अपनी छोटी सी गृहस्थी में मस्त रमा की खुशियों में सेंध लगी तब
उसे होश आया कि पति अवध की बेवफाई बरदाश्त नहीं हुई पर उसे
खुशियां बहुत कुछ सहने पर ही वापस मिलीं.
रमा तिलमिला उठी. परिस्थिति ने उसे कठोर व असहिष्णु बना दिया था.
बड़ी भाभी की तीखी बातें नश्तर सी चुभ रही थीं. कैसे इतनी कड़वी बातें कह जाते हैं वे लोग, वह भी मुन्ने के सामने. उन की तीखीकड़वी बातों का मुन्ने के बालमन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह वे जरा भी नहीं सोचतीं.
क्यों सोचेंगी वे जब मां हो कर वे अपनी नन्ही सी संतान की भलाईबुराई सम?ा नहीं पाईं, भला उन्हें क्या गरज है.
हां, हां, सारा कुसूर उस का है… घरपरिवार, भैयाभाभी यहां तक कि मां भी उसे ही दोषी करार देती हैं. सोने सी गृहस्थी तोड़ने की जिम्मेदार उसे ही ठहराया जाता है.
घर टूटा उस का जिसे सभी ने देखा और दिल, हृदय पर जो चोट लगी, उस पर किसी की नजर नहीं गई.
‘‘बेटी, मर्द को वश में रखना सीख. इस तरह अपना घर छोड़ कर आने से तुम्हारा जीवन कैसे पार लगेगा,’’ मां के सम?ाने पर रमा बिफर उठी थी, ‘‘मां, किस मर्द की बात करती हो, उस की जो बातबात पर अकड़ता है. अपनी मांबहन के इशारे पर नाचता है या फिर उस की जो शादीशुदा, एक बच्चे का पिता होते हुए भी…छि..’’ आगे के शब्द आंसुओं में डूब गए.
‘‘रमा, होश से काम लो. अब तुम अकेली नहीं, एक नन्ही सी जान है तुम्हारे साथ,’’ मां ने धीरे से कहा.
‘‘इसी नन्ही सी जान की खातिर ही अपनी जान नहीं दी मैं ने. नहीं तो किसी कुएंतालाब में कूद जाती.’’
‘‘न बेटी, ऐसी कायरों सी बातें मुंह से मत निकालो,’’ मातृ हृदय पिघल उठा.
‘‘तुम्हारे दरवाजे नहीं आती, तुम लोगों के उलाहने नहीं सुनती. मेरे लिए इधर कुआं, उधर खाई है,’’ रमा रोती जाती, बीचबीच में अपनी वेदना मां के आंचल में डालती जाती.
अभी भी बड़ी भाभी की जबान कैंची की तरह चल रही थी, ‘‘दोनों में से एक काम हो- या उस मरदुए की आवभगत की जाए या फिर कोर्ट में केस लड़ा जाए.’’
‘‘सच में दोनों बातें एकसाथ संभव नहीं लगतीं. उधर कोर्टकचहरी के चक्कर लगाओ और इधर हंसहंस कर पकवान खिलाओ,’’ छोटी भाभी भला कब पीछे रहने वाली थी.
‘‘ओह, तो एक कप चाय और 2 सूखे बिस्कुट को पकवान कहा जाता है,’’ परिस्थिति ने रमा को मुंहफट बना दिया था.
‘‘खिलाओ पकवान, कोर्टकचहरी की क्या जरूरत है. एक ओर गालियां देती हो, दुनियाजहान से उस की बुराई करते नहीं थकती और दूसरी ओर उस को एंटरटेन करती हो. दुनिया क्या सम?ोगी,’’ बड़ी भाभी, छोटी भाभी एक बार शुरू हो जाती हैं, उन्हें चुप कराना मुश्किल हो जाता है.
उस का कुसूर यही था कि शिष्टाचारवश अपने पति अवध को एक कप चाय बना कर दी थी, साथ में 2 बिस्कुट भी. अवध से उस का कोर्ट में तलाक का मुकदमा चल रहा है. कोर्ट के आदेश से वह महीने में एक बार अपने 4 वर्षीय बेटे से मिलने आता है. उसे घुमाताफिराता और तय समय पर वापस पहुंचा जाता.
वैसे भी दुखी हृदय, कमजोर काया, दुर्बल पक्ष ले कर कब तक बहस की जा सकती है, रमा रोने लगी.
हैरानपरेशान मुन्ना कभी बिलखती मां को देखता, कभी रणचंडिका बनी दोनों मामियों को. वह किस का पक्ष ले. ?ागड़ा अकसर उसे ही ले कर होता है. इस तथ्य को वह सम?ाने लगा है. लेकिन क्यों इसे सम?ा नहीं पाता. इस घर में और भी बच्चे रहते हैं, लड़ते हैं, ?ागड़ते हैं, खाते हैं, खेलते हैं, स्कूल पढ़ने जाते हैं उसी की तरह. लेकिन किसी को ले कर ऐसी लड़ाई नहीं होती, न हायतौबा. किसी की मम्मी उस की मम्मी की तरह नहीं बिसूरती रहती.
मामियां रेशमी साडि़यों में बनसंवर कर अपने पतिबच्चों के साथ सैरसपाटे पर जाती हैं, हंसतीखिलखिलातीं.
एक उस की मम्मी है… बदरंग कपड़ों, सूखे होंठ, उल?ो बाल… किचन में रहेगी या पीछे बालकनी में उदास खड़ी आंखें पोंछती रहेगी.
30 वर्ष की युवावस्था में 60 वर्ष की गंभीरता ओढ़े मम्मी नानी के पास बैठेगी. उन की खुसुरफुसुर मुन्ने की सम?ा में नहीं आती. कुछ रोनेधोने की ही बात होगी, तभी मम्मी का गला रुंधा रहता है, आवाज फंसीफंसी निकलती है. नानी भी एक ही टौपिक से ऊबी हुई प्रतीत होती है, सो मुन्ने को ?िड़क देती है, ‘‘जा, बाहर खेल, जब देखो मां से चिपका रहता है.’’
‘‘कहां जाएगा मां. इसे कोई साथ नहीं खेलाता,’’ मम्मी तुनक जाती.
‘‘ढंग से खेलेगा, सभी खेलाएंगे,’’ नानी उकताई हुई सी बोली.
‘‘मां, तुम क्यों नहीं सम?ातीं. बच्चे इस के साथ सौतेला व्यवहार करते हैं. बिना कारण मुन्ने से ?ागड़ते हैं, मारते व चिढ़ाते हैं,’’ रमा का दबा आक्रोश मुखर हो गया.
नानी चुप रही. रमा का बातबात पर उत्तेजित हो जाना उन्हें नागवार गुजरता है क्योंकि घर में तेजतर्रार बहुएं हैं. मांबेटी का यों बातें करना दोनों भाभियों को जरा भी नहीं सुहाता.
‘‘आज हमारी खैर नहीं. छोटी, खूब लगाईबु?ाई हो रही है.’’
‘‘होने दो दीदी, हम नहीं डरतीं किसी से, अपने पति की कमाई खाती हैं. कोई आंखें उठा कर देखे तो सही, नोच डालूंगी.’’
बहुओं के तानेतिश्ने से मां घबरा जाती, मन ही मन उस घड़ी को कोसती जब रमा हाथ में अटैची और गोद में 10 माह का बच्चा लिए उस की देहरी पर आई थी.
5 वर्ष पहले ही कितनी धूमधाम से बिटिया का विवाह किया था. दोनों भाइयों से छोटी, सब की लाड़ली. पिता थे नहीं. उन की जगह दोनों भाइयों ने रमा को पूर्ण संरक्षण दिया. दोनों भाभियां भी प्यारदुलार की वर्षा करते नहीं थकती थीं. आज वही भाभियां तलवार की धार बनी उस पर हर घड़ी वार करने के लिए बेचैन रहती हैं.
शायद बदली हुई स्थिति के कारण. ‘रहिमन चुप हो बैठिए देख दिनन के फेर…’
आज मुन्ने को कोर्ट के निर्देशानुसार अपने पापा के पास 8 घंटे के लिए जाना था. वह उतावला हो रहा था, ‘‘जल्दी, मम्मी जल्दी…’’
अर्द्धविक्षिप्त सी रमा गिरतेगिरते बची, ‘‘ओह, चप्पल टूट गई. इसे भी अभी ही धोखा देना था.’’ दो कदम चलना दूभर हो गया. पुरानी घिसी हुई चप्पल. वह लाचार इधरउधर देखने लगी.
‘‘मम्मी, जल्दी चलो, पापा आ गए होंगे.’’ उस की मनोस्थिति से अनजान मुन्ने की बेसब्री बढ़ती जा रही थी.
‘‘मैं क्या करूं. तेरी जान को रोऊं. जब देखो सिर पर सवार रहता है. दो मिनट का चैन नहीं. कभी यह तो कभी वह. महीनेभर मैं खटतीपिटती रहती हूं, उस की कोई कीमत नहीं. तेरे पापा को क्या, महीने में एक दिन लाड़चाव लगाना रहता है. और तू, उन्हीं की माला जपता रहता है. सब की नजरों में मैं खटकती हूं. अब इस चप्पल को भी कब का बैर था मु?ा से. इसे अभी ही टूटना था. मु?ा से चला नहीं जाता,’’ रमा बिफर उठी. मुन्ना सहम गया. उस ने मां के पांव की ओर देखा और सोचा, ‘सच्ची मम्मी, इन टूटी चप्पलों में कैसे चलेंगी?’
चप्पल मम्मी के गोरे पैरों का सहारा भर थीं वरना वह कब की घिस चुकी थीं, बदरंग, पुरानी…
मुन्ने की आंखों के समक्ष मामियों की ऊंची एड़ी की मौडर्न, चमचमाती जूतियों का जोड़ा घूम गया. कितनी जोड़ी होंगी उन के पास. जब वे उन्हें पहन कर खटखटाती चलती हैं, कितनी स्मार्ट लगती हैं, किसी फिल्म तारिका जैसी. और उस की मम्मी, घरबाहर यही एक जोड़ी चप्पल… और आज वह भी टूट गई.