उत्तर प्रदेश के जिला वाराणसी के दालमंडी इलाके के चाहमामा निवासी काजिम हुसैन ने बीते साल 4 दिसंबर, 2016 की रात को पुलिस को सूचना दी थी कि उन के पिता मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की चांदी की 4 शहनाइयां घर में रखे बक्से का ताला तोड़ कर चोरी कर ली गई हैं. जब यह घटना घटी थी, तब वह हड़हा स्थित अपने पुश्तैनी मकान पर परिवार के साथ गए हुए थे. मामला गंभीर था, इसलिए चौक पुलिस ही नहीं, क्राइम ब्रांच पुलिस ने चोर का पता लगाने की काफी कोशिश की. लेकिन जब ये लोग कुछ नहीं कर पाए तो इस मामले की जांच को एसटीएफ को सौंप दिया गया. सर्विलांस से पता चला कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाइयां चोरी की सूचना देने वाले काजिम के बेटे नजरे हसन ने ही चुराई थीं और वह असम भागने वाला था. पुलिस को मुखबिरों से पता चला था कि नजरे हसन हड़हा बीर बाबा मंदिर के पास खड़ा किसी का इंतजार कर रहा है. एसटीएफ इंसपेक्टर विपिन राय की अगुवाई में टीम ने घेराबंदी कर के नजरे हसन और उसे रुपए देने आए 2 लोगों को गिरफ्तार कर लिया.

पूछताछ में पता चला कि नजरे हसन को रुपए देने वाले छोटी पिपरी में ज्वैलर्स की दुकान चलाने वाले शंकरलाल और उस का बेटा सुजीत था. नजरे हसन ने पूछताछ में बताया था कि एक दिसंबर को घर में रखे बड़े बक्से का ताला तोड़ कर उसी ने शहनाइयां चुराई थीं. इस बात का किसी को पता न चल पाए, इस के लिए उस ने मुख्यद्वार का ताला नहीं तोड़ा था. नजरे हसन ने चारों शहनाइयों को चुरा कर छोटी पियरी स्थित शंकर ज्वैलर्स के मालिक शंकरलाल और उस के बेटे सुजीत को 17 हजार रुपए में बेच दी थीं. ज्वैलर्स पितापुत्र ने बताया कि 4 शहनाइयों में 3 शहनाइयां चांदी की थीं, जबकि एक शहनाई लकड़ी की थी. उस पर केवल चांदी का पत्तर लगा था. उस समय वे उसे बाकी बचे 42 सौ रुपए और लकड़ी वाली शहनाई देने आए थे. इस के बाद एसटीएफ ने ज्वैलर्स की दुकान से शहनाई को गला कर निकाली गई एक किलोग्राम 66 ग्राम चांदी बरामद कर ली थी.

उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने भले ही कभी सपने में नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन उन के अपने ही उन की मशहूर शहनाई बेचने जैसी घटना को अंजाम देंगे. लेकिन इसी बहाने इस बात पर विचार किया जा सकता है कि इतने बड़े कलाकार के घर वालों के सामने कैसे हालात पैदा हो गए कि देश के लिए जो शहनाइयां धरोहर थीं, उन का सौदा उस ने चंद हजार रुपए में कर डाला. देश में शास्त्रीय संगीत को संजोए रखने के लिए सरकार काफी बड़ी रकम खर्च करती है, इस के लिए तमाम विश्वविद्यालय और संस्थान हैं, जहां लाखों करोड़ों रुपए खर्च होते हैं. इस के बावजूद एक कलाकार की जिंदगी का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह अपना जीवन किस तरह गुजारता है.

जिन मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाइयां चोरी हुई थीं, उन का जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ था. उन के पिता का नाम पैगंबर खां और माता का नाम मिट्ठनबाई था. ये लोग डुमरांव के ठठेरी बाजार में किराए के एक मकान में रहते थे. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का बचपन का नाम कमरुद्दीन था. वह अपने मातापिता की दूसरी संतान थे. उन से बड़े थे शम्सुद्दीन. बाद में उन के दादा रसूल बख्श ने उन का नाम बिस्मिल्लाह खां रख दिया, जिस का मतलब होता है अच्छी शुरुआत. भारत के प्रख्यात शहनाई वादक होने के नाते सन 2001 में उन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था. वह तीसरे भारतीय संगीतकार थे, जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था. उन्होंने शहनाई बजाना घर वालों से ही सीखा था. उन के घर वाले दरबारी राग बजाने में माहिर थे. वे बिहार की भोजपुर रियासत में अपना हुनर दिखाने जाते थे. उन के पिता बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई बजाया करते थे.

6 साल की उम्र में बिस्मिल्लाह खां अपने पिता के साथ बनारस आ गए थे. यहां उन्होंने अपने चाचा अलीबख्श विलायती से शहनाई बजाना सीखा. उन के उस्ताद चाचा विलायती विश्वनाथ मंदिर में स्थाई रूप से शहनाई बजाते थे. वह शिया मुसलमान थे, इस के बावजूद अन्य हिंदुस्तानी संगीतकारों की भांति धार्मिक रीतिरिवाजों के प्रबल पक्षधर थे और देवीदेवताओं में कोई अंतर नहीं समझते थे. वह काशी के बाबा विश्वनाथ मंदिर में भी जा कर शहनाई बजाते थे और गंगा किनारे भी बैठ कर घंटों रियाज करते थे. उन का मानना था कि ऐसा करने से गंगा मइया प्रसन्न होती हैं. सन 1956 का संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार पाने वाले बिस्मिल्लाह खां को इस के बाद ‘पद्मविभूषण’ (1980) और ‘भारत रत्न’ जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. अफगानिस्तान से ले कर अमेरिका तक की यात्रा कर के उन्होंने शहनाई घरघर पहुंचाई. अपने अनोखे शहनाई वादन की कला से शहनाई को प्रतिष्ठा दिलाने वाले बिस्मिल्लाह खां का 21 अगस्त 2006 को देहांत हो गया था.

वाराणसी में वह गंगा को संगीत सुनाते थे. उन की आत्मा का नाद उन की शहनाई की स्वरलहरियों में गूंजता हुआ हर सुबह बनारस को संगीत के रंग से सराबोर कर देता था. शहनाई उन के कंठ से लग कर नाद ब्रह्म से एकाकार तो होती ही थी, मिलन के स्वर गंगा की लहरों से मिलते हुए अनंत सागर की ओर निकल पड़ते थे. एक दिन इसी शहनाई के सुर थम गए और अपने धाम में विश्राम करते हुए सुरों की अनंत यात्रा पर निकल पड़े. देश की आजादी में गूंजे बिस्मिल्लाह खां की शहनाई के स्वर 15 अगस्त, 1947 को देश की आजादी की पूर्वसंध्या पर लालकिले पर फहराते तिरंगे के साथ स्वरलहरियां भी आजाद भारत के आजाद आसमान में शांति का संगीत बन कर फैल रही थीं. यह उन के सुरों का ही कमाल था कि लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह खां का शहनाई वादन देश के स्वतंत्रता उत्सव की एक प्रथा बन गई. उस्ताद ने एक ऐसे दौर में इस संगीत को रचा था, जब गानेबजाने को सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता था. तब उन्होंने लोकधुनों को अपनी तपस्या और रियाज से खूब संवारा और क्लासिकल मौसिकी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया. बहुत कम ही लोग जानते हैं कि खां साहब की मां कभी नहीं चाहती थीं कि उन का बेटा शहनाई वादक बने. वह इसे हलका काम समझती थीं, क्योंकि शहनाई वादकों को उस समय शादीब्याह और अन्य समारोहों में बुलाया जाता था. ऐसी जुगलबंदियां, जिन का कोई सानी नहीं था. बिस्मिल्लाह खां ने शहनाई को मंदिरों, राजेरजवाड़ों के मुख्यद्वारों और शादीब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवा- से उठा कर शास्त्रीय संगीत की दुनिया में पहुंचाया. उस्ताद ने अपने चाचा उस्ताद मरहूम अलीबख्श के कहे मुताबिक शहनाई को शास्त्रीय संगीत का वा- बनाने में जिंदगी भर जितनी मेहनत की, उस की कोई मिसाल नहीं है.

उन्होंने कई जानेमाने संगीतकारों के साथ जुगलबंदी कर के पूरी दुनिया को चौंका दिया. उस्ताद ने अपनी शहनाई के स्वर विलायत खां के सितार और पंडित वी.जी. जोग के वायलिन के साथ जोड़ कर संगीत के इतिहास में स्वरों का नया इतिहास रच दिया था. उन की शहनाई जुगलबंदी के एलपी रिकौर्ड्स ने बिक्री के सारे रिकौर्ड तोड़ दिए थे. बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि उस्ताद के इन्हीं जुगलबंदी के एलबम्स के आने के बाद जुगलबंदियों का दौर चला. उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की शहनाई की धुन बनारस के गंगा घाट से निकल कर दुनिया भर में गूंजी. उन की शहनाई की गूंज से फिल्मी दुनिया भी अछूती नहीं रही. उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसा घर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ीं. आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिंदी फिल्म ‘स्वदेस’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा…’ में शहनाई की मधुर तान छेड़ी थी.

संगीत से दिलों को जोड़ने का सपना, संगीत सुर और नमाज, इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह खां की जिंदगी में और दूसरा कुछ नहीं था. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, तानसेन पुरस्कार से सम्मानित उस्ताद बिस्मिल्लाह खां को सन 2001 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था. यकीनन उस्ताद के लिए जीवन का अर्थ केवल संगीत ही था. उन के लिए संगीत के अलावा सारे इनामइकराम, सम्मान बेमानी थे. वह संगीत से देश को एकता के सूत्र में पिरोना चाहते थे. वह कहते थे सिर्फ संगीत ही है, जो इस देश की विरासत और तहजीब को एकाकार करने की ताकत रखता है. इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की इच्छा रखने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की आखिरी इच्छा अधूरी रह गई. दुख की बात यह रही कि उन के बाद उन के घर में किसी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाने में रुचि नहीं दिखाई. यही वजह थी कि उन के अपने पोते को बाबा की शहनाई बेचने पर विवश होना पड़ा. अभाव में पलेबढ़े लोग कला के जरिए अपना नाम तो हासिल कर लेते हैं, पर जिंदगी में बहुत कुछ पीछे छूट जाता है. भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की 4 शहनाइयां किसी और ने नहीं, उन के अपने पोते नजरे हसन उर्फ शादाब ने मौजमस्ती में हुई उधारी चुकाने के लिए चुराई थीं. देश के लिए जो शहनाइयां धरोहर थीं, उन का सौदा शादाब ने छोटी पियरी के ज्वैलर शंकरलाल सेठ और उस के बेटे सुजीत सेठ से महज 17 हजार रुपए में कर डाला था. मंगलवार को यह खुलासा करते हुए एसटीएफ की वाराणसी इकाई ने चौक के हड़हा बीर बाबा मंदिर के पास से उसे, शंकरलाल और सुजीत को गिरफ्तार किया था. तीनों के पास से 3 शहनाइयों की गली हुई एक किलोग्राम 66 ग्राम चांदी, 4200 रुपए और लकड़ी की एक शहनाई बरामद की थी. उस्ताद मुहर्रम की पांचवीं और आठवीं तारीख को इसी शहनाई से आंसुओं का नजराना पेश करते थे. गलाई गई तीनों शहनाइयां क्रमश: पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव, पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल और लालूप्रसाद यादव द्वारा उपहार में दी गई थीं.

घटना का खुलासा होने के बाद नजरे हुसैन के पिता और उस्ताद के सब से छोटे बेटे काजिम हुसैन घर में ताला बंद कर के कहीं चले गए हैं. इस से बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि शहनाई के जिस उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के सुर की पूरी दुनिया दीवानी थी, आज उन के घर के हालात ऐसे हो गए हैं कि उन के पोते को अपना खर्च चलाने के लिए दादा की धरोहर शहनाइयां बेचनी पड़ीं. इस से पता चलता है कि शास्त्रीय संगीत के इस फनकार का जीवन किस तरह अभावों से ग्रस्त था. अपनी मेहनत और हुनर के सामने पूरी दुनिया को झुकाने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खां परिवार के लिए इतना भी पैसा नहीं कमा पाए कि वे बेहतर जिंदगी जी सकते. आज लोग चर्चा कर रहे हैं कि पोते ने उस्ताद की शहनाई बेच दी, लेकिन यह सोचने का किसी के पास समय नहीं है कि एक कलाकार के परिवार को ऐसे हालात से क्यों रूबरू होना पड़ा.

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