दीवाली अपनों के साथ मनाया जाने वाला त्योहार है. आमतौर पर अपने परिवार के साथ रह रहे बच्चों के लिए दीवाली का मतलब एक महीने पहले से ही मम्मी के साथ मिलकर घर की सफाई करना, शौपिंग जाना, गिफ्ट्स खरीदना, घर सजाना और दीवाली के दिन त्योहार मना अगले दिन से पहली जैसी दिनचर्या अपना लेना ही है. लेकिन, उन बच्चों के लिए जो होस्टल से मीलों का सफर तय कर घर सिर्फ दीवाली मनाने पहुंचते हैं, दीवाली सिर्फ एक त्योहार नहीं है. यह उन की यादें हैं, जज्बात हैं, प्यार है अपने परिवार के लिए जो इस त्योहार को और खास बना देता है.
दिल्ली में हर साल कितने ही बच्चे अलगअलग शहरों से पढ़ने या नौकरी करने आते हैं. यहां उन के लिए सबकुछ होता है पर उन का परिवार और बचपन के वे दोस्त नहीं होते जिन के साथ हर साल वे दीवाली मनाते आए हैं. यही कारण है कि पूरे साल वे अपने घर जाएं या न जाएं लेकिन दीवाली में जरूर जाते हैं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ रहीं कशिश बताती हैं, ‘‘होस्टल से घर जाने में मुझे सब से बढ़ी दिक्कत लगती है कपड़े पैक करने की. अलमारी से निकालो, कपड़े सिलैक्ट करो फिर पैक करो, बड़ी झंझट है. सब से ज्यादा टेंशन वाला काम है होस्टल से पर्मिशन लेना. पहले तो वो दस तरह के फोर्म साइन कराते हैं. उस के बाद पैरेंट्स की आईडी से मेल भेजनी पड़ती है. उस के बाद होस्टल से निकलते टाइम पैरेंट्स से बात करवानी पड़ती है वार्डेन की. फिर एक एंट्री होस्टल के गेट पर और एक कालेज के गेट पर करनी होती है. इन सब के बाद कालेज से निकलो तो छुट्टियों के चलते कोई रिक्शा नहीं मिलता. या तो अपने सारे सामान के साथ खड़े रहो या रोड क्रोस कर के जाओ ग्रामीण सेवा लेने जो कभी खाली नहीं होती. जैसेतैसे मेट्रो तक पहुंचो तो इतना भारी सामान उठाओ और स्क्रीनिंग पर डालो. कभी फोन गिर रहा होता है तो कभी हैंडबैग. और गलती से फोन बैग में डाल कर भूल जाओ तो समझो मिनी हार्टअटैक आतेआते रह जाता है.
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“वैसे तो मैं घर फ्लाइट से आतीजाती हूं लेकिन दीवाली के समय फ्लाइट काफी एक्सपेनसिव हो जाती है दिल्ली से लखनऊ की. फ्लाइट में वैसे तो वक्त बच जाता है लेकिन सामान थोड़ा सा भी ज्यादा हो तो दिक्कत होती है. ट्रेन से जाने पर कम से कम 9 से 10 घंटे का समय लग ही जाता है. जब में फर्स्ट ईयर में थी तो मैं पहली बार दिल्ली से लखनऊ अकेली जा रही थी, क्योंकि एडमिशन के टाइम पर तो मम्मी आई थीं साथ और उस के बाद मैं सीधा दीवाली पर ही जा रही थी. मेरी ट्रेन पूरे 6 घंटे लेट थी. उस का टाइम था शाम 7 बजे पहुंचने का पर मैं पहुंची रात डेढ़ बजे. मम्मीपापा तो बहुत परेशान हो गए थे. 11 से एक बजे तक वो ट्रेन हिली ही नहीं अपनी जगह से और स्टेशन तक पहुंचने में 4 किलोमीटर बाकी थे. मुझे लगा ये थोड़ा सा डिस्टेंस तो मैं कवर कर ही लुंगी. तो बस मैं निकाल गई. खाना मैं साथ बस एक टाइम का लाई थी वो भी मेस वाले भैया से प्लीजप्लीज बोल कर जो बहुत पहले ही खत्म हो चुका था. हालत हद से ज्यादा खराब हो गई थी, पर फिर स्टेशन पर मम्मीपापा का चेहरा देखा तो मैं सब भूल गई.”
विडियोग्राफर के तौर पर नौकरी कर रहे नीलेश अपने कालेज के दिनों को याद करते हुए दीवाली के दौरान की अपनी होस्टल टू होम जर्नी याद करते हुए बताते हैं, “कालेज का पहला साल था. घर भोपाल में था और सारे दोस्त भी वहीं थे. यहां काफी अकेला महसूस होता है. क्लासेस शुरू होने के बाद से ही मैं इंतेजार कर रहा था कि कब दीवाली की छुट्टी मिले और मैं घर जाऊं. मुझे उस समय ट्रैवल करना आता नहीं था, तो मुझे पता नहीं था कि खुद को सामान के साथ कैसे मैनेज करना है. मैं ने तो घर में किसी को बताया भी नहीं था कि मैं आ रहा हूं. मैं ने ओवर स्मार्ट बनते हुए पहले ही कौल कर के बोल दिया था कि मैं नहीं आऊंगा इस बार क्योंकि पढ़ाई का प्रैशर बहुत ज्यादा है.
“मैं ने भोपाल जाने के लिए ट्रेन की टिकट बुक की. मैं ने अपने टाइम को मैनेज करने के लिए एक चार्ट बनाया कि दो दिनों में किसकिस से मिलना है, क्या करना है क्या नहीं, बस यही सब. मैं रेलवे स्टेशन के लिए होस्टल से निकला और कैब में बैठा. कैब में बैठने के कुछ देर बाद ही कैब पंचर हो गई. मुझे आधे घंटे के रास्ते पर 2 घंटे लगे क्योंकि जब मैं कैब से उतरा तो सामने जो औटो मुझे मिला उस रोड पर, उस की सीएनजी खत्म हो गई थी. उन्होंने मुझे कहा कि रास्ता बस 2 किलोमीटर का ही है तो तुम पैदल ही चले जाओ. आगे ट्रैफिक बहुत ज्यादा था तो कोई और औटो मिल भी नहीं रहा था.
“मैं 2 किलोमीटर तक पैदलपैदल चला और जैसे ही स्टेशन तक पहुंचा तो ट्रेन बस निकलने ही वाली थी. यह देख कर मैं ने अपना सामान अपने सिर पर उठाया और मैं दौढ़ा. मैं ने अपना सामान अंदर की तरफ फेंका और चढ़ गया. मेरा कोच था बी 2 और चढ़ मैं एस 1 में गया था. फिर धीरेधीरे अंदरअंदर से होते हुए मैं अपनी सीट पर पहुंचा. अब मैं होस्टल में रहता था तो सफर के लिए खाना पैक कर के देने वाला कोई नहीं था. लेकिन, जिस डब्बे में मैं था उस में बैठे अंकलआंटी ने मेरे साथ अपना खाना शेयर किया. मेरे 12 घंटे इस के बाद के काफी अच्छे गुजरे. मैं आसपास बैठे लोगों से बातें करने लगा. थोड़ी देर सोया भी और अगली सुबह घर पहुंचा. मैं ने गेट खटखटाया और जब मम्मी ने मुझे देखा तो उन के चेहरे पर जो खुशी थी वो मेरे लिए प्राइजलेस थी. मेरे लिए यह दीवाली पिछली सभी दीवालियों से बहुत ज्यादा खास थी.”
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कालेज के मिड सेमेस्टर ब्रेक में जहां एग्जाम की टेंशन से सब बच्चे परेशान रहते हैं वहीं होस्टल से घर जाने वाले बच्चों के सिर पर तो परेशानियों का पहाड़ गिर पड़ता है. ईशान हर साल दीवाली के समय होस्टल से अपने घर गुवाहाटी जाता है. वह अपना एक्सपीरियंस शेयर करते हुए बताता है, “घर से दूर रहने पर घर की अहमियत मालूम पड़ती है. दीवाली के समय घर पर अलग ही रौनक होती है तो मन करता है कि सभी चीजों का हिस्सा बनूं. मुझे घर जाने से पहले कालेज का सारा काम निबटा लेना पड़ता है क्योंकि दो या तीन दिन की ही छुट्टी मिलती है. फ़्रेंड्स के साथ के कई प्लांस कैन्सल करने पड़ते हैं. एग्जाम के लिए पहले से पढ़ना पड़ता है. मम्मीपापा फोन करते हैं तो बताते रहते हैं कि तेरे लिए यह खरीद कर रखा है या वो खरीद कर रखा है. अब तो बोलना भी नहीं पड़ता जैसे बचपन में बोलना पड़ता था. खाना भी बनता है तो मेरी पसंद का. घर जा कर लगता है कि हम फिर से बच्चे बन चुके हैं. यहां दिल्ली में ऐसा फील होता है कि हम बहुत बड़े हैं लेकिन घर जा कर बिलकुल अलग लगता है. हां, दीवाली में फ्लाइट की टिकट महंगी जरूर होती है और सोचना पड़ता है कि घर जाऊं कि नहीं, 10,000 कम नहीं होते, ये वर्थी है या नहीं. लेकिन, घर जाने की खुशी के आगे सब छोटा लगने लगता है. दो दिन में भी घर पर अच्छा लगता है. अपने शहर में कदम रख कर एक अलग ही एहसास होता है. हर तरफ दीवाली की चमक होती है.”
कुछ ऐसी ही होती है हास्टल वालों की दीवाली जहां उन के लिए दीवाली सिर्फ दो दिन का त्योहार ही नहीं बल्कि 12-15 घंटों का सफर भी है जिस की थकान और तकलीफ घरवालों के साथ दीवाली मनाने की खुशी के नीचे दब जाती है.