लेखिका-मधु शर्मा कटिहा
बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली अंकिता की अपने माता-पिता से करियर को लेकर बात हुई तो उसे उनके विचार जानकर उसे बेहद आश्चर्य हुआ. उनका कहना था कि एक लड़की होने के नाते अंकिता को टीचर ही बनना चाहिए, जबकि अंकिता साइंटिस्ट बनने के सपने देख रही थी. पेरेंट्स के तर्क थे कि अध्यापिका को घर संभालने के लिए भरपूर समय मिलता है तथा समाज में इस व्यवसाय को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. अंकिता ने उनकी बात धैर्य से सुनने के बाद अपने विचारों से अवगत कराते हुए कहा कि घर देखना केवल औरत की जिम्मेदारी नहीं है इसलिए इस दृष्टिकोण से वह नहीं सोच रही. दूसरी बात कि जब स्त्री अपने पैरों पर खड़ी होगी तो उसे सम्मान प्राप्त होगा ही, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कार्यरत क्यों न हो. फिर वह अपना सपना साकार करने का प्रयास क्यों न करे ? माता-पिता उसकी बातों से प्रभावित हुए व उसे अपनी इच्छा से करियर चुनने की इजाज़त मिल गयी.
एक अन्य घटना दसवीं में पढ़ने वाले अर्चित से सम्बंधित है. बोर्ड परीक्षा का परिणाम आया तो अर्चित को यह देखकर बेहद प्रसन्नता हुई कि साइंस के अतिरिक्त उसे इंग्लिश लिट्रेचर में भी 95% अंक प्राप्त हुए हैं, इसलिए अब वह अपना करियर इंग्लिश लेक्चरर के रूप में बना सकेगा. यह बात जब उसने अपने पिता को बताई तो उससे असहमत हो वे इस बात पर अड़ गए कि अर्चित को ग्यारहवीं में साइंस विषय ही लेना होगा. अर्चित को वे इंजीनियर बनाना चाहते थे. निराश अर्चित ने अपनी मम्मी से इस विषय में बात की. मां ने उसे दोनों व्यवसायों के विषय में विस्तार से बताया. इंजीनियरिंग में चार वर्ष का समय बीटैक में देने के बाद किसी प्राइवेट नैशनल या मल्टीनैशनल कम्पनी में नौकरी लग ही जाती है.
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व्याख्याता पद तक पहुंचने के लिए धैर्य की आवश्यकता होगी. बैचलर्स, मास्टर्स फिर पीएचडी में समय व परिश्रम कम नहीं होता. पीएचडी से पहले कुछ विश्वविद्यालयों में एमफ़िल की डिग्री या यूजीसी नैट क्वालीफाई करना अनिवार्य भी है. सब विस्तार से बताकर मां ने कहा कि वह आराम से सोच ले कि उसे कौन सा रास्ता चुनना है अंतिम फैसला उसका ही होगा. अर्चित ने अपने कुछ मित्रों से इस विषय में सुझाव मांगे. लगभग सभी मित्रों का मानना था कि उसे अपना भविष्य एक सौफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में देखना चाहिए क्योंकि अपने शहर में होने वाली कोडिंग की एक प्रतियोगिता में वह विजयी रहा था और कंप्यूटर विषय में वह कक्षा में प्रथम भी आता था. अर्चित ने बहुत सोचा और अंत में साइंस लेने का निर्णय कर लिया. इंग्लिश लिट्रेचर उसका शौक था, अतः उससे जुड़े रहने के लिए उसने एक ब्लौग बना लिया जहां समय मिलने पर वह साहित्य की पुस्तकें पढ़कर उनकी समीक्षा व अपनी कविताएं आदि पोस्ट करता है.
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अर्चित ने केवल माता-पिता के कहने पर अपना विषय नहीं चुना बल्कि सोच-समझकर ही उनकी बात मानी, इसके विपरीत उसके साथ पढ़ने वाले करण को बिना विचारे अपने पेरेंट्स का फैसला स्वीकार करना भारी पड़ गया. करण के माता-पिता ने यह जानते हुए भी कि वह साइंस में बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता, उसे साइंस लेने को विवश कर दिया. उनको लगता था कि केवल डौक्टर, इंजीनियर बनकर ही पैसा व इज्ज़त पायी जा सकती है. करण को साइंस दिलवाने के लिए उन्हें स्कूल भी बदलना पड़ा क्योंकि दसवीं में अच्छे अंक न होने के कारण करण को अपने विद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाया था. परिणाम यह हुआ कि वह ग्यारहवीं में पास नहीं हो सका. निराशा और अवसाद ने घेर लिया उसे.
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आज की युवा पीढ़ी बेहद समझदार हैं, किन्तु कुछ पेरेंट्स उनकी एक नहीं सुनते. यह सच है कि माता-पिता का अनुभव बच्चों से ज़्यादा होता है तथा वे बच्चों के हित में फ़ैसले लेना चाहते हैं, किन्तु तीस-पैंतीस साल पुराने विचारों को बच्चों पर थोपना कहां की समझदारी है? ऐसे में पूरा दारोमदार बच्चों पर आ जाता है कि वे माता-पिता के फ़ैसले पर अमल करते हुए अपनी आंखें व दिमाग खुले रखें ताकि जीवन में सही दिशा प्राप्त कर सकें.
बच्चों के करियर का चुनाव करने के अतिरिक्त कुछ अन्य परिस्थितियों में भी पेरेंट्स अपनी बात मनवाने की कोशिश करते हैं. दृष्टि डालते हैं माता-पिता के कुछ ऐसे ही निर्देशों व प्राय बोले जाने वाले कथनों तथा कुछ बच्चों की प्रतिक्रियाओं पर.
हम दकियानूसी नहीं लेकिन परम्परा निभानी पड़ती है
सलोनी को पीरियड्स के दौरान उसकी मम्मी का अचार छूने, पौधों में पानी देने व किसी धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने से रोकना बहुत खलता था. एक दिन जब उसने इसका कारण पूछा तो वे अनुत्तरित हो गयीं. सलोनी बोली, “बिना किसी कारण सुनी-सुनाई बात को आगे बढ़ाते हुए आप मुझे ऐसा करने को कहती हैं इसका अर्थ तो यह हुआ कि आप दकियानूसी हैं.”
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वे अपनी सफाई देते हुए बोलीं, “नहीं भई मैं दकियानूसी नहीं हूं, लेकिन परम्परा निभाना जानती हूं. यह फ़र्ज़ तुम्हारा भी है.”
सलोनी इंकार करते हुए बोली, “मैं बेकार के रीति-रिवाज़ों को नहीं मानूंगी और ऐसी परम्पराओं को तो कभी नहीं जो औरत को नीचा दिखाने के लिए बनी हैं. मम्मी आप सच बताना, क्या उन दिनों आपके साथ जब अछूत सा व्यवहार होता है तब बेइज्ज़त महसूस नहीं करतीं क्या ख़ुद को आप? क्यों नहीं छोड़ देतीं ऐसी बेसिर-पैर की मान्यताओं को?”
इस घटना के बाद से सलोनी की मां में बदलाव आ गया और पीरियड्स के दौरान कभी घरवालों के सामने शर्मिंदा नहीं होना पड़ा सलोनी को.
तुम्हें तो रोज़ पिज़ा और बर्गर ही चाहिए
शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब खाने को लेकर गौरव अपने मम्मी पापा की नाराज़गी न झेलता हो. अक्सर वह घर के खाने की जगह बाहर से पिज़ा, बर्गर व पास्ता आदि मंगवाने की ज़िद करने लगता और मांग पूरी न होने पर खाना ही नहीं खाता था. एक दिन जब उसके पिता जंक फ़ूड से होने वाली हानियों के विषय में बता रहे थे तब गौरव बोला, “मैं जान गया हूं कि जंक फ़ूड में कैलरीज़, नमक, चीनी व फैट्स बहुत होते हैं. मैं नहीं खाऊंगा ये सब, लेकिन आप लोग घर के खाने के नाम पर पूरी और देसी घी से बने परांठे या उबली हुई खिचड़ी खाने को न कहियेगा. महीने में एक बार आप बाहर से मेरी पसंद का खाना मंगवा देना. इसके अलावा घर पर आप लोग व्हीट पास्ता, बकव्हीट नूडल्स के पैकेट्स और ओट्स खरीदकर ले आइये, मैं इन्टरनैट से देखकर मम्मी को कुछ रैसपिज़ बता दूंगा और किचन में उनकी मदद भी कर दूंगा. मल्टीग्रेन ब्रैड जैसी चीज़ें भी आप खरीद सकते हो मेरे लिए, तब तो आपको कोई शिकायत नहीं होगी न?”
गौरव ने माता-पिता की बात मानी और उन्होंने गौरव की. समस्या सुलझ गयी.
बचत करना भी सीख लो
अधिकांश बच्चों को अपने माता-पिता से ‘हम तो अपने टाइम में एक-एक पैसा देखकर खर्च करते थे’, ‘आजकल के बच्चे तो अपने को शहंशाह समझते हैं’ या ‘कितनी फ़िज़ूलखर्ची करते हैं हमारे बच्चे’, जैसे ताने सुनने को मिल जाते हैं. दिव्यांश कौलेज में पढ़ने वाला एक समझदार लड़का है. एक दिन जब वह अपने मित्र की बहन के विवाह समारोह से लौटकर कैब से उतरा तो पिता का पारा गर्म हो गया. घर में घुसते ही वे उसे डांटते हुए बोले, “क्या मैट्रो बंद हो गयीं कि तुम टैक्सी से आ रहे हो. पैसे की कद्र है या नहीं तुम्हें? तुम्हारी मम्मी बता रहीं थीं कि कल एक शर्ट औनलाइन मंगवाई तुमने जिसकी कीमत पांच हजार रुपये थी. भविष्य का कुछ भरोसा नहीं होता इसलिए पैसे जोड़ने में समझदारी है न कि उसे यूं उड़ा देने में.”
दिव्यांश ने अपने मन की बात रखते हुए कहा, “शर्ट देखकर कल मुझे भी कुछ ख़ास ख़ुशी नहीं हुई पापा. किसी नामी कंपनी का कोई कपड़ा पहली बार मंगवाया है मैंने. उसकी असली कीमत दस हजार थी, फ़िफ्टी परसेंट डिस्काउंट पर मिल रही थी इसलिए ले ली मैंने. मेरे बर्थडे पर नानाजी ने जो पैसे दिए उससे खरीदी है वह शर्ट. वैसे सच कहूं तो इतनी महंगी शर्ट मुझे अपनी सस्ती कमीजों जैसी ही लगी. मैंने भी फ़िलहाल ब्रैंडेड कपड़े नहीं खरीदने का मन बना लिया है. जहां तक कैब में आने की बात है तो शादी जिस जगह थी वहां तक पहुंचने के लिए मुझे तीन मैट्रो बदलनी पडतीं और स्टेशन से बैंकेट हौल तक जाने के लिए भी रिक्शा या इ-रिक्शा लेना पड़ता. कुल मिलाकर तब जितने पैसे खर्च होते उससे कम में ही पडी कैब. इसलिए ही तो मैं आप दोनों को कई बार कैब करने को कहता हूं. मैं भी बचत के महत्व को समझता हूं.”
दिव्यांश के माता-पिता ने फिर कभी उस पर पैसे लुटाने का आरोप नहीं लगाया.
ज़माना बहुत ख़राब है
कौलेज में एडमिशन लेने पर नेहा ने देखा कि उसकी सहेलियां पढ़ने के साथ-साथ खूब मस्ती करती हैं, घूमती हैं, लाइफ़ को एन्जौय करती हैं. एक दिन अपनी मां से जब नेहा ने सहेलियों के साथ फ़िल्म देखने की इजाज़त मांगी तो मां ने दो टूक जवाब दे दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि ज़माना बहुत ख़राब है. जब नेहा ने अपनी सहेलियों को यह बात बताई तो उनमें से एक ने नेहा की मम्मी को फ़ोन कर लिया. विनम्रता के साथ वह बोली, “आंटी, हम लोग भी जानते हैं कि आजकल रेप और छेड़छाड़ की घटनाएं आये दिन घट रही हैं. हम लोग ऐसी जगह जायेंगे जहां आसपास सुनसान न हो, फिर हम नाइट शो में भी नहीं जा रहे. आप सोचिये यदि डरकर लड़कियां अपने-अपने घरों में दुबक जाएंगी तो शैतानों के हौंसले बुलंद हो जायेंगे. लड़कियां डरपोक बन जाएं यही तो वे चाहते हैं.”
नेहा को निडर बनाने की चाह मन में लिए मां ने नेहा को जाने की स्वीकृति दे दी और भविष्य में भी उसे उड़ने के लिए आसमां देने का निश्चय कर लिया.
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क्या सोचेंगे लोग?
बीबीए के बाद रोहित किसी आईआईएम इंस्टिट्यूट से एमबीए करना चाहता था. रोहित के पिता का अपना व्यवसाय था इसलिए आर्थिक रूप से वे सक्षम थे और एमबीए की फ़ीस देना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी. रोहित द्वारा अथक परिश्रम किये जाने के बाद भी दो बार कैट की प्रतियोगी परीक्षा में उसे अच्छी पर्सेनटाइल नहीं मिल सकी. इसी बात से रोहित के पेरेंट्स उससे खफ़ा हो गये और भविष्य में कैट की परीक्षा न देने का फ़रमान सुना दिया. रोहित को कैट की परीक्षा देने से रोकने का कारण उसके पेरेंट्स ने यह बताया कि मित्र व रिश्तेदार पूछते रहते हैं कि उनका बेटा क्या कर रहा है ? अपने बेटे की असफलता के विषय में बार-बार बताना उनको बहुत बुरा लगता है. रोहित ने चुपचाप उनकी बात को स्वीकार कर लिया व पिता के बिज़नस में हाथ बटाना शुरू कर दिया, जबकि उसकी ख्वाहिश नौकरी करने की थी. मन ही मन वह इस बात से बहुत दुखी था कि उसकी इतने दिनों की मेहनत बेकार चली जाएगी. उसे पूरा विश्वास था कि यदि इस बार वह कैट देता तो बेहतरीन पर्सेनटाइल पाने में कामयाब हो जाता. उसे इस बात से भी ठेस भी लगी कि उसके माता-पिता यह नहीं समझते कि जीवन में सफलता और असफलता दोनों का सामना करना पड़ता है.
मोबाइल का पीछा छोड़ो
मोबाइल को लेकर डांट-फटकार तो लगभग सभी बच्चों को सुननी पड़ रही हैं क्योंकि यह सच है कि आजकल बच्चे मोबाइल को कुछ अधिक ही महत्व देने लगे हैं. इन्स्टाग्राम, स्नैपचैट, व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक जैसे विभिन्न ऐप्स में लगे रहना, वीडियो देखना व गेम्स खेलना उनके प्रिय शौक बन रहे हैं. विहान भी उन बच्चों जैसा ही था. कौलेज पहुंचकर भी उसकी यह आदत नहीं बदली. मम्मी-पापा ने उसे हर समय मोबाइल में व्यस्त देख कई बार टोका और फटकार लगाते हुए उसे ऐसा करने से मना भी किया, किन्तु वह नहीं माना. कुछ दिनों बाद उसने स्वयं ही अनुभव किया कि मोबाइल फ़ोन के अधिक इस्तेमाल से उसकी नींद पूरी नहीं हो पा रही है इसके अतिरिक्त थकान व आंखों में जलन जैसी समस्याएं भी हो रही हैं. विहान अब मोबाइल का प्रयोग पहले से बहुत कम करता है. कुछ ऐप्स डिलीट भी कर दीं हैं उसने.
रात भर जागकर सुबह देर से उठने की बीमारी क्यों पाल ली?
आजकल किशोरों के बीच रात को देर से सोकर सुबह लेट जागने का ट्रैंड सा बन गया है. यह आदत श्रुति और श्रेयस में भी पनपने लगी थी. दोनों भाई-बहन रात को देर तक पढ़ते, दोस्तों से चैटिंग करते और फ़िल्में देखते थे. मम्मी-पापा के टोकने पर श्रुति ने तो जल्दी सोना व उठना शुरू कर दिया, लेकिन श्रेयस पहले की तरह ही देर तक जागता रहा. दोनों ने कुछ समय बाद एक-दूसरे से अपने अनुभव साझा किये तो पाया कि प्रत्येक आदत के अपने-अपने लाभ और हानियां हैं. श्रुति को जल्दी उठकर जहां मौर्निंग वौक और एक्सरसाइज़ करने के लिए काफी समय मिल जाया करता वहां श्रेयस दिन में व्यस्तता के कारण चाहकर भी इस काम के लिए समय नहीं निकाल पाता था. श्रुति को दिन में पढ़ते हुए बहुत डिस्टर्बेंस हुई वहीं श्रेयस रात में शांति से पढ़ सका. दोनों ने फैसला किया कि कुछ मम्मी-पापा की मानेंगे कुछ अपनी. रात में कुछ देर तक केवल पढ़ने के लिए ही जागेंगे और सुबह बहुत देर तक नहीं सोयेंगे.
इन सभी घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि युवा पीढ़ी उतनी लापरवाह नहीं जितना देखने वाले समझ लेते हैं. प्रतिस्पर्धा के इस युग में उनके सामने अनेक चुनौतियां हैं. इन चुनौतियों का सामना करने के लिए उनको चाहिए कि अपने माता-पिता द्वारा दिए गए निर्देशों को मानें लेकिन अपनी आंखें और दिमाग की खिड़कियां खुली रखें तथा पेरेंट्स के मन को चोट न पहुंचाते हुए अंतिम निर्णय स्वयं ही लें.