सत्ता पाने के बाद उसे जनताजनार्दन का आशीर्वाद बताने वाले शिवराज सिंह चौहान अचानक मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद को नरेंद्र मोदी की कृपा समझने लगे हैं. वे इतने डरे हुए हैं कि जनता की छोड़ अपनी फिक्र करने लगे हैं. उन का अधिकांश वक्त मोदी की तारीफ में जाया हो रहा है. बीती 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 71वें जन्मदिन पर देशभर के और मध्य प्रदेश के सभी प्रमुख अखबारों में साढ़े 3 पृष्ठों के विज्ञापन छपे थे, उन में से 2 राज्य सरकार के थे. पहले विज्ञापन में नरेंद्र मोदी के रोबदार फोटो के ऊपर बड़ेबड़े लाल अक्षरों में लिखा था, ‘आप के सपने को संकल्प बना कर आत्मनिर्भरता के पथ पर अग्रसर.’ फिर संक्षिप्त 2 पैराग्राफ की गद्यरामायण मोदीजी का गुणगान करती हुई थी कि माननीय श्री नरेंद्र मोदीजी का गुजरात के मुख्यमंत्री से ले कर भारत के प्रधानमंत्री तक का 20 वर्षों का कार्यकाल जनकल्याण व सुराज की दृष्टि से मील का पत्थर साबित हुआ है.
इन अखबारों ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह सहित दूसरे दिग्गज भाजपाइयों के लेख भी छापे, जिन में नरेंद्र मोदी की तारीफों में कसीदे गढ़े गए थे. दूसरे पृष्ठ के विज्ञापन में शिवराज सिंह फोटो में जबरन मुसकराने की कोशिश करते ऐलान कर रहे थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस पर उन्हीं की प्रेरणा से मध्य प्रदेश में 17 सितंबर से 7 अक्तूबर तक जनकल्याण और सुराज अभियान मनाया जाएगा, जिस में यहयह और वहवह कार्य अमुकअमुक तारीखों में किए जाएंगे. अभियानों की इस तारीखवार लिस्ट को देख कर इस पर सियासी और गैरसियासी हलकों में हंसीमजाक में कहा यह गया कि चलो शिवराज सिंहजी 7 अक्तूबर तक तो सेफ हैं, इस के बाद जो होगा, देखा जाएगा. ठीक इसी दिन एक प्रमुख दैनिक अखबार में मुखपृष्ठ पर एक खबर प्रकाशित हुई थी कि विजय रूपाणी के सारे मंत्री बाहर, अन्य राज्यों में भी यह संभव. इस समाचार में केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव के हवाले से इशारा किया गया था कि भाजपा गुजरात के अभिनव ‘प्रयोग’ को अन्य राज्यों में भी आजमा सकती है. गुजरात प्रयोगशाला नहीं, बल्कि ‘प्रेरणा’ है (यानी प्रयोग को दोहराना ही प्रेरणा होता है).
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देश के इस नंबर वन अखबार के दफ्तरों पर पिछले दिनों ताबड़तोड़ छापे सनसनीखेज ढंग से पड़े थे मानो वाकई में अरबोंखरबों रुपयों का घोटाला हुआ हो, लेकिन एकदिवसीय हल्ले के बाद बात ‘खोदा पहाड़ और निकला चूहा’ जैसे आईगई हो गई. कुछ लोगों ने समझ लिया कि ऐसे छापे एक खास मकसद से डाले जाते हैं, जो मीडिया संस्थान सरकार का विरोध करता है उसे यों ही तंग किया जाता है, जबकि कुछ का खयाल था कि इस मामले में भी ‘डील’ हो गई. गौरतलब बात यह कि इस अखबार का सरकारी विज्ञापनों ने बहिष्कार सा किया हुआ है, इसलिए 17 सितंबर को आम राय यह बनी कि चूंकि उस को ये 3 पेज के विज्ञापन नहीं मिले या उस ने नहीं लिए, इसलिए उस ने भूपेंद्र यादव का बयान छाप कर अपनी भड़ास निकाल ली. यह खबर उक्त अखबार में न भी छपती तो भी आजकल सभी शिवराज सिंह को इतनी सहानुभूति से देखते हैं कि वे बेचारे असहज हो उठते हैं.
प्रदेशों के पंचक भाजपा आलाकमान ने एक हैरतअंगेज फैसला लेते हुए पहले तो गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को उन्हीं की मरजी से चलता किया, फिर पूरे घर के बल्ब बदल डालूंगा की तर्ज पर पूरा मंत्रिमंडल ही बदल डाला. नया मुख्यमंत्री भी बनाया तो एक नएनवेले से चेहरे को जो पहली दफा विधायक बना था. नए तमाम मंत्री भी पहली बार के विधायक हैं. इस प्रयोग से अब बचेखुचे भाजपाई मुख्यमंत्री सकते में हैं कि 3 राज्यों के तो मुख्यमंत्री बदल दिए गए, अब कहीं हमारा नंबर तो नहीं. यह शुरुआत, कर्नाटक से हुई थी जब 26 जुलाई को अपनी सरकार के 2 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा ने राज्यपाल थावरचंद गहलोत को धन्यवाद नहीं बल्कि अपना इस्तीफा दिया था. इस मौके पर अपनी पीड़ा और व्यथा को उन्होंने भक्ति की चादर से ढकते हुए कहा था, ‘‘मैं दुखी हो कर इस्तीफा नहीं दे रहा हूं. मैं खुशीखुशी ऐसा कर रहा हूं. मैं नरेंद्र मोदी और अमित शाह का आभारी हूं, जिन्होंने मुझे जनता की सेवा करने का मौका दिया.’’ इस भावुक वक्तव्य से बरबस ही त्रेता युग के वानर राजा बालि की याद हो आती है, जिसे राम ने छल से मारा था.
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वाल्मीकि ने अपनी रामायण में मरते हुए बालि के मुंह से राम से ये सवाल करवाए हैं- द्य मैं तो सुग्रीव से युद्ध में तल्लीन था और आप की तरफ पीठ कर के लड़ रहा था तो मुझे मार कर आप को क्या मिला? द्य आप तो मर्यादा पुरषोत्तम कहलाते हैं. मैं अधर्मी नहीं हूं, फिर आप ने मेरा वध क्यों किया? द्य आप के इस कृत्य ने एक निर्दोष को सजा दी है, आप का लक्ष्य है वध करना, फिर वह चाहे न्यायसंगत हो या न हो और. द्य आप ने उस पर बाण चलाया जो आप से युद्ध ही नहीं कर रहा था. यह कहां तक न्यायसंगत है? बालि के इन और ऐसे कुछ और सवालों का कोई तार्किक जवाब या पाठकों की जिज्ञासा दूर करने में वाल्मीकि ने तो कोई खास कोशिश नहीं की, लेकिन तुलसीदास ने रामचरित मानस में राम के मुंह से कहलवाया- ‘‘अनुज वधु भगिनी सुत नारी. सुनु सठ कन्या सम ए चारी, इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई.’’ अर्थात – हे मूर्ख सुन, छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या – ये चारों समान हैं.
इन्हें जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं लगता है. (किष्किन्धा कांड) साफ दिख रहा है कि राम को महिमामंडित करने की गरज से तुलसीदास ने रिश्तों, न्याय और नैतिकता की नई परिभाषा गढ़ दी, जिस से राम जो भी कहें और करें, वह एक आदर्श के रूप में स्थापित हो जाए, वरना हर कोई जानता है कि बालि की बुरी नजर सुग्रीव की पत्नी थी. दोनों में दुश्मनी की वजह उस को ही माना गया है. बालि की पत्नी अप्सराओं जैसी सुंदर और विदुषी भी थी, जिस ने राम की बाबत उसे आगाह भी किया था. मरने के बाद उस ने सुग्रीव से शादी कर ली थी या वैराग्य धारण कर लिया था, इसे ले कर कई विरोधाभास हैं, लेकिन इस प्रसंग से और मंदोदरी विभीषण की शादी से यह तो स्पष्ट हुआ था कि बड़े भाई की पत्नी तो भोग्या हो सकती है, लेकिन छोटे भाई की पत्नी पूज्या है. यह अति तुलसीदास और अब आज के भाजपा कथावाचक ही कर सकते हैं. दोनों का मकसद राम को सही साबित करना है.
यही थ्योरी मुख्यमंत्रियों को बदले जाने के मामले में लागू हो रही है कि गलत वे ही हैं. भाजपा का तो एजेंडा ही नरेंद्र मोदी को इतना महिमामंडित कर देना है कि कोई उन के सहीगलत फैसलों पर न तो उंगली उठाए और न ही कोई तर्क करे. जैसे बालि ने राम के हाथों मरने पर उस को तरना बताया था, ठीक वैसे ही आज के येदियुरप्पा सरीखे बालि कर रहे हैं. वे तुलसी के राम से कोई सवाल नहीं करते कि हे नाथ, मुझे क्यों हटाया और वसवराज बोम्मई को क्यों सीएम की कुरसी पर बैठाया उलटे वे, सियासी तौर पर इसे मोक्ष मानते हैं. अब यह और बात है कि येदियुरप्पा अपनी नई कर्नाटक यात्रा को ले कर मोदीशाह का सिरदर्द बन रहे हैं. अभी तक बोम्मई और उन में कोई बैर नहीं था, लेकिन अब होने लगा है. कर्नाटक का मामला शांति से यानी बिना टूटफूट के सुलझ गया तो आलाकमान ने नजरें दूसरे राज्यों पर गड़ा दीं, जिस का नतीजा था बीती 14 सितंबर को मोदीशाह द्वारा हिमाचल प्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का अचानक दिल्ली तलब किया जाना जिस से लोग और चौंके थे कि अभी तो गुजरात का मामला भी पूरी तरह नहीं सुलटा है और एक और मुख्यमंत्री को बुला लिया गया.
सियासी हलकों में हैरानी इस बात को ले कर थी कि वे 2 दिनों पहले ही दिल्ली से लौटे थे. दोनों में क्या बात हुई यह तो वे दोनों ही जानें, लेकिन शिवराज सिंह की घबराहट बेवजह नहीं है, जिस पर भूपेंद्र सिंह के इशारे ने तो उन की नींद उड़ा दी है. 17 सितंबर को उन के बोले हर दूसरे वाक्य में नरेंद्र मोदी का नाम और काम वैसे ही आ रहा था जैसे अंधभक्तों के मुंह से रामराम निकलता रहता था. इस दिन उन्होंने नरेंद्र मोदी की तारीफ इतनी मात्रा में कर डाली जितनी कि रामचरित मानस में तुलसीदास ने भी राम की नहीं की होगी. मसलन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नए भारत का निर्माण हो रहा है, उन के नेतृत्व में मुझे कई आयामों को नजदीक से अनुभव करने का मौका मिला.
आज मोदीजी के प्रधानमंत्री रहते हुए भारत पुन: समृद्धशाली, शक्तिशाली, वैभवशाली, संपन्न और सशक्त होने का गौरव प्राप्त कर रहा है और विकास के प्रकाश को संपूर्ण भारत में पहुंचाने के यज्ञ में मध्य प्रदेश भी कदम से कदम मिला कर चल रहा है वगैरह… इस बाद उन्होंने भाजपा कार्यालय में मोदी की चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए कहा कि सरकार चलाने वालो, सावधान हो जाओ. मैं न खाऊंगा, न खाने दूंगा. मोदीजी मैन औफ आइडियाज और विजिनरी लीडर हैं. यों तो हर किसी ने नरेंद्र मोदी को जन्मदिन की शुभकामनाएं दीं, जिन में से अधिकांश ने राजनीतिक शिष्टाचार निभाया, लेकिन जिन मुख्यमंत्रियों पर कभी भी हटाए जाने की तलवार लटक रही है, वे कुछ ज्यादा ही भयभीत नजर आए. हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने कहा कि जिन मुद्दों पर पहले हम दूसरे देशों की तरफ देखते थे, आज आप ने उन कमियों को दूर कर देश को नई पहचान दी है. पूरी दुनिया ने तकनीक, चिकित्सा, शिक्षा और रक्षा के क्षेत्र में देश की प्रगति देखी है.
मध्य प्रदेश की तर्ज पर हरियाणा में भी 20 दिवसीय जनसंपर्क अभियान सेवा और समर्पण के नाम से शुरू हो गया. हिमाचल के जयराम ठाकुर ने इन दोनों से दौड़ में बराबरी की कोशिश में देवीदेवताओं से कामनाएं करते हुए नरेंद्र मोदी की तारीफ में लगभग वही शब्द कहे जो हर किसी ने घुमाफिरा कर कहे थे. मसलन, उन का गौरवशाली नेतृत्व… आत्मनिर्भर भारत की नींव रखने वाले… परिश्रमी, ईमानदार और दृढ़ संकल्प वाले… मोदी… मोदी के माने बात अकेले जन्मदिन की और सिर्फ मुख्यमंत्रियों की नहीं है, चापलूसी का न तो कोई मौका होता है और न ही मौसम, लेकिन एक दस्तूर जरूर है, जिसे फेरबदल में हटाए गए दिग्गज केंद्रीय मंत्रियों रविशंकर प्रसाद, डा. हर्षवर्धन, रमेश पोखरियाल निशंक’, संतोष गंगवार और प्रकाश जावडेकर के चलता कर देने के बाद भी निभाते रहते हैं. प्रकाश जावडेकर ने तो मोदी के जन्मदिन पर इंग्लिश भाषा के अखबारों में उन को महिमामंडित करते एक लेख भी छपवा दिया. यह क्या है आस्था या डर, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि यह सिर्फ और सिर्फ डर है, जिस की अपनी वजहें भी हैं.
गुजरात में विजय रूपाणी को हटा कर भूपेंद्र पटेल को लाने का मतलब क्या है? असल में न तो यह कर्नाटक की तरह जातिगत समीकरण साधने की कोशिश है और न ही इस के पीछे दूसरे कोई कारण हैं, जो राजनीतिक पंडित तरहतरह से गिना रहे हैं. यह दिखाने की असफल कोशिश की जा रही है कि जो कुछ उन के जन्मदिन पर उन की उपलब्धियों के बारे में कहा गया और वह गलत नहीं है और इस के लिए वे कुछ भी कल्पनीयअकल्पनीय करने और हर योग्यअयोग्य को हटाने का जोखिम उठा सकते हैं. जब उन्हें यह समझ आया कि जनता केंद्रीय मंत्रियों को हटाए जाने से खुश नहीं हुई तो उन्होंने उत्तराखंड के बाद गुजरात से मुख्यमंत्रियों की छंटाईसफाई शुरू कर दी, क्योंकि वे केंद्रीय मंत्रियों के मुकाबले सीधे जवाबदेह होते हैं. आसानी से मान लिया गया कि विजय रूपाणी कोरोना सहित दूसरे कई मसलों पर नाकाम रहे थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया. यह मूल्यांकन अकेले नरेंद्र मोदी करते हैं और करते रहेंगे, जो लाख जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी को कोसते रहें, लेकिन राजनीतिक ‘प्रेरणा’
उन्हीं से ले रहे हैं, जिन की तूती कांग्रेस में आजादी के बाद से आज भी सोनिया और राहुल गांधी जैसे वारिसों की शक्ल में बोल रही है. ये सभी सिरे से असुरक्षित रहे हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा रबर स्टांप बन कर रह गए हैं, जिन का काम डेढ़ इंची मुसकान के साथ यह बताना भर रह गया है कि आज पार्टी में इसे शामिल किया गया और उसे हटाया गया. इंदिरा गांधी को जबजब भी लगा कि जनता नाराज और नाखुश हो रही है तो उन्होंने कोई नया शिगूफा छेड़ दिया या किसी बड़े कांग्रेसी नेता को बाहर जाने को मजबूर कर दिया, जिस से फौरीतौर पर चर्चा हुई और हल्ला भी मचा कि कुछ हो रहा है. इस चालाकी में तब मीडिया उसी तरह उन के साथ होता था, जैसे आज नरेंद्र मोदी के साथ है. जैसे उस से पहले जवाहरलाल नेहरू के कामराज प्लान से बहुतों को बाहर निकाल फेंक दि था जिन में बाद में प्रधानमंत्री बने. लाल बहादुर शास्त्री भी शामिल थे. इंदिरा गांधी के इस मूड से कांग्रेसी डरे रहते थे तो आज भाजपाई नरेंद्र मोदी से डरे हुए हैं. अगर वे न डरे होते तो इतनी प्रीति वे भी न दिखाते. इस डर की व्याख्या दिग्गज और नरेंद्र मोदी से अपेक्षाकृत कम डरने और कम लिहाज करने वाले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गुजरात के फेरबदल के तुरंत बाद राजस्थान सरकार के एक वैबिनार में बड़े सटीक और बिंदास तरीके से की थी,
‘नानक दुखिया सब संसार…’ नेता दुखी रहते हैं. विधायक इसलिए दुखी हैं कि वे मंत्री नहीं बन पा रहे हैं, मंत्री इसलिए दुखी हैं कि उन्हें अच्छा विभाग नहीं मिल पा रहा है. जिन मंत्रियों को अच्छा विभाग मिला, वे इसलिए दुखी हैं कि मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और मुख्यमंत्री इसलिए दुखी रहते हैं कि उन्हें पता नहीं रहता कि वे कब तक पद पर रहेंगे. इस तरह के दुखों पर बुद्ध के बाद गुरुनानक ने बहुत सोचसमझ कर कहा था कि नानक दुखिया सब संसार… अपने दौर के मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी के एक व्यंग का हवाला देते हुए नितिन गडकरी ने यह भी जोड़ा था कि जो राज्यों में काम के नहीं थे उन्हें दिल्ली भेज दिया, जो दिल्ली में काम के नहीं थे उन्हें राज्यपाल बना दिया और जो वहां भी काम के न थे उन्हें राजदूत बना दिया. ये बातें तब कही गई थीं जब गुजरात यानी भूपेंद्र पटेल मंत्रिमंडल बना नहीं था. अगर उस के बाद कही जातीं तो तय है गडकरी कहते, जो किसी काम के नहीं थे उन्हें मंत्री और मुख्यमंत्री तक बना दिया गया. गौरतलब है कि गुजरात के 24 मंत्रियों में से 12 मंत्रियों ने कालेज का मुंह भी नहीं देखा. इन में से भी तीन 12वीं, पांच 10वीं, तीन 8वीं पास हैं. एक मंत्रीजी तो सिर्फ चौथी क्लास तक ही पढ़े हैं.
2 मंत्री अंडरग्रेजुएट हैं. केवल 9 ही ग्रेजुएट हैं. गुजरात नरेंद्र मोदी का गृहप्रदेश है. लिहाजा, पूरे मंत्री बदले जाने के इस अनूठे ‘प्रयोग’ पर कोई चूं भी नहीं कर पा रहा. शिवराज सिंह जैसे भाजपाई मुख्यमंत्रियों का डर इसी बात को ले कर है कि अगर कल को वे भी चलता कर दिए गए तो पत्ता भी नहीं हिलने वाला. उलटे, प्रचार यह होगा कि वे कोरोना पर असफल थे, राज्य में भ्रष्टाचार बढ़ रहा था, खुद पार्टी के कुछ बड़े नेता उन से असंतुष्ट थे आदि. यह सब कहा नहीं जाएगा, बल्कि कहा जाने लगा है, इसलिए वे दुखी हैं और डरे हुए भी हैं. लेकिन उस से भी बड़ा दुख यह कि अब जाएं तो जाएं कहां? भाजपा में चारों तरफ मोदी ही मोदी हैं, इसलिए उन्हें मोदी भजन में ही सुरक्षा दिख रही है, ठीक वैसे ही जैसे आम भक्तों को भगवान में दिखती है. जिन्हें रटा दिया गया है कि वह ही दुख देता है और पूजाअर्चना करने पर उन्हें दूर भी कर देता है, इसलिए यह मत पूछो कि हे प्रभु, मुझे कष्ट क्यों दिए, बल्कि यह प्रार्थना करो कि दे दिए तो दे दिए, अब मैं पापी तुम्हारी शरण में हूं, इन्हें दूर करो. यही शिवराज सिंह और उन जैसे मुख्यमंत्री कर रहे हैं कि भक्ति इतनी करो कि ठुकराए जाने के बाद भी मन में कोई गिल्ट न रहे और भक्ति कहीं अभक्ति में न बदल जाए. प्रसंगवश एक दिलचस्प बात यह जान लेना भी जरूरी है कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाया भी इन्हीं मुख्यमंत्रियों और नेताओं ने है.
साल 2013 और 14 की शुरुआत में शिवराज सिंह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में मोदी की बराबरी से थे, लेकिन अब वे भी उन्हें अवतार कहने लगे हैं तो उन पर और उन जैसों की हीनता पर तरस आना स्वाभाविक बात है. नितिन गडकरी ने एक और ज्ञान की बात यह कही थी कि वे चूंकि भविष्य की चिंता नहीं करते, इसलिए खुश रहते हैं. अब शिवराज सिंह जैसों को भविष्य की चिंता खाए जा रही है तो वे दुखी हो रहे हैं और इस दुख को दूर करने के लिए भी भक्ति से मोदी को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं. मोदी किस से खुश हुए और किस से नहीं, यह भी जल्द ही साफ हो जाना है. द्य गुनाह इन का, सजा उन को पश्चिम बंगाल का नजारा देख नरेंद्र मोदी और उन के लक्ष्मण अमित शाह भी इंदिरा गांधी की तरह घबराए हुए हैं, क्योंकि कांग्रेस भी कभी इसी तरह टूटना शुरू हुई थी. दूसरे, कोरोना कहर के बाद देशभर के लोग सरकार से नाखुश हैं. पिछले एक सवा साल से कुछ भक्तों को छोड़ रोजगार, महंगाई और स्वास्थ्य सहित शिक्षा सेवाओं और नीतियों को ले कर लोग सोचने और सवाल पूछने भी लगे हैं. उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल में इन सवालों के कोई संतोषजनक जवाब सरकार के पास नहीं.
लिहाजा, भाजपा की हालत खस्ता है, जिस की हर मुमकिन कोशिश कराहती व निरीह जनता को राम, धर्म और जातियों में उलझाए रखने की है, लेकिन इस में भी पश्चिम बंगाल का नतीजा और बाद के हालात आड़े आ रहे हैं. इसलिए अब मुख्यमंत्रियों को बदलने से यह जताने की कोशिश की जा रही है कि नाकाम केंद्र सरकार नहीं, बल्कि राज्य सरकारें हैं. इस में भी एक बड़ी दिक्कत उत्तर प्रदेश में अंदरूनी तौर पर उठता यह सवाल है कि फिर योगी आदित्यनाथ को क्यों नहीं बदला गया. क्या गंगा में बहती लाशें कामयाबी का प्रतीक थीं या वहां बेरोजगारी कम या खत्म हो गई है या फिर महंगाई की मार नहीं पड़ रही है. इन और ऐसे दर्जनों सवालों का जवाब राम, अयोध्या या मथुराकाशी तो कतई सभी के लिए नहीं हैं.
10 फीसदी सवर्णों को छोड़ कोई इस से संतुष्ट नहीं. इस से भी अहम दूसरी बात यह है कि वर्ष 2024 के मद्देनजर मोदीशाह अपने वर्चस्व के लिए कोई जोखिम और चुनौती नहीं चाहते हैं, इसलिए नए और नातजरबेकार मुख्यमंत्रियों को मौका दे कर एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं. पहला यह कि भाजपा की दूसरी पंक्ति को इतना डरा दो कि कोई सिर ही न उठाए और दूसरा यह कि हम ने तो बदलाव जनता के भले के लिए किए थे, इसलिए इन नयों को एक मौका और राज्य चुनावों में दिया जाए, जिस से ये खुद को साबित कर सकें. यह तो इन का ट्रेनिंग पीरियड था.