दक्षिण कोलकाता का रासबिहारी एवेन्यू और इस से लगा हुआ प्रतापादित्य रोड, श्यामाप्रसाद मुखर्जी रोड. आम शहरों की तरह पौ फटते ही पक्षियों की चहक आसमान में नया सूरज उगने का मानो ऐलान कर रही हो. पूरब के आसमान में सूरज उगने के साथ ही शहर के गलीमहल्ले के एक छोर से दूसरे छोर तक जिंदगी नए सिरे से शुरू होने लगती है. कुछ लोग सुबह की सैर पर जाते या लौटते नजर आ रहे थे. उपरोक्त विवरण कोलकाता के लगभग तमाम महल्लों की सुबह का चिरपरिचित नजारा है. यहां की चायदुकानों से उठता धुंआ– कहते हैं बंगाल के लोगों की जिंदगी चाय, चीनी और चाकरी के बगैर सोची ही नहीं जा सकती. सुबहसवेरे सैर से या सागभाजी की खरीदारी कर के लौटते हुए इन चाय की दुकानों में इक्कादुक्का लोग चाय की चुस्की लगाते और राजनीति पर हलकीफुलकी बहस करते देखे जा सकते हैं. इस पूरे इलाके में पूरे देश की तरह ही एक मिलीजुली संस्कृति का नजारा देखने को मिलता है. सुबहसुबह तमाम महल्लों में विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में गीतसंगीत सुनाई देना आम बात है. दिन चढ़ने के साथ घरों के झरोखों से तरहतरह के खाने की खुशबुएं आती हैं. बरामदे में रंगबिरंगे कपड़े सूखते नजर आने लगते हैं. फेरीवाले अपनी हांक लगाते हुए गुजर जाते हैं. निजी कारों से ले कर रिक्शाआटो की दौड़ बदस्तूर शुरू हो जाती है. ऊपर से देखा जाए तो इन सड़कों में बसने वाले महल्लों में सबकुछ सामान्य लगता है. पर इन महल्लों की यह पूरी सचाई नहीं है. इन महल्लों के कुछ घरों में भीतर रहने वाले लोगों के दिलों में एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ है. बड़े ही एकाकीपन में जिंदगियां यहां गुजरबसर करती हैं.
बड़ी सड़क के आसपास के लेन और बाईलेन में हाल के कुछ वर्षों में बहुत सारी नई बहुमंजिली इमारतें खड़ी हो गईं हैं. इन आधुनिक बहुमंजिली इमारतों के बीच वर्षों से कुछ पुराने मकान भी सिर उठाए अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद में किसी तरह खड़े हैं, बीते समय और आने वाले कल के बीच पुल की तरह. पर इन के साथ एक कड़वी सचाई भी जुड़ी हुई है और वह यह कि हर नए आगाज के साथ कुछ पुराना भी जुड़ा हुआ होता है और आमतौर पर पुराना उपेक्षा का शिकार होता है. परिवार में बुजुर्गों की भी स्थिति बहुतकुछ ऐसी ही है. इन महल्लों की खास बात यह है कि यहां बहुत सारे ऐसे परिवार हैं जहां नई पीढ़ी नौकरीचाकरी की गरज से विदेशों में या फिर दूसरे राज्यों में जा कर बस गई है. इन परिवारों के बुजुर्ग उन के लौटने के इंतजार में किसी तरह समय गुजार रहे हैं. यह कड़वी सचाई अकेले प्रतापादित्य रोड की नहीं है. आसपास के रासबिहारी एवेन्यू, श्यामाप्रसाद मुखर्जी रोड, श्रीमोहन लेन, रानी भवानी रोड, भवानंद रोड समेत और भी ऐसे कई महल्ले हैं जहां पहली और दूसरी पीढ़ी के बुजुर्ग अपनों के लौटने की राह ताकते हुए जी रहे हैं. सौल्टलेक के कई सैक्टर और ब्लौक भी इसी गिनती में आते हैं. वैसे, अगर इस विषय पर कोई संस्था सर्वे कराए तो संभवतया स्थिति कहीं बेहतर तरीके से साफ होगी.
पश्चिम बंगाल की जानीमानी गायिका बनश्री सेनगुप्ता ने दक्षिण कोलकाता के इन महल्लों को वर्षों से बहुत करीब से देखा है. उन के शब्दों में, इन दिनों वृहद कोलकाता और इस के आसपास के उपनगरों में बहुत सारे महल्ले वृद्धाश्रम में तबदील होते जा रहे हैं. इन महल्लों की नई पीढ़ी या तो विदेश में या दूसरे किसी राज्य में प्रवासी जीवन जी रही है. पहली व दूसरी पीढ़ी के परिवार से बुजुर्गों के दुखतकलीफ में नई पीढ़ी वाले अनुपस्थित ही रहते हैं. 1-2 साल में एक बार अपना चेहरा दिखा दिया तो बुजुर्ग सदस्यों के लिए वही बहुत होता है. इसी इंतजार में बुजुर्ग कुछ और समय निकालते रहते हैं.
बनश्री सेनगुप्ता खुद भी अकेली हैं. पति को गुजरे वर्षों हो गए हैं. वे बुजुर्गों के एकाकीपन, नई पीढ़ी की सोच और उस के ख्वाबों, उस की मजबूरी के साथ उसे बखूबी समझती हैं. वे कहती हैं कि यह आधुनिक जीवनशैली का तकाजा है. नई पीढ़ी के अपने ख्वाब हैं, उस का अपना कैरियर है, तमाम सुखसुविधाओं से लैस और खुशहाल घरपरिवार का सपना है. लेकिन विडंबना यह है कि खुशहाल घरपरिवार की इन की तसवीर के फे्रम में बुजुर्ग उस तरह से शामिल नहीं हैं जिस तरह बुजुर्गों के दिलोजान का ये हिस्सा बने होते हैं.
वे कहती हैं कि मेरे पति को गुजरे काफी दिन हो गए. जब वे गुजरे तब हमारी बिल्डिंग के लोगों और पड़ोसियों ने आगे बढ़ कर बहुतकुछ किया. उन लोगों ने जो कुछ किया उसे भुला नहीं पाऊंगी. पति के गुजरने के बाद से मैं अकेली हूं. एक बार बीमार पड़ी तब पड़ोसियों ने नर्सिंगहोम में भरती कराया था. लेकिन अब पहले जैसे दिन नहीं रहे. सामाजिक स्तर में आई गिरावट और रिश्तों में आए ठंडेपन को देख भविष्य को ले कर मन में आशंकाएं उठती हैं. अब बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. दरअसल, आज विकास का एक अहम पहलू है आधुनिकता. आज आधुनिकता को जीवनशैली से जोड़ कर देखने का चलन है. और इस तथाकथित आधुनिक जीवनशैली में सुखसुविधाओं व सहूलियतों को ही प्राथमिकता हासिल है. इसी विकास की ही देन मैडिकल साइंस है जिस की बदौलत इंसान का जीवन कुछ लंबा खिंच गया है. आज जीवन 70-80 साल तक निकल जाता है. एक हद तक इस का खमियाजा परिवार में बुजुर्ग भुगत रहे हैं. परिवार में उन की अहमियत कम होती जा रही है.
इस तरह की जीवनशैली का जितना अधिक चलन बढ़ रहा है, पारिवारिक बंधन उतने ही शिथिल होते जा रहे हैं. इस से पहले भी संयुक्त परिवार टूटने के एक सामाजिक आघात से हम गुजर चुके हैं. आज भरापूरा संयुक्त परिवार लुप्तप्राय है. आज के तथाकथित शहरी विकास में मातापिता के साथ बच्चों का जीवनभर का साथ आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध में बेमानी हो चला है. बच्चों को पालने में मातापिता पूरा जीवन लगा देते हैं और जब वे जीवन के अंतिम पड़ाव में पहुंच जाते हैं तब उन की देखभाल करने या घड़ी दोघड़ी उन के साथ बैठ कर बतियाने वाला कोई नहीं होता.
मन का मेल हो न पाया
काननबाला दक्षिण कोलकाता के लेक रोड निवासी हैं. कुछ समय पहले काननबाला के पति प्रशांत दास उन का साथ छोड़ गए. एक बेटा है, इंजीनियर है जो जरमनी में रहता है. पिता के गुजरने के 2 साल बाद बेटे में अचानक बड़ा बदलाव आते देख काननबाला हैरान रह गईं. उत्तराधिकारी होने का दावा, पिता की संपत्ति में बराबरी का हक जैसी आएदिन बेटे की मांगों को देखते हुए काननबाला का मन बेटे से फटने लगा. पिता की जब मृत्यु हुई और जब उसे खबर दी गई तब उस ने आने में असमर्थता जताई. तब काननबाला ने अपने पति का अंतिम संस्कार खुद किया. इस के बाद तो सामयिक दूरियां खाई में तबदील होने लगीं.
बेटे से संपर्क लगभग टूट ही गया था. फिर एक दिन अचानक इंजीनियर बेटा कोलकाता आया. अपने परिवार के साथ आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए उस ने बीमार मां से पैसे मांगे. काननबाला ने पति के गुजरने के बाद अपने नाम का कोलकाता का मकान बेच कर पूरी रकम पहले ही बेटे को दे दी थी और फिर नदिया जिले के एक कसबे में पति के पैतृक घर में काननबाला अकेली रहने लगीं. अब अकसर बीमार रहने लगी थीं, इसीलिए और पैसे देने से काननबाला ने मना कर दिया. यह बात बेटे को नागवार गुजरी और वह जरमनी वापस लौट गया. इस बीच कई साल गुजर गए. काननबाला गंभीर रूप से बीमार पड़ीं. रिश्तेदारों से कहलवा कर काननबाला ने जरमनी में बेटे को आखिरी बार देखने के लिए खबर भी की. पर 7-8 बार फोन किए जाने के बाद भी बेटा मां से अंतिम मुलाकात के लिए तैयार नहीं हुआ. आखिरकार मां अंतिम बार बेटे को देखे बिना ही इस दुनिया से विदा हो गई.
अकेलेपन की मजबूरी
राजारहाट में मानसी बसु रहती हैं. इस बुजुर्ग महिला के परिवारों में बेटाबहू और पोता हैं. पर बहू के पास भी अपनी सास के लिए समय नहीं. सुबह की व्यस्तता के बाद वह टीवी के सासबहू सीरियल में मशगूल हो जाती है. बेटा है तो चश्मे की दुकान में नौकरी करता है. घर के बुजुर्गों के पास आ कर बैठने का समय किस के पास है? मानसी 75 साल पार कर चुकी हैं. बुढ़ापे की बीमारियों ने उन्हें काहिल कर दिया है. उन्हें टीवी की दुनिया से लेनादेना नहीं. वे बरामदे में आ कर बैठ जाती हैं. यहां से मन उचट जाता है तो कभीकभार पड़ोस में बैठ जाती हैं. बस, यही है उन की जिंदगी. आखिर वे करें तो क्या करें. उन की इच्छा होती है कि बेटे से बातचीत करें, पोते से बात करें पर किसी के पास वक्त ही नहीं. उन की आंखें बहुत कुछ कहना चाह रही थीं पर कह नहीं पाईं. कोलकाता के सौल्टलेक के रहने वाले हैं वंशीबदन धर. पिछले साल पत्नी गुजर गई. आज एकाकी जीवन गुजार रहे हैं. इन की एकमात्र ब्याहता बेटी मुंबई में घरपरिवार और नौकरी की चक्की में बुरी तरह जुती हुई है. कभीकभार ही पिता की सुध ले पाती है. जवांई कभीकभार एकमुश्त पैसे भेज देता है. ऐसे में वंशीबदन बहुत अकेला महसूस करते हैं. इसीलिए छिटपुट सामाजिक कार्यों में अपना दिल लगाते हैं. 2014 में राज्य सरकार के हिडको विभाग ने डिग्निटी फाउंडेशन के साथ मिल कर सीनियर सिटीजन मेले का आयोजन किया था. मेले में बुजुर्गों को अपने जीवन की दूसरी पारी में भी आत्मनिर्भर रहने के लिए प्रेरित किया गया था. मेले में वंशीबदन ने भाग लिया. मेले ने उन्हें प्रभावित किया. यहां वर्कशौप में उन्होंने हस्तकला का प्रशिक्षण लिया. अब वे मिट्टी के खिलौने बनाते हैं और बाजार में सप्लाई करते हैं.
उन का कहना है कि अकेले वही एकाकी जीवन नहीं गुजार रहे हैं. सौल्टलेक के दूसरे सैक्टर और ब्लौक में बहुत सारे ऐसे घर हैं जहां परिवार के बुजुर्ग अलगथलग या अकेले पड़ गए हैं. परिवार में उन की सुध लेने वाला कोई नही. हालांकि इस के लिए वे बच्चों को कुसूरवार भी नहीं ठहराते हैं. उन का कहना है कि समय का तकाजा ऐसा ही है. महंगाई इतनी बढ़ चुकी है कि बच्चे करें तो क्या करें. बेहतर जीवन के लिए बच्चों को हाथपैर मारना होता है. अपने शहर में काम नहीं है तो दूसरे गांवशहर उन्हें जाना ही पड़ता है. वंशीबदन को तसल्ली इस बात की है कि वे जीवन की दूसरी पारी में भी सक्रिय हैं.
रोजीरोटी की मजबूरी
शीला घोष, उम्र 87, हर रोज बिना नागा हुगली जिले के बाली से कोलकाता पापड़, चिप्स और बडि़यां बेचने के लिए आती हैं. इन की झुकी हुई कमर, गीता के कर्मयोगी दर्शन इन के भीतर आत्मनिर्भर होने का जज्बा पैदा करता है. मध्य कोलकाता के एक्साइड मोड़ से ले कर रवींद्र सदन तक इन्हें कहीं भी देखा जा सकता है. इलाके में ये शीला मौसी के नाम से जानी जाती हैं.
बीते जमाने में बांकुडा के विष्णुपुर में जमींदार परिवार की पैदाइश हैं शीला मौसी. पिता पेशे से डाक्टर थे. महज 14 साल की उम्र में बाली स्टेशनमास्टर से ब्याह हुआ. 15 साल की उम्र में बेटे की मां बन गईं. फिर बेटी भी हुई. बड़ा हो कर बेटा रेलवे में क्लर्क हो गया. पति पहले ही गुजर चुके थे. 2010 में फेफड़े के कैंसर से इन के एकमात्र बेटे की भी मृत्यु हो गई. बेटी भी किशोर उम्र तक पहुंचनेपहुंचते गुजर गई.
आज परिवार में बेटे की बहू और पोता है. बहू गुरदे की बीमारी से पीडि़त है. बेटे की मौत के बाद इन की जिंदगी में सबकुछ बदल गया. ममता बनर्जी के रेलमंत्री रहते हुए बारबार लिखने पर पोते को रेलवे में पिता के बदले नौकरी मिली थी. लेकिन उस पद के लायक शैक्षणिक योग्यता न होने के कारण कोर्ट के निर्देश पर नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा. सासबहू पेट पालने के लिए मोमबत्ती बना कर बेचा करती थीं. चूंकि लागत की तुलना में आय कम थी, इसीलिए यह बंद कर पापड़, बडि़यां और चिप्स बेचती हैं. पद्मा की उम्र 80 पार है लेकिन मुसकराते हुए जीवन चलाने का जुगाड़ करने से कभी गुरेज नहीं किया. ये कोलकाता के उपनगर बागुईहाटी में हर रोज कंधे में अगरबत्ती का बैग झुलाती चली आती हैं और अगरबत्ती बेचती हैं. इन की उम्र का लिहाज करते हुए अकसर लोग आर्थिक मदद करने के लिए आगे भी आते हैं. लेकिन ये कभी किसी से दूसरी कोई मदद नहीं लेतीं. हां, पैसों की मदद के बदले कम से कम अगरबत्ती का एक पैकेट खरीद लेने का अनुरोध जरूर करती हैं. जिस की कीमत महज 10 रुपए होती है. बहुत ही कम उम्र में पद्मा के बेटे की मृत्यु हो गई. 2 पोते सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं. पोते और पुत्रवधु को ले कर 4 लोगों के परिवार में यही एक कमाने वाली हैं. चाहे धूप हो, बारिश हो, घर से इन्हें निकलना ही है. दिनभर इलाके में घूमघूम कर अगरबत्ती बेचने के बाद रात की लोकल ट्रेन से सांतरागाछी पहुंचती हैं, जहां परिवार के 3 लोग इन का इंतजार करते रहते हैं. इन का यह अदम्य साहस ही है कि दूसरी पारी में भी जीवनरूपी युद्ध से हार नहीं माननी है इन्हें. भीख नहीं, दयाकरुणा नहीं, पद्मा का मानना है कि जब तक हाथपांव चलेंगे तब तक संघर्ष कर सम्मानपूर्वक जीवन जिएंगे.
कोई मिलने न आया
रासबिहारी रोड में रहने वाला पौलिटैक्निक छात्र संचयन घोष है. संचयन ने अपनी ही सोसायटी में रहने वाले एक ईसाई दंपती जेनी डिसूजा और रौबर्ट डिसूजा नाम के एक बुजुर्ग दंपती के एकाकीपन को करीब से देखा है. वह बताता है कि सोसाइटी के इस बुजुर्ग दंपती की एक बेटी और एक बेटा है. बेटी शादीशुदा और विदेशी एयरलाइंस में नौकरीशुदा है. बेटा विदेश में एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करते हुए वहीं बस चुका है. घर पर ये बुजुर्ग अकेले हैं. 1-2 साल में बेटा या बेटी मुलाकात के लिए कभी चले आए तो ठीक, वरना डिसूजा दंपती को एकदूसरे का ही सहारा होता है.
जहां तक उन की निजी जरूरत के खर्च का सवाल है तो पैंशन से प्राप्त रकम से वह जरूरत पूरी हो जाती है. लेकिन खानेपीने के अलावा जीवन की और भी कई जरूरतें हैं, इन्हें कौन पूरा करे? संचयन बताता है कि अचानक एक दिन लिफ्ट के सामने लगे नोटिस से पता चला कि जेनी आंटी गुजर गईं.
पता यह भी चला कि 15 दिनों तक अस्पताल में मौत से लड़ती रहीं और आखिरकार उन्होंने हार मान ली. पर सोसाइटी में किसी को उन की बीमारी की खबर नहीं हुई. रिश्तेदारों में से न उन्हें अस्पताल में कोई देखने गया और न ही उन की मृत्यु के बाद कोई शोक जताने आया. रौबर्ट डिसूजा 15 दिनों तक अस्पताल में पत्नी जेनी के सिरहाने बैठे रहे. आज वे निपट अकेले हैं. अब तो वे किसी से बात तक नहीं करते. वरना पहले तो हर मिलने वाले का हालचाल ले ही लिया करते थे.
बस, केवल मौत की कामना
उत्तर कोलकाता के एक पुराने महल्ले में लक्ष्मी रहती हैं. गनीमत है कि उन का अपना मकान है. पति शेयरब्रोकर थे. शेयर कारोबार की नब्ज खूब पहचानते थे. अच्छाखासा पैसा कमाया था उन्होंने. उन की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसीलिए अपनी बहन की एक बेटी को उन्होंने गोद ले लिया था. पढ़ालिखा कर ब्याह कर दिया. ब्याह के बाद पर्वत्योहार में ही उन की बिटिया का मायके आना होता था. तब नवासेनवासी से घर गुलजार हो जाता था. उन्होंने अपने नवासे और नवासी का ब्याह भी करवाया. अब सब अपनेअपने घरपरिवार में खुश हैं. इस बीच एक दिन पति गुजर गए. तब 80 साल की लक्ष्मी टूट सी गईं. उन्हें लगा अब जीवन जी कर क्या करेंगी और एक दिन उन्होंने अपने जेवर से ले कर मकान तक बेटी के नाम लिख दिया. इस के बाद तो उन का रहासहा परिवार भी टूट गया. अब कोई इन की सुध तक नहीं लेता. अकसर बीमार रहती हैं. घर पर दूसरा कोई नहीं. मकान की निचली मंजिल में उन का एक किराएदार रहता है. कभीकभार बुलाने पर आ जाता है उन की देखभाल और वक्तजरूरत मदद भी कर दिया करता है. किराएदार दिनेश सिंह बताता है कि स्थिति इतनी भयावह है कि पिछली दीवाली की रात लक्ष्मी बाथरूम में पांव फिसलने से गिर गई थीं. रातभर बाथरूम में कराहती रहीं, मदद के लिए हमें पुकारती रहीं. लेकिन पटाखों की आवाज में न मैं कुछ सुन पाया और न ही किसी ने उन की कराह सुनी. सुबह जब वह उन्हें दीवाली की मिठाई देने गया तो उन के कराहने की आवाज सुन कर किसी तरह दरवाजा तोड़ कर घर में गया और बाथरूम से उठा कर अस्पताल पहुंचाया. जांच में पाया गया कि उन के कमर की हड्डी टूट गई है. औपरेशन कर कमर में प्लेट लगाने को कहा डाक्टर ने.
दिनेश बताता है कि वह एक लिफ्ट मैकेनिक है. उस की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अपनी मकान मालकिन के इलाज का खर्च उठा सके. इसीलिए फौरीतौर पर उस से जो कुछ बन पड़ा उस ने किया. इस के बाद उन की बेटी को खबर की. तब पता चला कि वे दिल्ली में अपने बेटे के यहां हैं. किसी तरह लक्ष्मी ने अपने हाथ की चूडि़यां उतार कर, बेच कर पैसों का इंतजाम करने के लिए कहा. तब जा कर औपरेशन हुआ.
घर तो वे लौट आईं, लेकिन इस बीच कमर में लगी प्लेट में 2-2 बार संक्रमण हो चुका है. वे चलनेफिरने से लगभग लाचार हैं. अकेली रहती हैं. सुबह 8 बजे एक आया आती है. घर की साफसफाई करने और दो वक्त का उन के लिए खाना बना कर उन के सिरहाने रख चली जाती है. साल में कभीकभार जब कोई रिश्तेदार उन से मिलने चला जाता है तो उन का हाथ पकड़ कर वे जारजार रोती हैं और कहती हैं कि न तो मर पा रही हूं और न ही जी पा रही हूं.
एक नहीं, बल्कि कई लक्ष्मी इसी तरह बिस्तर पर पड़े मौत की कामना कर रही हैं जिस से लगता है नई पीढ़ी जरूरत और उम्मीद से ज्यादा संवेदनहीन और क्रूर हो गई है जिस ने अपने तात्कालिक स्वार्थ व सुख के लिए अपने जन्म और जीवनदाताओं को जीतेजी नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया है. यह पीढ़ी महत्त्वाकांक्षाओं की लड़ाई संस्कारों और पारिवारिक मूल्यों को हार कर जीती है जिस में बुजुर्गों के प्रति किसी तरह के आभार का भाव नहीं है. ऐसे में इस से अपने हिस्से की जिम्मेदारियां उठाने की उम्मीद करना बेवजह मन बहलाने और झूठी तसलली देने जैसी बात होगी. दो टूक कहें तो यह एक अक्षम्य अपराध है जो आने वाले कल में उस के साथ भी होना तय है.
असंवेदनशील होते युवा
आज के बुजुर्गों को तो एक हद तक महल्लेपड़ोस और नातेरिश्तेदारों का नाम का ही सही, साथ और सहारा मिल रहा है लेकिन जब मौजूदा पीढ़ी के युवा वृद्ध होंगे तब इन की सुध लेना वाला शायद ही कोई होगा, क्योंकि आज इन्होंने अपनों को अकेलेपन के अवसाद में झोंक रखा है. कल इन के बच्चे इन से ज्यादा कू्रर व अव्यावहारिक हो सकते हैं, जो आज सीख रहे हैं कि कैरियर और पैसे के सामने तमाम रिश्तेनाते बेमानी और बौने हैं. भारतीय समाज की धुरी रही संयुक्त परिवार व्यवस्था तेजी से ध्वस्त हो रही है. अब सगी औलाद पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता. इस समस्या से ताल्लुक रखता दूसरा चिंतनीय पहलू यह है कि इस का कोई हल या बीच का रास्ता नहीं है. अपने अभिभावकों को असहाय और अपने हाल पर छोड़ कर पलायन कर रहे युवाओं को अपना हश्र समझ नहीं आ रहा है. जिन बच्चों को बड़े नाजों और उम्मीदों से अभिभावकों ने पालापोसा था वही अब बच्चों के बिना एकाकी जीवन गुजारने को मजबूर हैं.
जीवन की शाम और आनंदधाम
वृद्ध आमतौर पर आश्रमों के नाम से बचते और कतराते नजर आते हैं पर 78 वर्षीया प्रेमा मेहरोत्रा, जो पति के गुजरने के बाद भोपाल के वृद्धाश्रम आनंदधाम आईं, दोटूक बताती हैं, ‘‘यहां आना मेरा अपना फैसला था. मुझे किसी से कोई गिलाशिकवा नहीं. मुझे लग रहा था कि मेरी वजह से मेरे अपनों की जिंदगी में खलल पड़ रहा था, इसलिए मैं यहां चली आई. मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से कोई परेशान रहे और मेरे लिए कोई परेशान हो.’’ प्रेमा मानती हैं कि वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है और अब लोगों के पास इस की कमी भी हो चली है. स्वभाव से बहुत ही नम्र और सरल लेकिन व्यावहारिक मामलों में सख्त दिखने वाली प्रेमा खुद अपनी तरफ से पहल करती हुई कहती हैं कि बुढ़ापा कोई अभिशाप नहीं है और न ही भार है, बशर्ते खुद को वक्त और दुनिया के हिसाब से बदल लिया जाए. आनंदधाम को जिंदगी की शाम गुजारने के लिए एक बेहतर जगह बताने वाली प्रेमा के पास तजरबों का खजाना है. लिहाजा, उन्हें यह कहने का पूरा हक है कि उन्होंने दुनिया देखी है. इन दिनों वे यहां आराम कर रही हैं लेकिन मेहनत वाले छोटेमोटे काम वे खुद को फिट रखने के लिए करती हैं. पैसों की उन के पास कमी नहीं लेकिन हमउम्र संगीसाथियों की कमी थी जो यहां आ कर पूरी हो गई है. आनंदधाम में उन के जैसे लगभग 30 लोग और हैं.
इन सभी की एक नियमित दिनचर्या है. खास बात यह भी है कि तमाम सुखसुविधाएं, सहूलियतें आनंदधाम में है. यहां दिनभर लोगों की आवाजाही बनी रहती है. अधिकांश लोग जिज्ञासावश इन अपरिचित बुजुर्गों से मिलने आते हैं, सुखदुख उन से साझा करते हैं, उन के साथ तीजत्योहार मनाते हैं और उन्हें पर्याप्त सम्मान और आश्रम को यथासंभव सहायता देते हैं.
अच्छा लगता है अपनापन
वृद्ध हर दौर में अपनों द्वारा ठुकराए जाते और तिरस्कृत किए जाते रहे हैं, यह एक शाश्वत सत्य है जिस पर बहस और तर्ककुतर्क की तमाम संभावनाएं हैं. लेकिन इस से कुछ हासिल होगा या कोई निष्कर्ष या हल निकलेगा, ऐसा कहने की भी कोई वजह नहीं. आनंदधाम के हर बुजुर्ग की अपनी अलग कहानी है जिसे साझा करने से वे हिचकिचाते नहीं. लेकिन ऐसा भी नहीं कि वे अपनी कहानी सुनाने को उत्सुक रहते हों. इन बुजुर्गों का मकसद एक बेहतर वक्त गुजारना है, इसलिए वे अतीत की चर्चा प्रसंगवश ही करते हैं. यह बात यहां आनेवालों को आंदोलित कर देती है कि ये बुजुर्ग भले ही शारीरिक तौर पर थकेहारे और अशक्त से हों लेकिन इन में गजब की मानसिक व व्यावहारिक ऊर्जा है. इन की बातों में निराशा या अवसाद नहीं दिखाई देता. 70 वर्षीय अंबालाल चौहान महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले से आए हैं. उन के मुंह से यह सुन कर मन कसैला हो उठता है कि अभावों के चलते वे अपने बेटों के पास नहीं रहते. एक भरेपूरे परिवार का मुखिया जिस के 3 बेटेबहुएं और नातीपोते हों, सब को छोड़ कर क्यों वृद्धाश्रम आया. यह सवाल अपनेआप में करुणादायक है लेकिन अंबालाल की बातों और विचारों में न कोई पूर्वाग्रह है, न शिकायत है और न ही निराशा है. वे कहते हैं, ‘‘यहां आ कर सुकून मिल रहा है. जिंदगी के माने नए सिरे से समझ में आ रहे हैं और एक मकसद मिल गया है कि अब निश्चिंतता से रहना है. जिंदगी कम बची है, इसे जिंदादिली से जीना है.’’
ऐसा नहीं कि अंबालाल को अपने परिजनों से कोई सरोकार या मोह नहीं पर वे शायद उसे त्यागने की कोशिश में लगे हैं. दिनभर आनंदधाम के बड़े परिसर में वे इधर से उधर घूमते हैं और जब थक जाते हैं तो पत्रपत्रिकाएं पढ़ने बैठ जाते हैं. सुबह व शाम का वक्त साथियों से बतियाते कब कट जाता है, उन्हें पता ही नहीं चलता.
पढ़ने का जनून
आनंदधाम के एक वरिष्ठ सदस्य हैं तमिलनाडु के दिलीप दास. वे जिंदगी के 75 साल पूरे कर चुके हैं. आप इन के कमरे में जाएंगे तो हैरान रह जाएंगे. उन की पलंग के आसपास तरहतरह की किताबें बिखरी पड़ी हैं. रोजमर्राई सामान के अलावा जरूरत की दवाएं और चूर्ण सभी बुजुर्गों के कमरों में हैं लेकिन दिलीप दास के सिरहाने के पास किताबों के ढेर हैं. रहस्यों में उन की गहरी दिलचस्पी और दखल है. दिलीप दास उन लोगों से परहेज करते हैं जो किसी सनसनीखेज या दयाभरी कहानी की तलाश में यहां आते हैं. अगर उन से कोई इस आशय की बातचीत शुरू करता है तो वे पूछने वाले को बातोंबातों में किताबों पर ले आते हैं. अपने बारे में कुछ बताइए, जैसा कोई सवाल आप करेंगे तो जवाब में वे निश्चिंत ही यह कहेंगे कि कई दिनों से एक लेखक के नारायणस्वामी की लिखी किताब ‘लघु योगा वशिष्ठ’ ढूंढ़ रहा हूं जो थियोसोफिकल पब्लिशिंग हाउस, मद्रास की है. क्या आप किसी भी कीमत पर यह पुस्तक मुझे उपलब्ध करा सकते हैं?
पढ़ने के इस जनून ने उन्हें खास बना दिया है. आनंदधाम के एक और बुजुर्ग सदस्य नागपुर के मणि अय्यर बताते हैं कि दिलीप दास किताबों के दीवाने हैं. आमतौर पर यहां आने वाले लोग बुजुर्गों के लिए खानेपीने का सामान, कपड़े और दूसरा जरूरी सामान तो लाते हैं पर पुस्तकें कोई नहीं लाता जिस की बुजुर्गों को सख्त जरूरत होती है.
ये तो पढ़ाते हैं
आनंदधाम आ कर सुखद अनूभूति होने की कई वजहे हैं. यहां आ कर यह धारणा महज धारणा ही रह जाती है कि वृद्धाश्रमों में कराहते बूढ़े ही होंगे जो अपनों, गैरों और जमाने को कोसते रहते हैं. एक और बुजुर्ग कभी पेशे से शिक्षक रहे करन सिंह परिहार शाम के वक्त गरीब बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं. वे गणित के अच्छे जानकार हैं. मेरी पढ़ाई और शैक्षणिक अनुभवों का पूरा फायदा बच्चों को मिल रहा है. करन सिंह बताते हैं कि गणित हमेशा से ही कठिन विषय रहा है पर इस में एक दफा दिलचस्पी पैदा हो जाए तो बेहद सरल लगने लगता है. यही हाल जिंदगी का है. इसे आप कठिन समझेंगे तो यह वाकई कठिन हो जाएगी लेकिन सही फार्मूलों का इस्तेमाल करेंगे तो जिंदगी के सवालों को हल कर पाएंगे. करन सिंह की यह दार्शनिक सी बात सुन लगता नहीं कि वे कभी एक भयावह ऐक्सिडैंट से गुजरे हैं और निजी जिंदगी के कड़वे तजरबे भी उन के खाते में हैं. लेकिन उन के लिए भी गुजरे कल के कोई माने नहीं. आनंदधाम के कर्ताधर्ता जरूरतमंद गरीब बच्चों को उन के पास ट्यूशन पढ़ाने के लिए भेजते हैं. इसी में उन्हें अपनी और जिंदगी की सार्थकता लगती है. मूलतया धार जिले के रहने वाले करन सिंह बताते हैं कि बुढ़ापे में खुद को असुरक्षित महसूस करना एक स्वाभाविक बात है. अब परिवारों की संरचना बदल रही है. वृद्धों का पहले सा मानसम्मान और पूछपरख नहीं रह गई है. इस की वजहें भी हैं. परिवार जिस तेजी से एकल हो रहे हैं उस का खमियाजा वृद्धों को ही नहीं, बल्कि बच्चों को भी भुगतना पड़ रहा है. हम किसी एक पीढ़ी को ही दोष नहीं दे सकते. हां, इतना जरूर है कि जरूरतें इतनी न बढ़ाई जाएं कि उन्हें पूरा करतेकरते जिंदगी दुश्वार और अपने पराए लगने लगें.
सेवा से सुकून मिलता है
आनंदधाम की एक युवा सदस्य हैं अर्चना निकोसे. उन के हिस्से में बुजुर्गों की सेवा का काम आया है. सुबह 11 से ले कर शाम 6 बजे तक अर्चना इन बुजुर्गों के पास चक्कर लगाते रहती हैं. हालांकि कभीकभी उन्हें खीझ भी होती है लेकिन आखिरकार सुकून ही मिलता है. अर्चना बताती हैं, ‘‘सेवा करना अपनेआप में चुनौतीपूर्ण काम है, खासतौर से बुजर्गों की, जो खास आदतों के गुलाम होते हैं. लेकिन आनंदधाम के बुजुर्गों का प्यार व स्नेह मुझे मिलता है तो मैं सारी थकान और तनाव भूल जाती हूं.’’ आनंदधाम कार्यालय के प्रभारी राम धाड़कर बताते हैं कि बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं. हम इन की नहीं, ये हमारी जरूरत हैं, यह सोच लिया जाए तो फिर कोई समस्या नहीं रह जाती.
–भारत भूषण श्रीवास्तव
बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील रहें
— रमेश कुमार माहेश्वरी, अध्यक्ष, आनंदधाम, भोपाल
सेवा भारती द्वारा संचालित आनंदधाम के अध्यक्ष रमेश कुमार माहेश्वरी से जब आनंदधाम में जिंदगी की शाम गुजार रहे बुजुर्गों के बारे में चर्चा की गई तो उन्होंने घरपरिवार से तिरस्कृत मांबाप के लिए आसरा बनते जा रहे वृद्धाश्रमों पर चिंता जाहिर की. भारतीय संस्कृति की मजबूत नींव संयुक्त परिवार की कल्पना को गएकल की बात मानते वे कहते हैं कि जो मातापिता जीवन की सारी पूंजी और खुशियां बच्चों की परवरिश व उन का भविष्य संवारने में लगा देते हैं उन के प्रति संतानों का अपनी जिम्मेदारी से भागना अच्छा संकेत तो कतई नहीं. रमेश माहेश्वरी आधुनिकता के दौर को गलत नहीं ठहराते लेकिन वे कहते हैं कि इस की शर्त अगर बुजुर्गों को वृद्धाश्रमों में भेजना है तो इस से सहमत नहीं हुआ जा सकता.
सेवा भारती का संकल्प दोहराते हुए वे बताते हैं कि हमारी कोशिश निराश्रित वरिष्ठजनों की निस्वार्थ सेवा करना है और हर मुमकिन कोशिश यह है कि हम उन्हें घर जैसा माहौल दे पाएं. बुजुर्गों के मनोरंजन के लिए और बेहतर तरीके से वक्त गुजारने केलिए सेवा भारती द्वारा लगातार तरहतरह के आयोजन इसी मकसद से किए जाते हैं. बुजुर्गों के प्रति पनपती संवदेनहीनता के बारे में वे कहते हैं कि इस बारे में स्पष्ट राय कायम कर पाना मुश्किल है लेकिन यह जरूर तय है कि बुजुर्गों को उन के किए का प्रतिदान नहीं मिल रहा है. क्या वजह है कि कुछ संतानें मांबाप को घर से निकाल देने में परहेज नहीं करतीं और आनंदधाम में आने वाले ऐसे युवाओं की भी कमी नहीं जो बुजुर्गों से सहानुभूति रखते हर तरह का सहयोग करने को तत्पर रहते हैं. कुछ तो अपने नन्हे बच्चों को सिर्फ इसलिए लाते हैं कि वे देख सकें कि नानानानी, दादादादी कैसे होेते होंगे. यह युवा पीढ़ी को सोचना चाहिए कि उन पर आश्रित वृद्ध भार नहीं, बल्कि उन के प्रति उन के पास आभार व्यक्त करने का अच्छा अवसर है.