व्यवसायी परिवार में जन्में राज मेहता का फिल्मों के प्रति रूझान बचपन से ही होने लगा था.जब वह उच्च शिक्षा के लिए अमरीका के न्यूयार्क शहर पहुंचे, तो उन्होेने वहां के फिल्म स्कूल से फिल्म विधा की शिक्षा गृहण की और फिर अभिनेता व निर्माता निर्देशक त्रिलोक मलिक की मदद से मुंबई आकर प्रकाश झा से मिले.उसके बाद उन्होेंने कुछ फिल्मेंं बतौर सहायक निर्देशक, कुछ फिल्में बतौर एसोसिएट निर्देशक की.
प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के अंश..
फिल्मों के प्रति रूझान कैसे और कब हुआ ?
मैं दिल्ली में ‘सिरीफोर्ट औडीटोरियम में फिल्मों के प्रीमियर्स व फेस्टिवल्स के वक्त जाा करता था. सिरीफोर्ट औडीटोरियम में ही फिल्म ‘‘सौदागर’’ के प्रीमियर के वक्त दिलीप कुमार,राजकुमार साहब और मनीषा कोइराला वगैरह आए थे. मुझे याद है मैं अपने चाचा के साथ गया था. तो धीरे धीरे फिल्मों के प्रति रूचि बढ़ती रही. फिर जब मैं उच्च शिक्षा के लिए सात आठ साल अमरीका में रहा, तो वहां पर फिल्म पत्रिकाएं ही पढ़ा करता था. मैं पढ़ाई के बीच मे वहां रिलीज होने वाली हर हिंदी फिल्म देखता था. उन दिनों वहां पर हिंदी फिल्मों के दो थिएटर ही थे. तो बौलीवुड का शौक शुरू से ही रहा है. उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद मैने न्यूयार्क फिल्म स्कूल से फिल्म विधा की भी शिक्षा हासिल की.उसके बाद मुंबई पहुंच गया.
आप मुंबई कब आए और मुंबई में यात्रा किस तरह से शुरु हुई ?
मैं मुंबई फिल्म निर्देशक बनने की इच्छा लेकर ही आया था. लेकिन मुंबई में मैं किसी को जानता नहीं था. लेकिन न्यूयॉर्क में अप्रवासी भारतीय फिल्मकार त्रिलोक मलिक से मेरे अच्छे संबंध थे.उन्होंने ही फिल्म निर्देशक प्रकाश झा से मेरे लिए बात की थी.मुंबई पहुॅचने के डेढ़ माह बाद ही मैंने प्रकाश झा के साथ फिल्म‘आरक्षण’में बतौर सहायक निर्देशका काम करने लगा था.वह एक अलग किस्म का फिल्म स्कूल था.क्योंकि मैंने प्रकाश झा के साथ काम करते हुए जो कुछ सीखा,वह किसी भी फिल्म स्कूल में कोई नहीं सिखा सकता.काम करने का तरीका और उसकी बारीकियां यह सब मैने ‘आरक्षण’के सेट पर काम करते हुए सीखा.मैं उस अनुभव का बहुत-बहुत शुक्रगुजार हूं कि मुझे प्रकाश सर के साथ काम करने का मौका मिला और बहुत कुछ सीखने को मिला.उसके बाद मंैंने ‘यशराज फिल्मस’में बतौर सहायक निर्देशक दो फिल्में की.फिर मैंने शशांक खेतान के साथ बतौर एसोसिएट निर्देशक फिल्म‘‘ हम्टी शर्मा की दुल्हनिया’’की.यह धर्मा प्रोडक्शन की फिल्म थी.उसके बाद ‘कपूर एंड संस’और ‘बद्रीनाथ की दुल्हनियां’की.इस बीच मैने ख्ुाद दो तीन फिल्मों की पटकथाएं लिखीं.करण जोहर सर से भी अच्छे संबंध बन चुके थे.मैं करण सर का शुक्रगुजार हूं कि उन्होेने मुझे ‘गुड न्यूज’के निर्देशन की जिम्मेदारी दी.
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आप निर्देशक बनना चाहते थे,तो फिर लिखने का शौक कैसे हो गया ?
फिल्म स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही मेरे अंदर फिल्म पटकथा को लेकर एक समझ विकसित हुई.वैसे तो हम स्कूल की पत्रिका के लिए भी कुछ न कुछ लिखता रहा हॅूं. मगर कहानी लिखना और उसको रोमांचक बनाना,मेरे ख्याल से बहुत ही मुश्किल काम है.फिल्में तो कागज पर ही पहले बनती हैं,उसके बाद सेट पर हम उसको थोड़ा बदलते हैं.यदि कागज पर फिल्म अच्छी नही बनी यानी कि यदि पटकथा अच्छी नही है,तो फिर अच्छी फिल्म बनना मुश्किल है.मुझे अभी भी लगता है कि मैं अच्छा लेखक नही हूं. मैंने कई लेखकों को देखा है, जो ऐसा कुछ लिखते हैंं कि मैं सोच नहीं सकता. मैंने खुज पटकथा लिखी हैं पर मैं दूसरों के लेखन को पढ़ता रहता हूं. मैंने अक्षय कुमार से भी काफी कुछ सीखा.
फिल्म‘‘गुड न्यूज’’के निर्देशन की जिम्मेदारी कैसे मिली ?
मैंने अपनी एक पटकथा करण जौहर सर को पढ़ने के लिए दी थी. उन्हें वह पसंद आयी और उन्होंने उस पर फिल्म बनाने की सोची. फिर मैं खुद भी कई कलाकारों से मिला.करण जौहर ने भी कुछ कलाकारों से बात की, पर बात नहीं बनी. इसी बीच ज्योति कपूर ने ‘गुड न्यूज’ की कहानी दी. हमने इस पर काम किया. करण जौहर को भी यह पसंद आयी और अब यह फिल्म बन गयी.
ज्योति कपूर की कहानी में आपको किस बात ने उत्साहित किया ?
मेरी सोच यह रही है कि कैरियर की पहली फिल्म बहुत ही महत्वपूर्ण होनी चाहिए. क्योंकि उसी के बलबूते पर आपका कैरियर आगे चलेगा या नहीं चलेगा, यह सब कुछ निर्भर करता है. मैं बतौर एसोसिएट काम कर ही रहा था. इसलिए कुछ भी नहीं बनाना था. ज्योति कपूर की कहानी की आइडिया मुझे बहुत अच्छी लगी. इसकी आइडिया, आईवीएफ तकनीक की जो है, उसने काफी इंस्पायर किया. इसके अलावा दो अलग स्वभाव के दंपति जब आईवीएफ तकनीक से माता पिता बनने के लिए अस्पताल पहुंचे और उनके स्पर्म के अदला बदली का कांड हो जाए तो उनकी जिंदगी में क्या होगा, इस बात ने मुझे इस पर काम करने के लिए उकसाया. जिसके चलते अब फिल्म दर्शकों के सामने आने जा रही है. मैं मूलतः पंजाबी हूं. मुझे इसमें ह्यूमर का स्कोप बहुत नजर आया. निजी जिंदगी में भी मुझे हंसी मजाक करने का शौक है. कहानी में स्पर्म की अदला बदली दुःखद तो है, पर ह्यूमर व हंसी का स्कोप भी बहुत है. इसमें सेंसलेस ह्यूमर नही है. ह्यूमर के साथ कहानी व शिक्षा भी है. मेरा मानना है कि फिल्म देखकर सिनेमा घर से दशक यदि किसी न किसी इमोशन के साथ बाहर निकलता है, तो ही सफलता है. सिर्फ दो घंटे हंसने वाली बात नहीं होनी चाहिए. जब दर्शक अपने साथ कोई इमोशन ले जाता है, तो वह ज्यादा अच्छा लगता है. उसे फिल्म याद रह जाती है. मुझे इसमें यह सब नजर आया.फिर मैने करण जोहर से इस पर चर्चा की. करण जोहर को भी कहानी पसंद आयी.उसके बाद ढाई माह तक मैने ज्योति व रिषभ शर्मा के साथ मिलकर इसकी पटकथा पर काम किया.
आईवीएफ तकनीक के असफल होने का सबसे बड़ा सदमा शारीरिक और मानसिक रूप से औरत को ही झेलना पड़ता है.क्या इस पर आपकी फिल्म कुछ कहती हैं?
नही..हमारी फिल्म का कौंसेप्ट पूरी तरह से ह्यूमरस है. इसलिए कहानी जिस तरह से आगे बढ़ती है, उसमें यह कहीं नही आता.क्योंकि हमारी फिल्म की कहानी जब दो दंपतियों के स्पर्म की अदला बदली हो जाती है, उसके बाद इन दोनो दंपतियों की यात्रा है.इसलिए नेच्युरल कहानी में आई वीएफ तकनीक के असफल होने का औस्पेक्ट नहीं आता है. पर मैं आपकी बात से सहमत हूं कि आई वीएफ तकनीक का प्रोसेस सौ प्रतिशत सफल नही होता है. असफल होने की संभावना होती है. मैं कुछ कपल्स को जानता हूं, जो कि इस तकनीक का आठ से दस बार उपयोग कर चुके हैं. पर नब्बे प्रतिशत सफल हैं. मुझे किसी ने बताया कि इस वक्त आठ मिलियन बच्चे ‘आई वीएफ’ तकनीक की मदद से जन्म ले चुके हैं.कहने का अर्थ यह कि जो कपल्स नेचुरल तरीके सेे माता पिता नही बन सकते, उनके लिए ‘आई वीएफ’ तकनीक मददगार है.
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सरोगेसी पर कानून बनने के बाद आपकी फिल्म‘‘गुड न्यूज’’आ रही है?
हमारी फिल्म सरोगेसी के बारे में कम, आईवीएफ के बारे में ज्यादा है. यह पूरी तरह से आईवीएफ पर ही है.ट्रेलर में भी आईवीएफ के बारे में ही बात की गई.आईवीएफ ऐसी तकनीक है, जिसके संबंध में कुछ लोग जानते है,पर हम इसे ज्यादा लोगो तक पहुंचाना चाहते हैं. मैने अपने शोध के दौरान पाया कि मुंबई व दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लोग ‘आई वीएफ ’तकनीक के बारे में जानते हैं,मगर छोटे शहर व गांव के लोेग इससे अनभिज्ञ हैं.
फिल्म देखने के बाद दर्शक अपने साथ क्या लेकर जाएगा ?
मैं यह दावा नही करता कि यह संदेशप्रद फिल्म है. यह एक बहुत ही सिंपल प्यारी कहानी है. लोग इंज्वाय करेंगे. इसमें इमोशंस भी हैं. इसमें गर्भधारण के दौरान एक औरत किन चीजों से गुजरती है, वह सब दर्शक अपने साथ लेकर जाएगा. इसमें कोई बहुत तगड़ा संदेश नहीं है.पर उम्मीद है कि जब दर्शक सिनेमाघर से बाहर निकलेंगे,तो कुछ तो अपने साथ लेकर जाएंगे.