जोधपुर के पाल और गंगाणा गांवों में खेती करने वाले मेहनतकश किसान इंतखाब आलम अंसारी ने अपनी ऊंची तालीम का फायदा खेतीकिसानी में भी लेना शुरू कर दिया है. साल 1965 से इन के परिवार में खेती होती आ रही है. विरासत में मिली खेती में अपनी समझ के मुताबिक सफलता के तरीके जोड़ते हुए इंतखाब सूर्यनगरी जोधपुर के किसानों के लिए मिसाल बन गए हैं. पेश?है इंतखाब की सफलता की कहानी, उन्हीं की जबानी:
42 बीघे के खेत में धीरेधीरे पानी खत्म होने की समस्या हो गई. फिर हिम्मत जुटा कर इसी खेत पर नलकूप खुदवाया. संजोग से पानी तो मीठा निकल आया, पर बहुत कम मात्रा में था. अब ड्रिप सिंचाई की मदद ली, कम पानी में होने वाली फसलों की जानकारी जुटाई. पता चला बेर एक बेहतरीन फसल हो सकती है. कृषि विभाग से प्रेरित हो कर मैं ने 18 साल पहले बेर की बागबानी शुरू की. मैं ने थोड़ा सा नवाचार करते हुए अपने बाग में कुछ हट कर विधियां अपनाई हैं.
लंबे समय तक बारानी खेती के बाद मैं ने पहली बार बेर की बागबानी का मन बनाया तो उद्यान विभाग से 500 ग्राफ्टेड बेर के पौधों की थैलियां ले आया. ग्राफ्टेड बेर के पौधे 3 सालों तक ‘बेबी प्लांट’ रहते हैं, जबकि देशी पौधे दूसरे ही साल जवान हो जाते हैं. इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं ने मेरे खेत में पहले से उगी हुई झाड़बेरी और देशी बेर के पौधों को भी उगे रहने दिया. सरकारी मार्गदर्शन के मुताबिक मैं ने 6×6 मीटर (20×20 फुट) की चौकड़ी में सरकारी नर्सरी से अनुदान में मिले पौधे उगाए. वैसे तो 20 बीघे बगीचे में करीब 900 पौधे ही लगाने थे, लेकिन मैं ने अपनेआप उगे हुए पुराने और नए देशी बेर के पौधों को भी पनपने का मौका दिया. बाद में उन पर कलम कर दी.
इस तरह आज यहां 1000 से भी ज्यादा बेर के पेड़ हैं. भरपूर बारिश के बाद उगे बेशुमार खरपतवारों को मिटाने के लिए मैं हेरो का इस्तेमाल करता हूं. इस का फायदा भी है, हरी खाद भी मिल जाती है. मेरा तजरबा रहा है कि इस से जमीन में मिट्टी पलट होने से सूरज की रोशनी भी मिलती है और फंगस (कवक) भी खत्म हो जाते हैं. इस से मिट्टी में पोषक तत्त्वों का रिचार्ज भी हो जाता है. यही तकनीक इन पौधों की बढ़वार के लिए मुझे ज्यादा कारगर लगी. इस से खरपतवार निराई की मजदूरी की बचत भी होती है. कुछ और बातें हैं, जो मैं ने लीक से हट कर अपनाई हैं. कुछ बुजुर्ग मित्रों की टोकाटाकी के बावजूद मैं ने बेर की कटाई यानी प्रूनिंग में नया प्रयोग आजमाया . सब से पहले साल 1980 में जब काजरी के वैज्ञानिकों ने कलमी बेर का ईजाद किया था, उस समय जलवायु और तापमान 30-35 डिगरी रहता था, तब के हालात के मुताबिक मार्च में प्रूनिंग वाजिब थी. लेकिन पिछले 36 सालों में अब 50 डिगरी तक तापमान जा चुका है. अब जलवायु परिवर्तन के कारण व्यावहारिक तौर पर जुलाई में प्रूनिंग करना सही रहता है. ज्यादातर किसान मार्च में बसंत की प्रूनिंग यानी काटछांट करते हैं, जबकि मैं जुलाई महीने में करता हूं. ऐसा करने पर मेरा उत्पादन दूसरे किसानों से बेहतर ही रहता है.
सिंचाई में भी सावधानी
मैं अपने बगीचे में दोहरी सिंचाई अपनाता हूं. मैं खारे पानी की सिंचाई करता हूं, इस से फसल का घनत्व फलभार बढ़ जाता है, क्योंकि बहुत से प्रोटीन, विटामिन व पोषक तत्त्व खारे पानी में नहीं घुलते हैं. मीठे पानी से जरूरत पड़ने पर बूंदबूंद सिंचाई करता हूं. सिंचाई के मामले में मेरा मानना है कि टहनियों के विकासकाल में सिर्फ जरूरत जितना ही पानी देना सही रहता है. कभी भी ज्यादा पानी नहीं देना चाहिए. इस के विपरीत फूल पनपने के 2-3 दौर चलते हैं, लिहाजा फल भी 2-3 चरणों में ही मिलेंगे. इस का ध्यान रखते हुए जागरूक किसानों को दिन ही नहीं बल्कि घंटों की गिनती करते हुए फलोत्पादक दशा में भरपूर सिंचाई करनी चाहिए. अलगअलग खेतों की मिट्टी और जलवायु में फर्क होता है, इसीलिए किसान खुद अपने स्तर पर पुख्ता प्रयोग करते रहें तो बेहतर परिणाम ले सकते हैं. जहां तमाम किसान अपने फूलों की सुरक्षा के लिए बेधड़क अंधाधुंध दवा स्प्रे करते हैं, वहीं मैं इस मामले में सावधान रहता हूं. लोग भले ही मुझे कंजूस मान लें, मैं जरूरत होने पर ही, कम से कम मात्रा में जैविक कीटनाशी स्प्रे करता हूं, मैं दवाओं का छिड़काव अगस्त के पहले हफ्ते और अक्तूबर के पहले हफ्ते में करता हूं. पहले बेसिक दवाएं हलकी मात्रा में इस्तेमाल करनी चाहिए, तब भारी दवा की जरूरत ही नहीं पड़ती.
जरूरी है मित्र कीट प्रबंधन
यह मेरा तजरबा रहा है कि करीब 11 बजे सुबह मधुमक्खियां फूलों पर आना शुरू होती हैं और 2 बजे तक उन का ‘पीक टाइम’ रहता है. इस दौरान कभी भी स्प्रे नहीं करना चाहिए. बेर के पेड़ों को झाड़ीनुमा रख कर ही हम बेहतर फसल ले सकते हैं. इसीलिए मैं हर साल पिछले साल की कटाई से महज 6 इंच आगे या ऊपर से कटाई करता हूं, ताकि हर साल नए कल्ले फूटें. बेर के फूल बहुत ही महीन होते हैं, लिहाजा स्प्रेयर का नोजल बारीक होना चाहिए, ताकि महीन फव्वारे लायक स्प्रे कर सके. बारीक फव्वारे के रूप में घोल छिड़कने से पूरे पौधे की सभी मंजरियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है. इसीलिए इस में सावधानी रखनी चाहिए. हर ‘मंजरी गुच्छ’ के पास स्प्रे करने में थोड़ा समय जरूर लगता है, लेकिन खर्च किए गए दवा के घोल का सौ फीसदी फायदा मिल जाता है.
दिलदिमाग से करें खेती
मैं वैज्ञानिक प्रयोगों को खेतों में लागू करने पर भी ध्यान देता हूं. आज सरकारी प्रयोगशालाओं में नाममात्र की फीस पर मिट्टी व पानी के टेस्ट होते हैं. मैं हर साल टेस्ट करा कर प्रयोगशाला की सिफारिश के मुताबिक बाग में माइक्रो न्यूट्रिएंस डालता हूं. यह खर्च वास्तव में कुछ भी नहीं है, लेकिन इस का फायदा लाखों में है. अगर आप यह खर्च बचाएंगे तो फसल में लाखों रुपयों का नुकसान तो होगा ही, जमीन भी बंजर ही जाएगी. मैं गोबर की खाद का इस्तेमाल करता हूं. 20 बीघे में 25 ट्रैक्टर ट्राली खाद डलवाता हूं. मेरे बगीचे के बेरों औसत वजन 35 से 40 ग्राम है, जो जोधपुर संभाग में शायद सब से ज्यादा ऊंची बाजार दर पर बिकता है. इस बाग और गंगाना गांव वाले बाग के बेरों की उपज को मिला कर सालाना 25 लाख रुपए की कमाई हो जाती है.
डंठल समेत तोड़े जाते है बेर
बेरों की तोड़ाई के वक्त मेरे मजदूर डंठल को भी साथ में तोड़ते हैं, इसलिए फल लंबे समय तक ताजे बने रहते हैं और उन में किसी प्रकार के संक्रामक कीड़े घुस नहीं सकते. दिसंबर के आखिरी दिनों में बेर पकने शुरू हो जाते हैं, जो कि मार्च के आखिर तक चलते रहते हैं. इस दौरान मैं कैमिकल की बजाय बायोपेस्ट इस्तेमाल करता हूं. कुछ लोग बाजार में बेर खा कर गले में खराश होने की शिकायत करते हैं, इस की वजह होती है फलों पर छिड़की गई केमिकल दवा. इसी वजह से ऐसे फल खाते ही गला पकड़ते हैं और कई तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं.