अमेरिका के व्हाइट हाउस में ‘बिमला’ (बाइडेन -कमला) राज दिल्ली को सुहाएगा, इस की उम्मीद कम है. अमेरिका के पड़ोसी कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने साफसाफ कह दिया है कि वे भारतीय किसानों के आंदोलन का समर्थन करते हैं और भारत सरकार की घुड़कियों का उन पर कोई असर नहीं पड़ता. उन्होंने कहा है कि वे दुनिया में कहीं भी मानव अधिकारों पर होते हमलों का विरोध करेंगे. अमेरिका की ‘बिमला’ जोड़ी नरेंद्र मोदी से स्वाभाविक रूप से नाराज होगी क्योंकि पहले तो ह्युस्टन, अमेरिका और फिर अहमदाबाद,

भारत में मोदी ने ‘फिर एक बार ट्रंप सरकार’ के नारे लगवाए थे और साथ ही कमला हैरिस की प्रतिद्वंद्वी तुलसी गैबार्ड को जरूरत से ज्यादा भाव दिया था. अमेरिका में ‘फ्रैंड्स औफ बीजेपी’ नाम से मौजूद भारत के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा ने खुल्लमखुल्ला डोनाल्ड ट्रंप को पैसा व समर्थन दिया था. कितने ही भगवा सोच वाले ट्विटर अकाउंट अमेरिकी कालों के भारतीय चला रहे हैं, जो हमारे दलितों और पिछड़ों को अमेरिका वालों के बराबर मानते हैं और औरतें, चाहे वे ब्राह्मण, क्षत्रियों वैश्यों की हों, को नीच व पापयोनि वाली मानते हैं. अमेरिका में फैले सैकड़ों मंदिरों और भारतीय संस्थाओं पर ऊंची जातियों के हिंदुओं का कब्जा है, जिन्हें ट्रंप सुहाते हैं. ऊंची जातियों के इन हिंदुओं को अमेरिका की उपराष्ट्रपति बनने वाली कमला हैरिस में जरा भी भारतीयपन नहीं दिखता.

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हमारे यहां वैसे भी वर्णसंकर को न जाने क्याक्या कहा गया है और आज भी शास्त्रों पर होने वाले व्याख्यानों, चाहे इंग्लिश में हों, वर्णसंकर को बुराबुरा ही कहा जाता है. जो बाइडेन और कमला हैरिस भारत सरकार को खास भाव देंगे, इस की उम्मीद कम है. हां, यह संभव है कि वे दोनों भारत सरकार के धर्मजनित अत्याचारों की जांच कराए जाने की वकालत करें और मानव अधिकारों की रक्षा की बात करें जो भारत की वर्तमान सरकार को अखरेगा. वैसे ट्रंप सरकार भारत के एहसानों के बावजूद, भारत के लिए उदार थी, ऐसा नहीं है. ट्रंप ने तो खुल्लमखुल्ला भारत की हवा को गंदा बोल दिया था जो भारतीयों को चुभा भी था. कमला हैरिस का रुझान लैफ्टलीनिंग है और यह जगजाहिर है. वे भारत सरकार को आड़ेहाथों लिए रहेंगी, यह स्पष्ट है. इसी वजह से उन के अमेरिका के उपराष्ट्रपति बनने पर भारत में मोदी सरकार ने घी के दीये जलाने का आदेश नहीं दिया.

जो प्रधानमंत्री किसी भी क्षेत्र, जने से संबंध जोड़ने में माहिर हो, उस ने चेन्नई में जन्मी मां की बेटी के उपराष्ट्रपति बनने पर खुशी न जताई, यह आश्चर्य की बात है. भारत-अमेरिकी संबंध अब कोल्ड स्टोरेज में जाने वाले हैं. झूठ और ट्विटर सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर ने अब खुल्लमखुल्ला भारतीय जनता पार्टी की आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय के ट्वीट को मैनिपुलेटिंग करार दे दिया है जिस में उस ने एक बुजुर्ग सिख किसान आंदोलनकारी को पुलिसमैन द्वारा पीटते हुए दिखाए जाने को गलत बताया था. अमित मालवीय का दावा था कि बुजुर्ग सिख किसान को सिर्फ डराया जा रहा है, जबकि, पूरा वीडियो दिखाता है कि उस बुजुर्ग सिख आंदोलनकारी को कई पुलिसमैनों के डंडे खाने पड़े थे. अमित मालवीय को इस से फर्क पड़ेगा, ऐसा नहीं लगता क्योंकि झूठ पर सपनों के महल बना लेने का प्रशिक्षण तो पौराणिक ग्रंथों में हर पृष्ठ पर दिया गया है और इन्हीं ग्रंथों के आधार पर भारतीय समाज पर धर्म पुजारियों ने 3,000 सालों से राज किया है और बुद्ध, जैन, इसलाम के थपेड़ों के बावजूद आज फिर दोहराया जा रहा है.

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पाखंड की चर्चा, झूठी कहानियों, आपसी विरोधाभासी तर्क व अपनी महानता के झूठे दावे इतनी बार दोहराए जाते हैं और इतने स्रोतों से कहलवाए जाते हैं कि आम लोगों को वे सही लगने लगते हैं, यहां तक कि बहुसंख्यकों को भी जो पीढि़यों से इन कहानियों का कहर सह रहे हैं और इन कहानियों के कहने वाले 2-3 प्रतिशत लोगों के जूते चाटते रहते हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक भाषण में ऐसा कुछ कहा था, कि नरेंद्र मोदी तो कहते हैं कि वे चांद से ऐसी मशीन लाएंगे जो एक तरफ से आलू लेगी और दूसरी तरफ सोना निकालेगी. अमित मालवीय जैसों की टीम ने मिल कर इस वीडियो से मोदी का नाम हटा दिया और इसे ‘राहुल गांधी कहते हैं…’ के नाम से बुरी तरह प्रचारित कर डाला. देश की मूर्ख जनता, जो तरहतरह के धोखेबाज, खुदगर्ज देवताओं को पूजती है, इस झूठ को पचा गई और मानने लगी कि राहुल ने ही ऐसा कहा होगा. झूठ को सफेद सच करने की कला भाजपा के अलावा देश की किसी और पार्टी में नहीं है. इस के लिए जो विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है वह हिंदू धर्म से जुड़े आश्रम, स्कूलों, कालेजों में ही दिया जाता है. जिन संस्थाओं में ज्ञान? तर्क और तथ्य पर आधारित होता है वहां ऐसा प्रशिक्षण नहीं दिया जाता.

अमित मालवीय जैसा झूठ बोलना हरेक के बस का नहीं. ट्विटर अगर सभी हिंदू प्रचारकों के ट्वीटों की जांच कर के उन पर गलत होने का बिल्ला लगाने लगे तो उस का धंधा ही बंद हो जाएगा क्योंकि झूठ के प्रचार पर ही तो वह कंपनी फलफूल और मौज मना रही है. मृतशैया पर कांग्रेस कांग्रेस मृतशैया पर है. जिस तरह बिहार में उस का फीका प्रदर्शन रहा है और जिस तरह हैदराबाद के निकाय चुनाव में वह केवल 2 सीटें जीत पाई, उस से तो ऐसा ही लगता है. लोगों की रुचि इस पार्टी में अब न के बराबर रह गई है. पर अगर कांग्रेस से लोगों का भरोसा उठ गया है तो वह गया किस पर है? क्या भारतीय जनता पार्टी पर? क्या नए बने क्षेत्रीय दलों पर? क्या जातिवादी दलों पर? यदि ऐसा हुआ है तो जो रोनाधोना कांग्रेस के लिए किया जा रहा है, वह असल में देश के लिए होना चाहिए. कोई भी राजनीतिक दल किसी निजी कंपनी की तरह नहीं होता जो कोई पैटेंटेड सामान बना रही हो और कुशलता से ग्राहकों की आवश्यकता पूरी कर रही हो. राजनीतिक दल लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक होता है. वह लोगों को उन की चाह के अनुसार एक कुशल नेतृत्व देता है. उन की आवश्यकताओं को पूरी व उन की समस्याओं को हल करने की कोशिश करता है. बदले में दल के नेता अपने स्वार्थ साधते हैं.

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कुछ नेता मोटा पैसा कमाते हैं, कुछ सामाजिक परिवर्तनों, सही शासन व जनता की खुशी को अपने लक्ष्य की पूर्ति मानते हैं. हर दल में स्वार्थी भी होते हैं और समाजसेवी भी. लेकिन मोटेतौर पर सभी किसी न किसी तरह जनता की इच्छाओं को पूरा करते हैं, वरना दोबारा जीत कर नहीं आ सकते. कांग्रेस अब पिछड़ रही है तो इसलिए कि न तो वह जाति के नाम पर देश को बांट रही है और न धर्म के नाम पर वैमनस्य की राजनीति अपना रही है. समाज का एक बड़ा अंग, हिंदू समाज का हिस्सा, सदियों से मुफ्त की खाने का आदी रहा है. कांग्रेस में इस बिरादरी के लोग 1895 से ही घुसे रहे हैं पर धीरेधीरे इन का वर्चस्व कम होता गया क्योंकि विशेषकर सताए गए लोगों के नेता उभरने लगे. यह चुनौती थी उन के लिए जिन्होंने देश के समाज पर सदियों राज किया, सत्ता में बिना रहे भी किया और यहां तक कि बौद्धों, ग्रीकों, शकों, हूणों, परशियनों, मुगलों, फ्रैंच, ब्रिटिश सत्ता के दौरान भी किया. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने चाहे जरूरत की वजह से या गांधीनेहरू के कारण, सब को नहीं तो काफी लोगों को सत्ता में साझीदारी दी. आज यह पार्टी पुराने सामाजिक सत्ताधारियों को पराई लग रही है. वे मीडिया व व्यापार को कंट्रोल करने के साथ लोगों की सोच बदलने में भी कामयाब हो गए हैं.

कांग्रेस के पतन के लिए गांधी परिवार जिम्मेदार है, यह कहना पूरी तरह सच न होगा. कांग्रेस के पतन का कारण धर्म के धंधेबाजों और उन के अंधभक्तों के सामाजिक व आर्थिक प्रभाव के साथ उस की सर्वाधिकार की इच्छा का बलवती होना है. कांग्रेस व दूसरी पार्टियों का हाशिए पर जाना आश्चर्य की बात नहीं है. इस के बीज कांग्रेसी नेताओं ने ही बोए थे. बस, पेड़ अब कोई और काट रहा है. जब जंगल कट जाएंगे तो कठोर धरातल नजर आएगी. तब कांग्रेस या उस का जैसा पर्याय भी न रहेगा. शरणार्थी और कट्टरपन मुसलिम शरणार्थियों को अपने देशों में निमंत्रण देना या आने देना पश्चिमी देशों को महंगा पड़ रहा है. सीरिया, इराक, लेबनान, यमन और पूर्व सोवियत संघ के कई मुसलिम देशों के युद्धों के मारे मुंह लटकाए लाखों मुसलिम परिवार यूरोप में आ बसे हैं और अपने देशों से अच्छा शांत जीवन बिता रहे हैं. उन के मूल देशों में धार्मिक युद्ध जम कर हो रहे हैं, जबकि यूरोप में वे मुफ्त की रोटियां पा रहे हैं. यूरोप के 27 देशों में लगभग ढाई करोड़ मुसलमान शरणार्थी रह ही नहीं रहे, अपने पक्के घरौंदे भी बना रहे हैं. उन की अब कभी इन देशों को छोड़ कर जाने की मंशा नहीं है. इन देशों में सामाजिक सुरक्षा है, सफाई है, पढ़ाई है, काम के अवसर हैं और सब से बड़ी बात कि ईसाईबहुल देशों में धार्मिक गुस्सा अभी तक पनपा नहीं है.

चिंता की बात यह है कि इन देशों की उदारता व मानवता का मुसलिम कट्टरपंथी नाजायज फायदा उठाने में लगे हैं. फ्रांस और वियना में हुई हाल की हत्या की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि इन शरणार्थियों की दिमाग सफाई यानी बे्रनवाश इतना ज्यादा किया गया है कि वे अपनी करतूतों से बाज नहीं आ रहे. वे भविष्य में आने वाले शरणार्थियों के रास्ते बंद कर देने के रिस्क पर निहत्थेनिर्दोष आम मूल नागरिकों से अपने तथाकथित इसलाम की खातिर बदला लेने को तैयार हैं. जो देश दुनियाभर में धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ते हैं, वे भयभीत हैं कि उन्होंने मानवता व सस्ते मजदूरों के रूप में किस आफत को पाल लिया है. अब क्या वे उन के तथाकथित धर्म को बेरहमी से कुचलें या उन सिरफिरों के हाथों खुद पिटतेमरते रहें. इसलाम के साथ दिक्कत यह है कि 21वीं सदी में भी यह बदलने को तैयार नहीं है.

ज्यादातर इसलामी देश पुरानेपन से चिपके हैं. तेल के पैसे पर मौज कर रहे इसलामी कट्टरपंथियों ने शासकों को मजबूर किया कि वे आतंकवादियों को पालें, पैसे दें, हथियार दें. ओसामा बिन लादेन दुनियाभर में यूरोपीय कल्चर का लाभ उठाता रहा और उसी कल्चर को चोट पहुंचाता रहा था. उस को मार देने से कोई किला फतेह नहीं हुआ है क्योंकि नए ओसामा बिन लादेन पैदा हो गए हैं. यूरोप के सामने अब विकल्प यह है कि वह भारत व चीन की तरह हिंदू कट्टरपंथी देश बने जहां अल्पसंख्यकों को डराधमका कर रखा जाए या बराबरी और निजी स्वतंत्रता के अधिकारों का उदार वकील बने. यह पक्का है कि मुसलिम कट्टरपंथी एहसानमंद न होंगे. वे उसी हाथ पर डंक मारेंगे जो उन्हें बचाएगा. वैसे, यह हर धार्मिक कट्टरपंथी के खून में बसा है. ईसाइयों, हिंदुओं, बौद्धों के कट्टरपंथियों ने भी समयसमय पर यही किया है.

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