भारत के कई राज्य धुंध छा जाने की समस्या से परेशान हैं. इस के लिए धान की पराली जलाने वाले किसानों को उत्तरदायी माना जा रहा है. यह समस्या सर्दियों में और भी गंभीर होती है, क्योंकि यह खरीफ की फसल धान की कटाई के बाद खेत मे बचे फसल अवशेष, जिसे पराली कहते हैं, को बड़ी मात्रा में जलाने के चलते होती है.
भारत में तकरीबन 388 मिलियन टन फसल अवशेष का उत्पादन हर साल होता है. कुल फसल अवशेष का तकरीबन 27 फीसदी गेहूं का अवशेष और 51 फीसदी धान का अवशेष और बाकी दूसरी फसलों के अवशेष होते हैं.
गेहूं और दूसरी फसलों के अवशेष या भूसा पशुओं को खिलाने के काम में लाया जाता है, लेकिन धान के फसल अवशेष या भूसे में औक्जेलिक अम्ल और सिलिका की मात्रा ज्यादा होने की वजह से इस के पुआल को पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग नहीं किया जाता है.
धान की पराली जलाने से विभिन्न जहरीली गैसें जैसे कार्बन मोनो औक्साइड, कार्बन डाई औक्साइड, बेंजीन, नाइट्रस औक्साइड और एरोसोल निकल कर वायुमंडल की साफ हवा में मिल कर उसे प्रदूषित करती है. नतीजतन, पूरा वातावरण दूषित हो जाता है.
ये जहरीली गैसें वातावरण में फैल कर जीवों में विभिन्न घातक बीमारियों जैसे त्वचा की बीमारियां, आंखों की बीमारियां, सांस व फेफड़ों की बीमारियां, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियां फैलाती हैं, इसलिए किसान पराली जलाने से बचें. किसान इस से न केवल पर्यावरण को दूषित होने से बचा सकते हैं, अपितु पैसे भी कमा सकते हैं.
किसानों द्वारा पुआल जलाए जाने की वजह
धान के पुआल में कार्बन और नाइट्रोजन की मात्रा ज्यादा होने की वजह से अगर इसे सीधा खेत में जोत दिया जाए, तो मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने के साथसाथ पौध विषाक्तताभी बढ़ती है. इस का सीधा असर बीज जमने और उत्पादन पर पड़ता है और इस प्रक्रिया में समय भी लगता है.
धान की पुआल में सिलिका व लिग्निन की ज्यादा मात्रा होने के चलते इसे सड़ने में अधिक समय लगता है, इसलिए किसान इसे पूरे खेत में फैला कर उस के ऊपर पर्याप्त मात्रा में यूरिया छिड़क कर पानी भर देते हैं. इस से पुआल जल्दी सड़ तो जाता है, लेकिन इस में यूरिया की मात्रा ज्यादा होने के चलते कार्बन व नाइट्रोजन के अनुपात में कमी आ जाती है.
अगर कार्बन व नाइट्रोजन का यह अनुपात 25:1 से कम हो जाए, तो मिट्टी के सूक्ष्म जीव मौजूद नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर पाते, जिस की वजह से नाइट्रोजन परिवर्तित हो कर अमोनिया बन जाती है. इस तरह नाइट्रोजन का उचित उपयोग नहीं हो पाता है.
इस के अलावा पुआल को खेत में जोत देने से मिट्टी के पोषक तत्त्व जैसे नाइट्रोजन गतिहीन या स्थिर हो जाती है, जिस से यह पौधों को उपलब्ध नहीं हो पाती, इसलिए किसान धान की फसल काटने के बाद गेहूं बोने की तैयारी में लगे होते हैं, उन के पास समय की कमी होने के चलते जल्दबाजी में पुआल खेत में फैला कर उस में आग लगा देते हैं.
पुआल जलाने के हानिकारक प्रभाव
* मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की कमी.
* मिट्टी की संरचना में गिरावट.
* मिट्टी की जैविक गतिविधियों में कमी होना.
* पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ना. इस की वजह से जीवजंतुओं की सेहत पर बुरा असर होना.
धान के पुआल से कंपोस्ट बनाना एक सुरक्षित विकल्प : सूक्ष्म जीवाणुओं की मदद से कार्बनिक पदार्थों का औक्सीकृत जैव में बदलाव की प्रक्रिया को कंपोस्ट बनाना कहते हैं. इस से बनने वाला उत्पाद कंपोस्ट कहलाता है.
कंपोस्ट को मिट्टी में मिलाने से पौधे और मिट्टी दोनों को फायदा होता है. यह पौधों की बढ़वार व विकास के लिए पोषक तत्त्व प्रदान करता है. साथ ही, मिट्टी की उर्वराशक्ति में बढ़ोतरी करता है.
कंपोस्ट बनाने के लिए धान की कटाई के बाद बची पुआल को छोटेछोटे टुकड़ों में काट लेते हैं. पुआल से कंपोस्ट बनाने के लिए
गड्ढा विधि व ढेर विधि को प्रयोग में लाया जाता है.
गड्ढे की लंबाई आमतौर पर 6 से
10 मीटर और चौड़ाई व गहराई 1 मीटर रखते हैं. पुआल ज्यादा मात्रा में होने पर गड्ढों की तादाद बढ़ाई जा सकती है. इस के बाद पुआल के छोटेछोटे कटे टुकड़ों को रात में पानी में डुबो कर नम करते हैं और फिर गड्ढे में भर कर अब इस के ऊपर गोबर की एक परत लगाते हैं. इस तरह कुल 3 परतें बनाई जाती हैं.
पुआल के सड़ाने की क्रिया को तेज करने के लिए इस में 50 ग्राम प्रति 100 किलोग्राम भूसा की दर से ट्राइकोडर्मा कवक मिलाया जा सकता है और कंपोस्ट का कार्बन व नाइट्रोजन के अनुपात को कम करने के लिए इस में 0.25 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति 100 किलोग्राम पुआल की दर से मिलाते हैं.
खाद को ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए इस में पाइराइट 10 फीसदी की दर से और रौक फास्फेट 1 फीसदी की दर के मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है. इस में समयसमय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए, ताकि इस में पर्याप्त मात्रा में नमी बनी रहे. इस में हवा के आनेजाने के लिए 15-20 दिन के अंतराल पर पलटाई कर देते हैं, जिस से ऊपरी व निचली सतह अच्छी तरह आपस में मिल जाती है. कंपोस्ट बनने की पूरी प्रक्रिया में 4 महीने का समय लगता है. इस के बाद इसे खेत में डाला जा सकता है.
पुआल से तैयार कंपोस्ट को जमीन में डालने के फायदे
फसल अवशेषों का इस्तेमाल कर के उस से बेहतर क्वालिटी की खाद बना कर खेतों में डाली जा सकती है. इस प्रकार फसल अवशेषों का प्रबंधन आसानी से किया जा सकता है और पर्यावरण को भी प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है.
पुआल से बनी खाद मिट्टी की भौतिक, रासायनिक व जैविक अवस्था सुधारती है और पौधों के जरूरी पोषक तत्त्वों के मिनरलाइजेशन को बढ़ाती है, जिस से कि पोषक तत्त्व मिट्टी में ज्यादा समय तक बने रहते हैं.
साथ ही, यह खाद मिट्टी में मौजूद फायदेमंद सूक्ष्म जीवों के बीच संतुलन बनाए रखने का भी महत्त्वपूर्ण काम करती है. इसलिए यह खाद फसल की बढ़वार और विकास को बढ़ा कर फसलोत्पादन को बढ़ाती है. साथ ही, पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाती है.
कैसे पहचानें कंपोस्ट खाद
* इस कंपोस्ट खाद का रंग काला या गहरा भूरा होता है. और इस में 30-50 फीसदी तक नमी की मात्रा होनी चाहिए.
* इस की गंध मिट्टी जैसी आनी चाहिए और इस में दूसरी किसी तरह की गंध जैसे-तेज खट्टी, अमोनिया या सड़ी हुई बदबू नहीं आनी चाहिए.
* तैयार कंपोस्ट खाद का पीएच मान 5 से 8 के बीच में होना चाहिए.
* इस में 35-45 फीसदी तक जैव पदार्थ की मात्रा होनी चाहिए.
* इस में 30-35:1 तक कार्बन:नाइट्रोजन का अनुपात अच्छा माना गया है.
बिजली उत्पादन
धान के पुआल का इस्तेमाल बिजली उत्पादन के लिए भी किया जाता है. इस से बिजली उत्पादन संयंत्र की आपूर्ति बिजली बनाने के लिए की जा सकती है. बायोमास आधारित बिजली संयंत्रों को बढ़ावा देने के लिए सरकार विभिन्न प्रोत्साहन योजनाएं चला रही है.
पंजाब में बायोमास आधारित बिजली संयंत्रों द्वारा 62.5 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए तकरीबन 0.48 मिलियन टन धान के पुआल का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस से विभिन्न राज्य उद्योग ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहे हैं.
बायोगैस उत्पादन
धान के पुआल से प्रचुर मात्रा में बायोगैस का उत्पादन किया जा सकता है. धान के पुआल को औक्सीजन की गैरमौजूदगी में सूक्ष्म जीवों के साथ विघटित करने से बायोगैस बनती है.
यह बायोगैस वाहनों में सीएनजी के स्थान पर इस्तेमाल में लाई जा सकती है. सरकार की ओर से बायोगैस उत्पादन पर विभिन्न सब्सिडी की योजना चल रही है.
मशरूम की खेती
मशरूम की खेती करने के लिए धान के पुआल को बेझिझक इस्तेमाल में लाया जा सकता है.
बटन मशरूम के उत्पादन के लिए, पुआल में से अतिरिक्त पानी की निकासी यानी पानी को निकालना, पुआल को काटने और बंडलों को तैयार करने जैसी कुछ क्रियाएं बेहद जरूरी हैं.
आंकड़ों से यह भी पता चला है कि धान के पुआल को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करते हुए इन कामों के लिए अनुमानित लागत 475 रुपए प्रति क्विंटल है, जबकि
यह 725 रुपए प्रति क्विंटल है, जब गेहूं के भूसे को आधार सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है.
इसलिए, मशरूम उत्पादन के लिए धान के पुआल का इस्तेमाल कर मशरूम उत्पादकों को शुद्ध बचत के रूप में 250 प्रति क्विंटल की राशि बचाने में मदद मिल सकती है.