कद और पद के साथ जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं, शख्स का चिंतन भी बदलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल के कोझीकोड में भाजपा की नैशनल काउंसलिग की मीटिंग में जब मुसलिम बिरादरी को ले कर अपनी नई सोच सामने रखी तो उन की पार्टी के ही कट्टरवादी नेताओं और दूसरे संगठनों में कसमसाहट दिखने लगी. दरअसल, नरेंद्र मोदी अपनी कट्टवादी ‘गुजरात छवि’ को बदल कर उदारवादी छवि पेश करना चाहते है. लेकिन यह दिखावा भर है, यह हर कोई जानता है क्योंकि नरेंद्र मोदी का रिकौर्ड कुछ और कहता है. वे चुनाव जीतने से पहले विषवमन करते रहे हैं.
जब भारत व पाकिस्तान के बीच संबंधों में युद्ध की तनातनी दिखने लगी. पूरे विश्व की नजरें इन दोनों देशों पर लगी थीं. पाकिस्तान अपनी सड़कों पर जेट फाइटर उड़ा कर युद्ध की चुनौती दे रहा था. उस समय नरेंद्र मोदी मुसलिमों के विकास और उन की शिक्षा की बात कर के कौन सी नई विचारधारा को पेश कर रहे हैं. यह उन के दिल की बात नहीं है, यह बहाना है.
आज भारत में हर तरफ से इस बात का दबाव बढ़ रहा था कि पठानकोट व उरी के हमलों के लिए पाकिस्तान को सबक सिखाया जाए.भारत में सभी लोग इस बात से बेहद खफा थे कि पाकिस्तान ने अपने आतंकी संगठनों का सहारा ले कर उरी में भारतीय सेना के जवानों को सोते समय मारा. इस के पहले विपक्ष में रहते हुए खुद नरेंद्र मोदी ने कड़ी कार्यवाही की वकालत तब की कांग्रेस सरकार से कर चुके थे. वर्तमान के गरम माहौल के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने स्वभाव के उलट संयम से काम लेते हुए पाकिस्तान से युद्ध के बजाय दूसरे दबाव बनाने की बात शुरू तो की पर संयुक्त राष्ट्रसंघ से ले कर सिंधु जल समझौता और समझौता ऐक्सप्रैस को ले कर समीक्षा करनी शुरू कर दी. यह कोई समन्वयवादी नीति नहीं है.
यही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान की बदहाली के मुद्दे को उठा कर वहां की जनता से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की उम्मीद जताई. अपने इस कदम से नरेंद्र मोदी ने केवल देश के अंदर लोगों को चौंकाया है कि कल का कट्टरपंथी आज शांतिप्रिय क्यों बन रहा है.
इस का कारण देश की राजनीतिक पैंतरेबाजी है. भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद की जब बात करती है तो उस का धार्मिक एजेंडा साफ झलकने लगता है. वह राष्ट्र को कट्टर पौराणिकवादी मानती है. यही कारण है कि केवल मुसलिम ही नहीं, दलित भी, जो पुराणों के दमन के शिकार रहे हैं, इस एजेंडे के साथ खुद को जोड़ नहीं पाते हैं. लगता यही है कि राष्ट्रवाद की आड़ में कट्टरवादी तत्त्व ही धर्म का सहारा ले कर अपनी बात को सामने रखने की कोशिश में लगे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से भाजपा का धार्मिक एजेंडा हाशिए पर चला गया, ऐसा कहीं से सिद्ध नहीं होता.
नरेंद्र मोदी अगर अपने संगठनों के दबाव में आए बिना इसी तरह से अपनी छवि को बदलते रहे तो अपनी मुसलिम विरोधी छवि से छुटकारा पाने में तो सफल हो जाएंगे पर वे भाजपा की मुख्यधारा को तितरबितर कर देंगे. गोमांस और गोरक्षा के नाम पर पिछले कुछ समय से देश में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटीं जो भारत की सर्वधर्म छवि पर धब्बा थीं पर नरेंद्र मोदी इन पर आमतौर पर चुप रहे या देर से बोले, वह भी तब, जब नुकसान हो चुका था.
गोरक्षा से पहले राष्ट्रवाद और तिरंगा यात्रा के तहत भाजपा ने अपने संकीर्ण एजेंडे को लागू करने का प्रयास किया था. इन मुद्दों को तीखा बनाने के लिए जेएनयू और हैदराबाद विश्वविद्यालय में घटी घटनाओं को पूरे देश ने देखा था. शुरुआत में भाजपा और उस से जुडे़ संगठनों को लगा कि इन मुददों से वे अपने छोटे वोटबैंक को खुश रख सकेंगे. वे यह न भूलें कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में न केवल भाजपा बल्कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार कमजोर हुई है. लोकसभा चुनावों के बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों के पैमाने पर यह बात परखी जा सकती है.
आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधानसभा के चुनाव होने हैं. भाजपा को अपनी गिरती लोकप्रियता से डर लग रहा है. इन राज्यों में भाजपा को चुनावी प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है. ऐसे में भाजपा को अपनी नीतियों में बदलाव की जरूरत महसूस हो रही है पर असल में कितना बदलाव आएगा, इस में संदेह है.
मोदी का मुसलिम प्रेम
छुआछूत के मुददे पर दलित अलगथलग पड़ते थे तो राष्ट्रवाद के नाम पर मुसलिम. अब भाजपा नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह समझ आ रहा है कि बिना दलितों और मुसलिमों को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. अब वे दलितों और मुसलिमों को ले कर नई सोच बना रहे हैं. परेशानी की बात यह है कि उन की बात खुद उन की पार्टी और उस से जुडे़ संगठनों को समझ में आएगी भी कि नहीं.
पाकिस्तान के साथ गरम माहौल के बीच केरल के कोझीकोड में मोदी ने कहा, ‘‘मुसलिमों को अपना समझें. उन को वोटबैंक का माल नहीं समझा जाना चाहिए.’’ यह कहना तो असंभव है पर गलीगली फैले भगवाई दुपट्टा ओढ़े कार्यकर्ताओं को समझाना असंभव है. यह समाज हारना, गुलामी सहना स्वीकार करता है पर अपने धार्मिक, सामाजिक नियमों को नहीं बदलता. नरेंद्र मोदी नई सोच के मसीहा तो हैं नहीं.
प्रधानमंत्री मोदी ने जनसंघ के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के कथन को सामने रखते कहा, ‘‘मुसलमानों को न पुरस्कृत किया जाए और न फटकारा जाए, बल्कि उन्हें अपने पांव पर खड़ा कर के मजबूत बनाया जाए. उन्हें अपना समझा जाए, न कि वोटबैंक की वस्तु या फिर नफरत का सामान.’’
प्रधानमंत्री मोदी यहीं नहीं रुकते हैं, आगे कहते हैं, ‘‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने मुसलमानों को करीब आने और उन की तरक्की के लिए यह मंत्र 50 साल पहले दिया था. कुछ लोगों ने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा को समझने में गलती की. कुछ जानबूझ कर अब भी ऐसा कर रहे है.’’ मोदी केवल अपनी बात ही नहीं कर रहे, वे अपनी पार्टी भाजपा और जनसंघ को भी मुसलिमों का समर्थक बता रहे हैं.
यह सच है कि हर विचारधारा सब को साथ ले कर चलने की बात करती है. परेशानी की बात यह है कि राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में फर्क होता है. भाजपा यदि ऐसा सोचेगी तो उस की पूछ जीरो हो जाएगी. ऊंची सवर्ण जातियां केवल अपना हित देखती हैं. न उन्हें देश की चिंता होती है, न समाज की. उन के लिए पूजापाठ और मंदिरमठ मुख्य हैं.
कट्टरता से निकलने की बेचैनी
असल में नरेंद्र मोदी का मुसलिम और दलित प्रेम केवल दिखावटी है. गोरक्षा के नाम पर पहले मुसलिमों और बाद में दलितों के साथ भेदभाव भरा व्यवहार किया गया. इस में राष्ट्रवादी कहे जाने वाले संगठनों का बहुत बड़ा हाथ था. गोमांस के नाम पर कई हिंसककांड हुए जिन में भाजपा नेतृत्व ने चुप्पी साध ली थी. जब ये मसले आगे बढे़ तो प्रधानमंत्री ने 80 फीसदी गोरक्षा संगठनों को फर्जी बता दिया और 20 प्रतिशत को जिम्मेदार ठहरा कर खुद को स्वयं दोषमुक्त कर डाला. दलितों के साथ मुसलिमों की बारी आई. पाकिस्तान के साथ तनावभरे माहौल में भाजपा पर नैतिक दबाव आने लगा. उस पर मुसलिम विरोध का पुराना लैवल लगा है. ऐसे में माहौल को हलका करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपना नया मुसलिम प्रेमराग छेड़ दिया है. भाजपा ही नहीं, नरेंद्र मोदी की राजनीति की धुरी सदा ही मुसलिमविरोधी रही है. गुजरात दंगों से बनी इस छवि को तोड़ कर मोदी अब अपनी नई छवि गढ़ना चाहते हैं पर अब देर हो चुकी है.
भाजपा की राजनीति का तो केंद्रबिंदु ही मुसलिम विरोध रहा है. देश में मंदिरमसजिद विवाद के पहले हिंदू व मुसलिम एकसाथ गंगाजमुनी सभ्यता के साथ रहते थे. अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाए जाने के बाद देश में सांप्रदायिक माहौल खराब हुआ.
मुंबई का बम विस्फोट ऐसी पहली बड़ी घटना थी जिस ने इस दूरी को आतंकवाद से जोड़ दिया. इस के बाद देश में होने वाली आतंकी घटनाएं
बढ़ने लगीं. देशविरोधी ताकतों को मजहबी दूरी बढ़ाने में मदद मिली. वे इस दूरी के बहाने देश को आतंकवाद के मुहाने पर ले आए. इस देश के अधिकांश मुसलमान इसी देश के दलित, अछूत, पिछड़े हैं जिन्होंने लालच में या गुस्से में इसलाम कुबूल किया है. वृहद भारत के 50 करोड़ मुसलमान मक्का व मदीना से नहीं आए हैं. उन के पुरखे यहीं गंगा, जमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र और कावेरी के किनारों पर रहते थे.
बाधा बनेंगे फायरब्रांड नेता
भाजपा वोट के ध्रुवीकरण का आरोप कांग्रेस और दूसरे दलों पर लगाती है. सच यह है कि खुद भाजपा कांग्रेस और दूसरे दलों की तरह ही वोटबैंक की परिपाटी पर चलती रही है. 2014 के लोकसभा चुनाव में पाकिस्तान व भारत के संबंधों को प्रचार के रूप में प्रयोग किया गया और कांग्रेस पर पाकिस्तान समर्थक होने के आरोप लगे.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक के बाद एक इस बात का आभास होने लगा है कि देश की एकता और अख्ांडता के लिए दलित और मुसलिम भी बेहद जरूरी हैं. इन को साथ ले कर चले बिना देश का विकास संभव नहीं है. मुश्किल बात यह है कि यह सच प्रधानमंत्री तो समझ गए पर उन से जुडे़ सैकड़ों फायरब्रांड छुटभैए वक्ता यह बात समझें, तो बात बने.
भाजपा में कई नेता अपनी राजनीति चमकाने के लिए कट्टरता का सहारा ले कर घोर सांप्रदायिक बयान देते हैं ताकि उन को हिंदुत्व की धुरी माना जाए. ये लोग अपने बयानों से भारत व पाकिस्तान के बीच युद्व का माहौल बनाने का भी काम करते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नए रुख से ऐसे नेताओं में बेचैनी बढ़ेगी. भारत-पाक संबंधों पर नरेंद्र मोदी ने संयम से काम लिया है. पर यह कूटनीति है या कुछ न कर पाने की अक्षमता, कहा नहीं जा सकता. भड़काने का काम केवल पाकिस्तान नहीं कर रहा, भाजपा के कुछ नेता भी कर सकते हैं. ऐसे नेताओं पर काबू पाना होगा. भड़काऊ बयान अब लाभ के बजाय नुकसान भी देने लगे हैं. बिहार चुनाव में इस को देखा जा चुका है.
आड़े आती गुजरात छवि
नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि आज उन्हें अपनी छवि को उदारवादी बनाने की राह में सब से बड़ा रोड़ा महसूस हो रही है. गुजरात में ‘गोधरा कांड’ और ‘इशरत जहां एनकाउंटर’ के बाद से उन की छवि मुसलिम विरोधी बन गई. उस समय पूरे विश्व के मीडिया ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश किया. हालात यहां तक हो गए कि नरेंद्र मोदी को अमेरिका यात्रा के लिए वीजा का आवेदन करना विवादों में आ गया था. भारत में राजनीतिक लाभ के लिए कोई नरेंद्र मोदी की मुसलिम विरोधी छवि को अपने लिए लाभकारी समझता था तो कोई उन की इस छवि का लाभ लेने की फिक्र में था. खुद नरेंद्र मोदी अपनी मुसलिम विरोधी छवि को बनाने में ही खुश थे. चुनावी सभाओं में कई बार ऐसे मौके भी आए जब उन्होंने मंच पर ही मुसलिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया.
2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने अपनी हिंदूवादी छवि को बनाए रखा. लोकसभा चुनाव में भारत और पाकिस्तान संबंधों में उस समय के प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की आलोचना एक मुद्दा बन गई. उस समय प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी ने ‘एक के बदले 10 सिर काटने’ और ‘56 इंच का सीना’ होने वाले तमाम जुमले भी कहे थे. लोकसभा चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने अपनी छवि को बदलने का प्रयास किया. उन्होंने पाकिस्तान के साथ संबंधों को मधुर बनाने के लिए वहां के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. ये कदम पाकिस्तान के कट्टरपंथी लोगों को रास नहीं आ रहे थे. ऐसे में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बिगड़ने लगे और आज हालात युद्ध के मुहाने पर पहुंच गए. दरअसल, नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपनी छवि को बदलते हुए सुलह और विकास की नीति को आगे बढ़ाया वह दोनों देशों में कट्टरवादी लोगों को रास नहीं आ रही.