अमेरिकी राष्ट्रपति पद पर डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने पूरी दुनिया को चौंका दिया है. सारे चुनावी अनुमान ध्वस्त हो गए हैं. ऐसी जीत की किसी को उम्मीद नहीं थी. ट्रंप के समर्थन में हवा चल रही थी और तमाम विशेषज्ञ इसे समझने में नाकाम रहे. विश्व के सब से पुराने, मजबूत और आदर्श माने गए अमेरिकी लोकतंत्र में जहरीली हवा फैला कर हासिल की गई यह जीत अब डरावनी लगने लगी है. इसलिए अमेरिका के अनेक हिस्सों में ट्रंप की जीत के खिलाफ धरने प्रदर्शन शुरू हो गए. ‘नौट आवर प्रेसिडैंट’ की तख्तियां लिए सड़कों पर उतरे लोग ट्रंप के पुतले फूंक रहे हैं. क्या स्वतंत्रता, बराबरी, न्याय के सिद्धांत पर आधारित लोकतंत्र के लिए यह जीत दुनिया की लोकतंत्र प्रणालियों पर काला धब्बा है?

अमेरिका की नस्लवादी और पुरुषवादी श्वेत व रंगीन आबादी ने ट्रंप को खासे बहुमत से जिता कर यह जाहिर कर दिया है कि उसे अपने राष्ट्रवाद, नस्लवाद और अमीर अर्थतंत्र की चिंता है न कि मानव इतिहास में बदलाव, सामाजिक सुधार और क्रांति की, यानी यह जीत नस्लीय सामाजिक व्यवस्था पर मुहर है.

मीडिया को भले ही यह उम्मीद रही हो कि अमेरिकी राष्ट्रपति के 225 साल के इतिहास में पहली बार एक महिला को राष्ट्रपति बनाने का मौका मिला है और वह हिलेरी क्लिंटन को जिता कर उदारवादी, समानता की सोच पर मुहर लगाएंगे पर इस जीत से स्पष्ट है कि अमेरिका में कट्टर राष्ट्रवाद का जन्म हो रहा है और वास्तविक उदारवाद हार रहा है. यह दृश्य एशिया में भारत से ले कर अब अमेरिका, यूरोप और अरब देशों में भी देखने को मिल रहा है.

खतरे में लोकतंत्र

जो स्थितियां लोकतंत्र को किसी भी देश में सफल बनाती हैं, वे अब गौण हो रही हैं. यह लोकतंत्र के लिए गंभीर समस्या है. अमेरिकी चुनावी नतीजों से वहां के उस समाज की सोच का भी खुलासा हो गया जो उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों के खोखले दावे करता आया है और दुनिया को लोकतंत्र की सीख देता आ रहा है.

दरअसल 18 महीने लंबा चुनाव अभियान श्वेतों, अश्वेतों, धर्म और नस्ल के आधार पर सब से विभाजनकारी चुनाव था. प्रचार अभियान के दौरान वास्तविक मुद्दे गायब थे. चुनाव प्रचार के दौरान निचले स्तर की बयानबाजी के साथ एकदूसरे के परिवार को भी नहीं बख्शा गया.

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप ने मुसलमानों, अश्वेतों, अप्रवासियों के खिलाफ जम कर जहर उगला. उन्होंने मसजिदों पर निगरानी रखने, मुसलमानों को देश से बाहर निकालने, आईएस जैसे आतंकी ठिकानों पर बमबारी, अमेरिका-मैक्सिको के बीच दीवार खड़ी करने और अप्रवासियों को रोकने जैसी बातें कहीं. ट्रंप का यह रवैया घृणा से प्रेरित था. कट्टर मानसिकता वाली जनता के बीच उन की यह कारगुजारी काम कर गई.

चुनावी सभाओं में कड़वाहट इस कदर व्याप्त थी कि जगहजगह झड़पें होती रहीं. ट्रंप की सभाओं में अश्वेतों व विरोधियों के साथ मारपीट की गई.

ट्रंप महिला विरोधी बयानों व यौन उत्पीड़न समेत कई विवादों से घिरे रहे. कई सैलिब्रिटी, मौडल्स समेत महिलाओं ने उन पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगाए. हौलीवुड अदाकारा लिंडसे लोहान का वीडियो चर्चित रहा जिस में ट्रंप उन पर भद्दी टिप्पणियां कर रहे हैं. और भी कई वीडियो सामने आए जिन में टं्रप अश्लीलता की सीमाएं लांघते दिखे. ट्रंप ने अपनी प्रतिद्वंद्वी हिलेरी क्लिंटन के पति पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की के सैक्स स्कैंडल्स को भी खूब उछाला.

ट्रंप को लगभग सारे सर्वे हरा रहे थे. न्यूयार्क टाइम्स, सीएनएन सहित 80 प्रतिशत अमेरिकी मीडिया व 75 फीसदी बड़े उद्योगपति उन के खिलाफ थे. उन की खुद की रिपब्लिकन पार्टी के नेताओं ने ट्रंप को हराने की अपील की थी. दुनिया के 27 देशों के मीडिया ने ट्रंप की जीत को खतरनाक बताया था. अखबारों ने उन्हें वोट नहीं देने की अपील तक की थी. इस के बावजूद परिणाम हतोत्साहित करने वाले निकले और ट्रंपबाजी मार ले गए.

मुद्दे नदारद

अमेरिका के मशहूर लेखक डगलस कैनेडी ने ट्रंप के घृणास्पद प्रचार पर यहां तक कह दिया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के जीतने की संभावना नहीं है पर अगर वे जीत जाते हैं तो अमेरिका के मुसोलिनी साबित होंगे. साउथ कैरोलिना की गवर्नर निक्की हेली ने भी कहा कि मैं हर दिन इस बात पर सांस रोक लेती हूं कि अब ट्रंप क्या बोलेंगे यानी वे निचले स्तर की बयानबाजी की तमाम सीमाएं लांघ चुके हैं.

पूरे चुनाव प्रचार के दौरान रोजगार, विकास, विदेश नीति जैसे बुनियादी मुद्दों पर चर्चा न के बराबर हुई. ट्रंप को उन की पार्टी के ही नेता जालसाज बता चुके थे. उन्होंने अमेरिका में मुसलमानों और लैटिन अमेरिका मूल के लोगों के बारे में भेदभाव की वकालत की थी.

मतदान से पहले यह बात सामने आ चुकी थी कि मतदाता अमेरिकी राजनीति से घृणा करने लगे हैं. उन्हें इस बात पर भरोसा नहीं रहा कि ऐतिहासिक रूप से अब तक के सब से गंदे प्रचार के बाद चुना गया राष्ट्रपति क्या देश को एकजुट कर पाएगा. वोटरों को नहीं लगता कि नफरत व नैराश्य से भरे इस चुनावी वातावरण के बाद देश को पुरानी धारा में लौटाना किसी के लिए संभव होगा, क्योंकि 10 में से 8 वोटरों ने कहा था कि इन चुनावों ने उन में उत्साह जगाने के बजाय उन्हें निराशा की ओर धकेल दिया है.

चुनावों के दौरान डोनाल्ड ट्रंप पूरे अमेरिका का चक्कर लगा चुके थे.  सर्वे में 84 प्रतिशत अफ्रीकी मूल के अमेरिकी ट्रंप को नस्लवादी मानते रहे. 89 फीसदी लोगों ने कहा था कि वे हिलेरी को वोट देंगे. इस की वजह उन्होंने ओबामा को बताया था. 52 प्रतिशत युवा चुनाव के दौरान चली बयानबाजी से तनाव में रहे. डोनाल्ड ट्रंप को पूरी दुनिया के लिए खतरा बताया जाता रहा. तमाम नकारात्मक प्रचार के बावजूद ट्रंप 289 वोटों से जीत गए, हिलेरी को अनुमान से बहुत कम 218 मत ही प्राप्त हुए. यह आश्चर्य व अफसोस की बात है.

50 में से 46 राज्यों से ही ट्रंप की जीत पक्की हो गई थी. पिछले 18 महीनों में ऐसा कुछ नहीं बचा जो अमेरिका और बाकी दुनिया ने नहीं देखा. धर्म, नस्ल आधार पर  नफरत फैलाने, विरोधियों के दीवारों पर पोस्टर लगाने, चुनावी सभाओं में समर्थकों का एकदूसरे पर हमला, मतदाताओं को भयभीत करने, लालच देने, निजी बातें उघाड़ने जैसी तमाम हरकतें जाहिर कर रही थीं मानो सभ्य अमेरिकी समाज में नहीं, बिहार, उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं.

उम्मीद थी कि अमेरिका की जनता आखिर उस उम्मीदवार को नहीं चुनेगी, जो जाहिर तौर पर इस सर्वोच्च पद के लिए पात्र नहीं है और जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत विचार रखता हो. हालांकि अमेरिका अभी नस्ली पूर्वाग्रह और लैंगिक भेदभाव से उबरा तो नहीं था पर अत्यधिक खुला और सहिष्णु दिखने लगा था.

कट्टर राष्ट्रवादी सोच

ट्रंप के विचारों का असर खासतौर से ग्रामीण इलाकों में रहने वाली श्वेत अमेरिकी जनता पर पड़ा. इन की संख्या बहुत है, उन के लिए अपनी धरती, परंपरागत पितृसत्ता और नस्लीय सामाजिक व्यवस्था सर्वोपरि है. कई लोग ऐसे भी थे जो लोकतंत्र विरोधी मूल्यों से सहमति तो नहीं रखते थे पर वे भारत की तरह हिंदुत्व, कट्टर राष्ट्रवाद के नाम पर रिपब्लिकन पार्टी के किसी भी प्रत्याशी को वोट देने को तैयार हो गए.

दरअसल, ट्रंप बड़ी चालाकी से धर्म, नस्ल और राष्ट्रवाद के आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण करने में सफल रहे. उन्होंने जरमन तानाशाह एडोल्फ हिटलर के ‘चलो जरमनी को फिर से महान बनाएं’ नारे की तर्ज पर ‘चलो अमेरिका को फिर से महान बनाएं’ का नारा दिया. उन के इस तरह के उग्र विचारों का असर हुआ और उन 69 प्रतिशत श्वेत मतदाताओं को भयभीत कर दिया कि उन्होंने अगर उन्हें वोट नहीं दिया तो मुसलिम, हिस्पैनिक, ब्लैक, एशियन आप के रोजगार, सुरक्षा के लिए खतरा बन जाएंगे जोकि बन रहे हैं और आप को पीछे धकेल रहे हैं. डोनाल्ड की यह जीत लोकतांत्रिक मूल्यों को परे कर डर व धमकी भरे बयानों पर टिकी दिखी.

ट्रंप ने हिलेरी पर निशाना साधते हुए बारबार कहा था कि अगर उन्हें जिताया तो आईएस मजबूत होगा, हमले बढ़ेंगे, मुसलमान आव्रजन बढ़ेगा, जोकि श्वेतों के लिए खतरा है.

डोनाल्ड ट्रंप की जीत बिलकुल वैसी ही थी जिस तरह कट्टर हिंदुत्व की लहर बन कर भारत में तमाम दिग्गज नेताओं को पछाड़ते हुए नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे. मोदी के पक्ष में भी जम कर धार्मिक, जातीय आधार पर वोटों का धु्रवीकरण हुआ. भय, लालच का खेल रचा गया. ब्राह्मण, बनिए और पिछड़ों ने मोदी को सिर आंखों पर बिठा लिया तो दलित, मुसलमान उन से दूर ही रहे.

30-32 प्रतिशत दलित, मुसलिम मतों के सहारे विपक्षी कांग्रेसी और अन्य दल पीछे रह गए. ये दोनों वर्ग आज भी भाजपा, संघ और मोदी की नीतियों से डरे रहते हैं.

पिछले कुछ समय से दुनिया भर में समाजवादी, वामपंथी लोकतांत्रिक सरकारें धार्मिक कट्टरपंथी राजनीतिक दलों के हाथों मात खा रही हैं. लोकतांत्रिक विचारधारा वाले देशों में दक्षिणपंथी लोकतंत्र के नाम पर सत्ता में काबिज हो रहे हैं. इस का कारण यही है कि समाजवादी, वामपंथी विचारों वाली सरकारें सामाजिक, आर्थिक भेदभाव पाटने में नाकाम रही हैं. उन का भ्रष्टाचार दुनिया भर में बढ़ा है. देशों की पूंजी और संसाधन चंद लोगों के हाथों में सिमट आए हैं. गरीब, किसान, आदिवासी, मजदूरों की दशा सुधरने के बजाय बदतर होती जा रही है.

नतीजतन, दुनियाभर में बदलाव के लिए आंदोलन शुरू हो गए. अमेरिका में ‘औक्यूपाई वाल स्ट्रीट,’ यूरोप, मिस्र, सूडान, भारत समेत कई देशों में क्रांति का बिगुल बज उठा. कई जगह तख्तापलट हुआ. मिस्र में कट्टरपंथी मुसलिम ब्रदरहुड सत्ता में आई तो भारत में हिंदूवादी भाजपा. इस दौरान इसराईल में नेतान्याहू. इस से पहले अफगानिस्तान में कट्टरपंथी तालिबान सरकार आ चुकी थी. पाकिस्तान में कहने को लोकतंत्र के नाम पर चुनी हुई नवाज शरीफ सरकार है पर वहां राज चलता है कट्टरपंथी मुल्लामौलवियों और सेना में बैठे मजहबी अफसरों का.

उधर यूरोप की राजनीति पर भी लोगों की नाराजगी हावी है. फ्रांस में अगले साल चुनाव है और वहां सोशलिस्ट पार्टी अपनी पराजय देख रही है. जरमनी, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, फिनलैंड, नीदरलैंड, स्वीडन जैसे देशों में भी धुर कट्टर राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी दल तेजी से उभर रहे हैं.

लोकतंत्र के लिहाज से अमेरिकी समाज कितना अपरिपक्व है, इन चुनावी नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है. दोनों उम्मीदवार एकदूसरे को नंगा करने व नीचा दिखाने में ही व्यस्त रहे.

बराक ओबामा ने कहा भी था कि बीते 8 सालों में अमेरिका द्वारा हासिल की गई प्रगति और विभिन्न समुदायों को जोड़ने की विरासत मटियामेट हो जाएगी.

अमेरिका में एक नए तरह का अविश्वास बुरी तरह फैल गया है. प्रचार अभियान के दौरान जितनी नफरत और बुराइयां सामने आईं, उस से अमेरिकी प्रबुद्ध जनता आहत हुई. ट्रंप ने तो प्रत्यक्ष रूप से मतदाताओं को धमकाना शुरू कर दिया था. उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर हिलेरी जीतीं तो वे उन पर महाभियोग चलाएंगे इसलिए धु्रवीकरण में उन की बातों का प्रभावी असर हुआ.

अमेरिका में ट्रंप के उभार का कारण कुछ समय से यहां सामाजिक, सांस्कृतिक बदलाव भी रहे हैं. 62 प्रतिशत गैर हिस्पैनिक श्वेतों के परंपरावादी धार्मिक गु्रप ट्रंप के कट्टर समर्थक थे जोकि अब घटते जा रहे हैं. अमेरिकी सेंसस ब्यूरो के अनुसार 2015 में 45,282,080 अफ्रीकन अमेरिकन अमेरिका की कुल आबादी का 14.4 प्रतिशत थे. इन के हालात भारत के दलितों की तरह हैं.

हावी होती संकीर्णता

भारत में नरेंद्र मोदी को 2014 से पहले विभाजनकारी माना जाता था. जब उन का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए उभरा तो उदारवादी लोगों ने कहा था कि मोदी को भारत कभी स्वीकार नहीं करेगा. यही पैटर्न अमेरिका में ट्रंप की  जीत से सामने आया.

असल में अमेरिकी चुनावी नतीजों से साफ है कि सामूहिक चेतना पर संकीर्णता हावी हो गई है. वाल्टर क्रोंकाइट ने कहा था कि हम अभी इतने शिक्षित नहीं हैं कि बुद्धिमता के साथ अपने नेताओं को चुन सकें.

जौर्ज वाश्ंिगटन ने कहा था कि मेरी पहली इच्छा मानव जाति के प्लेग युद्ध को इस धरती से खत्म करने की है. पर लंबे अरसे बाद भी अमेरिकी धरती से युद्ध के ऐलान होते रहे. जौर्ज बुश ने इराक और अफगानिस्तान को युद्ध से तबाह किया. इसराईल और फिलीस्तीन में अभी भी युद्ध जारी है. कुल मिला कर धर्मों ने विश्व में सिर्फ युद्ध और तनावों को बढ़ाया है.

भारत और अमेरिका विश्व के बड़े और पुराने लोकतंत्र होने के बावजूद संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ पाए हैं. दोनों देशों में आर्थिक बराबरी नहीं है. जातीय मतभेद, हिंसा दोनों देशों में लगातार जारी है. धर्म के इस्तेमाल पर भारत और अमेरिका में कोई परहेज नहीं है. दोनों ही जगह तकनीक व विकास के प्रोत्साहन की कमी है. सुशासन को जनता तरस रही है. पारिवारिक सुरक्षा नहीं है. राजनीतिक बदले की भावना मौजूद है इसलिए भारत के नेताओं द्वारा विरोधी को जेल भेजने की धमकी की तरह ट्रंप द्वारा प्रतिद्वंद्वी हिलेरी को जेल भेजने और महाभियोग की धमकी दी गई. भारत में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है. लेखकों, पत्रकारों, संपादकों, कलाकारों पर झूठे अभियोग ठोंक दिए जाते हैं. हालांकि अमेरिका में अपेक्षाकृत थोड़ी उदारता है.

अमेरिकी चुनाव वास्तव में लोकतांत्रिक प्रणालियों पर धब्बा साबित हुआ है. कहने को भारत और अमेरिका में संविधान आप को वह स्वतंत्रता देता है जो लोकतंत्र के मूल में है पर क्या संवैधानिक लोकतंत्र के अनुसार हमारी सामाजिक सोच है? नहीं है क्योंकि धर्म ने विवेक और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई जगह छोड़ी ही नहीं.

गैर लोकतांत्रिक आचरण

अमेरिकी और भारतीय नेताओं के आचरण लोकतंत्र के अनुकूल नहीं हैं. झूठे वादे करना इन की फितरत है. लोकप्रियता और जीत पर गर्व से इतराना इन के लिए सामान्य बात है. सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में न्यायमूर्ति ने कहा था कि लोकतंत्र में ढोंग, मिथ्याचार और दंभ के लिए कोई जगह नहीं है.

देश के प्रबुद्ध वर्ग द्वारा जनता को शिक्षा, प्रगति की सीख देना राजनीतिक दलों को लगता है, उन के खिलाफ ऐसा कर के भड़काया जा रहा है, लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि नागरिकों को ज्ञान देना, शिक्षा देना, जागरूक करना निसंदेह लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ाना है पर सरकारें लोकतंत्र के इन जरूरी मूल्यों के बीच बाधक बन कर खड़ी रहती हैं.

सरकारें स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति को रोकती हैं. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने अपने एक निर्णय में टिप्पणी की है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इकट्ठे हो कर शांतिपूर्ण धरना व प्रदर्शन का आंदोलन लोकतांत्रिक प्रणाली के बुनियादी तत्त्व हैं. लोकतांत्रिक देशों के लोगों को सरकार के निर्णयों और कार्यों के खिलाफ आवाज उठाने या सरकार के किसी सामाजिक मामले के प्रति कार्यवाही पर नाराजगी जाहिर करने का हक है. सरकार को इस विरोध या नाराजगी का सम्मान करना चाहिए और इस तरह की गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.

लोकतांत्रिक देशों में आज भी गैरबराबरी बरती जाती है. आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक असमानता व्याप्त है. सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है कि स्वतंत्रता, बराबरी और न्याय लोकतंत्र के मूल तत्त्व हैं जहां कोई मालिक न हो, कोई गुलाम न हो. राजनीतिक सत्ता संस्था में इस प्रकार का लिखित संविधान नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार देता है.

डोनाल्ड ट्रंप के चुनावी प्रचार में कही गई बातें और आक्रामक व्यवहार लोकतंत्र के विरुद्ध रहा. नैतिक मोरचे पर भी निचले दरजे का तो रहा ही साथ में संविधान में कहा गया है कि लोकतंत्र में नियम और कानून द्वारा शासन होता है जहां किसी भी रूप में निरंकुशता दूर रहती है.

एक अन्य फैसले में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कहा गया है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार मुख्य है. यह हक लोकतंत्र में संरक्षित है. निश्चित ही अभिव्यक्ति का अधिकार आजादी की पहली शर्त है. लोकतंत्र की उदारवादी परंपरा में स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसी अवधारणा का प्रमुख स्थान है.

बदलाव की जरूरत

एक फैसले में यह भी कहा गया है कि लोकतंत्र लोगों के अधिकतम सुख को अधिकतम संरक्षण प्रदान करता है क्योंकि लोग अपने शासकों से तथा एकदूसरे से संरक्षण की अपेक्षा करते हैं.

लोकतंत्र किसी भी अन्य शासन प्रणाली की तुलना में मानवजाति के नैतिक, व्यक्तित्व विकास में सर्वाधिक योगदान करता है. लोकतंत्र वैयक्तिक क्षमताओं के विकास एवं विस्तार का सर्वोच्च माध्यम है.

संवैधानिक सर्वोच्च फैसलों में समानता, स्वतंत्रता, न्याय जैसे मुद्दों पर कही गई बातें किसी भी देश के लोकतंत्र की मजबूत सीखें हैं. अगर सरकारें, राजनीतिक दल और आम नागरिक इन बातों का पालन करें तो ही बेहतर समाज और देश बन सकता है.

लोकतंत्र को अमेरिका जैसे देशों में दुनिया की बेहतरी का सर्वोच्च विकल्प माना गया है पर आज अमेरिका, पाकिस्तान, आईएस, तालिबान, अलकायदा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे देश और आतंकी संगठनों के खिलाफ किस मुंह से बात कर सकता है. चुनाव प्रचार में पैदा हुआ जहरीला वातावरण नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप खत्म कर पाएंगे, इस में भी संदेह है.         

 

बढ़ते आप्रवासी (प्रतिशत में)

साल          एशियन      हिस्पैनिक    अश्वेत         श्वेत

1965                5              14            1              80

1975                11            25            4              59

1985                19            36            6              38

1995                23            44            7              25

2005                23            48            7              21

2015                26            47            8              18

 

प्रवासी मतदाता और घटते देसी (प्रतिशत में)

साल          एशियन      हिस्पैनिक    अश्वेत         श्वेत

2000                2              7              12            78

2004                3              8              12            75

2008                3              9              12            73

2012                4              11            12            71

2016                4              12            12            69

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