रति के पति विशाल 2 दिनों से सिर में दर्द व थकावट की शिकायत कर रहे थे. उन्होंने कहा कि “शायद नींद पूरी नहीं हुई है.”

“आराम कीजिए आप, सारे दिन लैपटौप में आंखें गड़ाए काम भी तो करते हैं,” रति के कहने पर विशाल ने सिरदर्द की दवा ली और दूसरे कमरे में जा कर सो गए.

रति मन ही मन चिंतित थी कि इन्हें तो आराम करने को कह रही हूं पर कहीं इन्हें… उफ़, मैं भी न क्या फालतू की बात सोचने लगी हूं.

अगले दिन विशाल को बुखार भी चढ़ने लगा था. “विशाल, यह लो थर्मामीटर, अपने शरीर का तापमान देखो तो,” रति ने मास्क पहन कर उसे थर्मामीटर थमाया.

तापमान सौ डिग्री था. विशाल ने स्वयं ही पास के डाक्टर को फोन किया और अपनी स्थिति बताई.

“लग तो कोरोना के लक्षण ही रहे हैं. यों करिए, आप अस्पताल जा कर सीटी स्कैन करवा लीजिए, कुछ ब्लड टैस्ट भी व्हाट्सऐप पर बता देती हूं, आप जा कर करवा लीजिए और फिर रिपोर्ट मुझे दिखाएं.”

घर में मानो भूचाल सा आ गया था. विशाल के पृथकवास यानी आइसोलेशन के लिए उस की पत्नी ने अलग कमरा तैयार कर दिया था.

सभी टैस्ट हुए, रक्त की जांच भी करवा ली गई थी और आज रिपोर्ट भी आ गई. डाक्टर ने सारी रिपोर्ट्स देख कर कोरोना का संक्रमण होने की पुष्टि कर दी थी.

रति के हाथपैर फूल गए थे. विशाल की शारीरिक स्थिति से अधिक मानसिक स्थिति ख़राब थी. एक कमरे में बंद हर पल यही विचार मन में आता कि ‘यदि मुझे कुछ हो गया तो बच्चों का क्या होगा? उन की शिक्षा के लिए कैसे इंतजाम करेगी अकेली रति? कभी ऐसा सोचा ही नहीं था कि ऐसी महामारी यह सोचने पर विवश कर देगी. वैसे कुछ इंश्योरैंस पौलिसी तो ली हुई हैं मैं ने अपने बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए. कुछ म्यूचुअल फंड्स और शेयर्स में भी इन्वैस्ट किया हुआ है. पर रति को तो फाइनैंस की कुछ जानकारी ही नहीं. कभी दोनों ने साथ बैठ कर यह सब चर्चा तो की ही नहीं.’

सोचतेसोचते उस का जी घबराने लगा था, कलेजा मानो हलक तक आ गया था. रहा न गया तो रति को फोन किया. फोन की घंटी लगातार बज रही थी, लेकिन रति ने फोन न उठाया तो वह कमरे के दरवाजे तक आ कर रति को आवाजें देने लगा था. बच्चों की औलाइन कक्षाएं चालू थीं, सो उस की आवाज़ किसी ने न सुनी.

हताश हो कर वह फिर अपने बिस्तर पर लेट गया. उस की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी थी. शरीर टूट रहा था और उस का धीरज भी छूट रहा था.

तभी उस के फोन की घंटी बजी. उस ने झट से फोन उठाया, देखा रति की कौल थी, “कहिए क्या चाहिए, आप ने फोन किया था, दरअसल रात में फोन साइलैंट मोड में कर देती हूं न, सुबह नौर्मल करने का ध्यान ही नहीं आया, इसलिए आप के कौल की घंटी नहीं सुनाई दी थी पहले. अब नौर्मल किया तो देखा कि आप की मिस्डकौल थी.”

“कुछ नहीं चाहिए रति, बस मन थोड़ा घबरा रहा है. तुम फ्री हो तो कुछ बातें तुम से करना चाहता हूं,” उस के पति ने घबराए स्वर में कहा.

“देखो, यदि मुझे कुछ हो जाए…”

“उफ़, ये कैसी बातें कर रहे हैं आप,” रति ने विशाल की बात काटी.

“क्या करूं, मजबूर पिता हूं मैं. कल को मैं न रहूं तो तुम्हें व बच्चों को कोई परेशानी न हो, इसलिए कुछ बातें तुम से साझा करना चाहता हूं. अख़बारों और टीवी चैनलों पर दिखाई जा रही खबरों के अनुसार कोरोना के बढ़ते संक्रमण के चलते अस्पतालों में मरीजों के लिए जगह नहीं, दवाइयों की मुश्किल, रेमडेसिविर इंजैक्शन की सप्लाई कम पड़ रही है, अस्पतालों में बैड उपलब्ध नहीं. इसलिए फिक्रमंद हूं.”

“पहले आप नकारात्मकता को स्वयं से दूर कीजिए, सब अच्छा ही होगा. हम ने आज तक किसी का बुरा नहीं किया,” रति ने उसे ढाढस बंधाई.

“तुम ठीक ही कहती हो पर क्या करूं मन में बहुत बुरे भाव आ रहे हैं, अस्पतालों में लाशों के ढेर, भयावह मंजर आंखों के सामने बारबार घूमघूम कर आता है तो तुम्हारी और बच्चों की फ़िक्र होती है. खैर छोड़ो, मैं तुम्हें जो जानकारी दे रहा हूं उसे ध्यान से सुनो.” विशाल ने रति को अपने इन्वैस्टमैंट और इंश्योरैंस पौलिसी के बारे में जानकारी दी और कहा कि सभी फाइलें पढ़ कर अपने पास संभाल कर रख लो.

“ऐसा करो, तुम फाइलें ले कर बैठो, मैं वीडियोकौल करता हूं और तुम्हें फाइलों के अंदर की सामग्री की जानकारी देते जाता हूं.”

रति फाइलें ले कर बैठ गई थी और विशाल उसे वीडियोकौल की मारफत जानकारी दे रहा था.

सारी जानकारी दे कर उस ने अंत में रति से कहा, “सुनो, यदि मुझे कुछ हो जाए तो तुम विधवा के लिबास में न रहना…”

“विशाल, ऐसा मत कहो, मुझे नहीं अच्छा लग रहा यह सब सुनना,” रति ने खीझ कर कहा.

“क्या करूं रति, बचपन में पिता का साया सिर से उठ गया था, अपनी मां को विधवा के लिबास में देखा. न जाने कितने ही धार्मिक एवं सामाजिक आयोजनों के समय मां सब से अलग बैठी रहती. स्वयं नौकरी कर मुझे पालापोसा, बड़े दुख के दिन देखे मां ने, इसीलिए डरता हूं.”

“अच्छा ठीक है, मैं आप के लिए नाश्ता ले कर आती हूं, बुरे विचार मन में मत लाओ वरना मैं रो पडूंगी.”

अगले ही पल दोनों वीडियोकौल पर आमनेसामने बैठ कर नाश्ता खा रहे थे. रति की आंखें आंसुओं से भरी थीं और विशाल के माथे पर चिंता की रेखाएं.

एकएक दिन कर 7 दिन बीत चुके थे. विशाल की दवाइयां चालू थीं. लेकिन स्वास्थ्य में ख़ास सुधार नहीं आ रहा था. रति की मानसिक स्थिति भी ख़राब होती जा रही थी. कभी अपने बच्चों की तरफ देखती तो कभी कमरे में कोरोना पीड़ित पति को बंद दरवाजे के अंदर.

लेकिन उसे स्वयं को तो हिम्मत रखनी ही होगी न, घर में और कोई है भी तो नहीं संभालने वाला.

आज फिर उस ने डाक्टर को विशाल की सारी स्थिति से वाकिफ करवाया, “डाक्टर, मेरे पति विशाल को सांस लेने में भी परेशानी होने लगी है, आप ही बताइए मैं क्या करूं,” बोलतेबोलते उस का गला भर आया था.

“आप उन्हें तुरंत अस्पताल में एडमिट कीजिए और हिम्मत रखिए,” डाक्टर ने अपने हाथ खड़े कर उन्हें अस्पताल का रास्ता दिखा दिया था.

ऐसे में कौन भला उसे अस्पताल ले कर जाए, एम्बुलैंस की सरकारी और प्राइवेट दोनों ही सुविधाएं खूब कोशिश करने पर भी उसे मिली नहीं. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. बिल्डिंग के बाहर एम्बुलैंस के साइरन तो खूब सुनाई देते हैं पर सब की सब तेज गति से अस्पतालों की तरफ रुख करती हुई दौड़ती चली जाती हैं.

वह घर से बाहर सड़क पर आ कर खड़ी हो गई. आतीजाती कारों, एम्बुलैंस, टैक्सी को हाथ दिखाती पर कोई न रुकता. कोई थमता भी तो कोरोना मरीज को ले जाने को तैयार न होता. अंत में एक औटोरिकशा वाले के सामने वह गिड़गिड़ाई, “कृपया कर मुझ पर तरस खाइए, मेरे छोटेछोटे बच्चे हैं, मैं आप को सैनिटाइज़र भी दे दूंगी, उस से आप रिकशा सैनिटाइज़ कर लेना, भाड़ा भी आप जो बोलें वह उचित, मुझ पर रहम करो.” रिकशावाला उस के पति को अस्पताल ले जाने को राजी हो गया. शायद उस के घर में भी भूख पसरी हुई थी, क्योंकि औटोरिकशा से आनेजाने वाले लोगों की संख्या भी तो कोरोना के चलते कम हो गई थी.

अस्पताल तक का सफ़र उसे मीलों लंबा लग रहा था. पति को अपनी गोद में पसारे औटो में बैठी उस की रुलाई फूट रही थी. कब अस्पताल का बोर्ड दिखे… वह मन ही मन सोच रही थी.

जैसे ही अस्पताल पहुंची, मुट्ठी में रखे भाड़े के रुपए, सैनिटाइज़र देते हुए उस ने उसे धन्यवाद भी दिया और अस्पताल के रिसैप्शन की तरफ बढ़ गई.

हाहाकार की आवाजों और कोरोना मरीजों के परिजनों के बीच से निकलते हुए वह काउंटर तक पहुंची. दिल की धडकनें मानो थम सी गई थीं, पूरे बदन में गरमी की लहर सी निरंतर दौड़ रही थी. हर तरफ रुदनक्रंदन के स्वर में सिर्फ यही सुनाई दे रहा था- ‘बैड चाहिए…’

उस ने भी जोर से पुकारा, “मेरे पति की हालत बहुत गंभीर है, एक बैड चाहिए.”

भला रिसैप्शन पर बैठे स्टाफ कहां से बैड उपलब्ध करवाते?

“सौरी सर, सौरी मैम,” कहतेकहते उन का गला भी भारी हो चुका था. रोंआसे चेहरों के बीच रति ऐसा एक चेहरा खोज रही थी जो इस भयावह समय में उस की मदद कर सके. लेकिन हर शख्स, हर चेहरा हालात के हाथों मजबूर नज़र आ रहा था.

आखिरकार, उस की रुलाई फूट पड़ी थी. वह अपने पति को बैंच पर बैठा कर स्वयं पास ही में बैठ गई और फूटफूट कर रोने लगी. कभीकभी रिसैप्शन की तरफ उम्मीदभरी नज़र से देखती कि उस के पति के लिए कहीं से बैड का इंतजाम हो जाए.

आसपास सभी तो कोरोना के मरीज एवं उन के परिजन थे, सामान्य मरीजों के लिए तो अस्पताल के दूसरे दरवाजे से दाखिल होने की व्यवस्था थी.

तभी अचानक से रिसैप्शन पर बैठे स्टाफ ने उस के पति का नाम पुकारा. वह दौड़ कर वहां गई. “आप के पति के लिए बैड की व्यवस्था हो गई है, आप कागजी कार्यवाही पूरी कीजिए और हम आप के पति को एडमिट कर देते हैं.”

मन में न जाने कितने सवाल एकसाथ उठ खड़े हुए थे- ‘यह कैसे संभव हो गया…किस ने की बैड की व्यवस्था? कितना खर्च आएगा आदि.’

लेकिन मस्तिष्क को कागजी कार्यवाही की तरफ खींच लाई रति और मन ही मन धन्यवाद करने लगी कि जिस ने भी यह व्यवस्था की वह सदा सुखी रहे.

पति को अस्पताल में एडमिट करते ही उसे अपने बच्चों का ख़याल आया. घर पर फोन किया और उन्हें सुखद संदेश दिया कि उन के पिता को बैड मिल गया है. फ़िक्र न करें, वह घर लौट रही है.

सारी रात मन में पति के स्वास्थ्य के बारे में सोचते हुए प्रकृति से विनती करती रही. बारबार मन में यह विचार भी आया कि बैड न मिलने की इतनी समस्या है, लोग जानपहचान निकाल कर अस्पताल में बैड की व्यवस्था कर रहे हैं. जिन के पास बहुत रुपएपैसे हैं वे भी किसी न किसी तरह परेशान हैं और व्यवस्था करने में लगे हुए हैं. लेकिन उस का तो कोई खैरख्वाह नहीं. न तो इतना रुपयापैसा और न ही कोई ऊंची पहुंच. मन ही मन अस्पताल के स्टाफ को धन्यवाद करते हुए कब उस की आंख लग गई, पता न चला.

तीन दिन कभी घर कभी अस्पताल के चक्कर लगाती वह बेहद थकान महसूस कर रही थी. स्वयं भी मन ही मन डर रही थी कि कहीं उसे भी संक्रमण न हो जाए. मास्क तो जैसे तीन दिन में उतारा ही नहीं, सिर्फ रात को सोते समय उतारती. हाथों में सैनिटाइज़र हर वक़्त रहता. आज घर लौट कर सांझ ढले ही निढाल हो पलंग पर लेट गई और आंख लग गई.

सुबह नियत समय पर नींद खुली, रसोई में आ कर चाय-दूध किया. अखबार उठाया तो मोटे अक्षरों में खबर की हैडलाइन देख कर उस की आंखें भर आईं.

‘युवक को बचाने के लिए बुजुर्ग का बैड लेने से इनकार, 3 दिनों बाद स्वयं की म्रुत्यु’ पूरी खबर पढ़ी.

धीरे से बुदबुदाई- ‘मैं ही तो हूं वह महिला, जिस ने अस्पताल में फूटफूट कर रोना शुरू किया था.’ उसे समझते देर न लगी कि यही वे महान पुरुष हैं जिन के त्याग से उस के पति को बैड मिला.

‘किन शब्दों में धन्यवाद करूं मैं आप का. भला एक पिता के सिवा इतना कौन किसी के लिए कर सकता है? मेरे पति को जीवन में सदैव पिता की कमी खली. पर आप भी तो पितासामान ही थे,’ वह मन ही मन बुदबुदाई.

अस्पताल में स्वास्थ्य में सुधार पाते उस के पति को उस ने पूरी घटना फोन पर बताई और कहा, “जरूरी नहीं कि रिश्ता खून का हो, कुछ रिश्ते अनजाने भी होते हैं. यों समझिए कि वो पिताजी ही थे.”

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