लेखक-पारुल हर्ष बंसल

मुरगे के बांग देते ही मानो गांवदेहात की अलार्म घड़ी बज जाती है. सभी लोग लोटे के साथ चल पड़ते हैं खुले में शौच करने, जो उन का जन्मसिद्ध अधिकार है. भारत में न जाने कितने ही शौचालय बन चुके हैं, फिर भी उतने ही बनने अभी बाकी हैं. कुछ जगह तो यह आलम है कि बंद किवाड़ के पीछे उतरती ही नहीं है. अब इन शौचालयों के बनने से औरतों और लड़कियों को तो जैसे जीवनदान ही मिल गया है. जमुना की तो जान में जान आ गई है, क्योंकि उस की बेटी कजरी बड़ी हो रही है. वह नहीं चाहती थी कि जो समस्याएं गांव की कठोर जिंदगी में उस ने भुगती हैं, उन का सामना कजरी भी करे. एक दिन सुबहसुबह कजरी अपने बिस्तर पर बैठी खूब रोए जा रही थी. उस का बापू भवानी सिंह घर के बाहर चबूतरे पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. यह उस का खानदानी शौक रहा है और ऐसा शौक हरियाणा के हर गांव के मर्द की फितरत में शामिल है. कजरी की आवाज जैसे ही भवानी सिंह के कानों में पड़ी,

उतनी ही तेज आवाज में वह जमुना को कोसने लगा, ‘‘अरे कहां मर गई… अपने साथ इसे भी ले जाती… यह क्यों मेरे कान पर भनभना रही है…’’ भवानी सिंह की नाराजगी जमुना के लड़का न जन पाने के चलते बनी हुई थी. जमुना के अंदर इन जलीकटी बातों से खून उबाल मार रहा था. हालांकि ऐसी बातें उस के लिए कोई नया किस्सा नहीं थीं. भवानी सिंह मानो पति की जगह सास का किरदार निभा रहा हो. हमेशा बैठेबैठे मूंछों पर ताव देता रहता और जीभ से जहर उगलता रहता. जमुना के दिल की सुनें, तो उस के हिसाब से भवानी सिंह उस की जिंदगी में सांप की तरह कुंडली मारे बैठा था, जो छेड़े बिना ही डसने को तैयार रहता था. जमुना मन मसोस कर और जबान पर ताला डाल कर भवानी सिंह की पुकार की वजह जानने के लिए हाजिर हो गई. ‘‘अरे, आज तुम्हारी छोरी क्यों सुबक रही है?’’ भवानी सिंह ने पूछा. यह सुन कर जमुना कजरी की ओर लंबेलंबे डग भरते हुए पहुंची. कजरी एक कोने में खुद में सिमटी हुई सी पड़ी थी.

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उस ने अपने मुंह को घुटनों में ऐसे छिपा रखा था मानो कोई अपराध किया हो. ‘‘ऐसे में रोते नहीं हैं… यह तो हर जनानी के साथ होता है.’’ ‘‘पर मां, यह सब… गंदा…’’ ‘‘हांहां, ऐसा ही होता है. जब लड़की बड़ी होती है…’’ ‘‘मैं समझी नहीं…’’ ‘‘मतलब यह कि अब तुम सयानी हो गई हो. अब ये सब बातें बाद में, पहले तुम स्नानघर में जा कर नहा लो और यह कपड़ा इस्तेमाल करो.’’ ‘‘अच्छा मां… पर, एक दिन मैं ने चंपा को घासफूस और कुछ सूखे पत्ते इकट्ठे करते हुए देखा था. मैं ने उस से पूछा, तो वह बोली थी कि तुझे भी समय आने पर सब पता चल जाएगा. ‘‘बेटी, गरीब लोगों के पास इतना कपड़ा नहीं होता, जो माहवारी के मुश्किल दिनों में इस्तेमाल कर सकें, इसीलिए वे घासफूस, सूखे पत्ते का ही सहारा बहते हुए खून को रोकने के लिए करते हैं और यही बीमारी की वजह बनती है.

’’ ‘‘अरे, दोनों मांबेटी खुसुरफुसुर ही करती रहोगी या मेरे हुक्के में कोई कोयला भी डालेगा?’’ भवानी सिंह चिल्लाया. ‘‘मेरा बस चले तो कोयला सीधे इन की चिता में ही डालूं. काम के न काज के दुश्मन अनाज के…’’ ‘‘कहां है कजरी… ऐ छोरी… क्या मेहंदी लगी है?’’ ‘‘वह आराम करेगी 2 दिन…’’ ‘‘क्या हुआ?’’ ‘‘अरे वही… अब छोरी सयानी हो रही है.’’ ‘‘अच्छा.’’ ‘‘कजरी के बापू एक बात कहूं… हमारी छोरी बड़ी होशियार है. अब उसे बड़े स्कूल जाना होगा. मास्टर साहब आए थे कल. वे कह रहे थे कि यह छोरी तुम्हारा नाम रोशन कर सकती है.’’ ‘‘भेजे में अक्ल नहीं है तेरे क्या… हमारे घर की छोरियां चूल्हाचौका सीखती हैं, काले अक्षर नहीं… अब बस कोई अच्छा सा लड़का देख कर इस का ब्याह कर दूंगा,’’ भवानी सिंह बोला. इतने में मास्टर साहब वहां आ गए और बोले, ‘‘मैं ने कजरी का फार्म मंगा लिया है.’’ ‘‘अरे मास्टर साहब, आप तो सब जानते हैं, फिर भी… औरतें हमारे पैर की जूती हैं और जूती को कभी सिर पर नहीं रखा जाता.

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आज हमारा छोरा होता, तो हम उसे पढ़ने विदेश भी भेज देते,’’ भवानी सिंह ने कहा. जमुना का मन अपने पति को जी भर कर गाली देने का हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘इस गांव के किसी मर्द ने कभी एक फली के दो टूक भी किए हैं… सब अपनी जनानियों के कामकाज पर निर्भर हैं. इन की मर्दानगी तो बस धोती में ही है. मूंछें तो इन को मुंड़वा ही देनी चाहिए. मर्द कहलाने के लायक ही नहीं हैं. ‘बेटा न हो पाने का सारा इलजाम मुझ पर मढ़ते रहते हैं. अब इन्हें कौन समझाए कि बेटा या बेटी पैदा होने में औरत और मर्द दोनों ही बराबर के हिस्सेदार होते हैं, पर कुसूरवार हम जनानियों को ही ठहराया जाता है.’ अपनी बेटी को बाहर पढ़ाने की जिद पूरी कराने के लिए जमुना गांव की कई औरतों को इकट्ठा कर लाई और धरने पर बैठ गई. गांव के प्रधान तक यह खबर पहुंच गई. लिहाजा, आज भवानी सिंह के घर पर पंचायत बैठेगी. औरतों ने गांव की छोरियों को पाठशाला से बड़े स्कूल में भेजने की बात रखी. बड़ा ही वादविवाद हुआ. प्रधान जमुना से बोले, ‘‘यह नई रीति क्यों…? हमारे गांव के बस छोरे पढ़े हैं, न कि छोरी.’’ जमुना बोली, ‘‘यहां के छोरों ने आज तक एक चूहा भी मारा है? अब बारी छोरियों की है.

ये अपने करतब दिखाएंगी. आप इन्हें एक मौका दे कर तो देखिए.’’ भवानी सिंह को प्रधान की मरजी के साथ अपनी रजामंदी भी देनी पड़ी. अब जमुना दिन दूनी रात चौगुनी काम करने लगी, जिस से पढ़ाई के लिए पैसा इकट्ठा हो सके. लेकिन भवानी सिंह को हुक्का गुड़गुड़ाने से ही फुरसत नहीं थी. जमुना उस समय 8वीं पास थी. अंगूठाटेक जनानियों के बीच जब वह बैठती, तो वे उसे अध्यापिका का दर्जा देतीं, पर भवानी सिंह को इस की कोई कदर न थी. इधर कजरी अपने नाम की तरह रूपरंग में सांवलीसलोनी थी, पर कजरी की पढ़ाईलिखाई ने उस के रंगरूप को बहुत पीछे कर दिया था.

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कुछ सालों बाद एक गाड़ी भवानी सिंह के गांव में आ कर रुकी, जिस में से एक महिला अफसर उतरी. यह देख कर भवानी सिंह हैरान रह गया कि एक औरत की इतनी इज्जत कैसे? वह कजरी थी और आज जिला अधिकारी के पद पर कार्यरत थी. यह देख कर भवानी सिंह ने अपनी मूंछों पर ताव दिया और बोला, ‘‘यह मेरी छोरी है. इस ने मेरा नाम रोशन कर दिया है…’’ लेकिन भवानी सिंह की आंखें जमुना के आगे झुक गईं, जिसे उस ने कभी सही माने में औरत का दर्जा ही नहीं दिया. हमेशा उसे कोल्हू का बैल ही समझा. पर औरत में समाज को बदलने की ताकत होती है, जिसे भवानी सिंह जैसे निठल्ले, अनपढ़, जाहिल को समझने में शायद सदियां बीत जाएंगी.

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