पदक को लक्ष्य बना कर दिनरात मेहनत में जुट कर, मोबाइल और नैट से दूरी बना कर व अपना पसंदीदा भोजन तक त्याग कर जहां सिंधु ने ओलिंपिक में रजत पदक का सफर तय किया वहीं पुरुष प्रधान मानसिकता की खिलाफत झेलने के बावजूद कुश्ती में कांस्य पदक जीत कर देश का नाम ऊंचा करने वाली साक्षी मलिक ने दिखा दिया है कि कड़ी मेहनत और खेलों के प्रति जुनून से ही मंजिल पाई जा सकती है. आज दोनों हमारे किशोरों व युवाओं के लिए आदर्श बन गई हैं.
बचपन से ही दूसरों से अलग थी सिंधु
जिस उम्र में आमतौर पर बच्चियां रस्सीकूद, सांपसीढ़ी और दूसरे खेलों में व्यस्त रहती हैं, उस उम्र में सिंधु खिलाड़ी बनने का सपना देखने लगी थी. खेल तो उस के खून में रचाबसा था, क्योंकि उस के पिता पी वी रमन्ना और मां पी विजया राष्ट्रीय स्तर के वौलीबौल खिलाड़ी थे. खेल कौशल की बदौलत वे देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार, अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हो चुके थे.
घर में रखे अर्जुन पुरस्कार की ट्रौफी से सिंधु को गहरा लगाव था. दिन में जब भी मौका मिलता वह उसे कपड़े से साफ करना न भूलती. इस ट्रौफी ने सिंधु के लिए प्रेरणा का काम किया और उस ने फैसला कर लिया कि वह खेलों की दुनिया को बतौर कैरियर अपनाएगी.
रमन्नाविजया जिन की खेलों के कारण लवमैरिज हुई थी, बेटी की जिद के आगे झुक गए. उन्होंने सोचा कि एकदो साल में पढ़ाई के साथ खेलों को ज्यादा समय देने में सिंधु का सारा भूत उतर जाएगा, लेकिन हुआ उलटा, वह दोनों में अव्वल रहने लगी. अब मातापिता के पास कुछ कहने का मौका नहीं था. बेटी ने आगे बढ़ने की जिद की तो उन्होंने घर से 56 किलोमीटर दूर गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी में उस का दाखिला करा दिया. तब सिंधु महज 8 वर्ष की थी.
स्कूल और अकादमी के रोजाना लंबे सफर से सिंधु जरा भी परेशान नहीं हुई. कड़ी मेहनत, खेल के प्रति समर्पण, समय पर ट्रेनिंग में आने से उस ने कोच गोपीचंद का भी दिल जीत लिया. बेसिक ट्रेनिंग के बाद उस ने प्रतियोगिताओं में उतरने की बात गोपी को बताई तो उसे मूक सहमति मिल गई. 10 साल की उम्र में अपने पहले टूरनामैंट, अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में उतरी और युगल वर्ग का स्वर्ण पदक जीत लिया. यह एक छोटी शुरुआत थी. इस के बाद उस ने कई टूरनामैंट जीते.
अपने 13वें वसंत में पहुंचने के साथ सिंधु पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी थी. पांडिचेरी में राष्ट्रीय सबजूनियर चैंपियनशिप में वह चैंपियन बनी. इस के बाद पुणे में अखिल भारतीय रैंकिंग टूरनामैंट में फिर खिताब झोली में डाला. स्कूल के नैशनल खेलों (अंडर 19) में सिंधु बड़ी पहचान बना चुकी थी. सिंधु अब अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उतरने का मन बना चुकी थी. उसे जल्दी ही 2009 में अपना जलवा दिखाने का मौका मिल गया. कोलंबो में आयोजित सबजूनियर एशियाई चैंपियनशिप उस के लिए एक बड़ा मंच था, क्योंकि चीनी खिलाडि़यों से दोदो हाथ करने का इस से बेहतर मौका कहां मिलने वाला था.
सिंधु ने अपने कैरियर के इस अंतर्राष्ट्रीय सफर में निराश नहीं किया और कांस्य पदक हथिया लिया. इस के बाद जूनियर विश्व चैंपियनशिप में वह क्वार्टर फाइनल में पहुंची. इसी प्रदर्शन की बदौलत सिंधु को उबेर कप में भाग लेने वाली भारतीय टीम की सदस्य बनने का मौका मिला.
वर्ष 2012 हैदराबाद की इस बाला के लिए नई सौगात ले कर आया. अपने शानदार प्रदर्शन से उस ने अंतर्राष्ट्रीय जगत में बड़ी पहचान बनाई. अहम बात यह रही कि सिंधु 17 साल की उम्र में शीर्ष 20 खिलाडि़यों में जगह बनाने में सफल रही. इस के बाद उसे भारत की जूनियर साइना नेहवाल कहा जाने लगा. उस ने एशिया यूथ अंडर-19 का खिताब जीता.
इस के बाद सिंधु ने दो बार विश्वचैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत कर इतिहास रच दिया. इस दौरान सिंधु ने लंदन ओलिंपिक की चीनी खिलाड़ी को जमीन चटाई. चीन के दूसरे खिलाडि़यों को भी परास्त किया. इस प्रदर्शन की बदौलत सिंधु पद्मश्री जैसे बड़े सम्मान से सम्मानित हुई. उस समय चोट के कारण सिंधु को कुछ समय कोर्ट से बाहर भी रहना पड़ा, लेकिन 2015 में उस ने शानदार वापसी की.
मकाउ ओपन और मलयेशिया मास्टर्स खिताब ने उस का ऐसा आत्मविश्वास बढ़ाया कि पहले रियो ओलिंपिक के लिए क्वालिफाई किया और फिर ऐसा इतिहास रच दिया जो अब तक कोई भी भारतीय महिला खिलाड़ी नहीं रच पाई है. लंदन में साइना ने कांस्य पदक जीता था, लेकिन सिंधु ने 4 साल बाद एक कदम आगे बढ़ते हुए रजत पदक जीता. स्पेन की कैरोलीना मारिन के खिलाफ खेला गया फाइनल जिस अंदाज में खेला गया था, उस से सिंधु का कद और बढ़ गया है. इस प्रदर्शन की बदौलत भारत सरकार ने 21 साल की इस बाला को राजीव गांधी खेल रत्न से नवाजा है.
पी वी सिंधु का विजयी अंतर्राष्ट्रीय सफरनामा
2011 – इंडोनेशिया इंटरनैशनल.
2013 – मलयेशिया मास्टर्स.
2013 – मकाउ ओपन.
2014 – मकाउ ओपन.
2015 – मकाउ ओपन.
2016 – मलयेशिया मास्टर्स.
पुरस्कार
अर्जुन अवार्ड, पद्मश्री, राजीव गांधी खेल रत्न.
पी वी सिंधु के खेल की मुख्य विशेषता उस का विरोधी के खिलाफ आक्रामक रवैया है. उस के यहां तक के सफर में उस के मातापिता की अहम भूमिका रही है. उन्होंने बड़ी कुरबानी दी है. इस पदक से हमारे युवाओं को प्रेरणा मिलेगी.
– गोपीचंद (कोच)
साक्षी की जिद के आगे हारा समाज
पीवी सिंधु की तरह साक्षी मलिक भी बचपन से ही कुछ अलग करने का सपना देखा करती थी. बेहद चुलबुली, नटखट, शरारती साक्षी जल्दी ही गंभीर बन गई. जिस राज्य में अभी भी लड़कियों के प्रति लोगों की मानसिकता न बदली हो, ऐसे राज्य से प्रधान खेल कुश्ती को अपनाने में साक्षी को कितना जूझना पड़ा होगा यह बताने की जरूरत नहीं. 10 साल की उम्र में कुश्ती को बतौर कैरियर अपनाने की जिद कर बैठी साक्षी के मातापिता, नातेरिश्तेदार और गांव वाले हैरान थे. इसलिए खूब विरोध हुआ.
जाट बिरादरी के इस परिवार में साक्षी के पक्ष में एक अकेला शख्स उस के साथ खड़ा था. वह थे उस के अपने दादा राम. राम खुद अपने जमाने में पहलवानी किया करते थे, इसलिए उन की खुद की इच्छा थी कि उन के परिवार से कोई कुश्ती से जुड़े. उन्होंने खुद ही शुरूशुरू में घर पर ही साक्षी को बेसिक ट्रेनिंग देनी शुरू की. जब उन्हें लगा कि अब उन का काम समाप्त हो गया है, तो 12 साल की अपनी पोती को गांव मोखरा से रोहतक के छोटू राम स्टेडियम के अखाडे़ ले आए.
वहां ईश्वर दहिया कुश्ती कोच थे. वहां सब से बड़ी दिक्कत यह थी कि लड़कियां नहीं थीं. फिर भी कोच ने साहसिक कदम उठाते हुए साक्षी को दांवपेंच सिखाने शुरू किए. स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी.
रोहतक में प्रशिक्षण के साथ साक्षी ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, क्योंकि घर वालों ने इसी शर्त पर उसे कुश्ती की इजाजत दी थी. साक्षी के पिता डीटीसी में बस कंडैक्टर थे और मां आंगनवाड़ी वर्कर थीं. इसलिए वे ज्यादा समय नहीं निकाल पाते थे. धीरेधीरे साक्षी का आत्मविश्वास बढ़ता गया. वह खुद ही बाहर टूरनामैंट में जाने लगी. राज्य स्तर के टूरनामैंट में उतरने के बाद उसे नैशनल चैंपियनशिप में खेलने का मौका मिल गया. इस के बाद वह नैशनल कैंप के लिए चुनी गई, जहां उसे अपनी प्रतिभा को निखारने का सुनहरा मौका मिला.
लड़कियों का नैशनल कैंप ज्यादातर उत्तर प्रदेश में लगता था, इसलिए अपने प्रदेश हरियाणा को छोड़ कर साक्षी वहां चली आई. घर से लगातार दूरियां बढ़ती चली गईं, लेकिन उस में कुछ करने का जुनून था, इसलिए वारत्योहार, नातेरिश्तेदारी, शादीब्याह का मोह पूरी तरह से छोड़ दिया और कड़ी मेहनत में जुट गई.
साक्षी की मेहनत जल्दी ही रंग लाई. वह देश की अच्छी महिला पहलवानों में गिनी जाने लगी. इसलिए उस के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में जाने के दरवाजे खुल गए. उसे 2010 की जूनियर विश्व कुश्ती चैपियनशिप में उतरने का मौका मिल गया. वह 58 किलो वर्ग में उतरी और उस ने किसी को निराश नहीं किया व कांस्य पदक ले कर लौटी. वर्ष 2014 में डेव शुल्ज अंतर्राष्ट्रीय चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक ने साक्षी के इरादे और मजबूत कर दिए.
ग्लास्को राष्ट्रमंडल (2014) खेलों में उस ने अपने को श्रेष्ठ साबित किया. भले ही ताशकंद विश्व चैंपियनशिप में उस का सफर क्वार्टर फाइनल में समाप्त हो गया, लेकिन एशिया चैंपियनशिप (2015) जो कतर में हुई थी में कांस्य पदक (60 किलोवर्ग में) जीतने में सफल रही. यह सारा अनुभव रियो ओलिंपिक क्वालिफाई टूरनामैंट में काम आया. वह क्वालिफाई करने में सफल हुई.
रियो ओलिंपिक में देश के लिए पहला कांस्य पदक जीत कर साक्षी ने इतिहास रच दिया है. इस ऐतिहासिक सफलता के बाद साक्षी राजीव गांधी खेल रत्न सम्मान पाने की सूची में शामिल हो गई है. रेलवे में कार्यरत हरियाणा की यह लाडो जल्दी ही दुलहन बनने जा रही है, लेकिन कुछ और साल कुश्ती को देना चाहती है. कुल मिला कर साक्षी की सफलता ने यह संदेश दिया है कि अगर कोई युवा सीमित साधन रहते बेहतर करने की ठान ले तो अपनी मंजिल को छू सकता है.
साक्षी के स्वर्ण पदक
2011-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.
2011-स्वर्ण, जूनियर एशिया.
2012-स्वर्ण, जूनियर नैशनल.
2012-स्वर्ण, जूनियर एशिया.
2013-स्वर्ण, सीनियर नैशनल.
2014-स्वर्ण, देन सतलज.
2014-स्वर्ण, औल इंडिया