8 जुलाई को मुठभेड़ में मारे गए हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के परिवार में मातम पसरा हुआ है. पुलवामा के दादसरा गांव में हायर सैकंडरी स्कूल में प्रिंसिपल रहे उस के वृद्ध पिता मुजफ्फर अहमद वानी, मां मैमूना, बहन इरम और भाई नवेद आलम का बुरा हाल है. एक तो परिवार के सदस्य की मौत और ऊपर से समूचे जम्मूकश्मीर राज्य में मौत के बाद फैली हिंसा से यह परिवार बेहद सदमे में है. पढे़लिखे वानी परिवार पर आतंकवाद, अलगाववाद समर्थक का कलंक चस्पा है. 23 साल के बुरहान वानी की मां मैमूना मुजफ्फर भी विज्ञान में पोस्टग्रेजुएट हैं. वे अपने गांव में कुरआन पढ़ाती थीं. इसे घरपरिवार में मिले धार्मिक संस्कार कहें या कुछ और, बुरहान 2010 में घर से भाग गया और 15 साल की उम्र में आतंकी बन गया. पढ़ाई में टौपर और क्रिकेट के शौकीन बुरहान ने हिंसा का रास्ता पकड़ा तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा. मांबाप उस के लौट आने की बाट जोहते रहे पर वह 2011 में हिजबुल मुजाहिदीन का सदस्य बना और फिर पूरे संगठन की बागडोर अपने हाथों में ले ली.

वह सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने लगा और पढ़ेलिखे युवाओं को आतंकी संगठन में भरती करने लगा. बुरहान का परिवार हमेशा उस के हिंसा के रास्ते पर चले जाने से खुद को असुरक्षित, ग्लानि, अफसोस, दुखदर्द, ताने सहने पर बेबस महसूस करता रहा. बुरहान का एक भाई खालिद पहले ही 2015 में भारतीय सेना द्वारा मारा गया था. इतने दुखों के बावजूद इस परिवार को मजहब का सहारा है.

सदमे में परिवार

पिछले साल उत्तर प्रदेश के दादरी में हिंदू गुंडों की हिंसक भीड़ द्वारा गाय का मांस रखने के शक में मारे गए अखलाक का परिवार दरदर की ठोकरें खाने को मजबूर है. 52 साल के अखलाक की बूढ़ी मां असगरी बेगम, पत्नी इकराम, भाई जान मोहम्मद, 22 साल का छोटा बेटा दानिश, बड़ा बेटा सरताज और बेटी साजिदा हर दिन खौफ व चिंता में गुजार रहे हैं . 28 सितंबर, 2015 को रात को साढ़े 10 बजे थे. रात का खाना खा कर अखलाक, उस की बूढ़ी मां, पत्नी और बेटा दानिश सोए ही थे कि अचानक घर के अंदर भीड़ घुस आई. दानिश को भीड़ ने पीटना शुरू कर दिया. बूढ़ी मां व पत्नी को पीटा गया और अखलाक को तो इतना बुरी तरह मारा गया कि उस की मौत हो गई. इस परिवार पर आरोप लगाया गया कि उस के घर में गाय का मांस रखा है. दानिश 4 दिन तक अस्पताल के आईसीयू में दाखिल रहा. बाद में परिवार के सदस्य कई दिनों तक गायब रहे. अखलाक को खोने के बाद यह परिवार ताजिंदगी खौफ से उबर नहीं पाएगा.

इसी तरह बारामूला जिले के सोपोर के दुआफगाह गांव के रहने वाले अफजल गुरु का परिवार बदहाल है. जवान पत्नी तबस्सुम, बेटा गालिब, पिता हबीबुल्लाह, मां आयशा बेगम बेटे की आतंकी के तौर पर गिरफ्तारी से ले कर फांसी की सजा दिए जाने तक और उस के बाद भी तिलतिल कर जी रहे हैं. 2001 में भारतीय संसद पर हमले के आरोपी 43 साल के अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2013 में फांसी की सजा दी गई थी. वह जैशे मोहम्मद का समर्थक था. उस पर हत्या, षड्यंत्र, हथियार रखने और देश के विरुद्ध हमले के आरोप थे. कश्मीर की आजादी के नाम पर वह जिहाद के लिए प्रेरित हुआ था. दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक और फिर फार्मास्युटिकल कंपनी में एरिया मैनेजर के तौर पर नौकरी करने वाले अफजल ने 1998 में बारामूला की तबस्सुम से शादी की थी. तबस्सुम फांसी पर चढ़ाए गए आतंकी की पत्नी का दाग जीतेजी कभी नहीं धो पाएगी. समाज में रह कर बेटे गालिब को पालना उस के लिए दूभर है. अफजल के मांबाप का भी हाल बेहाल है.

मजे की बात है कि फांसी की सजा के फैसले पर अफजल ने अपने परिवार वालों से कहा था कि वह खुदा का शुक्रगुजार है कि उसे बलिदान के लिए चुना गया. जब उस ने अपने मांबाप से फांसी पर चढ़ते वक्त यह कहा कि तबस्सुम और गालिब का खयाल रखना तो मांबाप का दिल दहाड़े मार उठा था.

पलायन का दर्द

1989-90 में जम्मूकश्मीर में हिंसा के बाद हजारों कश्मीरी पंडितों का घाटी से सामूहिक पलायन शुरू हुआ और वे अब तक मारेमारे फिर रहे हैं. जगहजगह कश्मीरी पंडित परिवारों का दुख और गुस्सा दिखता है. उस दौर में 50 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडित घाटी छोड़ने पर मजबूर हुए थे. अपना घर, अपनी जमीन, रिश्ते, नाते, जुड़ाव, लगाव टूटने का दर्द हजारों परिवार आज तक भुगत रहे हैं. जम्मू की रहने वाली 26 साल की रौली कौल पैदा भी नहीं हुई थी कि उस के मांबाप को अपना घर छोड़ कर जम्मू में एक कमरे के घर में आ कर पनाह लेनी पड़ी थी. यहां एक कमरे में 10 लोग रहने पर मजबूर हैं. खानेपीने, सोने, उठनेबैठने से ले कर हर तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है. रौली के मांबाप अपनी जमीन, अपना घर छूटने के दुख में चल बसे और बेटी मांबाप की मौत के बाद अकेलेपन की जिंदगी गुजार रही है. भाई शादी कर के अलग घर में चला गया. रौली के दूसरे रिश्तेदार उस के मददगार बने हुए हैं.

फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा कश्मीरी पंडित हैं. वे अपने उस वक्त को याद करते हुए कहते हैं कि मेरा घर लूट लिया गया. मेरी मां को रातोंरात घर छोड़ना पड़ा, मेरे भाई पर चाकू से हमला हुआ. इस परिवार के लिए जिंदगी आज भी एक दुस्वप्न की तरह है. सेवानिवृत्त अधिकारी जी एल दफ्तरी कश्मीर की यादों को अपने भीतर समेटे हुए हैं लेकिन पलायन के दर्द को भूले नहीं हैं. उन के और उन की पत्नी के लिए वहां की यादें, संस्कार, विश्वास सबकुछ है पर निजी कंपनी में काम करने वाले उन के बेटे को उन के दुखदर्द के बारे में सोचने का वक्त ही नहीं है. वे घाटी में वापस लौटना चाहते हैं पर हर रोज हो रहा खूनखराबा उन्हें विचलित कर देता है. दफ्तरी परिवार को सुरक्षा व निश्चिंतता के अलावा आर्थिक गारंटी भी चाहिए.

उजड़ते घरौंदे

धर्म के नाम पर भेदभाव, छुआछूत, अनाचार झेल रहे दलितों की दशा भी दयनीय है. दलित परिवार खुद को न समाज से जोड़ पाता है, न इस देश से. दलित स्कूल, नौकरी, कामधंधा जैसी जगह पर उपेक्षित रहता है. वह अपनी पीड़ा किसी से कह भी नहीं पाता. हरियाणा के गोहाना और मिर्चपुर में दलितों के दर्जनों घर दबंगों ने जला दिए थे. लूटपाट की गई. ये परिवार उन जगहों से उजड़ गए. मारेमारे फिर रहे हैं. हाल में उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान में दलितों पर अत्याचार की घटनाओं ने उन के परिवारों की दुर्दशा को उजागर किया है. पीडि़त दलित परिवार जलालत की जिंदगी गुजरबसर कर रहे हैं. गुजरात के ऊना में पिटाई से घायल हुए दलित लड़कों के परिवारों की रातों की नींद गायब है. इन परिवारों को ऊंची जातियों की ओर से कोई इज्जत नहीं दी जाती.

ये भारतीय परिवारों की त्रासदी के ही किस्से नहीं हैं, विश्वभर में आतंकवाद से पीडि़त परिवारों की बदहाली से समूची दुनिया विचलित है. पेरिस में 2 बेटियों की मां हाना का आईएस हमले में पैर टूट गया. पति 2 साल पहले हार्टअटैक से मर गए थे. बेटियों का भरणपोषण करने वाली वह अकेली है. अब बेटियों की जिम्मेदारी हाना के लिए मुसीबत बन गई. परिवार में और किसी का सहारा नहीं है. अपंगता ने इस परिवार का जीवन दूभर बना दिया है. आर्थिक परेशानियां मुंहबाए खड़ी हैं. सैकड़ों यजीदी महिलाओं का बोको हरम द्वारा अपहरण और उन के बलात्कार किए जाने की घटनाओं से उन के परिवारों पर क्या बीत रही होगी, सोचा जा सकता है. काहिरा में अलकायदा के हमले में मारी गई 17 साल की सेसिल वन्नियर के मांबाप न्याय के लिए दरदर भटक रहे हैं. सेसिल अपने मांबाप की इकलौती संतान थी और फ्रांस से छात्रों के एक ग्रुप के साथ घूमने गई थी. इस हमले में 24 अन्य छात्रछात्राएं घायल हो गए थे. इन में से कई अब जिंदगीभर के लिए अपंग बन गए हैं. सेसिल की मां कैथरीन वन्नियर और दूसरे बच्चों की मांएं जीवनभर का दुख झेलने को मजबूर हैं. पेरिस स्थित अपने घर में सेसिल के पिता जीन लक बेटी की मौत के बाद सदम से डिप्रैशन में हैं.

29 साल की हाली ग्राहम ने पेरिस हमले में अपने मांबाप को खो दिया. मां लीजा ग्राहम और पिता लिंडसे ग्राहम की मौत के बाद अकेलेपन ने बेटी को तोड़ दिया है. मांबाप की रिक्तता इस जवान बेटी के लिए सब से बड़ी त्रासदी है. इस दुनिया से उस का मन अब उचट गया है. पिछले एकडेढ़ दशक में लाखों परिवार अपनों को खो कर, बिछड़ कर अमेरिका, ब्रिटेन, जरमनी, इटली के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. अपनों की मृत्यु, बिछोह का दर्द लिए बचा जीवन जीने पर मजबूर हैं. हजारों नहीं, लाखों उदाहरण ऐसे परिवारों के हैं जो दुनियाभर में हो रहे आतंकी हमलों के शिकार हैं. ये दुखदर्द के सैलाब में डूबे हुए हैं. अकेले सीरियाई जंग में 4 लाख 70 हजार से ज्यादा सीरियाई लोग मारे जा चुके हैं. लाखों को अपना घरबार छोड़ कर भागना पड़ा है.

कट्टरता का बोलबाला

जुलाई माह में तुर्की में तख्तापलट की कोशिश, अमेरिका में श्वेतअश्वेत हमले, फ्रांस के नीस शहर में ट्रक सवार के हमले में सैकड़ों परिवारों पर कहर टूट पड़ा. नीस में राष्ट्रीय दिवस मना रहे लोगों पर आईएस के आतंकवादी ने ट्रक चढ़ा कर 130 लोगों को मौत के घाट उतार दिया. 250 लोग घायल हो कर अपंग बन गए. फ्रांस में यह तीसरा बड़ा हमला था. इस से पहले 13 नवंबर, 2015 को पेरिस में आईएस ने बम धमाकों से 140 लोगों को मार दिया था. इस से पहले पेरिस में ही मशहूर कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो के दफ्तर में हुए हमले में 12 लोग मारे गए थे. तुर्की में धार्मिक कट्टर लोगों द्वारा राष्ट्रपति के खिलाफ किए गए तख्तापलट के प्रयास में 300 से ज्यादा लोगों की जानें चली गईं और 1,500 लोग घायल हो कर अस्पतालों में पड़े हैं. 80 हजार लोग जेलों में बंद हैं. इस घटना के लिए अमेरिका के पैंसिलवेनिया में निर्वासित जीवन बिता रहे उदार मुसलिम धर्मप्रचारक हेतुल्ला गुलेन को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. कहा जा रहा है कि सेना की वरदी में गुलेन समर्थकों ने विद्रोह को अंजाम दिया है. गुलेन इमाम रहते हुए इसलाम का प्रचार करता था. उस ने हिजमत नाम का आंदोलन शुरू किया था. 100 से ज्यादा देशों में उस का करीब 1 हजार स्कूलों का नैटवर्क है. लाखों परिवार उस के अनुयायी हैं.

नस्लीय हिंसा

अमेरिका में नस्लीय हिंसा पुरानी है. पर धर्म की मुहर लगी है और चर्च के इशारे पर चलती है. वहां 2 अश्वेतों की पुलिस गोली से मौत के बाद हिंसक प्रदर्शन हो रहा है. टैक्सास के डलास शहर में 5 पुलिसकर्मियों को मार डाला गया. पहला मामला 5 जुलाई का है. लुइसियाना में पुलिस ने एल्टन स्टर्लिंग नाम के अश्वेत को रोका. पुलिस को उस पर हथियार रखने का शक था. कहासुनी और हाथापाई के बाद 37 साल के एल्टन को पुलिस वालों ने जमीन पर गिरा दिया और उसे कई गोलियां मारीं. एल्टन की मौके पर ही मौत हो गई. दूसरा मामला 6 जुलाई को हुआ. मिनेसोरा में फिलांडो केस्टिले अपनी महिला मित्र के साथ कार में था. पुलिस ने उसे ड्राइविंग लाइसैंस के लिए रोका. पर पुलिस का कहना है कि उसे लगा कि वह बंदूक निकाल रहा है, सो पुलिस ने उसे गोली मार दी. उस की महिला मित्र लेविश रेनोल्डस ने पूरी घटना का वीडियो बना लिया था. इस वीडियो के वायरल होते ही विरोध प्रदर्शन तेज हो गया. फिलांडो की हत्या के बाद उस का परिवार बेहद दुखी है और गर्लफ्रैंड का भविष्य अंधकार में चला गया. उस पर मुसीबतें टूट पड़ी हैं.

अमेरिका में ज्यादातर राज्य धार्मिक नस्लीय हिंसा की चपेट में हैं. पिछले 5 वर्षों में ईसाई और मुसलिम नफरत में करीब 16 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. पिछले साल 250 से अधिक अश्वेत मारे गए. इस साल अब तक 123 अश्वेत नस्लीय हिंसा की भेंट चढ़ गए. यह धार्मिकद्वेष है जो विभिन्न पंथों, धर्मों के बीच सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा है. अमेरिका में हेट ग्रुप बढ़ते जा रहे हैं. 2014 में इन की संख्या 784 थी. पिछले साल 100 से अधिक नए हेट ग्रुप बने और इस समय इन की तादाद 900 के करीब है. ये हेट ग्रुप श्वेतों द्वारा अश्वेतों के खिलाफ चलाए जा रहे हैं. अश्वेतों के अलावा 42 फीसदी अरब देशों के मुसलमानों के खिलाफ ग्रुप की संख्या बढ़ी है. 2012 के आंकड़े बताते हैं कि अफगानिस्तान में 2,632, इराक 2,436, पाकिस्तान 1,848, नाइजीरिया 1,386, सीरिया 657, यमन 365, सोमालिया 323, भारत 233, थाईलैंड 174 और फिलीपींस में 109 मौतें आतंकवाद से हुईं. भारत की बात करें तो 1974 से 2004 तक 4,018 आतंकी वारदातें हुईं जिन में 12,500 लोग मारे गए. भारत 162 देशों में शीर्ष 100 आतंक प्रभावित देशों में छठे नंबर पर है. पाकिस्तान चौथे स्थान पर है.

भटकते युवा

आतंकवादी संगठनों की मुख्य ताकत युवा हैं. संगठनों ने युवाओं को धर्म का पाठ पढ़ा कर इंसानियत के खिलाफ हथियार उठाने के लिए तैयार कर लिया है. दुनियाभर में इन की भरती का अभियान चल रहा है. औनलाइन भरती चालू है. गैरमुसलिम देशों के मुसलमान युवकों को इंटरनैट के जरिए गुमराह कर के संगठनों में शामिल कराया जा रहा है और उन के परिवारों को मोटी रकम दी जा रही है. मुसलिम युवा आसानी से इन के झांसे में आ रहे हैं. दरअसल, शताब्दियों से दुनिया धर्मयुद्धों से जूझती रही है. आतंकवाद की जड़ धर्म है. विश्वभर में धर्म के नाम पर जो हिंसा, मारकाट हो रही है उस के लिए व्यक्ति, परिवार को निर्दोष बता कर पल्ला नहीं झाड़ सकते. आतंकवाद के लिए परिवार भी दोषी है. हर परिवार किसी न किसी धर्म से जुड़ा हुआ है. वह एक धर्म के प्रति पक्षपाती है. धर्मगुरु, प्रचारक परिवारों को धर्म के प्रति ब्रेनवाश करने में कामयाब हो रहे हैं. वे वेद को ईश्वरीय वाणी बताते हैं. वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय आज्ञा बता कर छुआछूत, भेदभाव, अत्याचार किया जाता रहा. गरीबी, भुखमरी, पिछड़ेपन को पूर्वजन्मों के कर्मों का फल बता कर प्रमाणित ठहराया गया.

उधर, जिहाद को अल्लाह का हुक्म करार दिया गया. धार्मिक किताबों में काफिर को मार देना जायज ठहराया गया. धर्म के लिए जान देने वालों को सीधे जन्नत मिलने और वहां खूबसूरत हूरें मिलने का लालच दिया गया. इस तरह की बातों में लोगों को भरोसा दिलाने में पंडेपुजारी, पादरी, मुल्लामौलवी कामयाब रहे हैं. परिवार धार्मिक संगठनों पर पूरा भरोसा करते हैं. उन्हें चंदा, दानदक्षिणा देते हैं. लोग अपनेअपने धर्म के संगठन के साथ भावनात्मक तौर पर जुड़े दिखाई देते हैं. उन के नाजायज काम पर या तो चुप रहते हैं या खुल कर समर्थन करते सुनाई देते हैं.

परिवार धार्मिक स्थलों पर अपने स्वार्थ के लिए यानी मांगने जाते हैं. धर्मस्थलों पर कलह, दुर्दशा, हिंसा धर्म को मानने वाले परिवारों की वजह से है. ये स्थल भेदभाव के गढ़ हैं. ये केवल कर्मकांड के माध्यम बने हुए हैं. यहां बराबरी नहीं है यानी जीवन की कोई नई दिशा देने के साधन नहीं हैं, फिर भी परिवारों द्वारा इन्हें महत्ता दी जाती है. जाति, धर्म के नाम पर भेदभाव, छुआछूत, हिंसा भी आतंकवाद का रूप है. जातीय श्रेष्ठता, ऊंचनीच की भावना और उस के अनुरूप सामाजिक व्यवहार आतंकवाद ही है.

आतंक और धर्म

अकसर कहा जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता. असल में आतंकवाद का पर्याय ही धर्म है. आतंक धर्म की पैदाइश है. इराक, सीरिया, लीबिया, मिस्र, सूडान, रूस, अल्जीरिया, यमन, ब्रुसैल्स लगभग पूरे मध्यपूर्व में आतंक और रक्तपात के पीछे धर्म ही है. जानलेवा धर्म को प्रश्रय आम लोग ही दे रहे हैं. धार्मिक ग्रंथों में हिंसा, वैरभाव की सीख भरी पड़ी है. ये वो किताबें हैं जिन्हें लोग दिनरात पूजते हैं. हर परिवार इन किताबों को अपनी जिंदगी में आत्मसात किए बैठा है. बातबात में इन के उदाहरण दिए जाते हैं. गुरु, प्रवचक इन्हीं किताबों के किस्से, कहानियां अपने भक्तों को सुना कर हिंसा, भेदभाव, विघटन जैसी बुराइयों को पुख्ता करते रहते हैं और समाज, परिवार इन से सहमत होता है. यानी परिवार हिंसा, भेदभाव को प्रश्रय देने के जिम्मेदार हैं. विदेशों में रह रहे परिवारों की बात करें तो वे अपनीअपनी अलग धार्मिक पहचान बना कर रखते हैं. मुसलिम अपनी अलग पहचान रखता है. हिंदू, ईसाई, सिख यानी हर धर्म के लोग अलग पहचाने जाते हैं. इस वजह से घृणा, हिंसा पनपती है.

बढ़ती नास्तिकता

सवाल है कि क्या समाज, परिवार बिना किसी धर्म के रह नहीं सकता? रह सकता है. यूरोप में 40 फीसदी लोग बिना किसी धर्म और ईश्वर के रह रहे हैं. अच्छी तरह से रह रहे हैं. बिना धर्म के वे सुखी, संपन्न, सचाई, ईमानदारी से रह रहे हैं. धर्म का प्रभाव उन में न के बराबर है. न ईश्वरीय सत्ता में विश्वास है, न रुचि है. यह संतोष की बात है कि यूरोप के चर्च बंद होने लगे हैं, बिक रहे हैं या किराए पर उठ रहे हैं. कई स्थानों पर तो होटल, रेस्टोरैंट और नाइटक्लब तक खुल गए हैं. क्योंकि वहां चर्चों में आय बंद हो गई है. लोगों ने जाना छोड़ दिया है. उन की धर्म और आस्था में कोई रुचि नहीं है. वे इस पर अपना समय, धन और ऊर्जा नष्ट नहीं करते. पर दूसरी तरफ यह सच है कि अशिक्षित और गरीब देशों, समाजों, परिवारों में धर्म और आस्था का बोलबाला है. वजह यह है कि इन लोगों को धर्म और ईश्वर के नाम पर बहलाना अधिक आसान है. यूरोप में पुनर्जागरण, आंदोलन के बाद और शिक्षा की वजह से हुआ है.

यूरोप में नास्तिकों की संख्या बढ़ती जा रही है. भारत व अन्य देशों में हालात उलटे हैं. आंकड़े बता रहे हैं कि भारत में स्कूलों से ज्यादा मंदिर, मसजिद बढ़ते जा रहे हैं. भारत के महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में नास्तिक जरूर बढ़ रहे हैं क्योंकि इन राज्यों में धार्मिक व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन हुए और नास्तिक बनने वाले वे लोग हैं जो धर्म से पीडि़त रहे हैं. आज निधर्मी समाज की जरूरत है. निधर्मी व्यक्ति या परिवार निष्पक्ष, अधार्मिक स्वार्थरहित, लोकतांत्रिक, उदार, मानवीय, सहनशील, तरक्कीपसंद, वैज्ञानिक सोच का समर्थक होता है. वह तंग खयाल से दूर रहता है. दूसरी ओर धार्मिक व्यक्ति हर जगह स्वार्थ, लालच, पक्षपाती दृष्टिकोण से ओतप्रोत रहता है. व्यक्ति, परिवार की सोच धर्म व ईश्वर रहित यानी वैज्ञानिक होगी तो विश्व में आतंक, हिंसा बहुत हद तक कम हो जाएगी. आज हर देश पर धर्म का ठप्पा है. एक भी देश निधर्मी नहीं है. अगर भारत निधर्मी होता तो क्या 1947 में विभाजन होता? लाखों लोगों का कत्लेआम होता? परिवार बिखरते? 1984 का सिख दंगा होता? परिवार टूटते? जम्मूकश्मीर में लोग मारे जाते? कश्मीरी पंडितों के परिवार पलायन का दर्द भोगते? इस के अलावा क्या इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, मिस्र, सूडान जैसे देश बरबाद होते? लाखों शरणार्थी परिवार इधरउधर भटकते?

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