लेखक-मंजुला अमिय गंगराड़े

कई दिनों बाद आज घर की छत पर जाने की फुरसत मिली.

सब कुछ कितना बदला हुआ था. बादल,पेड़, हवा, चमकती धूप और पंछियों का कलरव.

चारो ओर फैली एक अजीब सी शांति.

सड़क पर वाहनों का शोर दूर दूर तक नहीं था.

सब कुछ अच्छा होते हुए भी मन में ये उदासी कैसी है?

क्या धरती थम गई है या समय रुक गया है.क्यूं

गली मोहल्ले खामोश से है.इतनी चुप्पी कुछ चुभन का ऐहसास दे रही थी.

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मैंने एक उदास बेज़ार सी नज़र छत पर चारो ओर घुमाई,  बस यूहीं बिना किसी मकसद के…… “अरे ये क्या? ये तो गली में खेलने वाले बच्चों की क्रिकेट बॉल है”. जो संभवतः लॉकडॉउन के पहले छत पर आई थी. उनकी बॉल छत के एक कोने में बेजान सी पड़ी थी.सच, बच्चों के साथ कितनी जीवंत नज़र आती थी.

मन के किसी कोने में हूक सी उठ रही थी.मुझे याद आने लगे वो पल जब बच्चे अपनी पूरी ताकत से बेट घुमा कर बॉल को मारते और वो सीधी आ पहुंचती कभी हमारी छत पर, तो कभी बाल्कनी में, तो कभी मुंडेर से टकरा जाती.जब ज़ोर का शोर मचता तो समझो आज फिर से छत पर बॉल गई है.फिर दरवाज़े की घंटी..

प्रारम्भ में थोड़ा सब्र दिखता एक बार ही घंटी बजती.मगर अगले ही पल बेसब्री से कई बार लगातार घंटी बज रही होती. जब तक आप नींद से थोड़ा जाग्रत हो कर दरवाज़े की ओर रुख़ करे, तब तक तो जैसे घंटी  रुकने का नाम ही नहीं लेती.इस रोज-रोज की घंटी और छत पर आ धमकने वाली गेंद की वजह से दोपहर के आराम में खलल पड़ने लगा.

बच्चे भी कितने बेसब्र होते है. मैं लगभग  खीजते हुए दरवाज़े पर जा पहुंचती.

“आंटी, हमारी बॉल आपकी छत पर चली गई है” मेरे कुछ बोलने के पहले ही वे अपनी बात बोल देते.ओफ़ हो, आज फिर से  मेरी नींद खराब की “सॉरी आंटी”

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“ओके जाओ छत पर  ले आओ मुझसे नहीं  जाया जाता”

दो बच्चे छत की ओर तुरंत लपकते और कुछ ही पलों में वापस भी आ जाते

मेरे घर की छत उनके लिए जानी पहचानी सी जगह हो गई थी. वे बेधड़क छत पर जाते और बॉल ले आते.कोई संकोच नहीं, कोई डर नहीं.

इस बेतकल्लुफी का एक कारण और भी था.उन्हें मैंने कहा था कि “यदि बॉल बाहर के बरामदे में आती है तो घंटी बजाने की जरूरत नहीं है”. गेट खोल कर बॉल ले जा सकते हैं, बशर्ते कि वापसी में गेट बंद करना होगा.उन्होंने इसे सहर्ष मान लिया. मैंने भी अपनी नींद में व्यवधान न होने की उम्मीद की. सब कुछ कितना ठीक ही चल रहा था. बच्चें बेखटके आते और बरामदे से बॉल ले जाते और हां.. बाकायदा गेट बंद कर के भी जाते.

मगर अब जब से बॉल छत पर जाने लगी तब से मुसीबत हो गई थी।रोज रोज एक ही बात ,”आंटी आपकी छत पर हमारी बॉल”  …

रोज रोज के इस प्रकरण से मैं परेशान होने लगी। कई बार तो मैच के दौरान बॉल तीन या चार बार छत पर जा पहुंचती।अब बच्चों को भला कैसे पता होता कि इस बार बॉल कहां जाएगी? अलबत्ता उनमें बहस छिड़ जाती कि…”जिसने बॉल छत पर भेजी है, वो ही लेकर आयेगा” मुझे बच्चों के खेलने के कारण कोई आपत्ती नहीं थी. बस छत वाले प्रकरण से नाराज़गी थी.परंतु कोई इसका कोई हल तो निकालना ही पड़ेगा. दोनों ही पक्ष अपनी जगह सही थे.

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मैं भला बच्चों को खेलने से क्यूं मना करने लगी.रात इसी उधेड़बुन में गुज़री. फिर एक युक्ति सूझी.अगले दिन जब वे बॉल लेने आये तो मैंने कहा, “तुम सबके पास कुल मिलाकर कितनी बॉल है”?

सब आपस में हिसाब किताब मिलाने लगे.सभी की मिलाकर सात वे बोले वो मेरी और उलझन भरी निगाहों से देख रहे थे. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था.

मैं  मुस्कुरा पड़ी और कहा ,”वेरी गुड”, ये तो बहुत ही अच्छी बात है.

अब सब मेरी बात ध्यान से सुनो…

अब, जब छत पर बॉल जाएगी तो रोज घंटी नहीं बजाओगे. “जब एक एक कर सारी  बॉल छत पर आ जाए, या यूं कहो जब सातवीं बॉल भी छत पर आ जाए तभी घंटी बजेगी” “तुम्हारी सारी बॉल तो मिलेगी ही और साथ में चॉकलेट भी” मैंने देखा उनकी आंखों में चमक आ गई.

वाह। योजना काम कर गई. उन्हें भी मेरी बात पसंद आ गई. कई दिनों से निर्बाध ये सिलसिला चल रहा था.. न मेरी नींद में कोई खलल था ना बच्चों के खेल में कोई व्यवधान

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अब तो मुझे भी इस खेल में आनंद आ रहा था.उन्हें खुश देख कर मुझे अपने बच्चों का बचपन याद आ रहा था.परन्तु अब कुछ दिनों से यह सिलसिला रुक गया है. इस महामारी ने कितना कुछ बदल दिया है. गली की रौनक कहीं खो सी गई है।ये चुप्पी अब चुभने लगी है.शांति और सन्नाटे के अंतर को शायद ही कभी इतने क़रीब से महसूस किया है मैंने. मैं उन बच्चों का शोर फिर से सुनना चाहती हूं.

हां पर इस बार घर की छत पर पड़ी है केवल एक ही बॉल..

बस, अब और नहीं होता बाकी छह गेंदों का इंतजार. सारी शर्तें भुला दी है मैंने समझौते भी सब  रद्द कर दिए है मैंने अब सातवीं नहीं अपितु पहली ही बॉल पर  चॉकलेट देनी है उनको फिर वही जीवन का शोर सुनना है.. इस बार घंटी बजने का इंतजार मुझे है….. बेसब्री से चॉकलेट तो ले आई हूं, बस अब तो इंतजार है ये सुनने का…..

“आंटी हमारी बॉल आपकी छत पर चली गई है।

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