग व संरक्षित जुताईगुड़ाई करने से मृदा कणों और कार्बन एकत्रीकरण में सुधार होता है. रासायनिक गुणों में सुधार : फसल अवशेष प्रबंधन मृदा के रासायनिक गुणों जैसे पीएच, विद्युतीय चालकता, धनायन आदानप्रदान क्षमता व इस के अलावा मुख्य और गौण पोषक तत्त्वों का रूपांतरण इत्यादि में प्रभावी तौर पर सुधार होता है. मृदा उत्पादकता में सुधार : फसल अवशेषों को मृदा में कुशल प्रबंधन करने से मृदा उत्पादकता एवं पोषक तत्त्व पुनरावर्तन वृद्धि की जा सकती है और केंचुओं की संख्या में बढ़ोतरी होती है, जिस से मृदा की उर्वराशक्ति में वृद्धि होती है.
खरीफ, रबी व जायद की फसलों की कटाई के उपरांत खेत में 20 किलोग्राम यूरिया प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से/तवे वाले हल से व रोटावेटर से जुताई कर देने से फसल अवशेष 20-25 दिन के अंदर सड़ कर मृदा में मिल जाते हैं, जिस से मृदा में कार्बनिक पदार्थों व अन्य तत्त्वों की बढ़ोतरी होती है. इस के अलावा संसाधन संरक्षण तकनीकी के अंतर्गत हैप्पी सीडर, सुपर सीडर, मल्चर व चापर का प्रयोग कर के फसल अवशेषों को मृदा में मिला कर मिट्टी की उर्वराशक्ति को बढ़ाया जा सकता है. किसानों की आय का स्रोत विभिन्न प्रकार के फसल अवशेषों द्वारा ओएस्टर, दूधिया और बटन मशरूम की खेती कर के एक अच्छी आय प्राप्त कर सकते हैं.
फसल अवशेष की गांठों को बायोगैस प्लांट, बायोमास प्लांट अथवा एथेनाल प्लांट में पहुंचा कर प्रति एकड़ 6,000-7,000 रुपए प्राप्त कर सकते हैं. इस के अलावा फसल अवशेषों के द्वारा बायोचार, जो एक प्रकार का कच्चा कोयला होता है, को बना कर भूमि में प्रयोग करने से उत्पादन में वृद्धि होती है. जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विभिन्न प्रकार के कंपोस्ट को बनाने के बाद उस की पैकिंग कर के बेचने से आय प्राप्त कर सकते हैं और आसपास की राइस मिल, गत्ता फैक्टरी, पेपर मिल, कौच व सैनेटरी सामग्री पैकिंग उद्योग व दूसरे जरूरत के सामानों को कारखानों को बेच कर आमदनी बढ़ा सकते हैं.